Monday, March 29, 2010

प्यासी पौड़ी अर्थात तपते-सूखते पहाडों की पीडा

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25 मार्च 2010 को पूरे बीस साल बाद मैं पौड़ी (गढ़वाल) में था। सन् 1988 में युवा और जोशीले पत्रकार उमेश डोभाल की हत्या के बाद पत्रकारों-संस्कृतिकर्मियों-समाजसेवियों के लम्बे संघर्ष से अपराधी कटघरे में आने लगे थे और 25 मार्च 1990 को उत्तराखण्ड के पत्रकारों ने पहला उमेश डोभाल स्मृति समारोह पौड़ी में आयोजित किया था। उसी समारोह में शामिल होने मैं चंद पत्रकार मित्रों के साथ तब पहली बार पौड़ी गया था, लेकिन मैं उमेश डोभाल या पत्रकारों के सरोकारों के बारे में लिखने नहीं जा रहा। यहाँ मैं बिल्कुल दूसरी ही चिन्ता में आपको शामिल करना चाहता हूँ।

25 मार्च 1990 को जब हम कोटद्वार से दोगड्डा, सतपुली होते हुए पौड़ी पहुँचे थे तो खिली धूप के बावजूद दोपहर में अच्छी ठण्ड थी। सड़क के नीम-अंधेरे कोनों, छायादार घाटियों में कुछ दिन पहले गिरी बर्फ तब भी जमी थी और हवा में उसका तीखापन मौजूद था। पौड़ी से हिमालय की हिमाच्छादित चोटियों की लम्बी श्रृंखला ताजा गिरी बर्फ से चमक रही थी। वर्तमान में उत्तर-प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती के प्रमुख सचिव शैलेष कृष्ण तब पौड़ी के जिलाधिकारी थे और लखनऊ के पत्रकार मित्रों से उनका अच्छा परिचय था। सो, उन्होंने हमें अगली सुबह चाय-नाश्ते के लिए आमंत्रित किया था। पौड़ी के जिलाधिकारी की कोठी शहर से काफी ऊँचाई पर है। जब हम सुबह करीब नौ बजे उनके घर पहुँचे तो पूरी कोठी की ढलुवा छत पर जमी बर्फ पिघलकर लगातार टपक रही थी। हम एक तरफ छत पर जमी बर्फ देखकर रोमांचित हो रहे थे तो दूसरी तरफ हिमालय की विशाल श्रृंखला हमें सम्मोहित कर रही थी। जाहिर है, जिलाधिकारी की कोठी सबसे मनोरम स्थान पर बनाई गई है। तब हम दो दिन पौड़ी में रहे थे और हर वक्त अच्छे गर्म कपड़े पहनने पड़े थे।

25 मार्च 2010 को भी हम लखनऊ से पर्याप्त गर्म कपड़े लेकर पौड़ी पहुँचे लेकिन सुबह-शाम को थोड़ी देर हल्के हाफ-स्वेटर के अलावा कुछ गर्म पहनने की जरूरत नहीं पड़ी। कई साथियों ने तो कोई भी गर्म कपड़ा नहीं पहना। वे टी-शर्ट और कमीज में आराम से थे। दिन में तो बाकायदा गर्मी महसूस हो रही थी। पौड़ी में बर्फ पड़ने का कोई नामोनिशान नहीं था। लोगों ने बताया कि मार्च छोड़िये, दिसंबर-जनवरी में भी बर्फ नहीं गिरी। दरअसल, अब वहाँ हिमपात बहुत कम होता है। पहले दो फुट तक बर्फ गिरना आम बात थी। इस बार हिमालय की बर्फीली चोटियों के दर्शन भी नहीं हुए। पर्वत श्रृंखलाओं पर धुंध की मोटी परत छाई हुई थी और हिम-शिखर भी उसी में ओझल थे। यह धुंध व्यापक है और बराबर बनी हुई है। चौकोड़ी, गोपेश्वर और नागनाथ-पोखरी की यात्रा से तभी लौटे शेखर पाठक ने बताया कि हिमालय के दर्शन कहीं से नहीं हो रहे। पहले ऐसी धुंध मई-जून के महीनों में ही पड़ती थी। फिर भी अक्सर सुबह-शाम हिमालय दिख जाता था। लेकिन अब पर्वत शिखरों पर धुंध की मोटी पर्त फरवरी-मार्च और अक्टूबर के महीनों में भी छाने लगी है, जबकि इन महीनों में हिमालय सबसे निर्मल और खिला-खिला दिखा करता था।

इस बार पौड़ी में पेयजल संकट की विकरालता से सामना हुआ। पीने के पानी का संकट अब लगभग सभी पहाड़ी शहरों को खूब सताने लगा है। पौड़ी में जगह-जगह हैण्डपम्प लगे हैं और दो-दो महिलाएँ उन्हें पूरे जोर से चलाती दिखीं जबकि वे बहुत कम पानी दे रहे थे। गोविन्द ने मजेदार किंतु त्रासद बात बताई। पौड़ी के ढाबों में पीने के लिए पानी मांगिए तो छोटी केतली सामने रख दी जाएगी। आप केतली से पानी की धार मुँह में डालिए और प्यास बुझाइए। न तो जरा भी पानी बरबाद होगा और न ही जूठा गिलास धोने में पानी जाया करना पड़ेगा। वैसे, केतली से पानी देने का चलन और कई जगहों में भी है। कोई संयोग नहीं कि इस बार के उमेश डोभाल स्मृति समारोह में चर्चा के दो विषयों में एक ‘पानी का संकट’ ही था।

26 मार्च की सुबह हम खिरसू गए। पौड़ी से 17 किमी दूर मनोरम स्थल। हिमालय तो खैर धुंध के मारे नहीं ही दिखना था, सेब के बगीचों के लिए कभी मशहूर रहे खिरसू में सेब का एक भी पेड़ नहीं मिला। चाय का ढाबा चला रहे युवक ललित ने बताया कि मेरे बच्चे सेब का पेड़ पहचानते तक नहीं। सेब के बगीचे कब के उजड़ गए। कारण? अब गर्मी बढ़ गई है और बर्फ लगभग नहीं पड़ती। हम सिर्फ अफसोस कर सकते थे। अलबत्ता पौड़ी से खिरसू का रास्ता घने बाँज-बुरांश वन से गुजरता है। ऐसे घने जंगल कम ही मिलते हैं। हवा अद्भुत रूप से ताजी और विविध खुशबुओं से भरी थी। सड़क के दोनों तरफ खूब बुरांश खिला था। बड़े-बड़े लाल-सुर्ख फूलों से लदे पेड़। मुझे बचपन में सुना लोकगीत याद आ गया-‘पारा भीड़ा बुरूंशी फुली रै, मींझे कूनूं मेरि हीरू ऐ रै।’ (सामने के वन में बुरांश फूले हैं और मुझे लगा जैसे कि मेरी हीरा वहाँ खड़ी हो!)

हमने गाड़ी रुकवाकर बुरांश के कुछ फूल तोड़े और उनकी पत्तियाँ चबाईं। बुरांश गुणकारी माना जाता है और अब उसके शर्बत का व्यवसाय उत्तराखण्ड में काफी होने लगा है। इस बार अच्छी बारिश न होने और बर्फ न पड़ने से बुरांश के फूल भी उतने रसीले और पुष्ट नहीं लगे। मगर पहाड़ में इस मौसम में बुरांश के फूल सम्मोहित करते हैं। हमारे साथी, पीयूसीएल, उत्तर प्रदेश के अध्यक्ष चितरंजन सिंह तो बुरांश के दो फूल लखनऊ तक लाए।

वापसी में हम लैंसडाउन रुके। चौतरफा ऊँची चोटियों के बीच अपेक्षाकृत छोटी पहाड़ी की पीठ पर बसा खूबसूरत लैंसडाउन भारतीय सेना में वीरता के लिए ख्यात गढ़वाल रायफल्स के मुख्यालय के लिए अंग्रेजों ने विशेष रूप से चुना था। इस छावनी क्षेत्र में बहुत कम सिविल आबादी है और इसीलिए अतिक्रमण से मुक्त भी। लैंसडाउन के बारे में बहुत सुना था। पहली बार देखा और तय किया कि फिर आऊंगा, कम से कम दो दिन यहाँ रहने। है ही इतनी प्यारी जगह। बाबा नागार्जुन को यह स्थान बहुत प्रिय था। इसके जयहरीखाल इलाके में वाचस्पति शर्मा के घर वे महीनों रहा करते थे। अब बाबा नागार्जुन तो रहे नहीं, वाचस्पति जी भी रिटायर होकर शायद बनारस चले गए। लैंसडाउन बाजार की कुछ दुकानों में अब भी बाबा को याद किया जाता है, जहाँ वे अक्सर चाय पीने बैठा करते थे।

हमें नजीबाबाद से लखनऊ के लिए ट्रेन पकड़नी थी। दोगड्डा आते-आते बहुत गर्मी लगने लगी। मार्च के महीने में पहाड़ जितने गर्म लगे, जिस तरह पौड़ी (जो नैनीताल के बराबर या ज्यादा ही ऊँचाई पर है) बर्फ और पानी को तरस रही है, जिस तरह हिमालय के शिखर वसंत में भी धुंध की मोटी पर्तों में खो गए हैं, वह पूरी यात्रा में हमारी चर्चा का विषय था और अब भी बना हुआ है। जितनी भी नदियाँ इस यात्रा में हमने देखी उनका सूखता पानी हमें भारी चिंता में डालता गया। सन् 2030 तक हिमालय के सम्पूर्ण गल जाने की गलत भविष्यवाणी करने के लिए डॉ. पचौरी की चाहे जितनी मलायत की गई हो, भारी गड़बड़ तो हो ही रही है। हमारे बचपन में किसी पहाड़ी शहर में पंखे या फ्रिज नहीं थे। आज नैनीताल-मसूरी में पर्यटक एसी कमरों की माँग करते हैं।

बीस साल में पौड़ी के बदलते मौसम का जो रूप हमने देखा वह डर पैदा करता है। आज से बीस वर्ष बाद क्या होगा?

Sunday, March 21, 2010

कैसे बचे और कहां चहके गौरैया



गौरैया को बचाने की एक पहल शुरू हुई है। 20 मार्च 2010 को पहली बार विश्व गौरैया दिवस मनाया गया। अच्छा है कि इस धरती पर और हमारे जीवन में गौरैया चहकती रहे। दरअसल गौरैया हमारी घरेलू चिड़िया है। हमारे घरों में और आस-पास ही रहती है, खिड़की और दरवाजे पर बैठकर चहकती है, आंगन में फुदकती है और चावल का दाना बीनने बड़े अधिकार से रसोई में चली आती है। वह हमारे देखते-देखते रोशनदान या आले या चौखट के कोटर में घोंसला बना लेती है और उसकी चहचहाहट हमारी दैनंदिन बातचीत में तानपूरे-सी शामिल रहती है।

लेकिन मैं ‘है’ क्यों कह रहा हूं? गौरैया भी अब लुप्तप्राय है। विरले ही दिखती है। मैं पिछले बाइस वर्षों से जिस तरह के मकानों में रह रहा हूं, उसमें गौरैया के लिए कोई जगह नहीं है । गौरैया बड़े पेड़ों पर नहीं रहती, जंगलों में भी नहीं। वह हमारे आस-पास रहना चाहती है और हमारे मकानों से धन्नियां, भीत, आले, छज्जे, कोटर, रोशनदान सब गायब हो गए। वह कहां घोंसला बनाए और कहां से हमारे जीवन में झांके!

बीती 29 जनवरी, 2010 को हमने ‘हिन्दुस्तान’ के इलाहाबाद संस्करण की वर्षगांठ मनाई थी। अगली सुबह थोड़ा समय मिलने पर मैं मशहूर कथाकार शेखर जोशी से मिलने चला गया। वे इलाहाबाद के लूकरगंज में टण्डन जी के हाते में रहते हैं- वर्षों से। उस दिन वहां कवि हरिश्चन्द्र पाण्डे भी मिल गए। हम लोग बातें कर ही रहे थे कि सहसा मुझे लगा, हमारी चर्चा में एक प्यारी चहचहाहट भी शामिल है। नजरें घुमाई तो बैठक और भीतर के कमरे के बीच वाले दरवाजे की चौखट में बन गए एक छोटे कोटर से गौरैया झांक रही थी। ‘अरे, गौरैया!’ मैं साहित्य चर्चा भूलकर पुलकित हो उठा। सच कहता हूं, मैंने उस दिन कई साल बाद गौरैया देखी। उसका पूरा परिवार वहां था- कोई दरवाजे पर, कोई खिड़की पर। तब मैंने मकान पर गौर किया। वह धन्नियों, आलों, रोशनदानों और आंगन वाला पुराना मकान है। पूरे हाते में बड़े-बड़े पेड़ हैं। गौरैया इतमीनान से उड़कर बाहर जाती है, अहाते में निश्चिन्त उड़ती है और जब मन किया खुले दरवाजों-खिड़कियों-रोशन दानों से भीतर चली आती है। मैं गौरैया देख पाने से बहुत उत्साहित हो गया था और शेखर जी मुझे बताने लगे कि यहां तो खूब चमगादड़ भी हैं जिन्हें घर के भीतर से बाहर भगाने के लिए हमने बैडमिण्टन का रैकेट रखा हुआ है। इलाहाबाद का वह ‘टण्डन जी का हाता’ अभी तो सरल हृदय मनुष्यों के साथ-साथ वृक्षों, वनस्पतियों, गौरैयों, चमगादड़ों और अन्य पक्षियों से गुलजार है। ‘विकास’ की अन्धी दौड़ में कभी वहां भी अपार्टमेण्ट जरूर बनेंगे और तब कैसे बचेगी और कहां चहकेगी गौरैया?

लखनऊ की जिस कैनाल-कालोनी में मैंने बचपन और जवानी के दो-ढाई दशक बिताए वह भी एक बड़ा हाता था। कमरे में खिड़की थी, रोशनदान भी और आंगन भी। चारों तरफ पेड़ थे। नीम, अमरूद और छोटी झाड़ियां भी। गौरैया निस्संकोच वहां आती-जाती-रहती थीं। हम पढ़ते या सोते होते तो वह धीरे से रोशनदान से चहकती-जैसे कुछ कह रही हो। वह हमारी रसोई में चावल का बिखरा दाना उठाने ऐसे आती जैसे उस पर उसी का नाम लिखा हो। बचपन में हमने खिड़की-दरवाजे-रोशनदान बन्द करके तौलिये से गौरैया पकड़ी हैं और स्याही या स्कूल के कलर-बॉक्स से उनके पंख रंगे हैं। मुहल्ले भर के बच्चे मिलकर यह खेल-खेलते थे। हर बच्चा अपनी गौरैया अलग रंग से रंगता और फिर उन्हें छोड़ दिया जाता। उनके पंखों का रंग कई दिन तक मेरी-तेरी-उसकी गौरैया की पहचान बनकर हमारे आस-पास मंडराता रहता। कुछ बच्चे गौरैया के पैर में पतंग का धागा बांधकर उड़ाते मगर वे बड़ों से खूब डांट खाते। यह खेल क्रूर माना जाता था।

घरों के भीतर गौरैया की स्वच्छन्द उड़ान पर पहला हमला बिजली के पंखों ने किया। कैनाल कालोनी वाले हमारे क्वार्टर में 1973 तक बिजली नहीं थी, लेकिन जब हम बिजली वाले मकान में रहने गए तो तेज रफ्तार पंखे से टकराकर गौरैया घायल होने लगीं। ‘थच्च’ की आवाज आती और तड़पती गौरैया कमरे के फर्श पर पड़ी होती। सारा घर विचलित हो जाता। कमरे में उड़ती गौरैया देखकर घर के सभी लोग पंखा बन्द करने दौड़ते। अक्सर, हवा के झौंके के साथ रोशनदान से गौरैया का पूरा घोंसला नीचे आ गिरता। कभी अण्डे फूट जाते और कभी मासूम-लिजलिजे-पंखविहीन बच्चे को नीचे गिरा देखकर गौरैया चीं-चीं-चीं कर पूरा घर सिर पर उठा लेती। कभी झाड़ू लगाने में चीटियों की कतार गौरैया के मरे बच्चे का पता बताती। गौरैया के दुख में घर-भर शामिल होता।

प्रकृति से, प्रकृति की सुन्दर रचनाओं से, जीव-जन्तुओं से मनुष्य का यह साझा अब नहीं रहा।

हाते पट गए, पेड़ कट गए, पुराने घर-आंगन तोड़कर अपार्टमेण्ट बन गए। एसी, वगैरह ने रोशनदानों की जरूरत खत्म कर दी और खिड़की-दरवाजे सदा बन्द रखने की अनेक मजबूरियां निकल आईं। कीटनाशकों-उर्वरकों ने कीट-पतंगों और पक्षियों पर रासायनिक हमला बोल दिया। प्रकृति से दूर होते जाते हमारे जीवन से बहुत कुछ बाहर चला गया। गौरैया भी।

अब यह सब सिर्फ यादों में है। मेरे बच्चे गौरैया को नहीं पहचानते। उनके बचपन में गौरैया का खेल और चहचहाना शामिल नहीं रहा। नीची छतों और आंगन विहीन घरों में गौरैया नहीं आती। बहुमंजिला अपार्टमेण्ट्स के आधुनिक फ्लैटों में गौरैया की जगह नहीं और इन फ्लैटों के बिना हमारा ‘विकास’ नहीं।

गौरैया को बचाने की, घरों में उसे लौटा लाने की नेक और मासूम पहल का साधुवाद। लेकिन गौरैया की चीं-चीं-चीं किस खिड़की, किस रोशनदान, किस आंगन और किसी धन्नी से हमारे घर में लौटेगी?