Tuesday, May 24, 2011

और जो 90% से नीचे रह गए वे नाकाम हुए?

-‘बच्चे का रिजल्ट कैसा रहा?’ हमने एक साथी से फोन पर पूछा।
-‘अरे, यार..। ’ उनकी आवाज में अफसोस था- ‘89%..। थोड़ा और मेहनत करता तो..। 89 परसेण्ट पर भी एक पिता का यह निराशा भरा स्वर हमें भीतर तक हिला गया। हमने उन्हें घर जाकर बधाई दी। बच्चे को एक किताब उपहार में दी। लेकिन उस परिवार के चेहरों से मलाल नहीं गया।

तब से हम लगातार सोच रहे हैं, जो बच्चे 90 परसेण्ट से नीचे रह जाते हैं, क्या वे कमतर हैं? वे योग्य और प्रतिभाशाली नहीं हैं? 100 में 88 या 85 या 80 नंबर भी क्या कम होते हैं? नहीं, 80 नंबर भी बहुत होते हैं लेकिन हमारे चारों तरफ हो क्या रहा है?

सीआईसीएसई की 10वीं व 12वीं और सीबीएसई की 12वीं का रिजल्ट आ चुका है। यूपी बोर्ड का जल्दी ही आने वाला है। रिजल्ट आते ही स्कूल, कोचिंग और पूरा मीडिया टॉपर बच्चों को ढूंढने लगते हैं। 98%..97%..96% वालों के उल्लासित चेहरे अखबारों और टीवी स्क्रीन पर छाए रहते हैं। स्कूलों से लेकर घरों तक कैमरे और पत्रकार दौड़ते हैं। माता-पिता, भाई-बहन और टीचर तक के इण्टरव्यू छप रहे हैं- ‘वह 10-12 घण्टे पढ़ता था..हमने टीवी ही हटा दिया था..’ वगैरह। अखबारों में टॉपर बच्चों के फोटो छापने की होड़ मचती है। रिजल्ट के पहले दिन तो 94% वालों को भी अखबार में जगह नहीं मिल पाती। 90% वालों को फोटो छपवाने के लिए कई दिन इंतजार करना पड़ता है..।

ऐसे में 89 परसेण्ट नंबर लाने वाले बच्चे के माता-पिता का चेहरा लटकेगा ही। स्कूलों में और माता-पिताओं में यह कैसी अंधी दौड़ मची है? बच्चों पर इसका क्या असर पड़ रहा है? स्कूल बच्चों को पढ़ा रहे हैं या उनका दिमाग नंबरों के सांचे में ढाल रहे हैं?

सीआईसीएसई बोर्ड अपने टॉपर घोषित नहीं करता लेकिन हम मीडिया वाले उसे भी खोज लाए। सीबीएसई ने परसेण्टेज का सिस्टम ही खत्म करके ग्रेडिंग व्यवस्था शुरू कर दी। फिर भी टॉपर बच्चों की ढुँढाई मचती है। यूपी बोर्ड ने मेरिट लिस्ट जारी करना बन्द कर दिया। मगर स्कूल हैं, कोचिंग संस्थान हैं और मीडिया है कि टॉपर बच्चों की अपनी-अपनी लिस्ट जारी करते रहते हैं। 90% ऐसी सीमा रेखा बना दी गई है कि उसके पार वाले ही प्रतिभाशाली है। उनकी सफलता का सौदा करने के लिए स्कूल और कोचिंग संस्थान दुकानें खोले खड़े हैं। इसलिए 90% से नीचे मायूसी विचरती है। यह बेहद खतरनाक प्रवृत्ति है।

सच यह है कि 10वीं और 12वीं कक्षाओं के नंबर जीवन की सफलता-विफलता तय नहीं करते। 95-98 परसेण्ट नंबर लाने वाले ही आगे चलकर कॅरिअर के शिखर पर नहीं चढ़ते। सच तो इसके उलट है। जीवन में बड़ी सफलताएं आम तौर पर वे ही अर्जित करते हैं जो स्कूल में 90% से नीचे नंबर पाए होते हैं। अपने चारों तरफ शीर्ष पर विराजमान लोगों को देख लीजिए, उनकी आत्मकथाएं पढ़ लीजिए। नारायणमूर्ति से अजीम प्रेमजी तक, अमिताभ बच्चन से लेकर रतन टाटा तक, वारेन बूफे से लेकर मार्क जुकरबर्ग तक, डॉ. एपीजे कलाम से लेकर खुशवंत सिंह तक..। बहुत लंबी सूची मिलेगी जो औसत विद्यार्थी रहे या कम से कम अपने समय के स्कूल टॉपर नहीं रहे, लेकिन लगन और मेहनत से सफलता ने उनके कदम चूमे।

अपवाद जरूर होंगे, लेकिन आम तौर पर पाया गया है कि 95-98% नंबर पाने वालों में ‘रट्टू’ ज्यादा होते हैं। पढ़ाई के तनाव, कोर्स ही की किताबों और ट्यूशनों में उनका बचपन और कैशोर्य बंधुआ बनकर रह जाता है। वे हमेशा परसेण्टेज मेण्टेन करने के दवाब में रहते हैं। उनके व्यक्तित्व का सहज विकास नहीं हो पाता और अक्सर वे 10वीं-12वीं के बाद जबरन बनाए गए शिखर से लुढ़कते चले जाते हैं। आईआईटी-आईआईएम से लेकर विविध शिक्षा संस्थानों के छात्रों में आत्महत्या और अवसाद के बढ़ते जा रहे किस्से खुद गवाह हैं। इसके विपरीत 75 या 80-85 प्रतिशत नंबर लाने वाले बच्चों स्कूली पढ़ाई के साथ-साथ जीवन के विविध अध्याय भी पढ़ रहे होते हैं। वे अपेक्षाकृ त व्वाहारिक होते हैं ।

अपने स्कूली दौर में हम 34 फीसदी नंबर में पास हो जाते थे। 60 फीसदी में फर्स्ट डिवीजन और 75 परसेण्ट में डिस्टिंक्शन मिलते थे जो बहुत कम बच्चों के हिस्से आते थे। 50-55 फीसदी के आस-पास नंबर पाने पर खूब खुशी होती थी। तब पढ़ाई इतना बड़ा धन्धा नहीं बनी थी। उसमें सुख, संतोष और व्यावहारिक ज्ञान थे।

हमारा आशय टॉपर बच्चों की उपलब्धियों को नकारना नहीं है। उन्हें बहुत-बहुत बधाई। लेकिन 80-85 परसेण्ट अंक लाकर भी प्रतिभाशाली नहीं माने जा रहे बच्चों और उनके अभिभावकों को हताशा और दवाब में आने की कतई जरूरत नहीं। उनके लिए सभी सुन्दर राहें खुली पड़ी हैं।

-नवीन जोशी

Tuesday, May 17, 2011

गरमी की छुट्टियां

आज रात अपनी यह कविता उसने मुझे फोन पर सुनाई जिसके लिए मैं कभी कभार, उसके बचपन में, कवितानुमा कुछ लिख दिया करता था. यूं कविताएं उसने पहले भी लिखी हैं, लेकिन मेरे ब्‍लॉग में उसकी यह पहली ही है. मजा यह कि मेरे लिए य‍ह ब्‍लाग भी उसी ने बनाया था,सन 2006 में ...नवीन जो‍शी

हर्ष जोशी

लो, एक और मई आ गई

उबलती दोपहर और उमस भरी रातें
वैसी ही हैं लेकिन
गरमी का मौसम अब बदल चुका है

अब खिडकी ही से देख सकता हूँ छुटि्टयों की कुनमुन
गली में क्रिकेट खेलते
आउट और नो बॉल का हुड्दंग मचाते बच्‍चों को
साइकिल पर रेस लगाती खिलखिलाती लड़कियों को
स्‍कूल कैम्पिंग से लौट कर आती हुई बस की खिडकी से मुँह चिढाता
बेसुरे गाने गाता हुआ बचपन
मुझे टैफिक सिगनल पर छेडता है
वापस आओगे ?

कैसे जा सकता है कोई पलट कर
अब जबकि हम ऑफिस के ए सी में कैद हैं
और उस पुराने खुर्राट कूलर का गुर्राना
और खस की खुसबू वाले पानी की छींक
बहुत पीछे छूट गए हैं
अब जब दोपहर का काटना कोई खास मायने नहीं रखता
क्‍योंकि न किसी फुटबॉल, कैरम बोर्ड
या पुरानी कॉमिक्‍स उधार पर देने वाले उस अधेड आदमी को हमारा इंतजार है
अच्‍छे आम तो दूर इस शहर में कच्‍चे आम भी मुश्किल से मिलते हैं

पसीना अब निकलता है तो खुशी नहीं होती
हर बूंद सवाल करती है मैं क्‍यों निकली
और हवा में मौजूद दहक से मैं पूछता हूँ
क्‍या तुम मुझे फिर वैसे नहीं छू सकती
हॉं, किसी दुर्लभ छुट्टी में
जो पहले सा नहीं रह गया
उस आलस के बगल में लेट कर सुनने की कोशिश करता हूँ तो
एक आवाज तरस खा लेती है मुझ पर
कबाडी वाला

वैसे, गर्मियां मुझे अब अच्‍छी नहीं लगतीं.

Monday, May 09, 2011

अण्णा हजारे को सलाम…लेकिन माजरा क्या है ?

भ्रष्टाचार के खिलाफ अण्णा ह्ज़ारे और सिविल सोसायटी के अनशन के पक्ष-विपक्ष में बहुत कुछ लिखा-पढा जा चुका है.नैनीताल समाचार के संपादक और अपने मित्र राजीव लोचन साह का यह लेख पूरे मामले को समर्थन या विरोध की नज़र से देखने की बज़ाय व्यापक संदर्भों में विश्लेषित करता है और कुछ बहुत ज़रूरी सवाल भी उठाता है. यहां कटघरे में मीडिया भी है. इन सवालों पर ज़्यादा से ज़्यादा विचार-बहस हो, इसीलिये यहां साभार प्रस्तुत करता हूं- नवीन जोशी


भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग का पहला चरण जीत लिया गया है…. जन लोकपाल विधेयक लाने के बारे में केन्द्र सरकार अण्णा हजारे की सारी माँगें मान चुकी है….. अब अगली लड़ाई जाने कब और कैसी होगी!

हम जनान्दोलनों से जले लोग हैं। अब जनता के उत्साह को भी फूँक-फूँक कर देखते हैं। 1994 में हमने बड़ी उम्मीद के बीच जनता के एक जबर्दस्त उभार के साथ दर्जनों लोगों के प्राणों का बलिदान दिया, मुजफ्फरनगर का अपमान झेला और एक राज्य प्राप्त किया। फिर जनता सो गई और उत्तराखंड देश के तमाम अन्य प्रदेशों जैसा ही भ्रष्ट, कुशासित और लूट-खसोट वाला राज्य बन गया।

5 अप्रेल को जब अण्णा हजारे ने अनशन शुरू किया, मैं देहरादून में था। मीडिया में अण्णा साहब के प्रस्तावित उपवास की चर्चा काफी पहले से ही शुरू हो गई थी। उस शाम देहरादून के गांधी पार्क में भी अण्णा के समर्थन में एक सभा का आयोजन था। मुझे चूँकि उसी वक्त वापस लौटना था, अतः उस सभा में शिरकत करना मेरे लिये सम्भव नहीं था। उस सभा की सूचना देने वाला जो बैनर दिखाई दिया, वह किसी ‘ओबेराय मोटर्स’ द्वारा प्रायोजित था। हमने देहरादून को सलाम किया, जहाँ सामान्यतः जनान्दोलनों से नाक भौं सिकोड़ने वाले और सामाजिक कर्म के नाम पर अपने आप को कथा-प्रवचनों तक सीमित रखने वाले व्यापारी भी भ्रष्टाचार मिटाने के लिये ‘सिविल सोसाइटी’ के साथ कंधे से कंधा मिला कर डट गये थे।

अब तक टी.वी. चैनल अण्णा हजारे के बारे में लगातार खबरें देने लगे थे। जहाँ-जहाँ टी.वी. स्क्रीन पर नजर पड़ी, अण्णा साहब की ही झलक दिखाई दी। महज एक दिन पहले जो इलैक्ट्रॉनिक मीडिया ‘वल्र्ड कप क्रिकेट’ में इंडिया की जीत का जयजयकार कर रहा था, वह एकाएक अण्णा पर कैसे फोकस हो गया, यह अपनी समझ में नहीं आया। हमने अण्णा हजारे के बारे में ‘नैनीताल समाचार’ के 15 से 30 सितम्बर 1998 के अंक के मुखपन्ने पर ‘अण्णा हजारे की जगह जेल में ही है’ शीर्षक से एक टिप्पणी प्रकाशित की थी। तब महाराष्ट्र में भी अण्णा के बारे में गिने-चुने लोग ही जानते थे। अण्णा द्वारा भ्रष्टाचार का आरोप लगाये जाने पर महाराष्ट्र के समाज कल्याण मंत्री बबनराव घोलप ने उन पर मानहानि का मुकदमा कर दिया था। मजिस्ट्रेट एच. के. होलंगे पाटिल ने अण्णा साहब को पाँच हजार रु. का मुचलका भरने या तीन माह के लिये जेल जाने का विकल्प दिया था। अण्णा साहब पैसा न होने की मजबूरी जताते हुए जेल चले गये थे। तब अत्यन्त क्षोभ में हमने वह टिप्पणी लिखी थी। तब से आज तक अण्णा साहब सात-आठ बार उपवास कर चुके हैं। अब तक तो मीडिया ने अण्णा को घास नहीं डाली। अब एकाएक क्या हो गया है ? क्या हाल के महीनों में एक के बाद एक सामने आये घोटालों से जनता में बढ़ते असंतोष और ट्यूनीशिया तथा मिश्र में हुए सफल जन विद्रोह के बाद मीडिया ने इस घटना में टी.आर.पी. बढ़ने की पूरी सम्भावनायें टटोलीं और फिर ‘हाईप’ बना देने का फैसला किया ?

नैनीताल वापस पहुँचने पर एक के बाद एक अनेक फोन आये। सारे देश में, सब जगह कुछ न कुछ हो रहा है। सिर्फ नैनीताल में ही हम पिछड़ रहे हैं। क्या आप इस मामले में कुछ करने जा रहे हैं….. कोई कार्यक्रम इत्यादि ? …… मगर मैं स्पष्ट नहीं हो पा रहा था। इस ख्याल से कि सोचने के लिये कुछ वक्त मिल जायेगा और हो सकता है तब तक मामला सुलझ ही जाये, हमने रविवार की तिथि घोषित कर दी। हालाँकि इस बीच कुछ उत्साही युवक तल्लीताल डाँठ पर अण्णा के समर्थन में धरने पर बैठे भी। सचमुच शुक्रवार की शाम तक सुलह हो ही गई।

…..अब जबकि अण्णा हजारे जंतर मंतर से वापस अपने गाँव रालेगन सिद्धि पहुँच गये हैं, क्या यह चार-पाँच दिन का घटनाक्रम एक मीडिया प्रायोजित नाटक, जिसमें शहरी मध्य वर्ग की भावनाओं को अत्यन्त चतुरता से भुनाया गया, नहीं लग रहा है? क्या भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई एक उत्सव, एक पिकनिक की तरह हो सकती है ? इस तथाकथित ‘सिविल सोसाइटी’ में कितने लोगों को देश में चल रहे जमीनी संघर्ष, सरकार के दमन और जनता की अदम्य जिजीविषा के बारे में जानकारी है ?

यह स्थापित सत्य है कि मीडिया आज बहुत बड़ी ताकत है। जब सारे चैनल और अधिकांश अखबार एक सुर में कोई बात कहने लगते हैं तो सामान्य व्यक्ति में यह विवेक ही नहीं बचा रह पाता कि वह खुले दिमाग से सोच सके। सच तो यह है कि सामान्य व्यक्ति के पास जानकारियाँ ही नहीं होतीं। सूचना क्रांति के दौर में सूचनाओं का जबर्दस्त अकाल है। टी.वी. चैनलों पर निर्भर या दो-चार अखबार पढ़ कर देश-दुनिया के बारे में अपनी राय बनाने वाला व्यक्ति कैसे जाने कि मणिपुर में ईरोम शर्मिला चानू नामक एक औरत पिछले दस साल से लगातार ‘विशेष पुलिस अधिकार कानून’ के खिलाफ गांधीवादी तरीके से तरह से उपवास कर रही है? उसे क्या मालूम कि देश में माओवाद इसलिये पनप रहा है कि आर्थिक उदारीकरण के बाद छोटी-बड़ी, देशी-विदेशी कम्पनियों के लिये सरकार किसानों की जमीनें छीन रही है और अपनी जमीनें बचाने के लिये लड़ रहे लोगों के बीच माओवादियों को जड़ें जमाने का मौका मिलता है। फिर अपने ही नागरिकों का जनसंहार करने के लिये सरकार ‘ऑपरेशन ग्रीन हंट’ शुरू कर सेना या अर्द्धसैनिक बल भेजती है। झारखंड, छत्तीसगढ़, उड़ीसा आदि के आदिवासी क्षेत्रों में कॉरपोरेट सेक्टर द्वारा सरकारों के साथ मिल कर प्राकृतिक संसाधनों की यह लूट-खसोट बहुत ज्यादा है। हमारे उत्तराखंड में 500 से अधिक जल विद्युत परियोजनायें बन रही हैं, जिनमें से अधिकांश के विरोध में स्थानीय ग्रामीण लड़ रहे हैं। इनके बारे में मीडिया नहीं बताता या बताता भी है तो बेहद चलताऊ ढंग से। मंदाकिनी नदी पर बन रही परियोजना का विरोध करने वाले दो आन्दोलनकारी, सुशीला भंडारी और जगमोहन झिंक्वाण, अण्णा हजारे के उपवास शुरू करने से महज दो दिन पहले 60 दिन की कैद काट कर जेल से रिहा हुए थे। लेकिन यहाँ कुमाऊँ में अखबार पढ़ कर जानकारी हासिल करने वाले किसी पाठक को कानोंकान खबर भी नहीं हुई। खबर होती तो क्या पता कुछ उत्साही नौजवान उनके समर्थन में भी मोमबत्तियाँ जला कर हल्द्वानी की सड़कों पर निकल आते! जापान के फुकुशिमा परमाणु ऊर्जा संयंत्र में हुए विस्फोट के आलोक में देखें तो महाराष्ट्र, जहाँ के अण्णा हजारे रहने वाले हैं, के रत्नागिरि जिले के जैतापुर में बन रहे दुनिया के सबसे बड़े परमाणु ऊर्जा संयंत्र के खिलाफ चल रहे आन्दोलन को दबाने के लिये सरकार ने अघोषित आपातकाल लगा दिया है। वहाँ किसानों ने अपनी जमीन के मुआवजे के चैक लेने से इन्कार कर दिया तो उन्हें जेलों में डालना शुरू कर दिया गया। प्रेस काउंसिल के निवर्तमान अध्यक्ष न्यायमूर्ति पी.वी. सावंत वहाँ जन सुनवाई के लिये जाने लगे तो जिला प्रशासन ने उन्हें तत्काल जिले से बाहर खदेड़ दिया।

क्या आपने अपने अखबार में यह खबर पढ़ी ?

ऐसी घटनाओं की मीडिया लाईव तो क्या बासी कवरेज भी नहीं करता। फिर सामान्य व्यक्ति, टी.वी. चैनल का दर्शक या अखबार का पाठक, क्या जाने कि किस तरह बारूद के ढेर पर बैठा है यह देश, इसका लोकतंत्र ? वह तो अण्णा हजारे के उपवास को ही सामाजिक क्रांति मान लेगा!

दरअसल मीडिया कमाता है विज्ञापनों से और विज्ञापन मिलते हैं कॉरपोरेट घरानों से। बहुत से अखबार तो क़ॉरपोरेट घरानों द्वारा ही निकाले जाते हैं। फिर वह कॉरपोरेट षड़यंत्रों का भंडाफोड़ कर अपनी जड़ों में मठ्ठा क्यों डाले ? खुद इस मीडिया का अपना भ्रष्टाचार क्या कम है ? दो साल पहले लोकसभा चुनाव के दौरान ‘पेड न्यूज’ के मामले में मीडिया की इतनी थू-थू हुई कि प्रेस काउंसिल को उसकी जाँच करवानी पड़ी। साल भर से उस प्रकरण की जाँच रिपोर्ट बन कर तैयार है, लेकिन सार्वजनिक नहीं हो रही है। प्रेस काउंसिल में शामिल कॉरपोरेट अखबारों के प्रतिनिधि उसे सार्वजनिक होने ही नहीं दे रहे हैं। कॉमनवेल्थ खेलों में हुआ भ्रष्टाचार किसी अच्छी नीयत से उजागर नहीं हुआ। इसलिये उजागर हुआ कि सुरेश कलमाडी ने ‘टाईम्स ऑफ इंडिया’ की पेशकश को ठुकरा कर ‘हिन्दुस्तान टाईम्स’ को मीडिया पार्टनर बना दिया। बौखलाये टाईम्स ने कलमाडी की बखिया उखेड़ कर रख दी। उत्तराखंड में पिछली बरसात में तबाही हुई और केन्द्र से एक भारी भरकम राहत राशि प्रदेश सरकार को मिली तो यहाँ के बड़े दैनिकों में पैकेज झपटने की होड़ लग गई। कफनफरोश! नीरा राडिया प्रकरण में इस मीडिया और इसके कॉरपोरेट घरानों से अन्तर्सम्बन्ध बहुत साफ ढंग से सामने आये हैं। यही मीडिया ‘इंडिया अगेन्स्ट करप्शन’ में लोगों की अगुआई करता दिखाई दे रहा है। उसी की उछलकूद से अण्णा हजारे फरिश्ते जैसे दिखाई दे रहे हैं। अन्यथा इस देश में ऐसे लोग क्या कम हैं, जो सत्तर-अस्सी साल की उम्र में भी नौजवानों जैसे उत्साह से कॉरपोरेट गुलामी के खिलाफ लड़ रहे हैं….. रात-दिन देश के कोने-कोने में लोगों से बातचीत कर रहे हैं। उनके लिये इन अखबारों में सिंगल कॉलम की खबर छापने की जगह नहीं है। अण्णा साहब की नीयत चाहे जितनी साफ हो, संकल्प चाहे जितना बड़ा हो राजनैतिक समझ की इतनी कमी है कि नरेन्द्र मोदी के विकास के मॉडल को आदर्श बता दे रहे हैं।

भ्रष्टाचार भारतीय जीवन का अभिन्न हिस्सा बन गया है। जैसे बुग्यालों की स्वच्छ हवा में रहने के बाद किसी महानगर के प्रदूषित वातावरण में रहने पर महसूस होता है, वैसा ही किसी ईमानदार देश के नागरिक को भारत में आने पर लगता होगा। किसी चीज के लिये लाईन तोड़ने से लेकर छोटी-मोटी रिश्वत देना हमारे लिये सामान्य बात है। कई बार तो वह जरूरी भी हो जाता है। नौकरी पाने के लिये तो कितनी-कितनी घूस देनी पड़ती हैं। अब तो हम ईमानदारी पचा भी नहीं पाते। कभी कानून को सख्ती से लागू करवाने वाला कोई ईमानदार अधिकारी आ जाये तो उसका बोरिया-बिस्तर बँधवाने के लिये जरा भी देर नहीं करते। सब लोग एकजुट हो जाते हैं। हमारे लोकतंत्र की यह खामी दिनोंदिन बढ़ती रही है। नब्बे के दशक में आर्थिक उदारीकरण लागू होने के बाद तो इसने सारी सीमायें तोड़ दी हैं। अब तो कहीं भी देखो इतने ‘हजार करोड़’ से कम की बात ही नहीं होती। कॉरपोरेटों ने सरकारें, सांसद, विधायक सब खरीद लिये हैं। खुल कर भ्रष्टाचार फैलाने वाले ये कॉरपोरेट घराने तो लोकपाल बिल के दायरे में आ ही नहीं सकते। हम बिकने के लिये तैयार मंत्रियों और नौकरशाहों पर नकेल डालने की कोशिश कर सकते हैं, लेकिन उन्हें खरीदने वालों का क्या किया जायेगा ?

फिर भी लोकपाल बिल बनना चाहिये। उसका बनना बेहद जरूरी है। लेकिन कानून बनने मात्र से क्या होता है ? हजारों तो हमारे यहाँ कानून हैं, जो या तो लागू नहीं हो रहे हैं या उनका दुरुपयोग हो रहा है। कानून को सख्ती और ईमानदारी से लागू करने के लिये जिस इच्छाशक्ति की जरूरत होती है, उसका हमारे लोकतंत्र में पूरी तरह अभाव है। अभी डेढ़ महीने पहले पाउच में गुटखा बिकना प्रतिबंधित किया गया था, क्या वह सचमुच लागू हो गया? क्या सार्वजनिक स्थानों पर धूम्रपान रुक गया है? घरेलू हिंसा बन्द हो गई? हरिजन एक्ट या दहेज कानून क्या अपराधियों को दंडित करता है या फिर निर्दोषों को परेशान करता है? 2007 में आये वनाधिकार कानून से लाखों वनवासियों का जीवन बदल सकता था, लेकिन सरकारों ने उसे लागू करने में रुचि ही नहीं दिखाई। उससे पहले 73वें तथा 74वें संशोधन कानूनों में विकेन्द्रित शासन व्यवस्था लागू कर क्रांतिकारी परिवर्तन की तमाम संभावनायें थीं। उत्तराखंड में राज्य बनने के दस वर्ष बीत जाने पर भी पंचायती राज कानून अस्तित्व में ही नहीं आया है। वर्ष 2005 में सूचना का अधिकार कानून लागू होने वक्त ‘सिविल सोसाइटी’ में अत्यन्त उत्साह था। अण्णा हजारे उस कानून को लागू करवाने में भी अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर चुके हैं। लेकिन छः साल बाद उस कानून को लागू करने में अब ढीलापन आने लगा है। इस कानून को लेकर काम करने वाले सक्रिय कार्यकर्ताओं की हत्यायें शुरू हो गई हैं सो अलग। मानवाधिकार आयोग, महिला आयोग आदि तमाम आयोग अपनी विश्वसनीयता खो चुके हैं। तब इस बात की क्या गारण्टी है कि लोकपाल अपना काम यहाँ मुस्तैदी से करता रहेगा? लोकपाल भी तो एक प्रक्रिया के अन्तर्गत नियुक्त किया जायेगा। वह सत्ता से अपनी नजदीकियों के आधार पर ही नियुक्त होगा। जिस देश में एक ईमानदार न्यायाधीश दुर्लभ हो गया हो, वहाँ एक सुयोग्य लोकपाल ढूँढना असम्भव नहीं होगा क्या? अपराधियों की गिरफ्तारी के लिये पुलिस को मजबूर करने के लिये जनता को जिस तरह चक्काजाम कर दबाव बनाना पड़ता है, क्या उसी तरह हर बार जनता को सड़कों पर उतरना पड़ेगा कि लोकपाल फलाँ भ्रष्ट मंत्री या नौकरशाह के खिलाफ कार्रवाही करे।

इन तमाम जटिलताओं के मद्देनजर भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई एक पिकनिक जैसी कैसे हो सकती है? 1998 में जब बबनराव घोलप की मानहानि के सिलसिले में अण्णा साहब हजारे जेल जा रहे थे, तब घोलप के समर्थक अदालत के बाहर नारे लगा रहे थे, ‘घोलप तुम आगे बढ़ो, हम तुम्हारे साथ हैं।’ ऐसे चेहरे उस रोज जंतर-मंतर में भी दहाड़ रहे थे, ‘अण्णा तुम संघर्ष करो, हम तुम्हारे साथ हैं’ जब वह छोटी सी बच्ची अण्णा साहब को जूस पिला रही थी। यहाँ नैनीताल-अल्मोड़ा में तो वे थे ही। जनता के हित में अराजक ढंग से लड़ी जा रही किसी लड़ाई में ऐसे लोगों को अलग-थलग करना असम्भव सा होता है। कैमरों के आगे चेहरा दिखाने में वे सबसे आगे होते हैं।

मीडिया तो अपने पैसे बटोरने के लिये अब आई.पी.एल. की राह पर चल पड़ा है, लेकिन जो लोग अण्णा हजारे के अभियान के बहाने ईमानदारी से इस देश के हालात के बारे में सोचने लगे हैं, उन्हें अपनी समझ बढ़ानी होगी और अपने लड़ने की ताकत भी। अपने आसपास चल रहे जमीनी संघर्षों की पहचान करनी होगी और उनसे जुड़ना पड़ेगा। कोई भी ताकत जनता की ताकत से बड़ी नहीं होती। अण्णा हजारे प्रकरण में भी हमने यही देखा।
-राजीव लोचन साह,संपादक, नैनीताल समाचार.

Wednesday, May 04, 2011

गोल्ड कोस्ट- धूप नहाए पुरसुकून बीच






यह सचमुच आस्ट्रेलिया का सुनहरा तट है, एक और बहुत सुन्दर शहर। कोई 70 किमी. का विशाल समुद्री तट और साल में लगभग 300 दिन धूप से नहाए पुरसुकून बीच। दूर-दूर तक प्रशान्त महासागर का विस्तार। आसमान छूती अट्टालिकाएँ, जिनमें 77वीं मंजिल तक रिहायश वाले क्यू-1 टावर की 78वीं मंजिल से जो विराट और दिव्य दर्शन होते हैं तो पता चलता है कि इस शहर का नाम ‘गोल्ड कोस्ट’ क्यों पड़ा। 78वीं मंजिल की जिस खिड़की पर हम खड़े हैं उस पर लिखा है- ‘नजर की सीध में 16,083 किमी. दूर न्यूयार्क है’। वाह, क्या बात है!

एक तरफ गगनचुम्बी इमारतें और दूसरी तरफ अथाह जलराशि। धूप में नहाया समुद्र तट, सुनहरी रेत और ‘बीच-गार्डस’की सतर्क निगाहों की सुरक्षा में लहरों से खेलते सैलानी। हर साल एक करोड़ से ज्यादा पर्यटक गोल्ड कोस्ट आते हैं और उनमें भारतीयों की भी अच्छी खासी संख्या है। गोल्ड कोस्ट की सड़कों पर घूमते हुए हमें ‘शेर-ए-पंजब’, ‘इण्डियन फैमिली रेस्त्रां’, ‘ऊँ-इण्डिया हाउस’, ‘तन्दूरी हट’, ‘तन्दूरी प्लेस’ जैसे नाम-पट दिखाई देते हैं। ‘राज पैलेस’ में व्यास (पंजाब) से आई सिमी हमें खाना परोसती हैं तो उसकी लहराती लम्बी चोटी गोल्ड-कोस्ट में भारतीय ध्वज जैसी लहराती है। होटल के बाहर दीवार पर पोस्टर लगे हैं- ‘फॉर सेल’, निजी क्रूज की बिक्री की सूचना। सबसे सस्ता क्रूज चार मिलियन आस्ट्रेलियन डालर (करीब 20 करोड़ रु.) का है। हमारे स्थानीय साथी ग्रेग हमारे चौंकने पर हँसते हैं- ‘यहाँ आस्ट्रेलिया के सबसे अमीर लोग बसते हैं। शायद यह इसलिए भी गोल्ड-कोस्ट है!’

गोल्ड कोस्ट आने से पहले हम एक दिन ब्रिसबेन रुके थे, क्वींस लैण्ड प्रान्त की राजधानी, एक और खूबसूरत शहर, जहाँ इसी नाम की नदी शहर के बीच में बहती है जिस पर सिडनी हार्बर ब्रिज जैसी ऐतिहासिकता वाला स्टोन ब्रिज तो है ही, नदी के भीतर से गुजरने वाली टनल-रोड भी है। ब्रिसबन के इर्द-गिर्द बहुत से पर्यटक स्थल हैं लेकिन हमें करीब एक सौ किमी. दूर गोल्ड कोस्ट जाते हुए सिर्फ दो जगह रुकना था।

पहले आस्ट्रेलिया जू जिसके स्वस्थ्य पशु-पक्षियों, चुस्त कर्मचारियों और सनसनीखेज प्रदर्शनों को देखकर बरबस ही अपने अव्यवस्थित चिड़ियाघरों के मरियल जनवरों और बेहाल कर्मचारियों की याद हो आती है। लेकिन आस्ट्रेलिया जू का जिक्र होते ही सबसे पहले स्टीव इरविन याद आते हैं। सन् 2008 में ग्रेट बैरियर रीफ में शूटिंग के दौरान स्टिंग-रे के जहरीले दंश से स्टीव इरविंग की दर्दनाक मृत्यु नहीं हुई होती तो मार्च 2011 में आस्ट्रेलिया जू में हम उनसे मिलकर निश्चय ही गदगद होते। डिस्कवरी चैनल के जरिए अपने दुस्साहसिक कारनामों से विश्वविख्यात हुए स्टीव की मौत भारत में भी सुर्खियां बनी थी। आस्ट्रेलिया जू में हमें मगरमच्छों के साथ खेलते-हँसते स्टीव के पोस्टर ही पोस्टर दिखाई देते हैं। स्टीव की देखरेख में ही आस्ट्रेलिया जू को विश्वख्याति मिली, जहाँ आज भी उनके सहयोगी मगरमच्छों के साथ सनसनीखेज प्रदर्शन करते-कराते हैं।

गोल्ड कोस्ट के रास्ते का दूसरा पड़ाव था -ड्रीम लैण्ड, स्वप्न लोक जैसा ही। रहस्य-रोमांच और सनसनी से भरे मनोरंजन के एक से एक साधन। हम तो सिर्फ एक ‘टॉवर ऑफ टेरर’ का आनन्द लेकर ही आतंकित हो बैठे। जानते हैं क्या? खुली कारनुमा एक डिब्बा हमें ‘एल’ आकार की पटरी पर 160 किमी. प्रति घंटे की रफ्तार से 115 मीटर (38 मंजिल जितना ऊँचे) ऊपर ले गया, सिर्फ सात सेकण्ड में और उतनी ही तेजी से नीचे ले आया! हमारे मुँह से तो चीख भी न निकली थी। अब तक सोचकर सिहरन हो रही है, लेकिन वहाँ ऐसी कई सनसनियां थीं और उनका लुत्फ उठाते युवाओं की लम्बी कतारें लगीं हुई थीं।

बहरहाल, गोल्ड कोस्ट से हमारी वतन वापसी होती है।