Tuesday, August 14, 2012

देवियों और देवताओं में ठन गयी है -- 1

उत्तरकाशी की हाल की भीषण बाढ़ और विपदा का खौफनाक दृश्य टी वी दे पर्दे पर देख कर मित्र नासिरुद्दीन को 'दावानल' के उस अध्याय की याद आ गई जिसमें उत्तरकाशी की 1978 की और कुछ उस से भी पुरानी भीषण प्राकृतिक आपदाओं का वर्णन है. नासिर ने ही इस अध्याय को यूनिकोड में कनवर्ट करने मदद की. इसे दोहराने के दौरान मैं खुद आतंकित हो गया. जाहिर है कि हिमालय की बगावत जारी है तथा और भी भीषण होती जा रही है. पेश है वही चैप्टर-


       

त्तरकाशी। 1978
मानसून आने के साथ ही जोरदार बारिश शुरू हो गई थी। भागीरथी का पानी बहुत चढ़ा हुआ था। बड़े-बड़े पेड़ और विशाल पत्‍थर भागीरथी की उग्र धारा में तिनकों की तरह बहे आ रहे थे। बीच-बीच में कोई पेड़ या स्लीपर पानी की ऊंची उछलती लहरों से फेंका जाकर किनारे आ लगता तो बच्‍चे खुश होते। हर बारिश में भागीरथी अपने किनारे बसने वालों को इसी तरह लकड़ी भेंट करती आई है। इस साल खूब ही लकड़ी आ रही थी।
          - ‘इस बार तो पूरे गांव के चैन हो गए! दो-तीन बरस तक लकड़ी की इफरात- किसी ने कहा तो बुजुर्ग मातबर सिंह ने डांट लगा दी- ये लकड़ी नहीं है छोकरो! ये पहाड़ के हाड़-कणिक (हड्डी-कनकी) बग रहे हैं, हाड़-कणिक। ये सोचो कि ऐसे में कब तक जिंदा रहेगा पहाड़।' वृद्ध मातबर सिंह के माथे की लकीरें चिंता के मारे और गहरी हो गईं।
          भागीरथी का क्रुद्ध पानी कटती-बहती मिट्टी से लाल-भूरा हो रहा था। ताजे उखड़े-टूटे पेड़ों के विशाल तने भी लाल-लाल चमड़ी उधेड़े बह रहे थे।
          तो भागीरथी पहाड़ की हड्डियां ही नहीं, रक्त-मज्जा भी चाटकर अट्टहास कर रही थी!


          मगर यह क्‍या !
छह अगस्त की सुबह लोगों ने देखा भागीरथी का पानी गायब! चढ़ी हुई नदी की उग्र लहरों की जगह थोड़ा सा पानी बह रह था, एकदम शांत। वेगवती लहरों से दोनों किनारों में भारी कटाव के कारण चौड़ी हो गई खाई के बीच बिल्कुल पतली-सी धारा। टूटे-उखड़े पेड़, झाड़-झंखाड़ और विशाल पत्‍थर नदी मार्ग में ऐसे पड़े थे जैसे कोई और ही उन्‍हें वहां पहुंचा कर चुपचाप गायब हो गया हो।
          - ‘ये अनर्थ की निशानी है..। जाने क्‍या  होने वाला है इस बरस।बुजुर्गों ने आशंका से कहा।
          - ‘कहीं ऊपर नदी का पानी रुक गया है शायद...। कुछ अटक गया है भागीरथी के रास्ते में..., कोई पहाड़ गिर पड़ा होगा भरभराकर।
          - ‘ओ ब्‍वै(मां)! कितना पानी था गंगा में...। सब जमा हो रहा होगा..। जब टूटेगा तो क्‍या  होगा!स्थिति की कल्पना कर लोगों के होश उडऩे लगे।
          खबर आने में देर नहीं लगी। भारी-भारी चट्टानें खिसक कर नदी के रास्ते में आ पड़ी हैं। भागीरथी का प्रवाह अवरुद्ध हो गया है। नदी झील में तब्‍दील हो गई है। पानी जमा होता जा रहा है। खतरा! भारी खतरा!!
          भागो-भागो! नदी से जितना दूर हो सको। हो जाओ। ऊपर पहाड़ पर चढ़ जाओ। जानवरों को नदी किनारे से दूर हांको। पूरी उत्‍तरकाशी में हल्ला मच गया। दहशत फैल गई। लोग अपना माल-असबाब समेट कर ऊपर पहाड़ पर चढऩे लगे।
          नगर की सड़कों पर सरकार के सूचना विभाग की जीप दौडऩे लगी। जीप से ोषणा हो रही थी- पहाड़ का मलबा गिरने से गंगा जी अवरुद्ध हो गई हैं। पानी का बहाव रुक गया है। लेकिन बराने की बात नहीं है। लोग अफवाहें न फैलाएं और डर कर भागने की भी जरूरत नहीं। बस, बच्‍चों और जानवरों को नदी के किनारे न जाने दें।'
          लेकिन इस ोषणा का खास असर नहीं हुआ। एक तो सरकार के सूचना विभाग की सूचनाओं पर जनता को भरोसा नहीं था। दूसरे, खुद सरकारी अफसरों के रों का सामान उनके अधीनस्थ कर्मचारी लगातार पहाड़ पर ऊपर पहुंचा रहे थे। सबसे ज्‍यादा डरे हुए सरकारी अफसर ही लग रहे थे। उनकी बीवियां और बच्‍चे भी हाथों में सामान लिए जल्दी-जल्दी पहाड़ चढ़ रहे थे। उनके रों के गमले तक नौकरों के हाथों ऊपर भिजवाए जा रहे थे। यह देखकर जनता में और सनसनी फैल गई। लोग भाग-भाग कर र का सामान निकालने और जल्दी से जल्दी पहाड़ चढ़कर सुरक्षित ठिकाने पहुंचने की हड़बड़ी मचाने और चीखने-चिल्लाने लगे।
          थोड़ी देर में उत्‍तरकाशी खाली हो गई। सारी आबादी ऊपर पहाड़ पर जमा हो गई। सबकी नजरें नीचे भागीरथी पर लगी थीं। लगता था ऊपर बनी झील अब टूटी-तब टूटी और भरभरा कर ढलान पर छूटा पानी का रेला पूरी उत्‍तरकाशी को ही बहा ले जाएगा। झील की स्थिति जानने का कोई तरीका नहीं था। लोगों ने ट्रांजिस्टर खोल रखे थे लेकिन आकाशवाणी भागीरथी के बारे में मौन थी। ऊपर से आई एक जीप खबर लाई कि झील को विस्‍फोट से तोडऩे की योजना बन रही है। लोग और भी चौकन्‍ने हो गए।


          और तभी उन्‍होंने वह देखा।
          डर, दहशत और अचंभे से लोगों की आंखें फट पड़ीं। मुंह से आवाज नहीं निकली। पैर कांपने लगे। जिन्‍होंने पहले देखा, वे बमुश्किल इशारे से दूसरे को बता सके और जिसने भी उधर नजर ुमाई वह हतप्रभ रह गया।
          एक विकराल दानव अपना आकार बढ़ाते हुए, हर कदम पर रूप बदलते हुए, सैकड़ों हाथ-पैर इधर-उधर उछालते हुए, हजारों जीभें लपलपाते और भयानक गर्जना करते हुए भीषण वेग से भागीरथी के मार्ग पर बढ़ा चला आ रहा है। उसके रास्ते में जो कुछ पड़ता है- पेड़, पत्‍थर, पहाड़- सबको ढहाते-उखाड़ते तिनकों की तरह वह अपने विशाल उदर में समाता जा रहा है। जहां-तहां खाल उधेड़ी लाल-लाल लकड़ियां उस विकराल दानव के आगे-आगे ऐसे बेतरतीब लुढ़क रही थीं जैसे उसकी अनगिन जिह्वाएं पहाड़ों का रक्त चाटते हुए आ रही हों। किसी पहाड़ी मोड़ या चट्टान के सामने आने पर वह दानव तनिक ठहरता, जैसे चुनौती दे रहे शत्रु की ताकत तोल रहा हो। फिर चंद पल बाद पहले से भी भयानक गर्जना करते और ाटी से आकाश तक हिलाते हुए वह अपने मार्ग की बाधा को समूल उदरस्थ कर जाता। विशालकाय पेड़ और चट्टानें उसके भंवरनुमा पेट में तिनकों व फूलों की मानिंद नाच रही थीं। गाय-भैसों के शव चीटियों जैसे कभी-कभार नजर आ जाते। आदमी की क्‍या  बिसात थी वहां! आदमी के बनाए पुलों के गर्डर और मकानों की छतों पर छाई टीनें जरूर वहां चमक रही थीं।
          ऊपर पहाड़ी पर जमा भीड़ ने थरथराते हुए यह भयानक दृश्य देखा और धीरे-धीरे जाना कि वह कोई दानव नहीं, खुद उनकी प्यारी भागीरथी है, जो कल रात किसी समय प्रवाह रुक जाने से बनी झील का सारा पानी एक साथ लेकर विनाश लीला मचाती हुई आज किसी विकराल दैत्य से कम नहीं लग रही है।
          - ‘हे गंगा मैया, शांत हो।बुजुर्गों ने हाथ जोड़कर विनती की। बहुत देर तक उनके कांपते हाथ जुड़े रहे।
          महिलाओं ने बच्‍चों को कसकर अपने से चिपका लिया और उन्‍हें भींचे रहीं। पतियों ने अनायास पत्नियों को करीब खींच लिया और इस तरह परिवार के सभी लोग एक साथ चिपके खड़े रहे। एक विकराल दैत्य उन्‍हें निगलने आ रहा था और वे असहाय-से सिर्फ यही कर सकते थे कि जब मौत के मुंह में समाएं तो एक साथ हों!


          -, बाबा रे!
          गिर्दा, शम्भू और पुष्‍कर के मुंह से एक साथ निकला। वे डांगला की एक चोटी पर खड़े थे और नीचे भागीरथी पर बनी विशाल झील उनकी आंखों में आतंक भर रही थी।
          पूरा का पूरा ढोकरयानी  पहाड़ टूटकर अपनी चट्टानों और मिट्टी के ढूहों को लेकर भागीरथी के रास्ते में अड़ गया था। ज्‍यादातर पेड़ पहले ही सफाचट हो चुके थे और जो बच रहे थे वे आज भागीरथी के मार्ग में आड़े-तिरछे लेटे थे। लगातार मूसलाधार वर्षा के कारण प्रचंड हुई भागीरथी का प्रवाह मिट्टी-पत्‍थर और पेड़ों की दीवार ने रोक लिया था। रही-बची कसर गैराड़ी पहाड़ ने पूरी कर दी थी। उसमें जो भारी भूस्खलन हुआ उसका पूरा मलबा सरक कर भागीरथी के मार्ग में लगे डांट पर जा गिरा था। भागीरथी के दोनों तरफ के पहाड़ रह-रह कर अब भी टूट-बह रहे थे। ज्‍योति और डांगला के बीच लगा यह अवरोध बढ़ता जा रहा था। भागीरथी विशाल झील में तब्‍दील हो गई थी। ऊपर से लगातार पानी आ रहा था और झील का आकार निरंतर बढ़ता जा रहा था। डबरानी का पुल इस झील में लगभग डूब गया था। देवदार के पेड़ों की सिर्फ चोटियां पानी से ऊपर निकली हुई थीं। दूर-दूर तक पानी ही पानी दिखाई दे रहा था। अनुमान लगाना भी मुश्किल था कि झील कितनी विशाल हो गई है। ऊपर से आती पानी की तेज लहरें झील के ठहरे पानी में पहुंचती हैं तो रुका हुआ पानी भी उसके साथ जोर मारता हुआ मार्ग में अड़े अवरोध से टकराता है और फिर उसे तोड़ने में विफल होकर गुस्से में वापस मुड़ता है। इस जबर्दस्त संग्राम से झील में भयानक लहरें और भंवर पैदा हो रहे हैं जिनमें विशाल पेड़ तिनकों की तरह नाच रहे हैं।
          और इस झील को वे तब देख रहे थे जबकि वह तीन दिन पहले आधी टूटकर बह चुकी थी। पांच तारीख की शाम झील में बढ़ते पानी ने जोर मारा तो अवरोध का एक कोना अपनी जगह से खिसक गया था। तब काफी पानी उस जगह से हरहराता-उछलता-कूदता बह चला था जिसने भुक्खी, भटवाड़ी, लाटा-मल्ला, औंगी, नेताला, डबराणी, हीना, त्‍तरकाशी के ऊपरी हिस्से, जोशियाड़ा, मातली, रतूड़ी सेरा और स्यांसू तक भारी तबाही मचाई थी। बड़ी संख्‍या में खेत, मकान, पुल, सड़क, मंदिर और साधुओं की कुटिया तक वह रेला अपने साथ बहा ले गया था लेकिन भागीरथी के मार्ग के अवरोध का ज्‍यादातर हिस्सा अपनी जगह मजबूती से जमा रहा और दोनों तरफ के पहाड़ों से निरन्‍तर गिरता मलबा उसे और मजबूत बनाता गया। नतीजा यह हुआ कि झील फिर भरती चली गई और इस समय वह खतरनाक तरीके से उफन रही थी। अवरोध से टकराकर लौटती लहरें खूंखार लग रही थीं। अब तक उन्‍होंने शांत और सुन्‍दर झीलें देखी थीं। यहां जो वे देख रहे थे वह बाढ़ से चढ़ी और प्रबल वेगवती पहाड़ी नदी का प्रवाह रुक जाने से बनी झील थी जिसमें ऊपरी छोर से पानी आना जारी था लेकिन नीचे का छोर अवरोध से बन्‍द था। सो, यह झील पिंजड़े में अभी-अभी बन्‍द किए बाघ की तरह भयानक गुस्से से गुर्राते हुए मार्ग के अवरोध और अगल-बगल के पहाड़ों पर अपना सिर पटक रही थी।
          पुष्‍कर और साथियों को भागीरथी में झील बनने और उसके टूटने से भारी तबाही की खबर कोटद्वार में मिली, जहां वे आंदोलन की भावी रणनीति पर विचार करने के लिए जमा हुए थे। तत्‍काल बैठक छोड़कर वे उत्‍तरकाशी के लिए रवाना हो गए। टिहरी से ही उन्‍हें बाढ़ से विनाश और भागीरथी के आतंक का नजारा दिखने लगा था। टिहरी में ज्‍यादा नुकसान नहीं हुआ था लेकिन भागीरथी का मिजाज देखकर लोग डरे हुए थे और मकान खाली कर ऊपर पहाड़ की तरफ भाग गए थे। तीन दिन बाद भी लागों की डरी निगाहें भागीरथी पर लगी हुई थीं। जैसे-जैसे वे आगे बढ़ते गए प्रकृति के प्रकोप के भयानक निशान उन्‍हें मिलते गए। स्यांसू में, जहां सड़क बनाने के लिए गांव वालों के भारी विरोध के बावजूद कमजोर पहाड़ पर डायनामाइट दागे गए थे, भारी भूस्खलन हुआ था। बीस से ज्‍यादा परिवारों की जमीन-जायदाद बरबाद हो गई थी। स्यांसू से आगे रतूड़ीसेरा में करीब आधा किमी. सड़क और पुल गायब थे। मातली से उत्‍तरकाशी तक का करीब दस किमी. रास्ता पैदल पार करना भी जान खतरे में डालना था। किसी तरह वे देर शाम उत्‍तरकाशी पहुंच पाए। वहां का नजारा डरावना था। जहां शहर और बाजार था वहां ुप अंधेरा व सन्नाटा था मगर ऊपर पहाड़ी पर रोशनियां टिमटिमा रही थीं। भागीरथी का जो ताण्‍डव उत्‍तरकाशी के लोगों ने तीन दिन पहले देखा था, उससे उनके मन में इतना डर पैठ गया था कि वे ऊपर पहाड़ी पर ही थोड़ा सुरक्षित महसूस कर रहे थे। दिन में वे अपने रों को लौटते मगर शाम को रोटियां सेक कर रात भर के लिए ऊपर पहाड़ पर चढ़ जाते। उन्‍हें पता था कि भागीरथी में कहीं बनी झील अभी पूरी टूटी नहीं है, हालांकि आकाशवाणी के समाचार लगातार यह बता रहे थे कि झील से कोई खतरा नहीं है और जन-जीवन सामान्‍य है। ट्रांजिस्टर के अलावा समाचार जानने का कोई जरिया नहीं बचा था। सड़कें टूट जाने से यातायात बंद था और अखबार नहीं आ पा रहे थे। उत्‍तरकाशी से आगे मनेरी, भटवाड़ी, भुक्खी और भंगले होकर वे ज्योति और डांगला के बीच बनी झील तक पहुंचे थे। टनास्थल तक पहुंचने का जोश ही था जो उन्‍हें यहां ले आया अन्‍यथा यहां पहुंचना भारी जोखिम का काम था। सड़क ही नहीं, पगडंडी तक नहीं बची थी। कई जगह तो उन्‍हें चौपाया बनकर ुटनों और हथेलियों के बल चलकर पहाड़ और भूस्खलन से बने दलदल पार करने पड़े थे।
          - ‘बेटा अभी तो तुम्‍हारी बहुत उमर बाकी है.., क्यों जा रहे हो वहां।भुक्खी में एक महिला ने अपने र व खेतों के उजड़ जाने के अपार दुख के बावजूद उन्‍हें टोका था। ( जारी)


          

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