Tuesday, August 14, 2012

देवियों और देवताओं में ठन गई है--2


चन्द्र सिंह अब कभी रेडियो नहीं सुनते!
          रेडियो सब कुछ सच नहीं बताता, वे जानते थे लेकिन इतना झूठ भी बोल सकता है, उन्‍हें नहीं पता था। रेडियो के एक सफेद झूठ ने उनका सब कुछ छीन लिया। उनकी पूरी गंगनाणी और गंगनाणी वालों का सारा कुछ।
          ग्राम प्रधान थे तब चन्द्र सिंह। छोटा-सा दो बैण्ड का ट्रांजिस्टर लेकर दस अगस्त की शाम अपने आंगन में बैठे थे। प्रधान जी के पास गांव-कस्बे के कुछ और लोग भी आ जुटे। शाम सात बजकर बीस मिनट पर आकाशवाणी लखनऊ से समाचार बुलेटिन प्रसारित होता था। सबको उसी का इंतजार था।
          - ‘यह आकाशवाणी लखनऊ है। अब आप...।
          आकाशवाणी का समाचार वाचक बड़ी गंभीरता से प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई और उप प्रधानमंत्री चरण सिंह के राजनीतिक युद्ध की खबरों का खण्डन करने लगा। फिर उसने विस्तार से शाह कमीशन की खबरें बताई कि इंदिरा गांधी के किन-किन कारनामों की जांच हो रही है। लोगों की इसमें कोई दिलचस्पी नहीं थी। वे भागीरथी में बनी झील की खबर जानना चाहते थे।
          - ‘हट स्साला..., अरे ये बता कि झील का क्‍या हाल है, ...किसी ने भड़ास निकाली।
          - ‘चुप रहो यार...।बेचैन चन्द्र सिंह ने उसे बरजा और ट्रांजिस्टर हाथ में उठाकर कान के पास कर लिया। वे सांस रोक कर खबरें सुन रहे थे। दरअसल, छह अगस्त को जब उफनाई भागीरथी किसी विकराल दैत्य की तरह उछालें और दहाड़ें मार रही थी तो गंगनाणी के लोग भी रों से निकलकर ऊपर सुरक्षित पहाड़ी पर चढ़ गए थे। अगले दिन आकाशवाणी ने जब खबर दी कि भागीरथी पर बनी झील से अब कोई खतरा नहीं है तो वे सब नीचे लौट आए थे। लेकिन बाढ़ का खतरा बना हुआ है, यह वे अपनी व्यावहारिक बुद्धि और अनुभव से जानते थे। इसीलिए ट्रांजिस्टर को घेरकर बैठे थे, जो आजकल उनके लिए खबरों का एकमात्र जरिया था।
          - ‘उत्‍तर प्रदेश के उत्‍तरकाशी जिले में चट्टान गिरने से भागीरथी में बनी झील से तबाही का खतरा अब टल गया है।तभी आकाशवाणी ने जिलाधिकारी का हवाला देकर बताया तो सबने राहत की सांस ली।
          समाचार खत्म भी नहीं हुए थे कि पूरी गंगनाणी कांपने लगी। लोगों ने पहले समझा कि भूकंप आ गया है मगर वह भागीरथी की प्रचण्ड लहरों की चोट थी जो झील के टूट जाने से प्रलय साथ लिए आई थी।
          चन्द्र सिंह हाथ में ट्रांजिस्टर लिए-लिए बेतहाशा भागे। जान बचाने के लिए वे पूरी ताकत से ऊपर को दौड़ रहे थे। उन्‍हें नहीं पता कि बाकी लोग कहां गए। उनके र वालों का क्‍या  हुआ। उन्‍हें कुछ होश नहीं रहा। वे सिर्फ ऊपर, और ऊपर दौड़ते जा रहे थे। ट्रांजिस्टर अब भी उनके हाथ में था जो बुलेटिन के अंत में प्रमुख समाचार दोहराते हुए बता रहा था कि भागीरथी में बनी झील से बाढ़ का खतरा अब टल गया है।
          बदहवाशी में चन्द्र सिंह कुछ नहीं सुन पा रहे थे। सुनते तो ट्रांजिस्टर साबुत नहीं बचता।
          दूसरी सुबह जब चन्द्र सिंह को होश आया तो उन्‍होंने अपने को एक उड्यार (गुफा) में पड़ा पाया। पास में ही उनका ट्रांजिस्टर पड़ा था। उसकी तरफ से नजरें फेरकर उन्‍होंने नीचे देखा।
          उनकी गंगनाणी लापता थी। कल शाम तक गंगनाणी, उनके पुरखों की धरती, जीता-जागता, जीवन की हलचल भरा कस्बा थी। पलक झपकते ही जैसे कोई उसे समूचा निगल गया था। अब वहां जिन्‍दगी का नामोनिशान नहीं था। , बाजार, खेत, सड़क, पगडण्डी, खम्भे-तार कुछ भी नहीं‌... और आदमी, औरतें, बच्‍चे? ... उनका दिल जोर-जोर से उछलने लगा। हाथ-पैर कांपने लगे। अपने लोगों की तलाश में उन्‍होंने नजरें ुमाईं। रेत, बजरी, पत्‍थर और बड़ी-बड़ी  चट्टानों से पटे ऊबड़-खाबड़ से टकरा कर उनकी नजरें भी पथरा गईं।
          पथराई नजरों से ही उन्‍होंने देखा कि उनकी गंगनाणी को लील चुकी भागीरथी जैसे किसी अपराध बोध में अपना रास्ता बदल कर बह रही है।
          चन्द्र सिंह को जोर का चक्कर आया और वे खामोश पड़े ट्रांजिस्टर के पास ही गिर पड़े।


          भटवाड़ी भी कांपने लगी थी।
          लिण्टर वाले एक मकान की छत पर खड़े पुष्‍कर को लगा कि पूरी धरती हिल रही है और चारों तरफ के पहाड़ थरथरा रहे हैं। मगर वह जान रहा था कि यह भूचाल नहीं है। जैसी कि आशंका थी, भागीरथी में बनी झील दोबारा टूट गई थी और इतने समय से रुका पानी भयानक वेग से, ऊंची-ऊंची छलांगें मारता पहाड़ों की छाती पर वार कर रहा था। धरती कांप रही थी।
          पुष्‍कर की ड़ी में रात के आठ बज रहे थे। अंधेरा गहरा हो गया था। कुछ दिखाई नहीं देता था कि भागीरथी का ताण्डव अंधेरे में क्‍या -क्‍या  विध्‍वंस कर रहा है। सिर्फ भयानक आवाजें थीं जो दहशत फैला रही थीं।
          - ‘भागो, ऊपर पहाड़ पर चढ़ो।पुष्‍कर चीखा मगर उसकी पुकार भयानक शोर में खो गई। लोग पहले से ही कुप्पी, लालटेन, मशाल और गैस बत्तियां लिए पहाड़ पर चढ़ने लगे थे। वे जानते थे कि किसी को पुकारने का कोई मतलब नहीं है। इसलिए कुछ लोग मुंह से तरह-तरह की सीटियां बजाते हुए दूसरों को सतर्क कर रहे थे। ज्‍यादातर लोग बदहवास थे। वे देखने-सुनने-बोलने की क्षमता ही जैसे खो चुके थे। देखते-देखते पहाड़ पर टिमटिमाती रोशनियों की बस्ती आबाद हो गई।
          शीशराम का पक्का मकान नदी से काफी ऊपर और दूर था, जिसकी छत पर पुष्‍कर खड़ा था।
          - ‘पुष्‍कर महाराज, यहां से भी भागना ही ठीक रहेगा। जल्दी चलिए।शीशराम ने हांफते हुए छत पर आकर कहा। हाथ में एक पोटली थी और कम्बल कंधे पर पड़ा था।
          - ‘क्‍या पानी यहां तक आ जाएगा?’ पुष्‍कर ने हैरत से पूछा।
          - ‘लक्षण अच्छे नहीं दिखते... चलिए।उन्‍होंने पुष्‍कर को खींचा।
          आंगन में आकर वे एकाएक ठिठक गए। फिर पोटली और कम्बल पुष्‍कर को पकड़ाकर र के अन्दर चले गए। लौटे तो उनके हाथ में जलता हुआ लैम्प था। उसे उन्‍होंने आंगन की दीवार पर एक ऊंची जगह रख दिया और तेज कदमों से पहाड़ की तरफ चल दिए। परिवार को उन्‍होंने पहले ही रवाना कर दिया था।
          - ‘ये लैम्प वहां क्यों रख छोड़ा?’ पुष्‍कर ने पूछा।
          - ‘ऐसा है महाराज, कि बाढ़ यहां तक आई तो यह लैम्प जाता रहेगा।उन्‍होंने उदासी से कहा।
          - ‘तो?’ पुष्‍कर समझा नहीं।
          - ‘तो क्‍या महाराज, ऊपर पहाड़ से हम लैम्प को देखते रहेंगे। ये गया तो समझ लेंगे कि...।उन्‍होंने वाक्य पूरा नहीं किया।
          पुष्‍कर की समझ में नहीं आया कि क्‍या  कहे। उसने उनका हाथ पकड़कर दबा दिया और उनके साथ तेजी से ऊपर चढऩे लगा।
          एक घण्टे बाद रात करीब नौ बजे नदी से उठती भयानक आवाजें कम हो गईं। लगा भागीरथी कुछ शांत हो गई है। लोग धीरे-धीरे अपने रों को लौटने लगे। शीशराम के र की दीवार पर रखा लैम्प सही सलामत जल रहा था। पुष्‍कर भी उनके साथ लौटा और बिस्तर में दुबक गया।
          रात करीब दो बजे फिर पूरी भटवाड़ी में कोहराम मच गया। भागीरथी पहले से भी ज्‍यादा जोर से हुंकारने लगी और धरती का कांपना बढ़ गया। मशालें, लैम्प, टार्च, गैसबत्तियां लिए लोग फिर हड़बड़ी में पहाड़ पर ऊपर चढऩे लगे, जैसे कि सब इसके लिए तैयार बैठे थे। दरअसल, उस रात भटवाड़ी में कोई सो नहीं पाया। भटवाड़ी क्‍या, भागीरथी के तटवर्ती कस्बों में शायद ही किसी की आंख लगी हो।
          ऊपर पहाड़ी पर शीशराम के परिवार के साथ एक सुरक्षित ठौर में कम्बल बिछाकर बैठने के बाद पुष्‍कर ने नीचे देखा- अंधेरे में एक नन्हीं लौ टिमटिमाती दिख रही थी। वह शीशराम के आंगन की दीवार पर जल रहा लैम्प था। शीशराम एकटक उसे देखे जा रहे थे।
          करीब तीन बजे वह चिराग एकाएक गायब हो गया। शीशराम के साथ-साथ पुष्‍कर भी अपनी जगह खड़ा हो गया। दोनों ने थोड़ा आगे-पीछे, दाएं-बाएं खिसक कर, गरदन उचका कर लैम्प की लौ खोजनी चाही मगर नघोर अंधेरे के सिवा कुछ नहीं दिखा।
          शीशराम धम्म से बैठ गए- नौना की ब्वै (मां) मकान गया!
          पुष्‍कर के ऐन बगल से एक महिला का क्रंदन उठा जो भागीरथी के भयानक शोर में वहीं दफन भी हो गया। पुष्‍कर ने सोचा कि कहे कि लैम्प हवा से या तेल खत्म होने से बुझ गया होगा।
          लेकिन वह यह झूठा दिलासा भी नहीं दे पाया।
          सुबह के फूटते उजाले में लोगों ने पहाड़ी से नीचे उतरते हुए देखा- जहां मकान थे वहां वीरानी के बीच बड़ी-बड़ी खाइयां बन गई थीं और जहां मैदान था वहां बड़ी-बड़ी चट्टानों, पेड़ों और पुलों के गर्डर आड़े-तिरछे पड़े थे। कुछ मकान आधे-अधूरे और कुछ खाइयों के किनारे हवा में लटके नजर आ रहे थे।
          गंगनाणी की तरह भटवाड़ी पूरी तरह लापता नहीं हुई। उसकी कुछ निशानियां बची रह गईं!
यह तो बाद में पता चला था कि छह अगस्त को भागीरथी में बनी झील पहली बार टूटी थी मगर पूरी नहीं। पूरी वह टूटी दस अगस्त की शाम, जब कई दिन से प्रवाह रुक जाने के कारण बौखलाए, दहाड़ मारते पानी ने अपने रास्ते की रुकावट एक झटके से ढहा दी। फिर तो बाढ़ नहीं प्रलय आई!
          लेकिन एक और खतरनाक झील बनी थी जिसे कोई नहीं देख सका था। भागीरथी में मिलने वाली कनौडिय़ागाड़ का प्रवाह भी उसी दौरान बाधित हो गया था। भारी वर्षा से उफनाई कनौडिय़ागाड़ में भी अगल-बगल के पहाड़ भराभरा कर टूट पड़े थे और तीखे ढलान पर एक विशाल झील-बनती चली गई जो दस तारीख की देर रात हरहरा कर टूट पड़ी थी।
          जब आकाशवाणी बार-बार ोषणा कर रही थी कि अब सभी खतरे पार हो चुके हैं और जब राज्‍य सरकार और केन्‍द्रीय अध्‍ययन दल के हेलीकाप्टर भागीरथी के ऊपर चक्कर काट रहे थे, तब कनौडिय़ागाड़ में खतरनाक होती जा रही झील भागीरथी के मार्ग में रहा-बचा भी लील लेने के लिए अपनी भयावह जीभें लपलपा रही थी।
          जब हेलीकाप्टर लौट गए तो यह झील रात के अंधेरे में एकाएक फट पड़ी थी, हेलीकॉप्‍टरों के दौरों और सर्वेक्षणों पर भयानक अट्टहास करते हुए।
          भागीरथी के प्रलय-क्षेत्र से बहुत क्षुब्‍घ होकर लौटते पुष्‍कर ने रास्ते में लोगों को बाढ़ व भूस्खलन से हुई तबाही का हाल बताते हुए जब अफसोस के साथ कहा - मगर गंगनाणी तो पूरी की पूरी बह गई। उसका नामोनिशान नहीं बचा हैतो कुछ लोगों ने और भी उदासी से कहा - हां, जैसे 1970 में बेलाकूची का नामोनिशान नहीं बचा था।’ (जारी)

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