Thursday, June 19, 2014

बाबू और जामुन का यह पेड़




इस बार भी जामुन खूब फला है, मेरे घर के ठीक सामने पार्क में लगे पेड़ में. दिन भर पके जामुन टप-टप टपकते रहते हैं. कई तो जामुनी रंग बिखेरते हुए सड़क, फुटपाथ,पार्क की दीवार या छांह में खड़ी किसी कार की छत में फूट पड़ते हैं और जो साबुत रह जाते हैं उन्हें आते-जाते लोग बीन ले जाते हैं. बच्चे दिन भर ढेले मार कर कच्चे-पके फल गुच्छों समेत तोड़ने की फिराक़ में रहते हैं जिन्हें कभी-कभी भगाना भी पड़ता है. किसी दिन सुबह-सुबह कुछ लोग पेड़ पर चढ़े नज़र आते हैं पॉलीथिन की थैलियों में जामुन तोड़ते हुए. एक दिन तो चौराहे पर फल बेचने वाले पेड़ पर चढ़े दिखे. सौ-डेढ़ सौ रु किलो के भाव जो बिक रहा है.कभी-कभी लगता है कि इस पेड़ पर हमारा हक़ है. फिर ख्याल आता है कि कैसा हक़! बचपन में पहाड़ में सुनते थे कि पेड़ में पके फल पर सबका हक़ होता है. खैर,हमारे घर के सामने करीब एक महीना यह हलचल-हंगामा चलता रहेगा, जब तक जामुन पकते रहेंगे. फिर साल भर कोई इसकी ओर नहीं देखेगा. हां, इसकी छांह में बहुत सारे लोग बैठते हैं, ट्यूशन पढ़ने वाले बच्चों से लेकर घर-घर सामान बेचने वाली महिलाओं के जत्थे तक.

यह पेड़ बाबू का लगाया या कहिए कि बचाया हुआ है. इसे देख कर उनकी याद आती है.


हम मई 1988 में पत्रकारपुरम के इस मकान में रहने आये थे. एक सौ मकानों की कॉलोनी में हम पहले थे जो यहां रहने आए. कई मकान अभी बन ही रहे थे जिनमें विलासपुरी मज़दूर परिवार समेत अपना ठिकाना भी बनाए हुए थे. उसके अलावा ठेकेदार का चौकीदार कैलाश था जिसकी गालियों और झग़ड़ों से अक्सर कॉलोनी गूंज जाती थी. बस! सांय-भांय करती तेज़ हवा चलती और पूरा घर बालू से भर जाया करता था. आज कॉमर्सियल हो चुकी इस कॉलोनी की भीड़, शोर और अट्टालिकाओं को देख कर कल्पना करना मुश्किल है कि शुरू में यह कितनी शांत और सुकून भरी रिहायश थी. कितनी तेज़ी से शहरीकरण हुआ है और इस प्रक्रिया में लखनऊ के मास्टर प्लान की निर्मम हत्या करने वाले खुद लखनऊ विकास प्राधिकरण और नगर निगम ही हैं.



बहरहाल, हमारे घर के सामने का पार्क तब ऊबड़-खाबड़ और उजाड़ था. इसे विकसित करने के नाम पर एलडीए ने कांटेदार तार से इसे घिरवा कर चारों कोनों पर एक-एक पौधा लगवा दिया था. कांटेदार तार कई जगहों से झूल गया था और आस-पास के गांवों की बकरियां और गाय-भैंसें अक्सर पार्क में घुस आतीं. बाबू ने उन्हें भगाना अपनी ज़िम्मेदारी बना ली. वे सुबह-शाम अपने नन्हे पोते को गोद में लिए कुर्सी पर बाहर बैठे रहते या टहलते और दिन में भी खिड़की से देखते रहते. ज़रूरत होने पर हांका मारते. पार्क के दूसरे कोनों में लगे पौधे पता नहीं कब नष्ट हो गये, उन्हें जानवर चर गए या कुचल गए या वे सूख गए. हमारे घर के सामने वाला पौधा बचा रहा. जानवरों के खुरों से कुचला तो वह भी गया, कभी किसी ने उस पर मुंह भी मारा ही होगा लेकिन बाबू की चौकसी से उसके प्राण बचे रहे. वे उसमें पानी डालते, कभी गुड़ाई करते. वह धीरे-धीरे बड़ा होने लगा. जामुन के पौधे के रूप में उसकी पहचान होने लगी.

कोई दो-तीन फुट का हुआ होगा कि एक सुबह वह पूरी तरह जमीन पर बिछा दिखा. शायद बच्चों की फुटबॉल से वह औंधा हो गया था. बाबू ने देखा तो चिंतित हो उठे. गनीमत थी कि नाज़ुक तना पूरी तरह अलग नहीं हुआ था. बाबू ने उसकी मरहम-पट्टी की, मतलब उसे हौले से खड़ा किया, उसकी जड़ के पास एक लकड़ी गाड़ी और डोरी के सहारे पौधे को उस लकड़ी से बांध कर खड़ा कर दिया. पौधा जी गया. एक बार और उस पौधे को ज़रूरी सहारा देना पड़ा. तब उसकी ऊंचाई ठीक-ठाक हो गई थी लेकिन आंधी से वह दोहरा हो गया था. तब बाबू ने उसे उठा कर एक रस्सी से कांटेदार तार के साथ बांध दिया.

पौधा बचा रहा और क्रमश: पेड़ बनता गया. आज हमारे सामने वह खूब बड़ा, घना छायादार और फलदार पेड़ है. बाबू को दुनिया छोड़े बीस बरस हो गए. उन्होंने इस पेड़ के जामुन नहीं चखे लेकिन उनकी वज़ह से कितने सारे लोग साल-दर-साल इसके फल खा रहे हैं. सच ही तो कहा है कि पेड़ लगाता कोई है और फल आने वाली पीढ़ियां खाती हैं. मुझे अच्छी तरह याद है, इसी कॉलोनी में रहने वाले हमारे मित्र राकेश शुक्ला बाबू से कहा करते थे कि आप इस पौधे को बचा तो रहे हैं लेकिन जब यह फल देने लगेगा तो आपके घर पर ही सबसे ज़्यादा पत्थर बरसेंगे. राकेश का इशारा पत्थर मार कर फल तोड़ने वालों से था. बाबू बस मुस्करा देते. वे बोलते बहुत कम थे मगर अपनी मुस्कराहट से बहुत कुछ कह देते थे. इन दिनों कभी-कभी हम पत्थर मार कर जामुन तोड़ने वाले लड़कों से परेशान होते हैं लेकिन बाबू की वह मुस्कराहट याद आ जाती है और गुस्सा काफूर हो जाता है. वह हंसी जैसे कहती है- पके फलों पर तो सबका हक़ है न!और भला, बच्चों को पत्थर उछालने से कौन रोक सका है!

बाबू की याद दिलाता एक नीम का पेड़ भी है. इसी पार्क में और जामुन के बगल में ही. उसका किस्सा भी मुझे भावुक बना देता है.

बाबू जब नौकरी में थे तो उन्हें कैनाल कॉलोनी (कैण्ट रोड पर सिंचाई भवन के पीछे) में एक क्वार्टर मिला हुआ था. कई क्वार्टरों वाला वह बड़ा अहाता था और अहाते के बीच में नीम का बड़ा पेड था. इसी क्वार्टर और अहाते में मैं छह से 27 साल की उम्र तक रहा. बाबू ने तो करीब 40 वर्ष वहां बिताए. बाद में किराए के मकानों से होते हुए हम गोमती नगर के पत्रकारपुरम में आ गए. बाबू अक्सर पुराने साथियों से मिलने कैनाल कॉलोनी जाया करते थे. मेरा बड़ा बेटा जब तीन-चार साल का था तो एक बार बाबू उसे भी बब्बा का बचपन का घरदिखाने कैनाल कॉलोनी ले गए. गर्मियों के दिन थे और अहाते का नीम खूब फला हुआ था. निमकौरियों से अहाता पट जाया करता था. जब वे लौटे तो मेरे बच्चे की मुट्ठी निमकौरियों से भरी हुई थी. उसने बाल सुलभ उत्साह के साथ हमें बताया कि इनको बोने से नीम का पेड़ निकलेगा. पुष्टि के लिए उसने बाबू की ओर देखा- है ना बाबू?’बाबू के चेहरे पर हमारी बहुत परिचित हंसी खेल रही थी और उनकी गरदन हांमें हौले-हौले हिल रही थी.

वे निमकौरियां बोई गईं. ज़ल्दी ही उनसे नन्हे-नन्हे पौधे निकल आए. बेटा बाबू के साथ उनको सींचता और बड़ा होते देखता रहता. बाद में उनमें से एक पौधा पार्क में जामुन की बगल में. पड़ोसी प्रमोद जी की बिटिया के नाम पर बाबू ने उसे रिंकी नीम कहा. एक पौधा घर की पश्चिमी चहारदीवारी के बाहर लगाया गया. उसे बेटे का नाम मिला, कंचन नीम. इन पौधों को बचाने में भी बाबू की बड़ी भूमिका रही क्योंकि दातून करने के शौकीन नन्हे नीम का सिर ही कलम करने पर उतारू रहते. चहारदीवारी के बाहर लगा नीम काफी बड़ा होने पर आंधी में ढह गया और उसे दुखी हो कर कटवाना पड़ा.पार्क का रिंकी नीम खूब आबाद है. हां, नीम का एक पौधा बाबू ने साथी महेश पाण्डे को भी दिया था. वह भी आज उनके इंदिरा नगर वाले घर के सामने लहलहा रहा है. हम जब भी उस नीम के नीचे खड़े होते हैं तो महेश याद करना नहीं भूलते कि यह नीम बाबू का दिया हुआ है.

कैनाल कॉलोनी का वह अहाता अब काफी बदल गया है लेकिन वह बूढ़ा नीम अब भी वहां खड़ा है. वह नीम मेरी बचपन की स्मृतियों का अभिन्न हिस्सा है. उसी का एक वंशज़ हमारे पत्रकारपुरम वाले जीवन का साक्षी बना खड़ा है. क्या बाबू ने सोच-समझ कर ही अपने पोते को कैनाल कॉलोनी से निमकौरियां लाने की प्रेरणा दी होगी?

इन दिनों हमारे घर के सामने टपकते जामुन अपना चटक रंग बिखेर रहे हैं. ज़ल्दी ही पकी हुई पीली-पीलीनिमकौरियों से यह सड़क पट जाएगी.

प्रकृति हमें अपने पुरखों से कितने अद्भुत माध्यम से जोड़े रखती है!

-नवीन जोशी




Wednesday, June 18, 2014

शहरों में यूं ही नहीं बने ‘युद्ध’ के हालात


-नवीन जोशी

शुरुआती किस्सा लखनऊ का है लेकिन अपने देश के किसी भी शहर के लिए बराबर मौज़ूं है.

लखनऊ विकास प्राधिकरण ने पड़ोसी ज़िले बाराबंकी के 210 गांवों को लखनऊ की सीमा में शामिल करने का फैसला किया है. हर कुछ साल के अंतराल पर पड़ोसी ज़िलों के गांवों को राजधानी के दायरे में मिला लिया जाता है. कभी का छोटा सा लखनऊ आज विशाल महानगर बन गया है और लगातार बढ़ता ही जा रहा है. इसे अब और विस्तार के लिए ज़मीन मिल जाएगी और बाराबंकी के उन गांवों के निवासी खुशफहमी पाल सकते हैं कि वे भी राजधानी का हिस्सा बनकर कुछ ऐसी सुविधाओं के हकदार बन जाएंगे जो अब तक उनके हिस्से में नहीं थीं.

जितना बड़ा लखनऊ आज है, उसी में सामान्य मगर ज़रूरी नागरिक सुविधाओं का क्या हाल है? इस भीषण गर्मी में जबकि तापमान 47 डिग्री तक पहुंच जा रहा है, राजधानी के ज़्यादातर इलाकों में बिजली-पानी के लिए हा-हाकार मचा हुआ है. कई-कई मुहल्लों को 14 से 18 घंटे तक बिजली नहीं मिल रही. इनमें पॉश कही जाने वाली और वीआईपी कॉलोनियां भी शामिल हैं. त्रस्त जनता बिजली-पानी के लिए सड़कों पर उतरी हुई है. धरना-प्रदर्शन से लेकर बिजली उपकेन्द्रों में तोड़-फोड़ और अधिकारियों के घेराव किए जा रहे हैं. और यह सिर्फ इस बरस का किस्सा नहीं है.

मानसून आने वाला है. बारिश होगी तो बहुत से इलाके तालाब बन जाएंगे, सीवर उफन उठेंगे और घरों में गंदा पानी भर जाएगा. सड़कों से लेकर गलियों तक कचरा बजबजाएगा. तब दूसरी तरह की जटिल समस्याएं सिर उठाएंगी. हैज़ा, मलेरिया, वायरल बुखार और डेंगू जैसी जानलेवा बीमारियां फैलेंगी. सरकारी अस्पतालों में आम मरीज़ों के लिए जगह कम पड़ जाएगी. जो महंगे नर्सिग होम में इलाज नहीं करा सकेंगे वे भगवान भरोसे रहेंगे.
आखिर हमारे शहरों की ऐसी दुर्गति क्यों हो गई है? यह सवाल हम दिल्ली और मुम्बई जैसे महानगरों के लिए भी पूछ सकते हैं.

सामान्य सा एक उदाहरण लेते हैं. राजधानी के एक मुहल्ले में साढ़े तीन-चार हज़ार वर्ग फुट में एक शांत कोठी थी. उसकी जगह अब 40 फ्लैटों वाली दस मंज़िला इमारत खड़ी है. पहले उस कोठी में एक संयुक्त परिवार रहता था. अब वहां 40 एकल परिवार बस गए हैं. पहले सीमित लोड वाला बिजली का एक कनेक्शन था, आज 40 कनेक्शन हैं और हर फ्लैट में एक या दो ए सी के कारण लोड कई गुना बढ‌‌ गया, जबकि सम्बद्ध उपकेंद्र की क्षमता लगभग वही है. उत्पादन बढ़ा नहीं लेकिन खपत कई गुना बढ़ गई. उपलब्ध बिजली का भी बड़ा हिस्सा जर्जर हो चुकी लाइनों से वितरण में छीझ जाता है. पुरानी कोठी में जिस पाइप लाइन से पानी आता था वह दस मंजिला इमारत में पानी नहीं पहुंचा सकती थी, सो बिल्डर महाशय ने ट्यूबवेल खुदवा दिया, जिसने तेज़ी से भूजल का स्तर गिराना शुरू कर दिया (कुछ वर्ष बाद और भी गहरा ट्यूबवेल खोदना पड़ेगा.) उस कोठी के सामने की सड़क पहले शांत रहती थी, अब कारों-मोटर साइकिलों की चिल्लप्पों मची रहती है. सड़क चौड़ी करने के लिए फुटपाथ खत्म कर दिए गए जिसके लिए वहां लगे छायादार पेड़ों की बलि ले ली गई. अब चूंकि सड़क और ज़्यादा चौड़ी नहीं हो सकती, इसलिए जाम लगाना लाजिमी है. वाहनों का शोर, प्रदूषण और दुर्घटनाएं बढ़ते जा रहे हैं.

यह एक मुहल्ले की एक कोठी का किस्सा था. इसे पूरे शहर पर लागू कर दीजिए. आवास विकास परिषद, विकास प्राधिकरण और कॉलोनाइजरों द्वारा शहर के मध्य और इर्द-गिर्द बनाई गई कॉलोनियों व अपार्टमेंट को भी इसमें जोड़ दीजिए. तालाबों, मैदानों और निजी जमीनों पर अवैध रूप से बनती जा रही इमारतों को भी इसमें शामिल कर लीजिए. रिहाइशी मकानों के बढ़ते व्यापारिक इस्तेमाल को इसी का हिस्सा मानना पड़ेगा और झुग्गी बस्तियों को इससे अलग कैसे रखा जा सकता है. विकास का ढांचा ही ऐसा बना दिया गया है कि प्रगति के लिए हर व्यक्ति गांवों से शहरों की तरफ भागने को मज़बूर है और शहरों का हर कोना बहुमंजिला इमारतों और झोपड़ पट्टियों से पटा जा रहा है.

अब अंदाज़ा लगाइए कि हमारे शहरों की, जो 25-30 वर्ष पहले तक सुकून भरे नगर थे, नागरिक सुविधाओं का क्या हाल नहीं हुआ होगा! इन नगरों की बिजली-पानी, जल निकासी, सफाई, सड़क, आदि की सीमित क्षमताएं थीं. अंधाधुंध निर्माण और विस्तार ने उन पर इतना भारी-भरकम बोझ डाल दिया कि वे चरमरा गईं. अब बिजली-पानी के लिए युद्ध जैसी स्थितियां क्यों नहीं होंगी? जरा सी बरसात में बाढ़ जैसे हालात क्यों नहीं बनेंगे? टनों कचरा सड़कों के किनारे कैसे नहीं सड़ता रहेगा? और बेशुमार वाहनों से सड़कें-गलियां कैसे नहीं पटी रहेंगी?

स्वाभाविक ही आप पूछेंगे कि शहरों के मास्टर प्लान का क्या हुआ? जी, मास्टर प्लान बने और बन रहे हैं. कागजों में वे हमारे शहरों को खूबसूरत बनाते दिखते हैं लेकिन शायद ही महानगर बनते किसी शहर में मास्टर प्लान का आंशिक पालन भी हुआ हो. किसी भी शहर के अगले 20-25 वर्षों के सुनियोजित विकास के लिए मास्टर प्लान अत्यंत ज़रूरी दस्तावेज़ होता है. इसीलिए यह नगर नियोजन का अनिवार्य हिस्सा है. मास्टर प्लान में शहर के चौतरफा विकास की योजनाएं यह ध्यान में रख कर बनाई जाती हैं कि अगले दो-ढाई दशक में उसकी आबादी कितनी हो जाएगी, उसके लिए मूलभूत सुविधाओं की कितनी-कैसी ज़रूरतें होगी और वे कैसे पूरी की जाएंगी. इसमें मकानों की ज़रूरत से लेकर बिजली, पानी, सड़क, सीवर, यहां तक कि पर्यावरण तक को ध्यान में रखा जाता है. खेद है कि नगर नियोजन विभागों, विकास प्राधिकरणों और नगर निगमों ने अपने ही बनाए खूबसूरत मास्टर प्लान की धज्जियां उड़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है. नतीजा यह है कि जहां तालाब और पार्क होने चाहिए थे वहां बहुमंजिला इमारतें हैं, जहां सिर्फ आवासीय भवन होने थे वहां बेहिसाब निर्माण हो गए. सड़कों, मैदानों, पार्कों, बाज़ारों में अवैध कब्ज़े हो गए, नदियां नाला बन गईं और वे भी अतिक्रमण से पट गए तथा हमारे शहर अराजक एवं बेतरतीब विकास का नमूना बन कर रह गए.

इस सबके बावज़ूद शहरों को बड़ा, और बड़ा बनाया जा रहा है. नई दिल्ली, एन सी आर बन कर फैल रही है, मुम्बई में अब किसी नए व्यक्ति के लिए जगह नहीं बची और लखनऊ, बाराबंकी व उन्नाव में घुसा जा रहा है. कहां से आएंगी इनके लिए सुविधाएं? बेहतर मास्टर प्लान नए नगरों या शहर से दूर उप नगरों के विकास की वकालत करते हैं. बाराबंकी को लखनऊ में मिलाते जाने की बजाय बाराबंकी को ही लखनऊ से बेहतर क्यों नहीं बनाया जाता? केंद्र में सत्तारूढ़ हुई नई मोदी सरकार ने अपने एजेण्डे में एक सौ नए नगर बनाना भी शामिल किया है. चरमराते महानगरों से आबादी का बोझ कम करने के लिए यह बेहद ज़रूरी है और उतना ही ज़रूरी है कि मास्टर प्लान का कड़ाई से पालन सुनिश्चित कराया जाए.

दुनिया भर में जिन खूबसूरत आधुनिक शहरों की चर्चा होती है वे अपने सुंदर मास्टर प्लान और उसके सुनिश्चित पालन के लिए जाने जाते हैं. इसके लिए पक्षपात रहित एवं दृढ़ इच्छा शक्ति वाले नेतृत्व, भावी पीढ़ी की ज़रूरतों के प्रति जागरूकता और प्राकृतिक संसाधनों का सम्मान करने की दृष्टि चाहिए.
दुर्भाग्य से यही हमारे यहां लुप्तप्राय श्रेणी में आते हैं.  
  
 



Tuesday, June 17, 2014

दिलीप मण्डल और आर अनुराधा

दिलीप मण्डल से थोड़ा परिचय है. एक-दो बार मुलाकात भी है.. उनकी किताब 'मीडिया का अण्डरवर्ल्ड' का विमोचन लखनऊ पुस्तक मेले में हुआ था और मैं भी उनके साथ मंच पर था. अनुराधा को बिल्कुल नहीं जानता था. उनकी मौत की खबर फेसबुक से पता चली और मनीषा पाण्डे की पोस्ट से उनको जाना. अफसोस किया कि में अनुराधा से मिला क्यों नहीं..... आज फेसबुक पर दिलीप की यह पोस्ट पढ़ी. इसे अपने ब्लॉग पर लगाते हुए अनुराधा को और उससे ज़्यादा दिलीप को सलाम भेजता हूं.

मैं अब खाली हो गया हूं. बिल्कुल खाली – Dilip Mandal

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मैं अब खाली हो गया हूं. बिल्कुल खाली.
मैं अपनी सबसे प्रिय दोस्त के लिए अब पानी नहीं उबालता. उसके साथ में बिथोवन की सिंफनी नहीं सुनता. मोजार्ट को भी नहीं सुनाता. उसे ऑक्सीजन मास्क नहीं लगाता. उसे नेबुलाइज नहीं करता. उसे नहलाता नहीं. उसके बालों में कंघी नहीं करता. उसे पॉल रॉबसन के ओल्ड मैन रिवर और कर्ली हेडेड बेबी जैसे गाने नहीं सुनाता. गीता दत्त के गाने भी नहीं सुनाता. उसे नित्य कर्म नहीं कराता. उसे कपड़े नहीं पहनाता. उसे ह्वील चेयर पर नहीं घुमाता. उसे अपनी गोद में नहीं सुलाता. उसे हॉस्पीटल नहीं ले जाता. उसे हर घंटे कुछ खिलाने या पिलाने की अक्सर असफल और कभी-कभी सफल होने वाली कोशिशें भी अब मैं नहीं करता. उसकी खांसने की हर आवाज पर उठ बैठने की जरूरत अब नहीं रही. मैं अब उसका बल्ड प्रेशर चेक नहीं करता. उसे पल्स ऑक्सीमीटर और थर्मामीटर लगाने की भी जरूरत नहीं रही. मेरे पास अब कोई काम नहीं है. हर दिन नारियल पानी लाना नहीं है. फ्रेश जूस बनाना नहीं है. उसके लिए हर दिन लिम्फाप्रेस मशीन लगाने की जरूरत भी खत्म हुई.
यह सब करने में और उसके के साथ खड़े होने के लिए हमेशा जितने लोगों की जरूरत थी, उससे ज्यादा लोग मौजूद रहे. उसकी बहन गीता राव, मेरी बहन कल्याणी माझी और उसकी भाभी पद्मा राव से सीखना चाहिए कि ऐसे समय में अपने जीवन को कैसे किसी की जरूरत के मुताबिक ढाल लेना चाहिए. इस लिस्ट में मेरे बेट अरिंदम को छोड़कर आम तौर पर सिर्फ औरतें क्यों हैं? देश भर में फैली उसकी दोस्त मंडली ने इस मौके पर निजी प्राथमिकताओं को कई बार पीछे रख दिया.
यह अनुराधा के बारे में है, जो हमेशा और हर जगह, हर हाल में सिर्फ आर. अनुराधा थी. अनुराधा मंडल वह कभी नहीं थी. ठीक उसी तरह जैसे मैं कभी आर. दिलीप नहीं था. फेसबुक पर पता नहीं किस गलती या बेख्याली से यह अनुराधा मंडल नाम आ गया. अपनी स्वतंत्र सत्ता के लिए बला की हद तक जिद्दी आर. अनुराधा को अनुराधा मंडल कहना अन्याय है. ऐसा मत कीजिए.
कहीं पढ़ा था कि कुछ मौत चिड़िया के पंख की तरह हल्की होती है और कुछ मौत पहाड़ से भारी. अनुराधा की मृत्य पर सामूहिक शोक का जो दृश्य लोदी रोड शवदाह गृह और अन्यत्र दिखा, उससे यह तो स्पष्ट है कि अनुराधा ने हजारों लोगों के जीवन को सकारात्मक तरीके से छुआ था. वे कई तरह के लोग थे. वे कैंसर के मरीज थे जिनकी काउंसलिंग अनुराधा ने की थी, कैंसर मरीजों के रिश्तेदार थे, अनुराधा के सहकर्मी थे, सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता थे, प्रोफेसर थे, पत्रकार, डॉक्टर, अन्य प्रोफेशनल, पड़ोसी और रिश्तेदार थे. कुछ तो वहां ऐसे भी थे, जो क्यों थे, इसकी जानकारी मुझे नहीं है. लेकिन वे अनुराधा के लिए दुखी थे. किसी महानगर में किसी की मौत को आप इस बात से भी आंक सकते हैं कि उससे कितने लोग दुखी हुए. यहां किसी के पास दुखी होने के लिए फालतू का समय नहीं है.
अनुराधा बनना कोई बड़ी बात नहीं है.
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आप भी आर. अनुराधा हैं अगर आप अपनी जानलेवा बीमारी को अपनी ताकत बना लें और अपने जीवन से लोगों को जीने का सलीका बताएं. आप आर. अनुराधा हैं अगर आपको पता हो कि आपकी मौत के अब कुछ ही हफ्ते या महीने बचे हैं और ऐसे समय में आप पीएचडी के लिए प्रपोजल लिखें और उसके रेफरेंस जुटाने के लिए किताबें खरीदें और जेएनयू जाकर इंटरव्यू भी दे आएं. यह सब तब जबकि आपको पता हो कि आपकी पीएचडी पूरी नहीं होगी. ऐसे समय में अगर आप अपना दूसरा एमए कर लें, यूजीसी नेट परीक्षा निकाल लें और किताबें लिख लें, तो आप आर. अनुराधा हैं.
दरवाजे खड़ी निश्चित मौत से अगर आप ऐसी भिड़ंत कर सकते हैं तो आप हैं आर. अनुराधा.
जब फेफड़ा जवाब दे रहा हो और तब अगर आप कविताएं लिख रहें हैं तो आप बेशक आर. अनुराधा हैं. आप आर अनुराधा हैं अगर कैंसर के एडवांस स्टेज में होते हुए भी आप प्रतिभाशाली आदिवासी लड़कियों को लैपटॉप देने के लिए स्कॉलरशिप शुरू करते हैं और रांची जाकर बकायदा लैपटॉप बांट भी आते हैं. अगर आप सुरेंद्र प्रताप सिंह रचना संचयन जैसी मुश्किल किताब लिखने के लिए महीनों लाइब्रेरीज की धूल फांक सकते हैं तो आप आर अनुराधा हैं.
और हां, अगर आप कार चलाकर मुंबई से दिल्ली दो दिन से कम समय में आ सकते हैं तो आप आर अनुराधा हैं. थकती हुई हड्डियों के साथ अगर आप टेनिस खेलते हैं और स्वीमिंग करते हैं तो आप हैं आर अनुराधा. अगर महिला पत्रकारों का करियर के बीच में नौकरी छोड़ देना आपकी चिंताओं में हैं और यह आपके शोध का विषय है तो आप आर. अनुराधा हैं. अपना कष्ट भूल कर अगर कैंसर मरीजों की मदद करने के लिए आप अस्पतालों में उनके साथ समय बिता सकते हैं, उनको इलाज की उलझनों के बारे में समझा सकते हैं, उन मरीजों के लिए ब्लॉग और फेसबुक पेज बना और चला सकते हैं तो आप आर. अनुराधा हैं.
आप में से जो भी अनुराधा को जानता है, उसके लिए अनुराधा का अलग परिचय होगा. उसकी यादें आपके साथ होंगी. उन यादों की सकारात्मकता से ऊर्जा लीजिए.
अलविदा मेरी सबसे प्रिय दोस्त, मेरी मार्गदर्शक.
तुम्हारी मौत पहाड़ से भारी है.