Friday, January 30, 2015

ये चराग जल रहे हैं-4/ दद्दा वीर सिंह माने जीत जरधारी

उन्हें कोई कहता था ‘जगधारी जी’, कोई ‘जगाधरी जी’ और मैं भी शुरू-शुरू में समझ नहीं पाया था कि यह कैसा नाम है. उनसे पूछने का सवाल ही नहीं उठता था क्योंकि वे बहुत ‘रिजर्व’ रहते थे. झक सफेद सूती पैण्ट और कमीज़, आम तौर पर खादी के, और एक हाथ में कोई किताब उनकी बहुत जानी–पहचानी छवि है. आकाशवाणी, लखनऊ के “उत्तरायण” एकांश में जिज्ञासु जी की कुर्सी के साथ वाली मेज़-कुर्सी पर उन्हें बैठे देखा करता था. जब जिज्ञासु जी को कुमांऊनी-गढ़वाली के रचनाकार घेरे रहते तब भी वे या तो कुछ लिखते या किसी किताब में खोए रहते. पौने छह बजते-बजते वे स्टूडियो पहुंच जाते और “दद्दा वीर सिंह” बन कर “भुला शिवानंद” बने जिज्ञासु जी के साथ “उत्तरायण” की कम्पीयरिंग करते. पौने सात बजे स्टूडियो से निकल कर अकेले ही पैदल चल देते. कई बार तो वे 3-4 मिनट की शुरुआती कम्पीयरिंग करके ही चले जाते थे. उनके हाथ की किताबें मेरी उत्सुकता का केंद्र रहतीं लेकिन हमारे बीच ‘नमस्ते’’ शुरू हो जाने के बावज़ूद वे काफी समय तक मेरे लिए रहस्यमय बने रहे.

फिर एक दिन सहसा रहस्य का पर्दा गिर गया. रघुवीर सहाय के सम्पादन में निकलने वाले ”दिनमान” और उसकी प्रखर पत्रकारिता का मैं दीवाना था और हर सप्ताह कॉफी हाउस के फुटपाथ पर लगने वाली दुकान से बिना नागा दिनमान खरीद कर चाटा करता था. उस रोज़ दिनमान के नए अंक में जीत जरधारी के नाम से एक टिप्पणी छपी थी- सम्भवत: डा दीवान सिंह भाकूनी को डा. शांति स्वरूप भटनागर पुरस्कार मिलने पर. यह टिप्पणी देखकर दो बातें साफ हो गईं थीं. एक तो यह कि उनका सही नाम जीत जरधारी है और दूसरा यह कि वे खूब पढ़ने वाले ही नहीं, अच्छा लिखने वाले भी हैं. ‘दिनमान’ में छपना उन दिनों प्रतिष्ठा और स्तर का प्रमाण पत्र था. अगली मुलाकात में मैंने जरधारी जी से कहा कि मैंने ‘दिनमान’ में आपकी टिप्पणी पढ़ी है.

-“अच्छा, दिनमान पढ़ते हो?” उन्होंने खुश हो कर पूछा- “क्या करते हो?’ मैं तब इण्टर की पढ़ाई कर रहा था और यदा-कदा पत्र-पत्रिकाओं में लिखने लगा था. उस दिन से हमारी बातचीत का सिलसिला शुरु हुआ. अपने बारे में वे कभी कोई बात नहीं करते थे लेकिन धीरे-धीरे मुझे पता चलता रहा कि 1940 के दशक में टिहरी राजशाही के खिलाफ चले प्रजा मण्डल आंदोलन में उन्होंने सक्रिय भाग लिया था. यह आंदोलन राजशाही, उसके द्वारा पोषित भद्र लोक और इनके द्वारा आम जन के शोषण, बेगार, आदि के खिलाफ था. इसी आंदोलन में गिरफ्तार श्रीदेव सुमन जेल में ऐतिहासिक भूख हड़ताल के बाद शहीद हुए थे. जरधारी जी ने भी इसी आंदोलन में कुछ दिन जेल काटी थी. मूलत: वे पत्रकार थे और देहरादून, टिहरी, नरेद्र नगर, हरिद्वार, वगैरह से उन्होंने कई अखबारों के लिए लिखा. पत्रकारिता के कारण ही, और अपने साफ-शफ्फाक़ उच्चारण के लिए भी, वे 1962 में आकाशवाणी से शुरू हुए “उत्तरायण” कार्यक्रम के उद्घोषक के रूप में चुने गए.

खानदान के लिहाज़ से उनका नाम जीत सिंह नेगी होना था लेकिन, जैसा कि उनकी बेटी रमा बताती है, माता ने उन्हें गांव के नाम पर ‘जरधारी’ कहा क्योंकि इस सबसे बड़ी संतान का जन्म काफी समय बाद और बड़ी मान्यताओं के उपरांत हुआ था जो अपने पीछे चार और भाई लाया. बहरहाल, ‘दिनमान’ प्रसंग के बाद मेरी उनसे विविध विषयों पर बातें होने लगीं. पत्र-पत्रिकाओं में छपे मेरे लेख पढ़कर वे मुझे मेरी कमजोरियां बताने और सिखाने लगे. मेरे पत्रकार बन जाने के बाद उनसे मेरा रिश्ता प्रगाढ़ हुआ.

रंगमंच में उनकी बहुत दिलचस्पी थी, खास कर बाल रंगमंच में, जिसके लिए वे बहुत कुछ करना चाहते थे. सर्वेश्वर दयाल सक्सेना का लिखा बाल नाटक “लाख की नाक” का निर्देशन उन्होंने किया था. वे राज बिसारिया के साथ “टॉ” से और शशांक बहुगुणा के साथ “लक्रीस” से भी जुड़े रहे. 1974 में “शिखर संगम” के लिए दो गढ़वाली नाटकों का निर्देशन उन्होंने किया था- “एकीकरण” और “खाडू लापता”. मुझ युवा के लिए वह बहुत मज़ेदार अनुभव था. मैं “शिखर संगम” से घनिष्ठ रूप में जुड़ा था और “एकीकरण” के पूर्वाभ्यास के साथ ही कुमांऊनी नाटक “मी यो गेयूं, मी यो सटक्यूं” की रिहर्सल में भी जाया करता था, जिसका निर्देशन नंद कुमार उप्रेती जी कर रहे थे. क्या अद्भुत ‘कंट्रास्ट” मुझे देखने को मिला. एक तरफ जरधारी जी की रंगमंच की बारीक समझ और गम्भीरता थी और दूसरी तरफ नंद कुमार जी का निर्मल और मौलिक भदेसपन. उप्रेती जी पात्रों से अपने ही जैसा ठेठ कुमांऊनी उच्चारण और सबसे अपने ही ढंग का अभिनय चाहते थे. वे हर पात्र को खुद अभिनय करके दिखाते थे कि “यस कर यार”, जिससे सभी कलाकार हंसते-हंसते लोट-पोट हो जाते. उधर जरधारी जी थे जो सभी कलाकारों को पूरी आज़ादी और प्रयोग करने की स्वतंत्रता देते थे. परिवार के मामले में भी वह बहुत उदार थे. ठेठ गढ़वाली घरैतिन को वे बदल नहीं सकते थे लेकिन बच्चों को, खासकर तीनों बेटियों को उन्होंने बहुत आज़ादी दी और चेतना सम्पन्न बनाया. रमा गवाह है जो अब रमा अरुण त्रिवेदी के नाम से आकाशवाणी और दूरदर्शन के लिए महत्वपूर्ण काम करने के अलावा रंगमंच और सार्वजनिक जीवन में भी खूब सक्रिय है.

आकाशवाणी से रिटायर होने के बाद जरधारी जी का इरादा देहरादून वाले पुश्तैनी घर में जा बसने और खूब पढ़ने-लिखने का था. इसीलिए इतने वर्ष लखनऊ में नौकरी करने के बावज़ूद उन्होंने यहां अपना मकान बनाने की नहीं सोची मगर नियति ने कुछ और ही रच रखा था. एक दिन सहकारिता विभाग के सभागार में किसी कार्यक्रम में उनसे भेंट हुई. वहां डा एम सी पंत भी मौज़ूद थे. जरधारी जी ने डा पंत से कहा- मेरे गले में कुछ अटकता-सा है आजकल. दिखाना चाहता हूं. डा पंत तब मेडिकल कॉलेज में ही थे. उन्होंने जरधारी जी से मेडिकल कॉलेज आने को कहा.

गले में अटकता-सा वह कुछ क्रूर कैंसर निकला. कुछ दिन लखनऊ पी जी आई में इलाज कराने के बाद वे बेटे के पास दिल्ली चले गए. एम्स में इलाज़ के दौरान ही उनका किस्सा खत्म हो गया. सब कुछ इतनी ज़ल्दी हुआ कि हमें उनके निधन की खबर कई दिन बाद मिली.

कलफ़ लगे, इस्तरी किए झक सफेद खादी के कपड़ों वाले जरधारी जी अक्सर सामने आ खड़े होते हैं, आजकल पटना के मेरे एकांत में कुछ ज़्यादा ही, जैसे कह रहे हों कि- “नवीन, माधो सिंह भण्डारी पर तुम्हारा लेख अच्छा है लेकिन मलेथा की गूल कविता का हिंदी अनुवाद और चुस्त होना चाहिए था.”

-‘जी, जरधारी जी, कोशिश करुंगा.’ मैं कहता हूँ और वे मंद-मन्द मुस्कराते दिखते हैं.(क्रमश:)

Tuesday, January 27, 2015

ये चराग जल रहे हैं-3/ सल्लाम वाले कुम, केशव अनुरागी

ठण्ढी रात के सन्नाटे में बिल्कुल अचानक मेरे कानों में जोर-जोर से एक पहचानी-सी आवाज में सम्मोहित कर देने वाला गायन गूंजने लगा- “सल्लाम वाले कुम. त्यारा वे गौड़ गाजिना, सल्लाम वाले कुम. म्यारा मियां रतना गाज़ी, सल्लाम वाले कुम. तेरी वो बीवी फातिमा, सल्लाम वाले कुम...” और अचम्भित मैं गाने वाले को इधर-उधर खोजता रह गया.

तभी आंखों के सामने गाने वाले का चेहरा दिखा, धुंधला-सा. "ओ हो, केशव अनुरागी जी! कैसे हो आप? आज कहां से यहां?" वे जवाब देने की बजाय गाते रहे- "तेरी वो बीवी फातिमा, सल्लाम वाले कुम..." 

फिर वह छाया-सा चेहरा भी गायब हो गया. बस, कमरे में गूंजती रही आवाज़- 'सल्लाम वाले कुम..."

1980 के आसपास कभी अनुरागी जी से भेंट हुई थी. वहीं आकाशवाणी, लखनऊ में जो अपना सांस्कृतिक स्कूल और अड्डा था. अनुरागी जी संगीत विभाग के पैक्स अर्थात कार्यक्रम अधिकारी बन कर आए थे. संगीत उनकी रग-रग में था, उनके हंसने और रोने में था. हां, सचमुच! वे इतना डूब कर गाते थे कि रोने लगते थे.

धीरे-धीरे जाना मैंने कि गायन तो उनकी अद्वितीय प्रतिभा का अंश भर था. ढोल सागरकी उनकी समझ उल्लेखनीय थी. इस शास्त्र को जितना उन्होंने समझा उतना शायद और किसी ने नहीं. वे उस पर अपनी खास समझ के आधार पर काम करना चाहते थे. शोध. बस, वे सोचते ही रहे. तो भी एक काम उन्होंने ऐतिहासिक किया. कई गढ़वाली लोक गीतों की स्वर लिपियां बनाई और उनका लोक-शास्त्रीय अध्ययन किया. यह काम लोक को दस्तावेज़ी शास्त्र का दर्ज़ा देने जैसा है.
मैं उनके पीछे पड़ा रहता- अनुरागी जी, अपना काम पूरा करिए. ढोल सागर पर काम होना ही चाहिए.वे गरदन हिलाते और हां-हां कह कर टाल जाते. उनके मुंह में हमेशा ही पान का बीड़ा भरा रहता और अक्सर वे घुटकी भी लगाए रहते. मैं उनके घर जाने की ज़िद करता, वे टाल जाते, बहाना बनाते. एक बार मैं ज़िद करके उनके घर पहुंच गया. वे अत्यंत सादगी से रहते थे और खूब अव्यवस्थित भी. मेरी रट थी कि आप ढोल सागर पर लिखो, दिक्कत हो तो आप बोलो और मैं लिखता चलूंगा. मेरी ज़िद देख कर उन्होंने एक बक्से से निकाल कर करीब 40-50 पन्ने मुझे पकड़ा दिए. मुझे अपने घर से ज़ल्दी चलता करने के लिए ही शायद. टाइप किए हुए पन्ने.

घर आकर मैंने वे पन्ने पढ़े तो चकित रह गया. संगीत में मेरी कोई गति नहीं लेकिन इतना तो समझ ही गया कि यह ऐतिहासिक महत्व का काम है. उन पन्नों में गढ़वाली लोक गीतों की स्वर लिपियां थीं, उनकी संरचना पर विद्वतापूर्ण टिप्पणियां, शास्त्रीय धुनों पर लोक धुनों का प्रभाव, आदि-आदि. बाद में पता चला उनमें कुछ गीत ठेठ लोक धुनों पर खुद अनुरागी जी के रचे हुए थे. उस काम को और आगे बढ़ाना था. वह बहुत बहुत महत्वपूर्ण किताब बन जाती. मैं हर मुलाकात में यही रट लगाता और वे टालने में माहिर. मैंने उन पर दवाब बनाने को ही उन पन्नों का एक छोटा हिस्सा नैनीताल समाचारमें छपवा दिया और साथ में टिप्पणी भी लिखी- अपने बुज़ुर्गों को डांट’. अनुरागी जी को दिखाया तो वे फीकी-सी हंसी हंस दिए. क्या उनके अंदर कोई कुंठा थी?

अनुरागी जी ने वह काम भी आगे नहीं बढ़ाया, हालांकि उतना हिस्सा भी ठीक-ठाक किताब बनती थी. मैंने उसे छपवाने की कोशिश की लेकिन उस काम के कद्रदां ही कितने थे? बाद में शिवानंद नौटियाल जी के प्रयास से उत्तर प्रदेश संगीत-नाटक अकादमी ने उस पुस्तक के प्रकाशन हेतु पांच हज़ार रु. की सहायता दी और नौटियाल जी ने विश्व प्रकाशन से इसे छपवाया. किताब का नाम अनुरागी जी ही का दिया हुआ रखा गया- “नाद नंदिनी.” उसकी भूमिका कुमार गंधर्व ने बहुत गद-गद हो कर लिखी है. शिवानंद जी ने भी किताब में अनुरागी जी और उनकी प्रतिभा पर जानकारीपरक लेख लिखा. लेकिन तब अनुरागी जी अपनी किताब को छपा देखने के लिए जीवित नहीं थे. पता नहीं “नाद-नंदिनी” की कितनी प्रतियां छपी होंगी और कहां धूल खा रही होंगी. नौटियाल जी से एक प्रति मैं झटक लाया था, बस.

हां, अनुरागी जी में कुंठाएं थीं और उनका कारण हमारा यह समाज है. वे गढ़वाल के एक गरीब-दलित परिवार में जन्मे थे. बाजगी परिवार में, जिन्हें ढोल बजाने के लिए तो मंदिरों से लेकर घरों तक बुलाया जाता था लेकिन उनके हिस्से में अनाज के कुछ दाने और अपमान व तिरस्कार ही आते थे. अनुरागी जी ने बचपन ही से इस अपमान के बदले ढोल को इस तरह बजाया कि उसे पी लिया, उसे घोट लिया, वे उसके तालों-स्वरों में समा गए. ढोल से उन्होंने मुहब्बत की और उसी से अपना विद्रोह भी गुंजायमान किया. मंगलेश डबराल ने उन पर जो बहुत मार्के की कविता लिखी है उसमें यूं ही नहीं कहा है कि केशव अनुरागी ढोल के भीतर रहता है.ढोल के भीतर उनका अपना राज था जहां कोई अपमान, कोई सामाजिक उपेक्षा और कटूक्तियां नहीं थी. वहां सुरों, तालों और धुनों की परम मानवीय दुनिया थी. वहां सिर्फ संगीत था जो मनुष्यों में कोई भेद करना नहीं जानता.
जब वे उत्तरायण के पैक्स बनाए गए तो जिज्ञासु जी के आग्रह पर उन्होंने कुमाऊंनी-गढ़वाली गीत गाने वाली लड़कियों को लोक धुनें सिखाना शुरू किया. ग्वीराला फूल फुलि गे मेरा भिना, ग्वीराला लयड़ी फुलि गे...गीत की मौलिक लोक धुन सिखाते-सिखाते वे खुद गाने लगते और जब लड़कियां सही स्वर पकड़ लेतीं तो वे हारमोनियम को ढोल बना लेते और रोने लगते. आंखों से जार-जार आंसू बहते. लड़कियां हंसने लगतीं तो वे उनके सिर में हौले से टीप मारते.... हां, उनमें रेणु भी होती थी. उन दिनों आंखरके कई कार्यक्रमों के लिए उन्होंने गायकों को रिहर्सल कराई और खुद भी मंच से गाया.
गज़ब होती थी उनकी तान, आरोह-अवरोह. क्या गला था उनका! जब वे गाते- रिद्धि को सुमिरूं, सिद्धि को सुमिरों, सुमिरों शारदा माई...तो हवा थम जाती और उसमें अनुरागी जी के स्वरों की विविध लहरियां उठने-गिरने लगतीं. बायां हाथ कान में लगा कर वे दाहिने हाथ को दूर कहीं अंतरिक्ष की तरफ खींचते और चढ़ती तान के साथ खुली हथेली से चक्का-सा चलाते, गोया निर्वात में पेण्टिंग बना रहे हों. मंद्र सप्तक से स्वर उठा कर जाने कब वे तार सप्तक जा पहुंचते और वहां कुछ देर विचरण करने के बाद कब वापस मंद्र तक आ जाते, पता ही नहीं चलता था. तब वे अपने ढोल के भीतर होते थे और बाकी दुनिया बाहर.... वे हमारे कुमार गंधर्व थे. हां, सचमुच, वे मालवा (मध्य प्रदेश) के उस महान गायक से कभी अनौपचारिक-सी दीक्षा ले आये थे लेकिन इस बारे में बात करने पर हंस देते थे. यह सच है कि कुमार गंधर्व उनकी प्रतिभा से अच्छी तरह परिचित थे. “नाद नंदिनी” की उनकी भूमिका से यह स्पष्ट है.

गिर्दा जब कभी लखनऊ आते तो दोनों की गज़ब की छनती. सुर-ताल, गायकी और वाद्य के साथ यही है हुसेनगंज का असली..यानी मधुशाला तक. सल्लाम वाले कुम...का दीवाना था गिर्दा. बात-बात में टेर देता- तेरी वो बीवी फातिमा...और अनुरागी जी ढोल के भीतर से गमकते- सल्लाम वाले कुम.’ “सल्लाम” गाने का उनका तरीका अनोखा ही था.
कुछ वर्ष बाद अनुरागी जी प्रोन्नति पर आकाशवाणी, नज़ीबाबाद चले गए. उसके बाद एक-दो मुलाकातें ही हो पाईं. सुनता कि उनकी घुटकियां बहुत बढ़ गईं थीं. फिर एक दिन वे ढोल के भीतर ऐसे गए कि वहां से कभी वापस नहीं निकले. 

हां, बजाने वाला कायदे का हो तो ढोल आज भी अनुरागी जी के स्वर में गमकते हैं. (क्रमश:)

Saturday, January 24, 2015

ये चराग जल रहे हैं-2/ विद्या अवस्थी माने हमारी विद्या दी



रेणु की याद के साथ विद्या दी का चेहरा उभरा, हमारी विद्या दी! विद्या अवस्थी “हमारी” विद्या दी कब-कैसे बनी होंगी?

1971 में हाई स्कूल में पढ़ता था, तभी से उत्तरायण” के लिए कुमांऊनी कविता-कहानी लिखने लगा था. किसी शाम कार्यक्रम के बाद जिज्ञासु जी कहते- “विद्या के यहां चलोगे?” यह सवाल नहीं आदेश होता था. हम आकाशवाणी भवन के पीछे की गलियों से होकर क्ले स्क्वायर की न्यू हैवलक रोड कॉलोनी पहुंच जाते. वहां विद्या जी का, जिन्हें पता नहीं कब “दी” कहना शुरु किया होगा, मुस्कराता चेहरा सदा स्वागत को तत्पर मिलता. डा (विज्ञानी नीलाम्बर अवस्थी) साहेब ठेठ पिथौरागढ़ी कुमाऊंनी में आव-भगत करते और तीन प्यारी बच्चियां कमरे से निकल कर पैर छूना कभी नहीं भूलतीं.

धीरे-धीरे वह हमारा समय-असमय का अड्डा बन गया. कभी सिर्फ बच्चियां मिलती तो कभी डा साहेब खुद चाय बना लाते. विद्या दी ऑफिस से थकी-मांदी आतीं तो फिर चाय बनती. जिज्ञासु जी को विद्या के हाथ की चाय चाहिए ही चाहिए थी. तब हमें कभी यह महसूस नहीं हुआ कि दिन भर की थकी-मांदी विद्या दी को तनिक आराम की ज़रूरत है. वे कभी ऐसा महसूस ही नहीं होने देती थीं. तब भी नहीं जब वे रायबरेली या सीतापुर कहीं तैनात थीं और देर से घर पहुंचती. अपनी प्यारी मुस्कान लिए रसोई में जुट जातीं और हम अपनी गप्पें लिए उनके साथ रसोई में भी खड़े हो जाते.

रिश्तों में इतनी मिठास घुलती गई कि मिठाइयां और चाय की प्यालियों में घुली चीनी उसका क्या मुकाबला करेंगी! मुनमुन (दीप्ति) चुनमुन (तृप्ति ) और कुन्नू (ज्योति) का मैं मामा हो गया. सबसे छोटी कुन्नू तो लाड़ से गोद में ही चढ़ जाती और डा साहेब मज़ाक करते- “देखना, बेचारा नवीन पिचक न जाए!” पड़ोस में ही विद्या दी का मायका था. अक्सर उनकी ईजा, भाई, बहुएं और बच्चे भी चले आते. पूरा घर भर जाता और ऐसा जमावड़ा लगता कि हमें अपने घर लौटने की याद मुश्किल से आती.

1974 में जब “आंखर” का गठन हुआ तो विद्या दी का घर उसका दूसरा दफ्तर जैसा बन गया. कितनी बैठकें हमने वहां कीं. हर साल 16 अप्रैल को “आंखर” का जनमबार विद्या दी के घर की छत पर मनाया जाता. उनसे पूछने की ज़रूरत नहीं होती थी. बस, उन्हें फैसला सुना दिया जाता कि इस बार भी जनमबार आपके यहां मनेगा. आज सोचता हूं, कभी तो कोई दिक्कत-परेशानी-व्यस्तता रहती होगी मगर मज़ाल है जो कभी हमें महसूस होने दिया हो. दोनों की ज़िम्मेदारी वाली नौकरियां थी, बच्चियों की पढ़ाई थी मगर पूरा परिवार घर के आयोजन की तरह जुट जाता.

वक़्त अपनी रफ्तार भागता रहा. “आंखर” बिखर गया और मुलाकातें कम हो गईं मगर रिश्तों की ऊष्मा वैसी ही बनी रही. बच्चे बड़े हुए, शादियां हुई, डा साहेब और विद्या दी रिटायर हो गए. कभी लखनऊ रहते, कभी चुनमुन के साथ अमेरिका. फिर कोई दो साल पहले अचानक पता चला कि विद्या दी को कोई लाइलाज बीमारी हो गई है और वे कल्याणपुर में अपने देवर (वे सबके आन्चा यानी आनंद चाचा कहाते हैं) के यहां पड़ी है. मैं और लता मिलने गए. डा साहेब ने कहा- “देखो विद्या, तुमसे मिलने कौन आया है!”

बिस्तर पर पड़ी विद्या दी की गरदन हौले से घूमी और हमें देखते ही उनकी आंखों में पहचान और पुराने रिश्तों की चमक जागी. वे बोल नहीं सकती थीं. बस, सुन सकती थीं और अंगुलियों से इशारे कर सकती थीं. उनके अंगों ने धीरे-धीरे काम करना बंद कर दिया था.
-“विद्या दी”- मैंने पुकारा तो उन्होंने मेरी एक अंगुली अपनी हथेली में कस कर पकड़ ली, जिसे हम ”प्याट्ट” पकड़ना कहते हैं, वैसे ही. इसी “प्याट्ट” पकड़ से हमारा आत्मीय सम्वाद हुआ, सारा सुख-दुख, लाड़-प्यार, शिकवे-शिकायतें, जाने क्या-क्या.

वे मेरी अंगुली पकड़े रहीं और डा साहेब सुनाते रहे- “जब नवीन की मूंछ की रेख भी नहीं फूटी थी, तब से हमारे घर आ रहा है... अब सब मिलने आ गए तुमसे, विद्या, सब से भेट हो गई तुम्हारी...” लता चलने का इशारा कर रही थी क्योंकि उसकी आंखें डबडबा आई थीं और गला रुंध रहा था. मैं अपने को किसी तरह सम्भाले रहा. डा साहेब सामान्य दिख रहे थे लेकिन समझा जा सकता था कि उनके भीतर क्या-कुछ नहीं चल रहा होगा. विद्या दी की आंखें नौले-सी डबडब थीं और दरवाजे तक हमारा पीछा करती रहीं. देहरी से कदम बाहर रखते हुए हमने देखा डा साहेब विद्या दी की आखें पोछ रहे थे.

फिर कुछ दिन बाद उनकी मौत की खबर आई. पिछले बरस बरसी भी हो गई. बरसी पर मैं मुनमुन से विद्या दी की रचनाओं का संकलन निकालने की बात कर रहा था और वह मुझे विद्या दी का लिखा और उन ही का गाया आखिरी भजन सुनाने में लगी थी जो अमेरिका में चलती गाड़ी में मोबाइल पर रिकॉर्ड किया गया था. हां, यह बताना तो मैं भूल ही गया कि विद्या दी हिंदी और कुमाऊनी में कविताएं, गीत, भजन और होलियां लिखती और गाती थीं. भाषा प्रांजल और गला मधुर था उनका. “उत्तरायण” और “आंखर” की कई लोक भाषा कवि गोष्ठियों में उन्होंने चारु चंद्र पाण्डे, गिर्दा, आदि के साथ कविताएं पढ़ी. उनका वह सुरीला स्वर अब भी कानों में गूंजता है.

कुन्नू अब जब भी मिलती है, कहती है- “नवीन मामा, ‘आंखर को फिर शुरू कीजिए....” लता की बांह पकड़ कर झकझोरती है- “लता मौसी, मामा से कहिए न...” फिर हंसती है- “पति मामा, पत्नी मौसी... ये हमारा कैसा रिश्ता है!”

, किसी व्याख्या की ज़रूरत नहीं. खून के तथाकथित रिश्तों का विधान होता होगा जिनमें अक्सर उष्मा नहीं होती. हमारे ये आत्मीय रिश्ते किसी विधान के मोहताज़ नहीं! इनकी जड़ों में मुहब्बत की वह गर्मी है जिसमें सब पिघल कर एक हो जाता है. (क्रमश:)

ये चराग जल रहे हैं-1/ एक थी रेणु



भैंसाकुण्ड घाट पर सजी चिता में लिटाने से पहले कफन हटाया गया तो उसका चेहरा आखिरी बार दिखा. बहुत शांत और निश्चिंत. चिन्ता और दर्द का कोई चिन्ह नहीं. कोई महीने भर पहले उसे अस्पताल में देखा था, बहुत व्याकुल और परेशान. घातक बीमारी, डायलिसिस और उससे उपजी दूसरी तकलीफों से त्रस्त. मुझे देख कर वह थोड़ा मुस्कराई- “नवीन, तूने पहले ही कहा था कि पी जी आई दिखाते हैं....” साल भर बाद उसे पीजीआई ले भी गए थे पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी. इसलिए उसकी आवाज़ में बहुत अफसोस था उस दिन. फिर लता से कहा- “गुड्डी, ज़रा पीठ मल देगी...बहुत दर्द है.” दर्द उसके पूरे चेहरे पर तारी हो गया था.
दर्द से ऐंठा हुआ रेणु (पाण्डे) का वह चेहरा मेरे कहीं भीतर तक चुभ गया था जो भूला नहीं जाता लेकिन उस दिन चिता पर वह बेहद सुकून में लेटी थी- सारे दुख-दर्दों, चिंताओं और तनावों से बहुत दूर, जहां कुछ नहीं व्यापता.
चिता पर लेटी रेणु का पुरसुकून चेहरा मुझे बहुत पीछे खींच ले गया. 1971 के बाद का समय. आकाशवाणी लखनऊ का कुमांऊनी-गढ़वाली कार्यक्रम “उत्तरायण” लखनऊ के संस्कृतिकर्मियों का मिलन स्थल था. जीत जरधारी और बंसीधर पाठक “जिज्ञासु” उसके केंद्र थे. अपनी बोलियों के लेखक, कवि, नाटककारों के अलावा गीत-लोकगीत गाने वाले-वालियों की अच्छी खासी टोलियां लखनऊ में तैयार हो गई थीं. उस दौर में नए-पुराने बहुत सारे लोगों से मुलाकातें-दोस्तियां हुईं. इन्हीं में रेणु भी थी, संगीतज्ञ पीताम्बर पाण्डे की प्रतिभाशाली संतानों में एक, अपने भाई-बहनों की तरह गायन में निपुण लेकिन उनसे अलग भी.
अपनी उन्मुक्त खिलखिलाहटों, स्नेहिल-सहयोगी स्वभाव और मिलनसारिता के बावज़ूद रेणु के भीतर एक विद्रोही लड़की थी. यह विद्रोह अनेक स्तरीय था और दुविधाग्रस्त भी. वह अच्छा गाती थी लेकिन रेडियो कार्यक्रमों के लिए किसी अधिकारी के आगे-पीछे नहीं घूम सकती थी, बल्कि कई बार कार्यक्रम ठुकरा देती थी. ठीक-ठाक नौकरी के कारण वह आत्मनिर्भर थी और इसीलिए उनकी भी आलोचना कर ले जाती थी जिनकी हां में हां मिलाना बहुतों की मज़बूरी थी. 1974 में जब हमने “शिखर संगम” संस्था बनाई और उसके बंद होने पर 1978 में “आंखर” का गठन किया तो अपने इसी विद्रोही किंतु दुविधा ग्रस्त स्वभाव के कारण वह उनमें शामिल होकर भी अलग जैसी थी और बाद में बिल्कुल ही दूर हो गई. लता से उसकी गाढ़ी दोस्ती थी और इसी कारण मैं रेणु के सपनों, उसकी इच्छाओं, कुण्ठाओं और हताशाओं का भी साक्षी रहा. उसकी दुविधाओं ने सब कुछ उसके भीतर ही घोट दिया.
उन संदर्भों का ज़िक्र करने का अब कोई मतलब नहीं. सब उसी के साथ चला गया. चिता की राख के साथ नदी में बह गया. लड़कियों के सपने होते होंगे, मिट्टी के नहीं होते!
जिस दिन वह खाक में मिली, 18 नवम्बर को, उसी रात मुझे पटना वापस लौटना था, जहां आजकल मेरा डेरा है. रात को ट्रेन की बर्थ पर करवटें बदलते हुए याद आया कि पिछले साल 18 नवम्बर ही को वह हमारे साथ दिल्ली से ट्रेन में लौट रही थी. हमने वहां एक शादी में खूब मस्ती से पुराने दिन जिए और रेणु को चिढ़ाया भी. वह बीमारी से कमजोरी के बावज़ूद हंसी-गाई-नाची. पटना लौट कर अपने डेरे के निपट एकांत में मुझे कई दिन तक रेणु और उसके बहाने उस दौर के कई चहरे याद आते रहे. कहां-कहां से हम आए, किस तरह मिले, कैसे-कैसे रिश्ते बने, कैसा साथ गुज़रा और कौन चुपके से जाने कहां को चला गया! (क्रमश:)