Saturday, October 31, 2015

बात इस पर हो कि लेखक सम्मान वापस क्यों कर रहे


कन्नड़ लेखक और तर्कवादी एम एम कलबुर्गी की हत्या के विरोध में चार सितम्बर को हिंदी के तेज-तर्रार लेखक उदय प्रकाश द्वारा साहित्य अकादमी सम्मान वापस करने से शुरू हुआ सिलसिला अब देश व्यापी हो चुका है. कश्मीर से, पंजाब से, गोआ से, गुजरात से, केरल से और दिल्ली समेत उत्तर व मध्य भारत के कई राज्यों से विभिन्न भाषाओं के लेखक सम्मान वापस कर देश में फैलाई जा रही साम्प्रदायिक घृणा का विरोध कर रहे हैं. इन पक्तियों के लिखे जाने तक 30 से ज्यादा साहित्यकार अकादमी सम्मान लौटा चुके हैं जिनमें कृष्णा सोबती और काशी नाथ सिंह जैसे बुजुर्ग और बहु सम्मानित हिंदी साहित्यकार भी शामिल हैं. यह संख्या बढ़ती जा रही है. कुछ लेखक साहित्य अकादमी की कार्यकारिणी और सदस्यता भी छोड़ चुके हैं. पंजाबी लेखिका दलीप कौर टिवाणा ने पद्मश्री और कन्नड़ की रंगकर्मी माया कृष्णा राव ने संगीत अकादमी का सम्मान लौटा कर कलम के सिपाहियों के प्रतिरोध के दायरे को और व्यापक बनाया है. सलमान रुश्दी ने ट्वीट किया कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए यह खतरनाक समय है और मैं इन लेखकों के इस कदम का स्वागत करता हूं.
यह प्रतिरोध सम्मान प्राप्त लेखकों ही का नहीं है. बहुत से ऐसे लेखक भी जो साहित्य अकादमी से सम्मानित नहीं हैं, इस विरोध में अपनी आवाज मिला रहे हैं. कई साहित्यकार ऐसे भी हैं जो अकादमी सम्मान लौटाए जाने के पक्षधर नहीं हैं लेकिन वे उन मुद्दों के समर्थन में हैं जो इन लेखकों ने उठाए हैं. गिरिराज किशोर और मृदुला गर्ग अलग-अलग बयानों में कहते हैं कि सम्मान वापस करके लेखक खुद ही सरकार के हाथों में खेल रहे हैं. वे सरकार को मौका दे रहे हैं कि वह अकादमी में अपने लोगों को ला बिठाए. इस बयान के बावजूद ये दोनों साहित्यकार विरोध पर उतारू लेखकों की भावनाओं के साथ हैं
साहित्यकारों का विरोध व्यापक और राष्ट्र-व्यापी होते ही केंद्र सरकार, भाजपा और हिंदूवादी संगठनों में तीखी प्रतिक्रिया हुई है. केंद्र सरकार के संस्कृति मंत्री महेश शर्मा कहते हैं कि अगर लेखक लिख नहीं पा रहे हैं तो लिखना बंद कर दें. तब हम देखेंगे. वे यह भी कहते हैं कि अकादमी सम्मान लेखकों द्वारा लेखकों को दिया गया सम्मान है. इसका सरकार से क्या वास्ता. केंद्रीय मंत्री रवि शंकर प्रसाद ने कहा कि नरेंद्र मोदी से चिढ़ने वाले लेखक ही सम्मान लौटा रहे हैं. वरिष्ठ केंद्रीय मंत्री अरुण जेटली तो साफ-साफ कहते हैं कि यह कांग्रेस और वाम समर्थक साहित्यकारों के खेमे का राजनीतिक विरोध है. राजनीतिक हाशिए पर चले गए कांग्रेस और वाम दल अपने समर्थक साहित्यकारों की मार्फत कृतिम संकटपैदा करके कृतिम राजनीतिकर रहे हैं.
भाजपा और हिंदूवादी संगठनों के लोगों की प्रतिक्रिया समझ में आती है लेकिन कुछ लेखकों, पाठकों और सोशल साइटों पर सक्रिय लोगों ने भी सवाल उठाए हैं. नामवर सिंह ने सीधे-सीधे आरोप ही लगा दिया कि कुछ लेखक प्रचार पाने के लिए सम्मान वापस कर रहे हैं,  हालांकि उनके आज्ञाकारी लघु भ्राता काशीनाथ सिंह ने सम्मान वापस करना सही समझा.
असहमति या विरोध में कुछ इस तरह के सवाल उठ रहे हैं. 1-साहित्य अकादमी लेखकों की अपनी संस्था है. सम्मान वापसी साहित्य अकादमी और सम्मान चयन समिति का अपमान है. 2- लेखक जो मुद्दे उठा रहे हैं वे कानून-व्यवस्था से जुड़े हैं. साहित्य अकादमी का कानून-व्यवस्था से क्या लेना-देना. 3- लेखकों का हथियार कलम है. उन्हें विरोध करना है तो लिखकर करें. क्या उनकी लेखनी चुक गई है? 4- लेखकों-संस्कृतियों पर हमले और समुदायों के खिलाफ हिंसा पहले भी हुए हैं. 1984 के सिख नरसंहार, 1992 की देशव्यापी हिंसा, 2002 के गुजरात दंगों के खिलाफ तो लेखकों ने सम्मान वापस नहीं किए. आज क्यों?
अब इन पर विचार करें. जितना यह सच है कि साहित्य अकादमी लेखकों की संस्था है, उतना ही यह भी कि इस संस्था ने अपनी प्रतिष्ठा खोई है. अकादमी के सम्मानों पर विवाद भी उठते हैं. कई श्रेष्ठ कृतियों को अकादमी सम्मान नहीं मिला. विष्णु खरे जैसे प्रखर साहित्यकार अकादमी की घनघोर निंदा करते रहे हैं. लेकिन, आज जो लेखक अकादमी का सम्मान वापस कर रहे हैं वे वर्तमान हालात में अकादमी की भूमिका पर सवाल तो उठा रहे हैं लेकिन उनके विरोध का मुद्दा साहित्य अकादमी न होकर हमारे समय के ज्वलंत प्रश्न हैं. जो सम्मान वापसी को साहित्य अकादमी का विरोध मान रहे हैं वे उन बड़े और सामयिक मुद्दों की अनदेखी कर रहे हैं जो सम्मान वापसी पर उठाए जा रहे हैं. उदय प्रकाश ने अपने निर्णय के पीछे यह कारण गिनाए थे- “पिछले कुछ समय से हमारे देश में लेखकों, कलाकारों, चिंतकों और बौद्धिकों के प्रति जिस तरह का हिंसक, अपमानजनक, अवमाननापूर्ण व्यवहार लगातार हो रहा है, जिसकी ताजा कड़ी प्रख्यात लेखक और विचारक तथा साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित कन्नड़ साहित्यकार श्री कलबुर्गी की मतांध हिदुत्ववादी अपराधियों द्वारा की गई कायराना और दहशतनाक हत्या है, उसने मेरे जैसे अकेले लेखक को भीतर से हिला दिया है. अब यह चुप रहने का और मुंह सिल कर सुरक्षित कहीं छुप जाने का पल नहीं है. वर्ना ये खतरे बढ़ते जाएंगे.” इसके अंत में वे पुरस्कार का चयन करने वाले निर्णायक मण्डल के प्रति आभार व्यक्त करना भी नहीं भूले. इससे साफ हो जाना चाहिए कि सम्मान लौटाने का फैसला साहित्य अकादमी का विरोध मात्र नहीं है.
अकादमी सम्मान लौटाने की घोषणा करते हुए गुजराती कवि अनिल जोशी और कोंकणी लेखक एन शिवदास के बयान और भी महत्वपूर्ण हैं. अनिल जोशी ने कहा कि देश का वातावरण घृणामय हो गया है और लेखकों की आज़ादी और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता छिन गई है. कुछ धार्मिक पहचानें साम्प्रदायिक ताकतों के कारण खतरे में पड़ गई हैं. मैं लेखक हूँ और सम्मान वापस कर अपना विरोध प्रकट कर रहा हूँ. कोंकणी लेखक एन शिवदास का कहना है कि हम सनातन संस्था जैसे संगठनों, जो धर्म के नाम पर लोगों को बरगला रहे हैं और तर्कवादियों की हत्या के लिए ज़िम्मेदार हैं, का लगातार विरोध करते रहे हैं और अब हम खुद पर खतरा महसूस कर रहे हैं. हमें धमकियां मिल रही हैं.
जहां तक लिख कर विरोध करने का सवाल है, लेखक लिख कर तो अपनी आवाज़ उठाते ही रहे हैं. प्रगतिशील, जनवादी और समाज के प्रति उत्तरदायी हमारा साहित्य अपने समय के ज्वलंत प्रश्नों और प्रतिरोध के स्वरों से भरा है लेकिन वह तात्कालिक बड़े मुद्दों पर सीधा हस्तक्षेप नहीं कर पाता. जैसे, जो पढ़ते हैं वे जानते हैं कि आज के हालात के विरोध में काफी कुछ लिखा जा रहा है. लेकिन जब असहमति पर भी हत्याएं हो रहीं हों तो कविता-कहानी लिख कर कितना प्रभावी प्रतिकार हो सकता है? मगर जब लेखकों ने साहित्य अकादमी का सम्मान लौटाना शुरू किया तो देश भर में उनकी गूंजी कि नहीं? सत्ता-शिखरों तक उसकी धमक हुई या नहीं? कभी-कभी ऐसे अवसर आते हैं जब साहित्यकार को लगता है कि सिर्फ लिख देने भर से पर्याप्त प्रतिकार नहीं हो रहा. आज कई लेखकों को लग रहा कि पुरस्कार लौटाना ज़्यादा प्रभावी प्रतिरोध होगा और सचमुच हो रहा है. दुनिया के इतिहास में ऐसे कई मौके आए जब साहित्यकारों ने लेखन से कहीं आगे जाकर प्रतिरोध किए और अपने समय में सार्थक व प्रभावी हस्तक्षेप किया. भारत में भी कई उदाहरण हैं. रवींद्र नाथ टैगोर ने 1919 में जलियांवाला बाग नरसंहार के विरोध में नाइटहुडकी पदवी लौटाई थी. 1975-76 में इमरजेंसी के खिलाफ कई लेखक सक्रिय रहे. फणीश्वर नाथ रेणु ने पद्मश्री लौटा दी थी और आज अकादमी सम्मान वापस करने वाली नयनतारा सहगल ने आपातकाल के विरोध कारण प्रताड़ना झेली थी. खुशवंत सिंह ने 1984 में स्वर्ण मंदिर में सैनिक कार्रवाई के विरोध में पद्मश्री लौटाई थी. ऐसे और भी उदाहरण मिले जाएंगे. इसलिए यह सवाल कि लेखकों ने पहले सम्मान क्यों नहीं लौटाए, सही नहीं है. यह भी कोई तर्क नहीं है कि पहले नहीं किया तो इस समय भी न किया जाए.
अगर आज तीस से ज्यादा अकादमी सम्मान प्राप्त लेखक पुरस्कार वापसी को अपने विरोध का कारगर हथियार मान रहे हैं तो इसकी खिल्ली कैसे उड़ाई जा सकती है. किसी ने भी किसी दवाब या लालच में पुरस्कार नहीं लौटाए हैं. और, यह प्रतिरोध सिर्फ सम्मान प्राप्त लेखकों का ही नहीं है. जिन्हें अकादमी सम्मान नहीं मिला है मगर उन्हें लगता है कि आज विरोध करना ज़रूरी हो गया है, वे अपने तरीके से विरोध कर रहे हैं. पंजाबी लेखिका दलवीर कौर टिवाणा ने पद्मश्री लौटाकर, कन्नड़ रंगकर्मी माया कृष्णा राव ने संगीत अकादमी सम्मान लौटा कर अपना विरोध जताया है.. 
कई लेखक ऐसे हैं जो आज के हालात के विरोध में हैं लेकिन अकादमी सम्मान लौटाना उचित तरीका वे नहीं मानते. सिर्फ सम्मान लौटाना ही विरोध प्रकट करने का सही तरीका है, ऐसा कोई नहीं कह रहा. एन शिवदास समेत बीसेक कोंकणी लेखकों ने पहले अकादमी सम्मान लौटाने की घोषणा की थी लेकिन बाद में सामूहिक बैठक में तय हुआ कि सम्मान लौटाने की बजाय राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव के दौरान प्रदर्शन करके विरोध व्यक्त किया जाए. यह रचनाकारों के विवेक पर है. मूल प्रश्न यह है कि आप देश में अभिव्यक्ति की आजादी, लोकतांत्रिक, प्रगतिशील, परस्पर सम्मान और बहु-धार्मिक-बहु-सांस्कृतिक समाज में सह-अस्तित्व की परम्परा के खिलाफ की जा रही साजिशों के खिलाफ हैं या नहीं? देश को और ज्यादा टूटता-बंटता देख कर आप प्रभावी विरोध करना उचित समझते हैं या नहीं?
साहित्यकारों का ऐसा संगठित विरोध पहले नहीं देखा गया. यह आरोप कि ये लेखक कांग्रेसी या वाम दलों से सम्बद्ध हैं, तथ्यों से आंखें मूदना है. इनमें कुछ ही लेखक हैं जिन्हें कांग्रेसी या वामपंथी कहा जा सकता है. ज्यादातर लेखक लोकतांत्रिक परम्परा में विश्वास करने वाले और प्रगतिकामी हैं. वे अभिव्यक्ति की आज़ादी और सहिष्णु समाज चाहते हैं. इन लेखकों की चिंता का वृहद दायरा अफवाहों और कुतर्कों से फैलाई जा रही नफरत का है. विज्ञान सम्मत और तार्किक बातों से अपने समय में सार्थक हस्तक्षेप करने वाले नरेंद्र दाभोलकर और गोविंद पानसरे को धमकियां क्यों दी जाती रहीं और अंतत: उनकी हत्या क्यों की गईं. ये कौन लोग हैं और किन संगठनों से सम्बद्ध हैं? उन्हें कहां से ताकत और संरक्षण मिल रहा है? और सबसे बड़ा सवाल यह कि इन हत्याओं के विरोध में सत्ता प्रतिष्ठान क्यों चुप हैं? हमलावरों और घृणा फैलाने वाले संगठनों पर कारवाई क्यों नहीं हो रही? अकेले दादरी इलाके में, जहां के गांव बिसाहड़ा में मंदिर से अफवाह फैलाकर अकलाख के घर भीड़ से हमला कराया गया, और उसकी हत्या की गई, वहां गोरक्षा के नाम पर आधा दर्जन संगठन कैसे और क्यों सक्रिय हो गए? दादरी मामले पर करीब पंद्रह दिन बाद प्रधानमंत्री का यह कहना कि जो हुआ वह दुर्भाग्यपूर्ण था लेकिन सरकार का इससे क्या सम्बंध, बहुत बचकाना और चालाकी भरा बयान है. उन्होंने मुंह भी तब खोला जब राष्ट्रपति ने देश में फैल रही असहिष्णुता पर चिंता जताई.
नवरात्र लगते ही गुजरात के गोधरा में अगर ऐसे बैनर दिखाई दिए कि अपनी बेटियों को लव जिहाद से सुरक्षित रखने के लिए गरबा में मुस्लिम लड़कों को न आने दें, तो भी क्या प्रधान मंत्री को सक्रिय हस्तक्षेप करने लायक स्थितियां नहीं दिखाई देतीं?
लेखकों के विरोध के यही असल मुद्दे हैं. इन मुद्दों से ध्यान हटाकर सम्मान वापसी या सम्मान की राजनीति या लेखकों की खेमेबाजी को बहस में न लाया जाए.
( 20 अक्टूबर, 2015)



Friday, October 30, 2015

जाति, जयंती और छुट्टियों का खेला



आज़ादी के समय देश को एक सूत्र में बांधने वाले और आज भी बहुत लोगों की नज़र में नेहरू से बेहतर प्रधानमंत्री साबित हो सकते थे वाले सरदार बल्लभ भाई पटेल अब पूरी तरह कुर्मियों के नेता बना दिए गए हैं. मुख्यमंत्री से 31 अक्टूबर को सरदार पटेल जयंती पर सार्वजनिक अवकाश की मांग करने गए थे कुख्यात डकैत ददुआ के भाई, पूर्व सपा सांसद बाल कुमार पटेल तथा उनके बेटे, सपा विधायक राम सिंह. बकौल बाल कुमार मुख्यमंत्री ने यह मांग मान लेने के संकेत दिए. उनका इशारा यह भी था कि इससे भाजपा को झटका लगेगा जो प्रधानमंत्री की घोषणा के अनुसार गुजरात में पटेल की भव्य और सबसे ऊंची प्रतिमा बना रही है. हम कहना चाहते थे- गज़ब  रे, गज़ब! लेकिन याद आया कि पटेल को कुर्मी, जेपी को कायस्थ, और लोहिया को वैश्य गौरव बताते हुए जातीय सम्मेलन हमने पिछले दशक में इसी लखनऊ में देखे. अब क्या हैरानी!
सो, पटेल बाबा की आत्मा को बिलखता छोड़ कर हम हिसाब लगाने में लगे कि यदि पटेल जयंती पर सरकार छुट्टी घोषित कर दे (अवकाश की घोषणा हो गई है) तो यह राज्य कर्मचारियों को एक साल में मिलने वाली 39वीं छुट्टी होगी. तीन स्थानीय और दो निर्बंधित अवकाश भी इसमें जोड़ दें.
2004 में इन छुट्टियों की संख्या करीब 24 थी. उसके बाद जातीय राजनीति की प्रतिद्वंद्विता में सपा और बसपा सरकारों ने दिवंगत नेताओं की जातीय पहचान उजागर कर जन्म और निर्वाण दिवसों पर छुट्टियां देना शुरू किया. मायावती ने कांशी राम के जन्म दिन (15 मार्च) और निर्वाण दिवस (09 अक्टूबर) को छुट्टी घोषित की थी जिसे अखिलेश सरकार ने रद्द कर दिया. सपा को कांशी राम से कोई मोह नहीं लेकिन दलित नाराज न हों, इसलिए अम्बेडकर निर्वाण दिवस (06 दिसम्बर) पर छुट्टी दे दी. अम्बेडकर जयंती (14 अप्रैल) पर राष्ट्रीय अवकाश होता ही है. फरसा लेकरक्षत्रिय हीन मही मैं कीन्हींका उद्घोष करने वाले ऋषि परशुराम की जयंती पर मायावती सरकार ने छुट्टी की थी तो जवाब में सपा सरकार ने राजपूत शिरोमणि महाराणा प्रताप के जन्म दिन (09 मई) पर अवकाश दे दिया. बिहार के मुख्यमंत्री और सम्पूर्ण क्रांति के नायकों में से एक कर्पूरी ठाकुर की जाति नाई थी. सो, यूपी में उनके जन्म दिन पर 24 जून को अवकाश दे दिया गया हालांकि बिहार में उस दिन छुट्टी नहीं होती. महर्षि निषाद राज जयंती (05 अप्रैल) चंद्रशेखर जयंती (17 अप्रैल) और ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती के उर्स (26 अप्रैल) पर भी हाल में छुट्टियां घोषित की गईं.
यह तथ्य स्वीकार करना चाहिए कि दलित और पिछड़े वर्ग के महापुरुषों की हमारे यहां उपेक्षा हुई. देर से ही सही उन्हें उचित सम्मान मिलना ही चाहिए लेकिन क्या इसका कोई बेहतर और सम्मानजनक तरीका नहीं हो सकता? सरकारी काम-काज की छुट्टी तो समाज हित में है नहीं. तो फिर जन्म या निर्वाण दिवसों पर सरकारी अवकाश रखना उन नेताओं का अपमान क्यों नहीं मान जाना चाहिए? छुट्टियां कम करके काम-काज को गति देना और उन नेताओं के रचनात्मक कर्मों को आगे ले जाने का प्रयास क्यों नहीं किया जाना चाहिए? जातीय समूहों के वे कैसे नेता हैं जो सार्वजनिक अवकाश को गर्व और सम्मान की बात मानते हैं? राजनीति ऐसी क्षुद्र सोच से कब उबरेगी?
भारत सरकार की सार्वजनिक अवकाश सूची दो निर्बंधित मिलाकर 19 दिनों की है. जातीय राजनीति के लिए बदनाम बिहार में एक साल में कुल 34 छुट्टियां होती हैं. अपना यूपी यहां भी अव्वल! अतएव, जो जाति समूह अब भी सोए हुए हैं, जागें!
(नभाटा, लखनऊ में 31 अक्टूबर को प्रकाशित)