Thursday, November 19, 2015

सिटी तमाशा/ जनाब, आप तो तहजीब के शहर के नाटक प्रेमी हैं!


बाबू हर दयाल वास्तव हास्य नाट्य समारोह में बुधवार को मसाज नाटक में अकेले ही कई चरित्रों को निभा रहे चर्चित अभिनेता राकेश बेदी हॉल में मोबाइल बजने और कैमरों के फ्लैश चमकने से इतना खिन्न हुए कि उन्हें अभिनय रोक कर दर्शकों को नाटक देखने की तमीज सिखानी पड़ी. एक अभिनेता के लिए किसी चरित्र में उतरना और उसे मंच पर जीना कितना दुस्साध्य होता है, कितने कंसंट्रेशन की जरूरत होती है, यह शायद आज के दर्शक समझते ही नहीं या वहां जाना भी जस्ट फॉर फन है. कुछ संजीदा नाट्य प्रेमियों ने अगर यह टिप्पणी की कि लखनऊ के दर्शकों में अब नाटक देखने की तमीज नहीं रही तो क्या गलत?

हाल के वर्षों में ऐसा कई बार हो चुका है. कुछ वाकए फांस की तरह गड़े हुए हैं. पिछले वर्ष लखनऊ लिटरेचर कार्निवाल में सलीम आरिफ के निर्देशन में बहुत संजीदा नाटक हम सफर खेला जा रहा था जो पति-पत्नी के उतार-चढ़ाव भरे रिश्तों के बहाने स्त्री-पुरुष सम्बंधों के विविध आयाम एवं आवेग पेश करता है. बहुत प्रभावशाली संवाद थे जो चिंतन-मनन की अपेक्षा करते थे. लेकिन दर्शक हर संवाद पर तालियां पीट रहे थे, गोया वे नाटक नहीं कोई प्रहसन या फिल्म देख रहे हों. पुराने दर्शक नाटक के बीच में ही नहीं, दृश्य परिवर्तन के दौरान भी तालियां बजाना आपत्तिजनक मानते थे. नाटक की कथा वस्तु, अभिनय और निर्देशक का संदेश ध्यान से ग्रहण कीजिए और तालियां अंत के लिए सुरक्षित रखिए.

सिर शर्म से झुक जाता है जब बाहर से आए मशहूर अभिनेता नाटक रोक कर दर्शकों से शांत रहने की चिरौरी-सी करते या नाराज़गी जताते हैं. वे याद दिलाते हैं कि आप तो तहजीब के लिए मशहूर लखनऊ के दर्शक हैं! लेकिन यहां तहजीब बची है क्या! दो-तीन वर्ष पूर्व मुम्बई से आए पसिद्ध अभिनेता अतुल कुलकर्णी गुलजार की नज्मों-डायरियों पर आधारित नाटक पेश कर रहे थे. देश विभाजन के समय हुए दंगों की भयावहता का प्रसंग था. एक पति-पत्नी दो बीमार बच्चों को लेकर ट्रेन की छत पर बैठे सीमा पार भाग रहे हैं. एक बच्चा मर गया. दहाड़ें मारती पत्नी को सम्भालते हुए पति निर्जीव बच्चे को नीचे फैंकता है लेकिन दुख, बदहवाशी और दहशत में जिंदा बच्चे को फैंक बैठता है. त्रासदी के इस चरम पर भी हॉल में मोबाइल बज रहे थे. अतुल कुलकर्णी ने एक-दो बार ध्यान नहीं दिया लेकिन फिर दुखी होकर नाटक रोक दिया और अपना आक्रोश व्यक्त किया था. जया बच्चन हजार चौरासी की मां में मां का किरदार निभा रही थीं. फोटोग्राफर मंच पर चढ़कर क्लोज अप लेने लगे और दर्शक उनसे हटने को कहने लगे थे. मां की पीड़ा का अभिनय छोड़कर जया ने लखनऊ के दर्शकों को लताड़ा था. तुगलक नाटक के दौरान प्रख्यात अभिनेता मनोहर सिंह ने दर्शकों को जो गुस्सा दिखाया था, वह पुराने नाट्य प्रेमियों को याद होगा.

आज हर हाथ में दो-दो मोबाइल हैं पर तमीज बहुत कम लोगों के पास है. नाटक जैसी सजीव प्रस्तुतियां देखने आने वाले भी उसे साइलेण्ट क्यों नहीं करते, ताज्जुब होता है. महिलाएं क्षमा करेंगी, गड़बड़झाला-पर्स के भीतर उनका मोबाइल बजता रहता है और वे उसे खोज ही नहीं पातीं. प्रेस फोटोग्राफरों को यह इल्म ही नहीं कि नाटक की सबसे सुंदर तस्वीर मंच की नियोजित प्रकाश सज्जा के साथ खींची जाती है. फ्लैश चमकाने से कलाकारों का कंसंट्रेशन टूटता है, सो अलग.
मंचन के दौरान ही नहीं, नाटक से पूर्व भी मोबाइल बंद करने अनुरोध किया जाना हमारे लिए शर्म की बात होनी चाहिए. नहीं क्या?
(नभाटा, लखनऊ में 20 नवम्बर 2015 को प्रकाशित)



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