Wednesday, December 23, 2015

तालाब बचाने का कानून ही खत्म कर दिया यूपी ने


उत्तर प्रदेश सरकार ने बीते मंगलवार को राजस्व कानूनों में कुछ महत्वपूर्ण बदलाव किए. अंग्रेजों के जमाने से चले आ रहे कई अव्यावहारिक प्रावधानों को खत्म कर दिया गया. लेकिन इसी के साथ एक ऐसा कानून भी उलट दिया जिस पर और भी सख्ती से अमल करना बेहिसाब शहरीकरण के इस अराजक दौर में बहुत ज़रूरी था.
अभी तक तालाब, चारागाह और खलिहान जैसे सार्वजनिक उपयोग की जमीन का स्वरूप बदला नहीं जा सकता था. यानी तालाब को पाट कर और चरागाह में किसी तरह का निर्माण गैर कानूनी था. इसका उल्लंघन तो हो ही रहा है, अब इसे कानूनी जामा पहना कर वैध बना दिया गया है. किसी भी योजना के तहत ली गई जमीन पर अगर तालाब, चरागाह या खलिहान है तो उसका स्वरूप बदला जा सकेगा. उसकी खरीद-फरोख्त की जा सकेगी. तेजी से गायब किए जाते तालाबों के इस समय में इस कानून का बदला जाना बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है. कुछ जागरूक नागरिक और संगठन अब तक के कानून की सहायता से कुछ तालाब बचाए रखने में कामयाब रहे. नया कानून अब उनकी कोई मदद नहीं कर पाएगा.
तालाब हमारे ग्रामीण ही नहीं शहरी जीवन का भी महत्वपूर्ण हिस्सा रहे हैं. नदियों के किनारे शहरों का बसना मनुष्य की विकास यात्रा का स्वाभाविक क्रम था तो तालाब खोदना प्रकृति के साथ उसके सह-अस्तित्व का बेहतरीन उदाहरण. आबादी के बीच और दूर भी मनुष्य ने काफी तादाद में तालाब बनाए. बारिश का अतिरिक्त जल इन तालाबों में जमा होकर कुछ वाष्पन से और कुछ धरती में रिस कर भूजल को समृद्ध करता रहा. यह प्रकृति से लिया हुआ उसे ही साभार लौटाना था. अतिवृष्टि में ये तालाब मानव बस्तियों को जलभराव से बचाते रहे तो उफनाई नदियों का जल रोक कर बाढ़ की विभीषिका कम करने में सहायक हुए. मत्स्य पालन से लेकर सिंघाड़ा और मखाना जैसे पौष्टिक उत्पाद तक वे हमारी आर्थिकी मजबूत करते रहे तो और जीव-जन्तुओं के लिए जीवन दायिनी बने रहे. एक जीवंत तालाब की बहुविध उपयोगिता इस देश में कहीं भी उसके मानव पड़ोसियों से पूछ देखिए.
पिछले 25-30 सालों में शहरीकरण की रफ्तार ने कुछ ऐसा जोर पकड़ा कि मनुष्य और उसकी व्यवस्था प्रकृति से अपना तादात्म्य ही भूलती चली गई. रिहायशी, सरकारी, व्यावसायिक और तरह-तरह के निर्माण विकास की सबसे बड़ी जरूरत बनते गए. जंगल, मैदान, खेत और तालाब तक पाट कर बड़ी-बड़ी इमारतें खड़ी की जाने लगीं. थोड़ी जहमत उठाइए और अपने शहर का 20-30 साल पुराना नक्शा तलाश कर देखिए. कहां गए मैदान, बगीचे और तालाब? गूगल मैप आज उनकी जगह क्या दिखा रहा है? इनकी रक्षा का कानून मौजूद होने के बावजूद निजी बिल्डर ही नहीं सरकार और उसके विकास प्राधिकरण भी इस विनाश में बराबर शामिल हैं.
आंखें और दिमाग बंद रखने के खतरनाक परिणाम भी हम भोग रहे हैं. आज कोई भी शहर सामान्य बारिश में भी जलभराव से त्रस्त हो जाता है. मकानों में पानी भर जाना आम रोना है. जितने बड़े शहर उतनी बड़ी समस्या. बारिश पहले कम नहीं होती थी और पानी बहने के लिए ढाल ढूंढेगा ही. अब वहां तालाब की जगह इमारत खड़ी मिले तो उसका क्या दोष. पानी के ठहरने की जगह नहीं, जमीन में उसके रिसने का रास्ता नहीं. नदी-नालों की क्षमता बहुत सीमित. हमने क्या सोचा था कि क्या होगा?
और, अब भी क्या सोच रहे हैं? तालाबों, चरागाहों की जमीन का स्वरूप बदल सकने का कानून बनाने के पीछे उत्तर प्रदेश सरकार का यही सोच है कि विकास योजनाओं के लिए अधिग्रहीत जमीन पर इनके होने से निर्माण में अड़चन न आने पाए. महत्वपूर्ण प्रश्न यह कि विकास योजनाओं के लिए तालाबों और मैदानों को खत्म करना ही क्यों जरूरी है? एक बड़ी योजना के दायरे में एक-दो तालाब और एक-दो खुले मैदान क्यों नहीं बचाए जा सकते? सारी जमीन को कंक्रीट से पाटना क्यों जरूरी है जबकि हरियाली, पानी और सुरक्षित हवा के बिना अब सांस लेना भी जानलेवा होता जा रहा है? धरती के नीचे का सारा पानी उलीच कर भी उसकी थोड़ी भरपाई जरूरी क्यों नहीं लग रहा?
आबादी और योजनाओं के बीच तालाबों, मैदानों को हर हाल में बचाए रखने का कानून खत्म किए जाने की बजाय, और सख्त क्यों नहीं बनाया जाना चाहिए था?
(अमर उजाला, 24 दिस्मबर 2015 में प्रकाशित)



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