Thursday, December 24, 2015

सिटी तमाशा/ और जाम में फंसे हम एम्बुलेंस की लाचारी देखा किए


बीते सोमवार को सूबे के मंत्री जनाब शिवपाल यादव थोड़ी देर जाम में फंसे थे. फंसे हम भी वहीं थे लेकिन हमें कौन पूछता! सो, हम कुंठा के मारे मंत्री जी को जाम से निकलवाने की पुलिस की कवायद का मुजाहिरा किया किए. सिपाही, इंसपेक्टर, बड़े अफसर सब दौड़े आए. हथियारबंद अंगरक्षक तो थे ही. सबने मिल कर आगे की गाड़ियों को फटकारा, दाएं वाले को बाएं धकेला, बाएं जाने वाले को सीधा चलता किया, किसी गाड़ी पर डण्डा मारा, किसी पर गालियां. चंद मिनट लगे मगर शाबाश! उन्होंने सारे आसन आजमा कर मंत्री जी को जाम से निकाल लिया. मंत्री मुक्त, सिपाही फुर्र!
हम और भी जटिल जाम में उलझ गए. उलझा हमारा दिमाग भी रहा जो बड़ी देर से एक एम्बुलेंस का सायरन सुन-सुन कर हैरान-परेशान हुआ जा रहा था. उसमें मरीज जाने किस हाल में रहा होगा, कितना गम्भीर, इलाज की कितनी जल्द जरूरत. उसकी तरफ किसी का ध्यान नहीं था. हमारी पुलिस मंत्रियों की गाड़ियों हूटर बड़ी तत्परता से पहचानती है, एम्बुलेंस का नहीं. जनता को नेताओं के हूटर और एम्बुलेंस के सायरन में कोई फर्क नहीं मालूम होता. इसलिए वह हाँके जाने तक टस से मस नहीं होती.
उस दिन एक घण्टा से ज्यादा फंसे-रेंगते रहे. दुआ काम आई होगी तो एम्बुलेंस का मरीज बच गया होगा. फंसी एम्बुलेंस में मरीजों की मौत की दर्दनाक खबरें छपती रहती हैं. विधान भवन, बापू भवन और हज़रतगंज के इर्द-गिर्द सड़कों पर वीआईपी गाड़ियों की दो-दो कतारें खड़ी रहती हैं. ज्यादातर सरकारी गाड़ियां या फिर नेताओं की एसयूवी. इस ठसके से कि उन्ही के नाम सड़कों का पट्टा हो. जाम लगे, उनकी बला से. उनके लिए रास्ता बनाने को पुलिस तो है ही. याद आया कि बसपा सरकार में विधान भवन के बाहर सड़क पर एक भी गाड़ी खड़ी नहीं होती थी.
सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था ध्वस्त है. इसलिए निजी गाड़ियों की संख्या बढ़ती जा रही है. सड़कों की अपनी सीमा है. अतिक्रमण भी हमारे दबंगों ने करना ही हुआ. ऑटो-टेम्पो किसी नियम-कानून में नहीं आते. पहले फुटपाथ थे, वे खत्म कर दिए. पेड़ थे, काट दिए ताकि सड़कें और चौड़ी हों. सड़कों को कितना भी चौड़ा कर दीजिए जब तक यातायात की तमीज़ नहीं आएगी, आसमान में भी जाम लगेगा ही. रही-सही कसर वीवीआईपी कल्चर ने खत्म कर दी. ट्रैफिक और पुलिस महकमा सिर्फ वीआईपी फ्लीट या लाल-नीली बत्ती गाड़ियों का ध्यान रखता है. सारी मुस्तैदी, पूरी नौकरी उसी के लिए है.
ऐसा क्यों नहीं हो सकता कि आम जनता के लिए सड़कें खुली रखी जाएं. जाम लगने ही न दिया जाए. तब वीवीआईपी भी आराम से निकलेनेग और किसी को दिक्कत नही होगी. जाम क्यों लग रहा है, कुछ खास जगहों पर ही जाम क्यों लगता है, इस पर चौकसी क्यों नहीं रखते? पब्लिक जाम में फंसी है तो फंसे रहने दो और सिर्फ वीआईपी के लिए रास्ता बनाने की कवायद करो, ऐसा क्यों? मकसद यह क्यों नहीं कि कोई भी फंसे क्यों? एम्बुलेंस तो कतई नहीं. हुज़ूर, कुछ दिन के लिए पब्लिक को वीआईपी मान कर देखिए तो सही!
और, उन इंतजामों के लिए क्यों नहीं सोचा जाता जो इस बीमारी का बेहतर इलाज हैं. अच्छी और ज्यादा बसें नियमित चलाइए. ऐसे कि लोग खुशी-खुशी उनमें सफर करें और अपनी गाड़ियां कम ही निकालें. कोई अतिक्रमण मत बख्शिए. बिन पार्किंग अवैध इमारतें गिराइए. हाईकोर्ट का आदेश है तो. नियम सबके लिए बराबर लागू करिए. आज नहीं तो कल यह करना मजबूरी हो जाएगा, दिल्ली का हाल सुना है न! तो, अभी से क्यों नहीं!

(सिटी तमाशा, नभाटा, लखनऊ, 25 दिसम्बर, 2015)

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