Sunday, December 06, 2015

उत्तराखण्ड: परिवर्तन के लिए जरूरी सम्वाद


प्रसिद्ध इतिहासकार और राजनीतिक विश्लेषक राम चंद्र गुहा का लेख पढ़ रहा था- उत्तराखण्ड क्यों नहीं बना हिमाचल. अमर उजाला के 22 नवम्बर के अंक में प्रकाशित इस लेख में श्री गुहा बड़ी साफगोई से लिखते हैं- “हिमाचल प्रदेश ने समझदारी के साथ राज्य के मध्य में स्थित एक पहाड़ी शहर को अपनी राजधानी चुना. उसे सौभाग्य से वाई एस परमार जैसे दूरदृष्टा मुख्यमंत्री भी मिले, जिन्होंने अपने लम्बे कार्यकाल (1963-77) के दौरान नौकरशाही को अच्छे स्कूल और अस्पताल बनाने के लिए प्रेरित किया (मानव विकास के मामले में हिमाचल का रिकॉर्ड केरल की तरह शानदार है) दूसरी ओर उत्तराखण्ड के सात मुख्यमंत्रियों मे से कुछ नाकाबिल तो कुछ औसत दर्जे के थे. इस बीच देहरादून को राजधानी बनाए जाने के बाद से राजनीति में भ्रष्टाचार और अपराध-प्रवृत्ति भी बढ़ी है. यहां भू-माफिया सक्रिय हैं जिनकी विधायकों और मंत्रियों से सहभागिता रही है. प्रदेश के कीमती जंगल और जल संसाधन निजी कम्पनियों को बेचने के लिए सौदे किए गए हैं. उत्तराखण्ड में कई बड़े बांध बनाए गए हैं जिनकी वजह से हजारों लोगों को बेघर होना पड़ा है और यहां के पर्यावरण को भी भारी नुकसान पहुंचा है... कुछ अपवाद तो सभी जगह होते हैं लेकिन कुल मिलाकर हिमाचल की नौकरशाही अपने काम पर अधिक केन्द्रित और मेहनती है जबकि उत्तराखण्ड में उदासीन और सुस्त....उत्तराखण्ड में राजनीतिक नेतृत्व ने नौकरशाही के नकारात्मक रूप को बढ़ावा दिया है. ऐसी उम्मीद की गई थी कि उत्तराखण्ड एक और हिमाचल प्रदेश बनेगा लेकिन इसके बजाय वह झारखण्ड बनता दिख रहा है जहां की राजनीतिक व्यवस्था प्राकृतिक संसाधन की लूट पर टिकी है.”

उत्तराखण्ड का व्यापक दौरा और यहां शोध भी कर चुके श्री गुहा ने आज के उत्तराखण्ड की नब्ज पर हाथ रखी है. वैसे उन्होंने कोई नई बात नहीं कही है. उत्तराखण्ड के विभिन्न सामाजिक और राज्य आंदोलनों से जुड़े तमाम कार्यकर्ता और विश्लेषक भी ऐसी ही बात कहते रहे हैं. मगर वर्तमान समय में प्रभावशाली बौद्धिक स्वर माने जाने वाले श्री गुहा की यह बात और दूर तक सुनी जानी चाहिए. राजनीतिक नेतृत्व ने तो लगता है कि कान पूरी तरह बंद कर लिए हैं लेकिन गुहा की यह टिप्पणी उत्तराखण्ड के सक्रिय-समर्पित सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ताओं, नए-पुराने आंदोलनकारियों और सचेत युवा वर्ग के लिए नए सिरे से मंथन और सक्रियता का प्रस्थान बिंदु तो बन ही सकती है.

श्री गुहा हिमाचल की आज की बेहतरी का मुख्य कारण वाई एस परमार जैसे मुख्यमंत्री की दूरदृष्टि और अफसरों का अपने काम पर ध्यान और मेहनत मानते हैं, जिनकी वजह से “उसने पर्यटन और बागवानी के जरिए मजबूत आर्थिक आधार बनाया और शिक्षा, स्वास्थ्य और महिलाओं के सबलीकरण के मामले भी शानदार रिकॉर्ड बनाया.” जाहिर है यह काम सत्ता में बैठे नेताओं की सोच और अफसरों को वहां से मिली दिशा के कारण सम्भव हो पाया. हिमाचल की जनता को कोई बड़ा आंदोलन नहीं करना पड़ा. दूसरी तरफ, उत्तराखण्ड की जनता ने न केवल पृथक राज्य के लिए बड़ा आंदोलन किया, बलिदान दिए और बेइंतिहा दमन झेला, बल्कि राज्य बन जाने के बीते पंद्रह वर्षों में वह और भी ज्यादा शोषित-उत्पीड़ित-ठगी महसूस करते हुए विभिन्न स्तरों पर आंदोलित है. जनता से उसके जल-जंगल-जमीन छिन गए, पानी लुट गया, गांवों का उजड़ना तेज हो गया, तमाम संसाधनों पर मंत्रियों-विधायकों-माफिया-नौकरशाही के कुटिल गठजोड़ का कब्जा हो गया और जहां कहीं उसके खिलाफ जनता आंदोलन करती है तो उसे दमन का शिकार होना पड़ा रहा है. इसके कई उदाहरण हैं जिनमें नानीसार बिल्कुल ताजा है. जनता की भावनाएं समझने की बजाय सरकार अपनी मनमानी पर उतारू है और बेशर्मी के साथ कहती है कि अभी तो ऐसी और भी योजनाएं लागू की जाएंगी. संसाधनों की लूट के मामले में हरीश रावत की सरकार अब तक सबसे निकृष्ट सरकार साबित हो रही है, जबकि हम जैसे लोग नारायण दत्त तिवारी की तुलना में उनसे ज्यादा उम्मीदें लगाए बैठे थे.

मतलब यह कि उत्तराखण्ड की सरकार जनता की सुनने वाली नहीं है और आंदोलन हुआ तो उसे कुचलने के लिए वह तैयार है. उधर, जन आंदोलन से किसी बड़े सार्थक बदलाव की उम्मीद जल्दी नहीं की जा सकती. अब तक का अनुभव कहता है कि जन आंदोलन का भी अंतत: लाभ राजनीतिक दलों ने उठया. इसलिए अब शीघ्र प्रभावकारी हस्तक्षेप जरूरी हो गया है क्योंकि उत्तराखण्ड के जन और प्राकृतिक संसाधनों की लूट बहुत तेज हो गई है.

तो, रास्ता क्या है? उत्तराखण्ड की जनता को हिमाचल जैसा सौभाग्य वाला मुख्यमंत्री पाने के लिए अनंत काल तक इंतज़ार करते रहना चाहिए या कोई राह तलाशनी चाहिए? जैसे कि क्या जनता के बीच की परिवर्तनकामी ताकतों को अब राज्य की सत्ता अपने हाथ में लेने की तैयारी नहीं करनी चाहिए? क्या उन्हें ऐसा विचार कर इस दिशा में पहल नहीं करनी चाहिए? राम चंद्र गुहा की टिप्पणी से क्या यह साफ नहीं है कि राज्य के विकास की दिशा दुरुस्त करने के लिए राजनीतिक सत्ता पर बेहतर और दूरगामी सोच के लोगों को आना चाहिए? इससे जनता के सपनों का आदर्श राज्य भले न बन पाए, जन संसाधनों की लूट और माफिया राज से बचाकर कम से कम हिमाचल जैसा राज्य तो बनाया ही जा सकता है. राजनीतिक भ्रष्टाचार के कीर्तिमानों के बावजूद हिमाचल में कुछ बेहतर कायम है. उत्तराखण्ड को और ज्यादा विनाश से यथाशीघ्र बचाने के लिए क्या आज यह अनिवार्य प्रतीत नहीं होता?

वह समय गया जब परिवर्तनकामी ताकतें या पार्टियां सता की राजनीति से परहेज करती थीं. धुर वामपंथी दल भी, जो मानते थे कि सत्ता बंदूक की नली से बहती है’, काफी पहले संसदीय राजनीति में कूद पड़े थे और परिवर्तन के लिए राजनीतिक सता पाने को अनिवार्य मानते आए हैं. एक दौर था जब उत्तराखण्ड संघर्ष वाहिनी में भी चुनाव लड़ने-न लड़ने पर घमासान वैचारिक संग्राम मचा था. लेकिन अब तो उस वाहिनी से निकले सभी संगठन और राजनीतिक दल चुनाव लड़ चुके हैं अथवा इसके समर्थक हैं. दिक्कत भारी यह है कि वे सारी ताकतें आज बिखरी हुई हैं, छोटी-छोटी वैचारिक असहमतियों और उससे भी छोटे निजी मतभेदों-मनमुटावों ने उन्हें दूर और अकेला कर दिया है. अपने-अपने मोर्चे पर वे सभी सक्रिय है और यत्र-तत्र लड़ाइयां लड़ रहे हैं लेकिन साथ आना तो दूर, जरूरी मुद्दों पर भी एक दूसरे का समर्थन करने की जरूरत वे नहीं समझते. इससे राजनीतिक सत्ता के लिए उनका दमन करना और भी आसान हुआ जा रहा है.

हिमाचल की तरह उत्तराखण्ड की जनता भी अदल-बदल कर कांग्रेस और भाजपा को सत्ता सौंपती आई है. किसी तीसरी राजनीतिक ताकत पर उसे भरोसा हो नहीं पाया है. राज्य निर्माण के व्यापक आंदोलन में गांधीवादियों से लेकर वामपंथी तक सभी शामिल थे और चूंकि राज्य की मांग ही सर्वोपरि थी इसलिए सभी साथ लड़ रहे थे. राज्य बन जाने के बाद वे सभी मिल कर एक राजनीतिक इकाई कतई नहीं बन सकते थे. मगर उत्तराखण्ड क्रांति दल भी जनता का विश्वास जीतने लायक कार्यक्रम और नेतृत्व विकसित नहीं कर सका जबकि उसका जन्म ही पृथक राज्य के वास्ते लड़ने के लिए हुआ था और उसने उम्मीदें भी जगाई थीं. उलटे, इस पार्टी ने उत्तराखण्ड की जनता को सबसे बड़ा धोखा दिया. उसके चंद नेताओं की सत्ता की भूख और अवसरवादिता ने राज्य में बेहतर वैकल्पिक राजनीति की भ्रूण हत्या ही कर दी.

परिवर्तन की बड़ी आकांक्षा से उपजे जन आंदोलनों से जन्मी उत्तराखण्ड संघर्ष वाहिनी बिखरती चली गई. उस समय के कुछ जुझारू-समर्पित युवा कार्यकर्ता कांग्रेस या भाजपा या दूसरे दलों में चले गए और क्या त्रासदी है कि उनमें से कुछ आज हरीश रावत जैसे मुख्यमंत्री का समर्थन कर रहे हैं. वहीं से निकली उत्तराखण्ड लोक वाहिनी और उत्तराखण्ड परिवर्तन पार्टी ने मंजिल एक होने के बावजूद अपने अलग रास्ते बना लिए. संघर्षशील महिलाओं का मोर्चा अलग सक्रिय हो गया. तराई से लेकर मध्य हिमालय के विभिन्न इलाकों में कई राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक संगठन जनता के हक-हकूक के लिए लड़ रहे हैं. साहित्य और पत्रकारिता की जनमुखी धाराएं भी पर्याप्त सचेत-सक्रिय हैं. शुभ संकेत यह कि अलग-अलग होने के बावजूद सभी मोर्चों पर कम या ज्यादा सक्रियता मौजूद है.
कहना यह चाहता हूँ कि वर्तमान स्थितियों के प्रति बड़े प्रतिरोध की जमीन तैयार लगती है. वैचारिक स्तर पर तथा उद्देश्यों के प्रति काफी हद तक समानता भी है. इसे एक राजनीतिक शक्ति बनाने की जरूरत है, एक अखिल उत्तराखण्डी राजनीतिक संगठन. यह समय की मांग है. इस पर कभी- कभार यहां-वहां चर्चा भी होती है लेकिन कहीं से कोई पहल भी होती नहीं दिखाई देती. अफसोस की बात है कि पिछले मास नानीसार जा रहे उत्तराखण्ड परिवर्तन पार्टी के अध्यक्ष पी सी तिवारी समेत कई सामाजिक कार्यकर्ताओं और ग्रामीणों की गिरफ्तारी का विरोध भी चंद फेसबुकी प्रतिक्रियाओं तक सीमित रह गया, जबकि वे लोग गुपचुप और अवैध तरीके से गांव की जमीन एक बड़े कारोबारी ग्रुप को देने की सरकारी साजिश का विरोध करने वहां जा रहे थे. वर्तमान सरकार की ऐसी जनविरोधी नीतियों से सभी त्रस्त हैं और उसके खिलाफ मुखर भी. फिर भी ऐसी चुप्पी बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है. सबसे पहले इस संकोच या परहेज से निजात पानी होगी.

एक सर्वमान्य राजनीतिक संगठन बनाना निश्चय ही बड़ी चुनौती है. जनता का विश्वास जीतना उससे भी कठिन. वन आंदोलन से लेकर राज्य की लड़ाई के प्रतिफलन तक जनता ठगी सी महसूस करती आई है. इसी कारण कांग्रेस और भाजपा उसकी मजबूरी बन गई हैं. मगर अब तक जनता यह स्पष्ट समझ चुकी है कि दोनों ही दलों की सरकारों ने उसे ठगने और उत्तराखण्ड को लूटने के सिवा कुछ नहीं किया. नया और विश्वसनीय विकल्प मिलने पर वह साथ आ सकती है. बस, विकल्प, नेतृत्व, संगठन और कार्यक्रम इस तरह बनाने होंगे कि जनता उस पर भरोसा कर सके. हाल का दिल्ली का राजनीतिक प्रयोग अपनी विसंगतियों के बावजूद एक राह दिखाता है. आम आदमी पार्टी ने दिल्ली की जनता को विश्वास दिलाने में सफलता पाई कि वह कांग्रेस और भाजपा से कहीं बेहतर विकल्प बन सकती है. अरविंद केजरीवाल की तानाशाही प्रवृत्तियों को छोड़ दें और आम आदमी पार्टी की टूटन से निकले स्वराज अभियान से कुछ सीख लें तो उससे बेहतर राजनीतिक विकल्प की सम्भावना बनती है. उत्तराखण्ड के कुछ सामाजिक कार्यकर्ता आप और अब स्वराज अभियान के साथ हैं भी.

उत्तराखण्ड इस देश के अत्यंत सचेत-सक्रिय-आंदोलित समाजों में गिना जाता है. इसकी वैचारिक प्रखरता और आंदोलनों की त्वरा राष्ट्रीय मुख्यधारा में बराबर प्रवाहित रही है. आज जब खुद उत्तराखण्ड को इसकी बहुत जरूरत है, क्या इस दिशा में कुछ चिंतन होगा? चंद लोग ही सही, आगे आकर ऐसा सम्वाद शुरू करेंगे?
आमीन.


No comments: