Monday, October 24, 2016

राम कथा के भव्य लेजर शो से होगा डेंगू का इलाज?

चुनावी तमाशा

चुनाव सामने हैं. राजनैतिक दलों को मुद्दों की तलाश है. मुद्दे बनाए जा रहे हैं, उन पर बहस की जा रही है. सर्जिकल स्ट्राइक पर कोई अपनी पीठ ठोक रहा है और सवाल उठाने वालों को चीख-चीख कर देशद्रोही बताया जा रहा है. कोई रोड शो करके प्रधानमंत्री को गरिया रहा है, कोई मुसलमानों का नया शुभचिंतक दिखने की कोशिशों में है और किसी का ध्यान दलितों के घर खाना खाने और अम्बेदकर के गुणगान पर है.
उधर, राजधानी लखनऊ समेत प्रदेश के कई शहरों में डेंगू, चिकनगुनिया और घातक बुखार फैला है. सरकारी अस्पतालों में मरीजों के लिए जगह नहीं है. प्राइवेटअस्पताल मुर्दे को भी आईसीयू में रख कर तीमारदारों से धन वसूली में लगे हैं. स्वास्थ्य विभाग मानने को ही तैयार नहीं कि डेंगू से मौतें हो रही हैं जबकि अखबार रोजाना होने वाली मौतों की खबरों से भरे पड़े हैं. मौतों का आंकड़ा डेढ़ सौ से ऊपर करीब पहुंच गया है. सरकार हाई कोर्ट की फटकार के बावजूद दस की संख्या नहीं बता पा रही. जिम्मेदार विभाग पानी में क्लोरीन मिला पा रहे न शहरों में सड़ता कूड़ा उठवा पा रहे. पार्षद से सांसद तक चुनावी मोड में हैं जिसमें जनता के दुख-दर्द नहीं, सिर्फ उसके वोट दिखाई देते हैं.
देखिए, सबको अयोध्या और राम याद आ गए हैं. “राम लला हम आएंगे, मंदिर वहीं बनाएंगे” का नारा लगाने वाले अब अयोध्या में भव्य रामायण संग्रहालय बनवाने की बात कर रहे हैं. राम मंदिर का झुनझुना कई कारणों से नहीं बज पा रहा, इसलिए. मंदिर बनवाने वालों पर गोली चलवाने वालों का दावा है कि अयोध्या में राम संग्रहालय तो हम बनवाने वाले हैं. हमने प्रस्ताव पास कर रखा है. ताला खुलवाने वाले अब इसे आरोप मानने की बजाय हनुमान गढ़ी के दर्शन कर छवि बदलने का प्रयास कर रहे हैं. राम के नाम पर चुनावी युद्ध का बिगुल बज चुका है.
बीमारियों और मौतों से दहशत में जी रही जनता को समझ में नहीं आ रहा कि राम के नाम पर संग्रहालय की घोषणा से मच्छर कैसे मरेंगे, कूड़ा कैसे हटेगा और उचित इलाज की व्यवस्था कैसे होगी. डेंगू और घातक बुखार दलितों को मार रहा है, मुसलमानों को भी तथा ब्राह्मणों-ठाकुरों-पिछड़ों को भी. उनका मरना नहीं दिख रहा, उनके वोट बटोरने पर पूरी नजर है. इलाज का हाल राजधानी ही में बुरा है तो बाकी प्रदेश की क्या कहें लेकिन सरकार का ध्यान स्मार्ट फोन योजना का प्रचार करने पर ज्यादा है गोया कि उसमें बीमारियों से बचने का वैक्सीन छुपा हो.
राजनैतिक दलों को जनता की मूल समस्याओं को चुनाव का बड़ा मुद्दा बनाने का ख्याल नहीं है. कोई उन कारणों की पड़ताल नहीं कर रहा कि डेंगू से हर साल और ज्यादा लोग क्यों मरते जा रहे हैं. उन कारणों को दूर करने और इलाज की बेहतर सुविधाओं की बात नहीं हो रही. विकास की बातें सभी दलों के नेता कर रहे लेकिन बेहतर इलाज और बीमारियों की रोकथाम की व्यवस्था उनके विकास में शामिल नहीं. रामायण संग्रहालय बनाना विकास है. वहां रोजी-रोटी, कपड़ा और दवाएं मिलेंगी या राम कथा का आकर्षक लेजर शो सारे दुख-दर्द हर लेगा? (नभाटा, 23 अक्टूबर, 2016)


भाजपा का ‘दलितं शरणं गच्छामि’ और अंतर्विरोध


नवीन जोशी
भाजपा अध्यक्ष अमित शाह और पार्टी के अन्य नेताओं की मौजूदगी में मंच से अगर “जय श्री राम” की बजाय महात्मा बुद्ध, डॉ अम्बेदकर और सम्राट अशोक की जय-जय कार हो तथा मायावती को दलित-विरोधी साबित किया जाए तो समझना चाहिए कि दलित जातियों के समर्थन के लिए भाजपा कितनी बेकरार है.  यह नजारा 14 अक्टूबर को कानपुर में धम्म चेतना यात्रा के समापन अवसर का है. बौद्ध भिक्षुओं की अगुवाई में गृह मंत्री राज नाथ सिंह ने यह यात्रा बीती 24 अप्रैल को सारनाथ से शुरू कराई थी. 174 दिन की इस यात्रा में मुख्यत: भाजपा का दलित हितैषी चेहरा प्रचारित किया गया.
अमित शाह और उनकी टीम को लगता है कि यूपी की सत्ता हासिल करने के लिए दलितों का समर्थन पाना होगा. कम से कम, दलितों के एक वर्ग को बसपा से दूर करना जरूरी है. इसका कारण भी है. यादव-मुस्लिम समर्थन समाजवादी पार्टी को मजबूत करता है तो व्यापक दलित समर्थन बहुजन समाज पार्टी को बड़ी ताकत है. एक लम्बे समय से ये दोनों पार्टियां अपने इसी आधार के बूते यूपी की सत्ता में आती रही हैं.
वर्तमान में कुछ सत्ता विरोधी रुझान, कुछ मुस्लिम नाराजगी और ताजा आंतरिक कलह सपा के खिलाफ जाता लगता है. इसका लाभ बसपा को न मिल जाए, इसके लिए भाजपा की रणनीति है कि बसपा के दलित आधार को कमजोर किया जाए. बसपा कमजोर नहीं हुई और कहीं मुसलमान भी उसकी तरफ झुक गए तो भाजपा के लिए निश्चय ही बड़ी मुश्किल हो जाएगी.
इसलिए भाजपा दो मोर्चों पर काम कर रही है. पहला, बसपा में तोड़-फोड़ मचा कर उसके ज्यादा से ज्यादा नेताओं को भाजपा में लाना और दूसरा, दलितों को रिझाने के लिए कई तरह के अभियान और कार्यक्रम चलाना.
बसपा के कई नेताओं को भाजपा अपने पाले में खींच लाने में सफल रही है. खासकर, कांशीराम के समय से बसपा की रीढ़ रहे दलित नेता जुगल किशोर और पिछड़े नेता स्वामी प्रसाद मौर्य के आने को भाजपा बड़ी उपलब्धि मानती है. प्रमुख पासी नेता आर के चौधरी पर भी भाजपा ने खूब डोरे डाले लेकिन चौधरी ने बसपा से बाहर आकर स्वतंत्र रहना बेहतर समझा. बसपा के बागियों से भाजपा को लाभ हो या नहीं, बसपा  में मायावती के खिलाफ बगावत और भगदड़ का संदेश जरूर फैल गया.
अपनी दलित हितैषी छवि बनाने और दलित समाज तक उसे पहुंचाने के लिए भाजपा बहुत प्रयत्नशील है. 2014 में केन्द्र की सत्ता में आने के बाद से ही वह अम्बेदकर के महिमा मण्डन में लग गई थी. लोक सभा चुनाव में यूपी की सभी 17 सुरक्षित सीटें जीतने से भाजपा का यह मानना स्वाभाविक ही था कि दलित वर्ग के वोट भी उसे अच्छी संख्या में मिले हैं. वह अपने इन नए वोटरों को आगे भी जोड़े रखना चाहती है.
बिहार विधान सभा चुनाव में उसने दलित वोटरों को रिझाने के लिए काफी मशक्कत की थी. बिहार के कई दलित नेताओं को पार्टी में शामिल करने के अलावा पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम माझी से गठबंधन किया था. लेकिन आर एस एस प्रमुख मोहन भागवत ने आरक्षण खत्म करने वाला बयान देकर उसके दलित प्रेम की हवा निकाल दी थी. फिर कोई सफाई भाजपा के काम नहीं आई.
उसके बाद हैदराबाद में शोध छात्र रोहित वेमुला की आत्महत्या और उस पर भाजपा मंत्रियों के बयानों ने भाजपा के दलित हितैषी अभियान को बड़ा धक्का पहुंचाया. इससे उबरने के लिए उसने यू पी में दलितों के बीच सघन कार्यक्रम  शुरू किए. भाजपा और आर एस एस दोनों इस अभियान में शामिल हैं.
22 जनवरी, 2016 को जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लखनऊ आए तो डॉ भीम राव अम्बेदकर महासभा के कार्यालय जाना उनके दौरे का महत्वपूर्ण कार्यक्रम था. वहां उन्होंने अंबेदकर के अस्थिकलश पर फूल चढ़ा कर शीश नवाया. उसी दौरान वाराणसी के संत रविदास मंदिर में  प्रधानमंत्री ने पूजा की और प्रसाद ग्रहण किया. यह सब दलित समाज को स्पष्ट संदेश देने के लिए ही था.
इस वर्ष के प्रारम्भ में ही आर एस एस के अवध प्रांत की लखनऊ में हुई समन्वय बैठक में सह-सरकार्यवाह ने  स्वयंसेवकों से अपील की थी कि वे दलितों के बीच सेवा कार्यकरें. इसके तहत एक दलित परिवार को गोद लेना और उनके साथ भोजन ग्रहण करना शामिल है. इस सेवा कार्यमें बड़े भाजपा नेता भी शामिल हुए. खुद अमित शाह ने प्रधानमंत्री के चुनाव क्षेत्र वाराणसी में एक दलित परिवार के घर खाना खाया जिसका व्यापक प्रचार किया गया था.
भाजपा के उत्तर प्रदेश अनुसूचित जाति मोर्चा ने गणतंत्र दिवस से एक अभियान शुरू किया जिसका शीर्षक था “डॉ अम्बेदकर सबके हैं.” एक महीने तक पूरे प्रदेश में चले इस अभियान में दलित बस्तियों में जाकर अम्बेदकर के योगदान को याद किया गया. यह भी बताया गया कि नरेंद्र मोदी सरकार समाज के वंचित लोगों के लिए क्या-क्या कर रही है.
लेकिन इस पूरे दौर में भाजपा केअपने ही फुटकर संगठन उसे दलित-उत्पीड़क साबित करने पर तुले रहे. रोहित वेमुला की आत्महत्या का मुद्दा तो गर्म था ही, तथाकथित गोरक्षकों ने गोरक्षा के नाम पर जगह-जगह दलितों और मुसलमानों का जिस तरह उत्पीड़न किया, वह भाजपा के दलित हितैषी अभियान पर भारी पड़ा है. प्रधानमंत्री द्वारा फर्जीगोरक्षकों की प्रताड़ना के बाद मामला कुछ शांत हुआ लगता है लेकिन भाजपा और संघ के बेकाबू संगठनों ने इस अभियान के अंतर्विरोध खूब उजागर कर दिए.  भाजपा को जो नुकसान वे पहुंचा गए, उसकी भरपाई मुश्किल ही लगती है. ( बीबीसी.कॉम)
  
  
   
 


  

Sunday, October 23, 2016

अखिलेश के बागी तेवर की वजह कम नहीं


नवीन जोशी
बीते सितम्बर में ऐसा क्या हुआ कि यू पी के युवा मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की त्योरियां चढ़ गईं? वह अखिलेश जो पिछले साढ़े चार साल से पिता मुलायम की सार्वजनिक फटकार को पिता की डांटकह कर विनम्रता से सुन लेते थे, जो अपने चाचा और काबीना मंत्री शिवपाल के हस्तक्षेपों को चुपचाप अनदेखा कर देते थे, क्यों सीना तान कर खड़े हो गए? मुख्यमंत्री के रूप में अपने अधिकारों का प्रयोग करने साहस दिखाते हुए उन्होंने गायत्री प्रसाद प्रजापति और राज किशोर सिंह को मंत्रिपरिषद से बर्खास्त कर दिया, यह जानते हुए भी कि गायत्री प्रजापति पिता मुलायम और चाचा शिवपाल के करीबी एवं बहुत खास है. उन्होंने मुख्य सचिव दीपक सिंघल को भी हटा दिया, जिन्हें महीने भर पहले ही उन्होंने शिवपाल के कहने पर यह कुर्सी सौंपी थी. और, जैसे इतना ही काफी न हो, खुद शिवपाल के महत्वपूर्ण विभाग छीन लिए. अखिलेश अच्छी तरह जानते रहे होंगे कि उनके इन कदमों की कैसी प्रतिक्रिया होगी, जो कि फौरन हुई भी.
आखिर अखिलेश ने ये कदम क्यों उठाए? आज समाजवादी पार्टी टूट की कगार पर है, यादव परिवार और पार्टी में साफ-साफ दो पाले खिंच गए हैं, पहली बार मुलायम के वर्चस्व को चुनौती मिली है और आसन्न चुनावों में पार्टी को कलह का नुकसान होने की पूरी संभावना है. मान-मनौवल के मुलायम के लगातार प्रयासों के बावजूद अखिलेश ने अपने विद्रोही सुर बरकरार रखे हैं. यहां तक कि उन्होंने उन्हीं तारीखों में रथ-यात्रा पर अकेले निकलने का ऐलान कर दिया है जिन दिनों सपा अपनी स्थापना की रजत जयंती मना रही होगी. अखिलेश की इस बगावत के कुछ खास कारण  हैं और उनकी जड़ें सन 2012 तक फैली हैं, जब चाचा शिवपाल के विरोध के बावजूद पिता मुलायम ने उन्हें मुख्यमंत्री बना दिया था.
पहला, सरकार चलाने की आजादी न मिलना: मुख्यमंत्री बना दिए जाने के बावजूद अखिलेश सरकार चलाने के लिए स्वतंत्र नहीं रहे. मंत्रियों के चयन से ले कर विभागों के वितरण तक में उनकी राय का महत्व नहीं था. शुरू-शुरू में अनुभव की कमी के कारण पिता और चाचा के हस्तक्षेप को स्वाभाविक माना गया. लेकिन समय बीतने के बावजूद यही होता रहा. शिवपाल ने धीरे-धीरे ज्यादातर महत्वपूर्ण विभाग खुद ले लिए. सरकार के निर्णयों पर भी मुलायम और चाचाओं की छाप रहती. अफसरों की तैनाती और तबादलों की सूची अखिलेश के जारी करने के बावजूद रोक दी जाती या बिना बताए बदलवा दी जाती. प्रदेश में साढ़े तीन मुख्यमंत्रीहोने का विपक्ष का आरोप यूं ही नहीं लगता रहा. मुख्यमंत्री की प्रमुख सचिव वास्तव में मुलायम की निजी सचिव के तौर पर काम करती हैं. वक्त के साथ यह कुण्ठा अखिलेश के भीतर जमा होती रही.
दूसरा, नकारात्मक छवि और आसन्न चुनाव:  युवा अखिलेश अपनी सरकार ही की नहीं, समाजवादी पार्टी की छवि भी साफ-सुथरी बनाना चाहते थे. मुख्यमंत्री बनने कै बाद निजी बातचीत में अखिलेश ने इस लेखक से कहा था कि यह मेरे राजनीतिक करिअर की शुरुआत है. मुझे अच्छे नतीजे दिखाने होंगे और सरकार के साथ-साथ पार्टी की पुरानी छवि भी सुधारनी होगी. तभी मैं लम्बी पारी खेल सकूंगा. लेकिन उन्होंने पाया कि उनके हाथ बंधे है.
चुनाव के करीब जब शिवपाल की पहल पर माफिया मुख्तार अंसारी की पार्टी का सपा में विलय का फैसला लिया गया तो अखिलेश ने अपने हाथ खोलने का निर्णय किया. उनके विरोध का शुरू में सम्मान हुआ. उसी के बाद अखिलेश ने तय किया कि संगीन आरोपों से घिरे मंत्रियों की छुट्टी कर सरकार की छवि सुधारने का यही सही समय है. गायत्री प्रजापति और राजकिशोर जैसे मंत्रियों की बर्खास्तगी इसी का नतीजा थी, जिसमें मुलायम की सहमति भी उन्होंने ले ली थी. लेकिन स्वतंत्र मुख्यमंत्री के रूप में अखिलेश शिवपाल को मंजूर नहीं हुए, जिनकी खुद की छवि अच्छी नहीं है. शिवपाल ने विरोध किया तो मुलायम ने बेटे की बजाय भाई का साथ दिया.
पार्टी की सफाई तो दूर, अपनी ही सरकार की धुलाई-पुछाई नहीं करने दिए जाने से अखिलेश का नाराज होना स्वाभाविक है, जबकि प्रचारित यही किया जा रहा था कि अगला चुनाव युवा मुख्यमंत्री की साफ-सुथरी छवि के आधार पर लड़ा जाएगा.
तीसरा, वादाखिलाफी:  कलह के पहले दौर में मुलायम ने सुलह करा दी थी. शिवपाल और अखिलेश को अपने सामने बैठा कर मुलायम ने जो फार्मूला तय किया था, उसमें शिवपाल कै विभागों और मंत्री के रूप में  गायत्री की वापसी के साथ प्रदेश अध्यक्ष के रूप में अखिलेश  की बहाली शामिल थी. अखिलेश का मानबनाए रखने के लिए टिकट वितरण में उन्हें बराबर अधिकार देने की बात थी. यह बताते हुए अखिलेश ने उसी दोपहर एक चैनल के कार्यक्रम में यह भी घोषणा की थी कि नेता जी और हमने तय किया है कि परिवार के बीच कोई बाहरी अब नहीं आएगा, ‘बाहरी को बाहर कर दिया जाएगा. तब सभी ने यही समझा था कि अमर सिंह पर कार्रवाई होगी.
हुआ ठीक उलटा. अखिलेश को प्रदेश सपा अध्यक्ष का पद वापस नहीं दिया गया. टिकट वितरण का अधिकार देने के लिए संसदीय बोर्ड में बड़ा पद देने की बात भी हवा में रह गई और आश्चर्यजनक रूप से अमर सिंह को पार्टी का राष्ट्रीय महामंत्री बनाने का ऐलान खुद मुलायम ने अपने हाथ से लिख कर किया. अखिलेश के लिए यह वादाखिलाफी थी, अपमान की हद तक.
चौथा, जले पर नमक: सुलह के बाद प्रदेश सपा अध्यक्ष की हैसियत से शिवपाल ने सबसे पहले अखिलेश के समर्थकों पर अनुशासनात्मक कार्रवाई करते हुए उन्हें पार्टी से निकाल दिया. यह कार्रवाई एकतरफा थी. अखिलेश के खिलाफ नारे लगाने वाले शिवपाल समर्थकों से पूछ-ताछ तक नहीं की गई. टिकट वितरण में अखिलेश को अधिकार देने की बात का मखौल उड़ाते हुए उनके समर्थकों का पूर्व में घोषित टिकट भी शिवपाल ने काट दिया. यह अखिलेश के लिए बहुत अपमानजनक था. फिर, जले पर नमक छिडकने की तरह मुख्तार अंसारी की पार्टी कौमी एकता दल के सपा में विलय को पहले ही हुआमान लेने की घोषणा कर दी गई. मुलायम लगातार शिवपाल के साथ खड़े दिखे.
विद्रोही तेवर बरकार रखने के सिवा अखिलेश के पास कोई चारा नहीं बचा.
अब अगर कोई यह कहे कि आसन्न चुनावों में सम्भावित हार की जिम्मेदारी से बेटे अखिलेश को बचाने के लिए यह मुलायम का रचा नाटक है या इसी कारण खुद अखिलेश अपनी स्वच्छ छवि बनाए रखने के लिए अलग राह चुन रहे हैं, तो हंसा ही जा सकता है. (प्रभात खबर, 23 अक्टूबर, 2016)




Monday, October 17, 2016

रैलियों में भीड़ का जुटना क्या कोई संकेत होता है?


नवीन जोशी
कांशीराम निर्वाण दिवस पर मायावती की रैली में भारी भीड़ जुटी. नरेंद्र मोदी और अमित शाह की सभाओं में खूब जमावड़ा लगता है. मुलायम सिंह यादव और मुख्यमंत्री की सभाओं में अच्छी भीड़ न जुटे, ऐसा नहीं हो सकता. इस बार सोनिया गांधी और राहुल के रोड शो में इतनी भीड़ उमड़ी कि खुद कांग्रेसी चौंक गए और विपक्षी नेताओं के कान भी खड़े हुए.
यह भीड़ क्या संकेत करती है?  क्या यह भीड़ लोकप्रियता और मिलने वाले वोटों का परिचायक है? जनता का यह जुटान स्वत: उमड़ता है या इसे विविध तरीकों से जुटाया जाता है? क्या भीड़ प्रबंधन राजनैतिक दलों का नया पैंतरा है ताकि मीडिया में छाया जा सके और लोकप्रियताका संदेश दिया जा सके?
अपने बड़े नेताओं की सभाओं के लिए भीड़ जुटाना राजनैतिक दलों के प्रादेशिक नेताओं-कार्यकर्ताओं के लिए कोई नई बात नहीं है. विधायकों से लेकर, सभासदों और ग्राम प्रधानों तक को भीड़ के लक्ष्य दिए जाते रहे हैं. चंद रु, भोजन और शहर घूमने का लालच देकर भोले-भाले ग्रामीणों को बसों में भर-भर कर लाया जाता रहा है. दूसरे  की सभाओं-रैलियों को अपने से कम भीड़ वाला बता कर जीत के दावे किए जाते रहे हैं. मीडिया वाले भी भीड़ के अनुमानित आंकड़ों का खेल खेलते रहे हैं.
आम भारतीय कौतुक प्रेमी होता है. जरा-जरा सी बात पर मजमा लगा लेना आम बात है. चुनावों के दौरान उड़नखटोलादेखने के लिए ग्रामीण नेताओं की सभाओं का रुख करते हैं. नेता भी भीड़ कम देख कर हेलीकॉप्टर के दो-चार फेरे गांवों के ऊपर लगा लेते हैं. भीड़ कम होने की आशंका में सभाएं रद्द भी की जाती रही हैं. भीड़ नेताओं के लिए संजीवनी का काम करती है. भारी जमावड़ा देख कर उनका मनोबल और गले की ताकत, सब बढ़ जाते हैं.
मायावती की रैलियां भारी भीड़ के कारण बड़ी सभाओं का पैमाना बनती हैं. इस बार जब यह माना जा रहा है कि उनकी राजनैतिक ताकत कम हुई है, नौ अक्टूबर को जुटी जबर्दस्त भीड़ क्या कहती है? पिछले करीब तीन दशक से कांग्रेस की हालत यूपी में बहुत पतली रही है मगर इस बार  सोनिया और राहुल के रोड शो जबर्दस्त भीड़ वाले हुए हैं. क्या यह कांग्रेस की हालत सुधरने का संकेत है, जैसा कि कई कांग्रेसी और विश्लेषक भी मान रहे हैं? इसके उलट, कुछ विश्लेषक इसे प्रशांत किशोर के प्रबंधन का कौशल बता रहे हैं.
सभी राजनैतिक दल अगर भीड़ प्रबंधन में माहिर हो गए हैं तो यह आकलन मुश्किल ही होगा कि किसके पास जुटाई गई भीड़ है और किसके पास असली वोटर.  एक विश्लेषण यह हो सकता है कि चूंकि प्रदेश में कोई चुनावी लहर नहीं है, इसलिए जनता अपना मन बनाने के लिए सभी दलों के नेताओं को सुनना-देखना चाहती है. लहर की अनुपस्थिति में बहुत बड़ा मतदाता वर्ग अंतिम समय तक अनिर्णय की मानसिकता में रहता है.
भीड़ स्वत: जुट रही हो, जैसा कि सभी दल दावा करते हैं, या जुटाई जा रही हो, यह बात कई चुनावों में साबित हो चुकी है कि हमारा आम मतदाता बहुत समझदार और चतुर है. इंतजार कीजिए.
(नभाटा, 16 अक्टूबर, 2016)


Thursday, October 13, 2016

कांशीराम के बिना कहां पहुंची बसपा?


नवीन जोशी
इस नौ अक्टूबर को कांशीराम का देहांत हुए दस वर्ष हो जाएंगे. क्या यह सिर्फ संयोग है कि इस समय उनकी राजनैतिक उत्तराधिकारी मायावती और बहुजन समाज पार्टी सबसे कठिन दौर से गुजर रही हैं या इसके पीछे कांशीराम का न होना भी एक कारण है?
मायावती को भी शायद इस समय कांशीराम की बहुत जरूरत है. तभी तो वे उनके निर्वाण दिवस पर लखनऊ में विशाल रैलीकर रही हैं. पिछले तीन साल इस दिन उन्होंने कोई रैली नहीं की, जैसा कि उससे पहले करती रही थीं. पूरे दलित समाज को एकता का संदेश देने और अपना एकछत्र नेतृत्व दिखाने की आज उन्हें बड़ी जरूरत जो आन पड़ी है.
कांशी राम के कई पुराने साथी और बसपा को खड़ा करने में भागीदार रहे प्रमुख नेता-कार्यकर्ता इस बीच बसपा छोड़ चुके हैं या हाशिए पर हैं. पिछले तीन-चार महीने में आर के चौधरी और स्वामी प्रसाद मौर्य जैसे पुराने नेताओं ने पार्टी छोड़ी है. पार्टी को अलविदा कहने वालों में करीब दर्जन भर विधायक, सांसद और पूर्व सांसद भी हैं. सभी ने मायावती पर अम्बेडकर और कांशी राम के मिशन की अनदेखी करने और टिकट बंटवारे में भारी रकम वसूलने के आरोप लगाए हैं.  
पार्टी छोड़ कर जाने वालों ने उन्हें दलित की बेटीकी बजाय दौलत की बेटीतक कहा है. ये आरोप मायावती के लिए नए नहीं हैं और पार्टी छोड़ कर जाने वालों का आरोप लगाना भी अजूबा नहीं है. लेकिन यह देखना मौजूं होगा कि क्या कांशीराम के बिना बसपा उनके मिशन से भटक गई है?आक्रामक नेतृत्व की क्षमता देख कर जिस मायावती को कांशीराम ने अपना वारिस घोषित किया था और उम्मीद की थी कि वे मेरे अधूरे कामों को आगे पूरा करेंगी, क्या वह मायावती अब बदल गई हैं?
एक सच तो यह है कि कांशीराम की मृत्यु के अगले ही वर्ष, 2007 के विधान सभा चुनाव में उत्तर प्रदेश की विधान सभा में पूर्ण बहुमत पाप्त करके मायावती ने कांशी राम का एक बड़ा स्वप्न साकार कर दिखाया था. कांशी राम बहुमत के साथ सत्ता पर काबिज होने को वह कुंजी मानते थे जिससे दलितों की मुक्ति का ताला खुलता है. विरोधाभास यह कि मायावती ने यह कुंजीउस सोशल इंजीनियरिंगके जरिए हासिल की जिसमें सवर्णों, खासकर ब्राह्मणों का साथ लिया गया और नारे बदले गए.
इस सोशल इंजीनियरिंग से मायावती ने कांशीराम के बहुजनको सर्वजनमें बदल दिया था. इसके साथ ही उन्होंने अपनी भाषा और व्यवहार की आक्रामकता बहुत कम कर दी थी ताकि सवर्ण समाज अपमानित महसूस नहीं करे. उनकी बहुमत वाली सरकार में सवर्णों को महत्वपूर्ण भागीदारी दी गई. इससे दलित समाज में बेचैनी फैली. 2012 के विधान सभा चुनाव और 2014 के लोक सभा चुनाव में बसपा की पराजय के लिए इस प्रयोग को भी जिम्मेदार ठहराया गया.
क्या यह कांशीराम के दिखाए रास्ते से विचलन था? क्या कांशीराम इस सोशल इंजीनियरिंग की इजाजत देतेदलित समाज और राजनीति पर शोध करने वाले समाज विज्ञानी बद्री नारायण अपनी पुस्तक “कांशीराम- लीडर ऑफ दलित्स” में लिखते हैं कि मायावती का सर्वजन वास्तव में कांशीराम के प्रयोगों का ही नतीजा था. कांशीराम के भागीदारीसिद्धांत में सभी जातियों और समुदायों को राजनैतिक प्रतिनिधित्व देना शामिल था. मनुवादी पार्टीभाजपा के समर्थन से दो बार यूपी की सत्ता हासिल करने का प्रयोग भी कांशीराम ने ही किया था, जिसकी अम्बेडकरवादियों और वामपंथियों ने कड़ी आलोचना की थी. तब कांशी राम का जवाब होता था- अगर हमने भाजपा का सिर्फ एक सीढ़ी की तरह इस्तेमाल किया तो क्या गलत है?’
अपने साहिबके उदाहरणों से सबक लेकर ही सही, ‘सर्वजनकी सरकार बनाने के बाद क्या मायावती ने दलितों की मुक्ति का वह ताला खोलने की कोशिश की जो कांशीराम चाहते थे? क्या व्यापक दलित समाज का वास्तविक विकास होना शुरू हुआ?
मायावती के चार बार यूपी की मुख्यमंत्री बनने से, जिसमें पांच साल का एक पूरा कार्यकाल भी शामिल है, दलितों का सामाजिक सशक्तीकरण जरूर हुआ. उन्होंने अपने दमन का प्रतिरोध करना और हक मांगना शुरू किया लेकिन आर्थिक स्तर पर कुछेक दलित जातियां ही लाभान्वित हुईं. 60 से ज्यादा दलित जातियों में से सिर्फ तीन-चार यानी चमार, पासी, दुसाध और मल्लाह जाति के लोगों के हिस्से ही सत्ता के लाभ, विधायकी, मंत्री पद, नौकरियां, ठेके, आदि आए. कांशीराम ने दलितों के लिए अपना घर-परिवार छोड़ा था और कोई सम्पत्ति अर्जित नहीं की लेकिन मायावती पर इसके विपरीत खूब आरोप लगे.
मायावती के खिलाफ यह बात प्रमुखता से कही जाती है कि दलित स्वाभिमान की लड़ाई को आर्थिक सशक्तीकरण और दूसरे जरूरी मोर्चों तक ले जाना और सभी दलित जातियों को उसमें शामिल करना उनसे सम्भव नहीं हो पाया या इस तरफ उनका ध्यान नहीं है. 
कांशीराम दलितों में महिला-नेतृत्व विकसित करने पर काफी जोर देते थे. मायावती के चयन के पीछे यह भी एक कारण था और वे कहते भी थे कि बसपा में कई मायावतियां होनी चाहिए लेकिन खुद मायावती के नेतृत्व में कोई नेत्री नहीं उभरी. उन पर आरोप यह भी है कि वे पार्टी में नेताओं को उभरने नहीं देतीं. कांशीराम जिस तरह दौरे करते थे, कार्यकर्ताओं और नेताओं से मिलते थे, मायावती का व्यवहार ठीक उसके उलट है. विधायकों-नेताओं से वे मुश्किल से मिलती हैं और कार्यकर्ता तो उन्हें सभाओं के मंच पर दूर से ही देख पाते हैं.
बसपा में मायावती से नाराजगियां कांशीराम के जीते-जी ही उभरने लगी थीं. कांशीराम का पूरा विश्वास हासिल करने और पार्टी में नम्बर दो की जगह लेने के बाद मायावती के व्यवहार से कांशीराम के करीबी नेता-कार्यकर्ता खिन्न रहने लगे थे. जब भी बसपा नेताओं ने कांशीराम से शिकायत की तो उन्होंने मायावती ही का पक्ष लिया. डा मसूद अहमद जैसे कांशीराम के पुराने सहयोगी को मायावती के खिलाफ आवाज उठाने पर न केवल पार्टी और सरकार से बर्खास्त किया गया था बल्कि सरकारी आवास से उनका सामान तक बाहर फिंकवाया गया था. 2001 में आर के चौधरी को इसी कारण पार्टी छोड़नी पड़ी थी. बाबूराम कुशवाहा का भी वैसा ही हश्र हुआ.
यह सिलसिला आज तक चला आ रहा है. कांशीराम ने जिस मेहनत से पार्टी जोड़ी थी और सहयोगी जुटाए थे, मायावती उतनी ही आसानी से नेताओं को बाहर का रास्ता दिखा देती हैं.
वे कांशी राम के रास्ते से दूर हो गई हैं, इस आरोप का मायावती जोर-शोर से खण्डन करती रही हैं. 2012 का विधान सभा चुनाव हारने के बाद प्रेस कांफ्रेंस में उन्होंने कहा था कि कुछ लोग मेरे खिलाफ ऐसा दुष्प्रचार कर रहे हैं. सच्चाई यह है कि मैं मान्यवर कांशीराम के सिद्धांतों के प्रति पूरी तरह प्रतिबद्ध हूं और पूरे दिल से उनका अनुसरण कर रही हूं.
2012 और 2104 की पराजयों के बाद मायावती के रुख में कुछ बदलाव दिखा है. सर्वजनका प्रयोग उन्होंने पूरी तरह छोड़ा नहीं है लेकिन बहुजनकी ओर वापसी की है. 2017 के चुनाव के लिए मायावती मुस्लिम समुदाय का समर्थन हासिल करने पर बहुत जोर दे रही हैं. उन्होंने एक सौ के करीब टिकट मुसलमानों को दिए हैं. मुसलमान कांशीराम के बहुजन का महत्वपूर्ण हिस्सा थे लेकिन मायावती की नजर इस बार उन पर खास इसलिए गई है कि वे मुलायम सिंह से नाराज लगते हैं.
इस वर्ष की शुरुआत में एक सम्वाददाता सम्मेलन में उन्होंने घोषणा की थी कि सत्ता में आने पर अब वे मूर्तियां नहीं लगवाएंगी, हालांकि दलित नेताओं की मूर्तियां स्थापित करना कांशीराम के दलित आंदोलन का सांस्कृतिक-राजनैतिक एजेण्डे का महत्वपूर्ण हिस्सा था.
कांशीराम दलित समाज के सर्वागींण विकास के लिए राजनैतिक सत्ता हासिल करना जरूरी मानते थे. उनकी नजर अल्पकालीन लाभों में न हो कर बहुत दूर तक जाती थी. एक बार फिर सत्ता पाने के लिए मायावती भी प्रयत्नशील हैं लेकिन कांशीराम जैसे विजन का उनमें अभाव दीखता है. पिछले दस वर्षों में यूपी के बाहर बसपा का प्रभावी विस्तार भी मायावती नहीं कर पाईं.
अब जबकि बसपा बगावतों से कमजोर हुई दिखती है और भाजपा एवं सपा जैसे प्रबल प्रतिद्वंद्वी मुकाबिल हैं, बसपा के लिए 2017 का चुनाव कड़ी परीक्षा साबित होने वाला है.
बसपा के अब तक के पड़ावों में मायावती का महत्वपूर्ण योगदान रहा है. आगे की यात्रा और भी चुनौतीपूर्ण है. क्या कांशीराम की असली वारिस होने को वे साबित कर सकेंगी?  

 (http://www.bbc.com/hindi/india-37596939)

Wednesday, September 28, 2016

पत्रकारिता के अंधेरे में ‘नैनीताल समाचार’ का होना

बदलते परिदृश्य पर एक सरसरी नजर
नवीन जोशी
सन 1977 में जब हमने लखनऊ के स्वतंत्र भारत से पत्रकारिता की शुरुआत की तब सम्वाददाताओं को दफ्तर की तरफ से छोटी-सी नोट बुक और कलम मिला करते थे. इसी नोट बुक में वे प्रेस कॉन्फ्रेस और अन्य खबरें नोट किया करते थे. एक दिन हमारे एक वरिष्ठ सम्वाददाता किसी प्रेस कॉन्फ्रेंस से बढ़िया नोट बुक और कलम लेकर आए जो सम्बद्ध पार्टी ने पत्रकारों को बांटे थे. स्वतंत्र भारत के हम युवा पत्रकारों की टीम ने उस दिन इस पर आपत्ति जताई थी. हमने बहस की थी कि किसी भी रिपोर्टर के लिए प्रेस वार्ता करने वाले पक्ष से नोट बुक और पेन लेना नैतिक रूप से गलत है. अखबार इसके लिए अपनी नोट बुक और पेन देता है. प्रेस कॉन्फ्रेंस में चाय-नाश्ता, सिगरेट, वगैरह पेश करना आम बात थी लेकिन कई पत्रकार इसे ठीक नहीं समझते थे और ग्रहण नहीं करते थे. सिगरेट की डिब्बी और काजू जेब में रख ले जाने वाले रिपोर्टर भी होते ही थे जिनका मजाक बनाया जाता था.
आपातकाल के बाद का वह दौर अखबारों (तब भारत में न्यूज चैनल, इंटरनेट नहीं थे) के विस्तार का भी था. मालिकों-सम्पादकों-पत्रकारों की पुरानी पीढ़ी के जाने और नई के उभरने का भी यही समय था. इसी तरह राजनीति और प्रशासन में नई पीढ़ी कब्जा जमा रही थी (याद कीजिए, संजय गांधी और उनकी टीम के तेवर) आजादी के समय से चले आ रहे जीवन मूल्य, नैतिकता, ईमानदारी, सामाजिक सरोकार, वगैरह बदल रहे थे. उनकी नई परिभाषा गढ़ी जा रही थी. प्रेस वार्ता में पेन-पैड ही नहीं, महंगे गिफ्ट बांटे जाने लगे थे और पत्रकारों में उन्हें लपकने की होड़ मचनी शुरू हो गई थी. रात को दारू-मुर्गा पार्टियां आम हो गई थीं. विधान सभा सत्र के दौरान अपने भाषण छपवाने के लिए मंत्री-विधायक चुनिंदा पत्रकारों को खाने-पीने की दावतें देने लगे थे. मुझे याद है सन 1983 में लखनऊ के सस्ते गल्ले के (कण्ट्रोल) दुकानदारों ने अपनी समस्याओं के बारे में प्रेस वार्ता की तो दो-दो किलो चीनी के थैले पत्रकारों को बांटे थे (उन दिनों खुले बाजार में चीनी ज्यादा महंगी थी) तब प्रसिद्ध फोटो-पत्रकार सत्यपाल प्रेमी रिपोर्टरों से तंज में कहा करते थे कि कल सुअर पालकों की प्रेस वार्ता है, गिफ्ट में चार-चार पिल्ले दिए जाएंगे. जरूर आना!
मतलब यह कि 1980 के दशक से पत्रकारिता में शुचिता और नैतिकता के मूल्य तेजी से गायब होने लगे थे. धोती-कुर्ता धारी बूढ़े सम्पादकों का स्थान लेने वाले टाई-सूट में सुसज्जित युवा सम्पादकों में कई सरकार और निजी क्षेत्र से मालिकों के हित साधने में ज्यादा दिलचस्पी लेने लगे थे. पहले इस काम के लिए संस्थानों में कुछ खास रिपोर्टर रखे जाते थे. सम्पादकों का काम मुख्यत: लेखन-सम्पादन और अखबार का स्तर बनाए रखना होता था. मगर अब भूमिकाएं बदल रही थीं.
लेकिन जो शोचनीय स्थितियां आज यानी 2016 में हैं उनकी तुलना में बीसवीं सदी के अंत तक भी हालात बहुत अच्छे थे. पत्रकारिता के मूल्यों और प्रतिबद्ध सम्पादकों-पत्रकारों की जगह भी बनी हुई थी. संस्थान से लेकर सरकार तक वे सम्मान की नजर से देखे जाते थे. अखबारों को भी अच्छा लिखने, और अच्छी छवि वाले पत्रकारों की जरूरत रहती थी. उनके लिए कहा जाता था- अरे, वे उस तरह के सम्पादक नहीं हैं. आज जो उस तरह के नहीं हैं उनका मीडिया में टिक पाना मुश्किल हो गया है. अपवाद अवश्य हैं लेकिन वे भारी दवाब में रहते हैं. खरी-खरी और बेबाक लिखने वाले पत्रकार-सम्पादक संस्थान विरोधी माने जाते हैं. उनसे सबसे पहली अपेक्षा यह की जाती है कि वह संस्थान के मुनाफे की चिंता करेंगे. सत्य को उद्घाटित करने या कोई भण्डाफोड़ करने की बजाय उसे संस्थान हित में भुनाएंगे और उसे पत्रकारिता का खूबसूरत मुखौटा पहनाएंगे. सम्पादकों को आज मुख्यमंत्रियों/मंत्रियों/ वरिष्ठ अफसरों का करीबी होना पड़ता है. उनकी योग्यता इससे आंकी जाती है कि उनके कितने नेताओं से कैसे सम्बंध हैं, मुख्यमंत्री से सीधे और तुरन्त मिल सकते हैं या नहीं, उनसे संस्थान का कोई प्रस्ताव तुरंत स्वीकृत करवा सकते हैं या नहीं. महंगे गिफ्ट, पंचतारा होटलों की दावतें, विदेश यात्राएं, जैसे प्रलोभन पत्रकारों के लिए अब आम हैं और इसे कोई नैतिकता से जोड़ता भी नहीं. परिभाषाएं पूरी तरह बदल गई हैं.
बहरहाल, 1977 में हम युवा थे. उत्साह, जोश और सपनों से भरे हुए. दूसरी आजादी के नारे हवा में थे और जे पी (जय प्रकाश नारायण) का नेतृत्व बहुत उम्मीदें जगा रहा था जिन्होंने मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार को गांधीजी की समाधि पर खड़ा कर के राजनीति और प्रशासन में सार्थक बदलाव लाने की शपथ दिलवाई थी. देश में जगह-जगह अपनी जीवन स्थितियों को बेहतर बनाने के लिए आंदोलन चल रहे थे और उनमें युवाओं की जबर्दस्त भागीदारी थी. पत्रकारिता हमें इस बदलाव को देखने, जांचने और उसकी समीक्षा करते हुए उसमें शामिल होने का बेहतरीन माध्यम लगती थी. इसीलिए मैं एम ए करके पहाड़ में मास्टरी करने का सपना भूल कर पूरी तरह पत्रकारिता में रम गया था. उम्मीदें बहुत जल्दी-जल्दी टूट भी रही थीं, इसलिए पत्रकारिता और भी जरूरी लगती थी.
उत्तराखण्ड में चिपको (वन ) आंदोलन पूरे जोर पर था. जिस जोश और गुस्से के साथ महिलाएं और युवा विशेष रूप से उस आंदोलन में शामिल थे, उसमें हम पूरे पहाड़ की व्यवस्था के बदल जाने की उम्मीदें देखते थे और अखबारों में इसी आशय के लेख लिखा करते थे. अगस्त, 1977 से “नैनीताल समाचार का प्रकाशन हमें लखनऊ में भी नए उत्साह और ऊर्जा से भर गया था. मैंने नै स के दूसरे अंक से ही प्रवासी पहाड़ी की डायरी लिखना शुरू किया. समाचार के अंकों का बेसब्री से इंतजार रहता था और अंक मिलते ही सुझावों और तीखी प्रतिक्रियाओं का दौर शुरू हो जाता था.
स्वतंत्र भारत में हम नौकरी करते थे. सम्पादक के रूप में अशोक जी इतने प्रभावशाली थे कि हमें उनके अलावा और किसी से कोई मतलब नहीं होता था. तो भी, यह अहसास रहता था कि हमारा एक मालिक है. नै स के हम खुद मालिकनुमा थे और मालिक-सम्पादक नामधारी राजीव से कुछ भी कह-सुन सकते थे, और झगड़ा कर सकते थे. स्वतंत्र भारत में हमें सिखाया जाता था कि चिकोटी काटो, बकोटा नहीं लेकिन नै स में शब्दों की तलवारें भांज सकते थे, किसी की भी चीर-फाड़ ही नहीं, ऐसी-तैसी करने को भी आजाद महसूस करते थे. प्रदेश में तब जनता पार्टी की सरकार थी और उसके वन मंत्री श्री चंद को श्री चंठ बना कर क्या कुछ नहीं लिखा! कुछेक बार जोश और गुस्से में नादानियां भी कीं. अपुष्ट और आधी-अधूरी जानकारियों के आधार कुछ भी लिख डाला. समाचार की जागरूक टीम से पलट कर डांट भी पड़ी.
नै स के दफ्तर में, जो तब बहुत जीवंत और खुला वैचारिक अड्डा था, हर खबर, टिप्पणी और घटनाक्रम पर लम्बी बहस चला करती थी. हर चीज की चीर-फाड़ होती थी. अपने निराले ही अंदाज में मेरी भी सुन ली जाए, भले मानी न जाए कहने वाले गिर्दा, आम तौर शांत लेकिन कभी-कभी भड़क जाने वाले व्यावहारिक भगत दा, अध्ययन और घुमक्कड़ी से सदा अद्यतन शेखर दा, सबकी सुनने को मजबूर-जैसे सम्पादक राजीव, बीच-बीच में गर्म छौंक लगा जाने वाले हरीश दाढ़ी, (इस केंन्द्रीय टीम में लोग जुड़ते और जाते भी रहे) और भी नैनीताल आवत-जावत संगी साथियों की मण्डली एक-एक अंक की प्लानिंग में इतना डूबी रहती कि अंक ही संकट में पड़ जाता. अथक विचार-मंथन से किसी तरह अंक पास हुआ भी तो ट्रेडिल मशीन की छपाई में असम्भव को सम्भव बनाने में अक्षर जुड़ान-छपान वाली टीम के पसीने छूट जाते. मगर जब अखबार छप कर आता तो लगता कि कुछ ऐसा काम हुआ है जो शायद और कहीं नहीं हो पा रहा, कि हां, पत्रकारिता का यही तो दायित्व है. एक संतोष-सा भर जाता. फिर भी एक असंतोष बना रहता और वह बेचैनी अगले अंक की प्रसव पीड़ा जैसी होती.
आज 39 साल पीछे मुड कर देखने पर भी लगता है कि हां, नै स ने जिम्मेदार पत्रकारिता की भूमिका बखूबी निभाई. प्रारम्भिक वर्षों में तो उसके तेवर कई बार दुस्साहस की हद तक और रोंगटे खड़े करने वाले रहे. तवाघाट और कर्मीं जैसे भूस्खलन हों, या उत्तरकाशी से ऊपर अलकनंदा में झील बनने और फिर उसके टूटने से मची तबाही हो, पंतनगर का गोली काण्ड हो या अल्मोड़ा मैग्नेसाइट की हड़ताल, शैले हॉल में वनों की नीलामी रोकने का आंदोलन रहा हो या उसके बाद लगभग पूरे उत्तराखण्ड में पुलिसिया दमन, नशा नहीं रोजगार दो आंदोलन की पहाड़ व्यापी कवरेज हो अथवा तराई के विस्थापितों के दुख-दर्दों की रपटें, नै स की टीम ने जान खतरे में डाल कर, यथासम्भव शीघ्र घटना स्थल पर पहुंच कर जो आंखों देखी रिपोर्टिंग की और जिस अंदाज में उन्हें पेश किया, वैसा हमारे समय की पत्रकारिता में दुर्लभ ही कहा जाएगा. इन रपटों को पत्रकारों की नई पीढ़ी को अवश्य देखना चाहिए. जनमुखी पत्रकारिता का अगर कोई पाठ्यक्रम बने तो इन्हें उसका हिस्सा भी अनिवार्य रूप से होना चाहिए. उन रपटों में पत्रकारिता के स्थापित मानकों का उल्लंघन भी कई बार हुआ होगा लेकिन यह विश्लेषण का विषय होगा कि ऐसा क्यों हुआ और ऐसा होने से रिपोर्ट को जो तेवर मिले, जनहित में वे कितने जरूरी थे. नै स की इस तेवरदार पत्रकारिता का बीच के वर्षों में भले लोप हो गया हो, लेकिन वह धारा मौजूद थी और उत्तराखण्ड आंदोलन में वह सर्वथा नए रूप और साहस के साथ प्रकट हुई. उस दौर का उत्तराखण्ड बुलेटिन और गिर्दा का उत्तराखण्ड काव्य सहमी-डरी जनता को सूचना, समाचार विश्लेषण और हिम्मत देने वाली वाचिक पत्रकारिता के नायाब नमूने हैं.
नै स ने पहली बार सम्पूर्ण उत्तराखण्ड को एक समाचार-इकाई के रूप में देखा. जब तथाकथित बड़े अखबार हर जिले के अलग-अलग संस्करण निकाल कर एक जिले के पाठकों को दूसरे इलाके की खबरों से वंचित कर रहे थे तब नै स ने पूरे उत्तराखण्ड की खबरें एक साथ परोसने का जरूरी काम किया और दूसरे अखबारों को भी राह दिखाई. वह रूढ़ अर्थों में समाचार पत्र कभी नहीं रहा. जरूरी खबरों तथा घटनाओं के अंदरूनी, गोपनीय पक्ष को उजागर करने के साथ नै स उत्तराखण्ड के इतिहास, पुरातत्व, जल-जंगल-जमीन और खनिज की लूट, पलायन और प्रवास, विकास के नाम पर कच्चे पहाड़ के विनाश, राजनीतिकों के दोहरे चरित्र, प्रशासनिक तंत्र का अमानवीय चेहरा उजागर करने का काम करता रहा है. जरूरत पड़ने पर न्यायालय को भी कटघरे में खड़ा करने का अत्यंत साहसिक काम उसने किया है, जिसकी भूमिका पर, चंद अपवादों को छोड़कर, मीडिया चुप ही रहता आया है.
ऐसे अनेक कारण हैं कि नै स अपनी सीमित प्रसार संख्या के बावजूद प्रभावशाली माना जाता है और महत्वपूर्ण हस्तक्षेप करता है. इसीलिए जब-जब मुख्यत: आर्थिक संकट के कारण उसके बंद होने की नौबत आई या कुछ समय के लिए उसे स्थगित किया गया, हर तरफ से उसे चलाए रखने की अपीलें हुईं और मदद भी पहुंची. जिसने भी नै स पढ़ा है, अंधेरे में एक रोशनी की वह उसे तरह जरूरी लगता है, क्योंकि आज की पत्रकारिता कतई भरोसेमंद नहीं रह गई. सच का मुंह स्वर्ण पात्र से ढका है और आज पत्रकारिता सच का अन्वेषण भूल कर स्वर्ण पात्र की दीवानी हो गई है.

इस सच के बावजूद कि नै स हमारे समय का रांख (छिलुकों का मुट्ठा, जिसे जलाकर पहाड़ के लोग घने अंधेरे में भी रास्ता पार करते आए हैं) या मशाल है, उसे इसी तरह बनाए और चलाए रखना बहुत दिनों तक व्यावहारिक नहीं होगा जब तक कि उसे नई संकल्पवान टीम नहीं मिले. संसाधन तो जैसे-तैसे जुट जाएंगे लेकिन विचार, तेवर और समर्पण वाली टीम कहां से आएगी? पुरानी टीम के उम्र से भी चुकने का समय आ रहा है. यह संकट सिर्फ नैनीताल समाचार का नहीं पहाड़ और दूसरी ऐसी संस्थाओं/संगठनों के सामने भी है. उन्हें नए संवाहक चाहिए. तभी विचार, तेवर और जनमुखी पत्रकारिता की यह धारा प्रवहमान रह पाएगी. 
(नैनीताल समाचार, 15 अगस्त-30 सितम्बर 2016)
http://www.nainitalsamachar.com/patrakarita-ke-andhere-mein-nainital-samachar-ka-hona/

अति उत्साही गोरक्षकों का अत्याचार बढ़ता ही गया

दादरी में अखलाक की हत्या का एक वर्ष

नवीन जोशी
28 सितम्बर, 2015. उत्तर प्रदेश के दादरी इलाके का बिसाहड़ा गांव. शाम को पास के एक मंदिर के लाउडस्पीकर से कोई घोषणा करता है कि “बकरीद के मौके पर मुहम्मद इखलाक के परिवार ने गाय की हत्या की है और गोमांस खाया है. अब भी उसके घर में गोमांस रखा है.” थोड़ी देर बाद लाठी-सरिया से लैस भीड़ मोहम्मद अखलाक के घर धावा बोलती है. करीब 50 साल के अखलाक की इतनी पिटाई होती है कि उसकी जान चली जाती है. उसके 20 साल के बेटे दानिश को गम्भीर हालत में अस्पताल में भर्ती कराना पड़ता है. उसकी पत्नी और बूढ़ी मां को भी नहीं बख्सा जाता.
गोहत्या के शक में इखलाक की हत्या देश-विदेश के मीडिया की सुर्खियां बनता है. “बीफ” खाने की आजादी और गोवध कानून पर सख्ती से अमल की तीखी बहसें ड्रॉइंग रूम से लेकर सोशल साइटों पर छा जाती हैं. सेकुलर या बहुलतावाद के समर्थक इस हत्या को तर्कवादियों एम कलबुर्गी, नरेंद्र दाभोलकर, गोविंद पानसरे की हत्याओं से जोड़कर मोदी सरकार में बढ़ती “असहिष्णुता” और “अभिव्यक्ति की आजादी पर अंकुश” के खिलाफ सड़कों पर उतर आते हैं.
विभिन्न भाषाओं के साहित्यकारों, रंगकर्मियों, इतिहासकारों, फिल्मकारों-कलाकारों, विज्ञानियों, आदि-आदि के सामूहिक सम्मान/पुरस्कार वापसी, संस्थानों से इस्तीफों और प्रदर्शनों से अभूतपूर्व प्रतिरोध होता है. इसके मुकाबले सरकार समर्थकों का जमावड़ा भी लगता है.
लेकिन धीरे-धीरे यह प्रतिरोध ठंडा पड़ने लगता है. जो मुद्दा शांत नहीं होता, वह है अखलाक की हत्या का कारण या बहाना – गोहत्या और गोमांस खाने के आरोप.
अखलाक की हत्या के ठीक एक साल बाद हम पाते हैं कि “गोहत्या का विवाद और भी हिंसक रूप लेता जा रहा है. साल भर में इसी आरोप में “गोरक्षकों” के हाथों कम से कम तीन लोगों की हत्या हो चुकी है और दर्जनों लोग निर्मम पिटाई का शिकार हुए हैं. जगह-जगह रातों रात “गोरक्षक”, “गोसेवक” और उनकी समितियां उग आई हैं. अकेले दादरी इलाके में ही दर्जनों “गोरक्षक समितियों” का पता चला है और उनके “अभियानों, “छापोंसे होने वाली झड़पों की खबरें आती रहती हैं. इन तथाकथित “गोरक्षकों” के हमलों का शिकार दलित और मुस्लिम हो रहे हैं. मरे जानवरों की खाल उतारते दलितों पर गोहत्या का आरोप लगाया जाता है. मुसलमानों पर “गोमांस” खाने का आरोप लगाना बहुत आसान है. जम्मू-कश्मीर के एक निर्दल विधायक पर “बीफ-पार्टी” करने का आरोप लगा कर भारी हंगामा किया गया था.
अक्टूबर 2015 में दिल्ली के केरल हाउस में “बीफ” परोसे जाने की शिकायत के बाद वहां पुलिस के छापे से लेकर जुलाई 2016 में गुजरात के उणा कस्बे में गोहत्या के आरोप में दलित युवकों को नंगा कर लोहे की रॉड से पीटे जाने तक पूरे देश में, विशेष रूप से उत्तर भारत में हिन्दूवादी संगठनों की ज्यादातियों के इतने मामले सामने आए हैं कि  भारतीय जनता पार्टी को इसके राजनीतिक दुष्परिणाम का डर सताने लगा है. तभी तो अखलाक की हत्या की निंदा करने की मांग के बावजूद चुप रहते आए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने करीब ग्यारह महीने बाद अपनी चुप्पी तोड़ी और अधिसंख्य गोरक्षकों को “असामाजिक” और “फर्जी” बताया. उन्हें यहां तक कहना पड़ा कि 80 फीसदी “गोरक्षक” फर्जी हैं जो रात में अवैध काम करते हैं और दिन में गोरक्षा के नाम पर अपनी दुकानें चलाते हैं.
प्रधानमंत्री की इस तीखी प्रतिक्रिया  के स्पष्ट कारण हैं. पिछले एक वर्ष में गुजरात, पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और झारखण्ड से लेकर सुदूर मणिपुर और जम्मू-कश्मीर तक तथाकथित “गोरक्षकों” के अत्याचार बढ़ते जा रहे हैं और बड़ा राजनीतिक नुकसान साफ दिखाई दे रहा है.
अखलाक की हत्या के वक्त भाजपा नेताओं की प्रतिक्रियाएं निंदात्मक नहीं थीं.  केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने कहा था- “हम यह कैसे स्वीकार कर सकते हैं कि इस देश में गाएं मारी जाएं” और संस्कृति मंत्री महेश शर्मा का बयान था कि “अखलाक की मौत एक दुर्घटना है.”
भाजपा चुनाव में “गौ और गोवंश की रक्षा को बढ़ावा और मजबूती देने” का वादा करती रही है. इसलिए भी अतिउत्साही “गोरक्षकों” पर उसका कोई नियंत्रण नहीं है. प्रधानमंत्री की निंदा के बावजूद उनके अभियान रुके नहीं हैं.
सच्चाई यह है कि  यू पी और गुजरात समेत कई राज्यों के विधान सभा चुनावों के लिए दलितों का समर्थन हासिल करने के लिए प्रयासरत भाजपा को तथाकथित गोरक्षकों के अत्याचारों के कारण दलितों के व्यापक आक्रोश का सामना करना पड़ा है. “गोमांस” के संदेह पर घरों में छापों, बिरयानी के ठेलों से बोटी के नमूने एकत्र करने, जानवरों को ढो रहे ट्रकों को रोक कर ड्राइवरों की पिटाई जैसे मामले सामने आते रहे हैं. खाल निकालने के लिए मरी गायों को ले जा रहे दलित युवकों पर गुजरात के उणा कस्बे में  जो बर्बर अत्याचार किए गए उसका देशव्यापी विरोध तो हुआ ही, दलितों ने भी बड़े पैमाने पर एकजुटता दिखाई और विरोध प्रदर्शन किए. कई जगह तो दलितों ने मरे जानवरों को उठाने तक से इनकार कर दिया. सुरेंद्र नगर में 80 गायों के शवों को इसी कारण दफनाना पड़ा.
गोहत्या भारत में हमेशा से सम्वेदनशील मुद्दा रहा है. अधिसंख्य राज्यों में गोहत्या निषेध कानून लागू है. केरल, पश्चिम बंगाल और असम को छोड़कर उत्तर-पूर्व के सभी राज्यों में गोहत्या पर रोक नहीं है. आंन्ध्र प्रदेश, तेलंगाना और असम में “वध योग्य” यानी और किसी भी काम के लिए अनुपयुक्त और बिहार में 15 वर्ष से ऊपर की गाएं मारी जा सकती हैं.
गो हत्या निषेध में गोवंश भी शामिल है जिसमें बछड़े, बैल और सांड़ आते हैं. भैंसें भारत में आधिकारिक रूप से काटी जाती हैं. सच तो यह है कि भैस के मांस यानी बीफ के निर्यात में भारत विश्व में पहले स्थान पर है. वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय के अधीन कृषि एवं प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थ निर्यात विकास प्राधिकरण के अनुसार 1969 में शुरू बीफ का निर्यात 2015-16 में दो खरब 66 अरब 81 करोड़ 56 लाख रु तक पहुंच गया है. भारतीय भैंस का मांस कम वसा और कॉलेस्ट्रॉल के कारण साठ से ज्यादा देशों में काफी पसंद किया जाता है. देश के विभिन्न नगर निकायों में रजिस्टर्ड बूचड़खानों की संख्या चार हजार और गैर-रजिस्टर्ड की संख्या 25 हजार बताई गई है, जो वास्तव में इससे कहीं ज्यादा होगी.
यह भी सच है कि गोहत्या पर कानूनी रोक के बावजूद गोमांस के लिए चोरी-छुपे गोहत्या होती हैं. भैसों के साथ-साथ गोवंश की तस्करी भी होती है. कई प्रभावशाली लोग, हिंदू-मुसलमान दोनों, इस वैध-अवैध धंधे में शामिल हैं, जिन्हें पुलिस का संरक्षण मिलता है.
इस धंधे का धर्म और राजनीति से कोई सम्बंध नहीं है लेकिन केंद्र में भाजपा सरकार के भारी बहुमत से आने के बाद यह धर्म और राजनीति दोनों से जोड़ दिया गया. शांत पड़ीं चंद गोरक्षा समितियां न केवल सक्रिय हो उठीं बल्कि बड़ी संख्या में नई अति उत्साही समितियां खड़ी हो गईं. अखलाक के घर हमला ऐसी ही समितियों की अति सक्रियता का नतीजा था.
हमले के समय अखलाक के घर से “गोमांसभी  “बरामद” किया गया था. प्रारम्भिक जांच में राज्य सकार की लैब ने उसे बकरे का गोश्त बताया लेकिन बाद में मथुरा की सेण्ट्रल फॉरेन्सिक लैब ने उसे “गाय या गोवंश” का मांस बताया. इस रिपोर्ट के आधार पर बिसाहड़ा के कुछ लोग अदालत पहुंचे और कोर्ट के आदेश पर इखलाक के परिवार वालों के खिलाफ 15 जुलाई 2016 को गोवध निषेध कानून में मुकदमा दर्ज किया गया. अखलाक के भाई जान मुहम्मद को छोड़कर बाकी सभी लोगों की गिरफ्तारी पर अदालत ने रोक लगा दी. जान मुहम्मद भी बाहर ही हैं.
अब तक यह साबित नहीं हो सका है कि अखलाक ने गोहत्या की थी. गोहत्या पर रोक के बावजूद गोमांस खाना यूपी में गैर-कानूनी नहीं है.
भारत जैसे बहुलतावादी देश में किसी की रसोई या प्लेट में ताक-झांक करना तथा खान-पान के आधार पर या सिर्फ शक की बिना पर हमले करना कानून अपने हाथ में लेने के अलावा निजी स्वतंत्रता के हनन के दायरे में ही आएगा. 
समाज में बंटवारा बढ़ता जा रहा है. गायों की रक्षा तो नहीं ही हो पा रही.   (बीबीसी.कॉम/हिंदी, 28 सितम्बर, 2016))

  




Sunday, September 25, 2016

सपा के गृह-युद्ध और शांति के कुछ सबक


नवीन जोशी
समाजवादी पार्टी के “गृह-युद्ध” के “मुलायम-समाधान” से आज की चुनावी राजनीति के कुछ सबक सामने आए हैं. चुनाव सामने हैं और एक माहिर खिलाड़ी ने ये कदम उठाए हैं, इसलिए मानना चाहिए कि सबक महत्वपूर्ण हैं.
एक- मुख्यमंत्री की बेहतर छवि से चुनाव नहीं जीता जाता.  वर्ना मुलायम अखिलेश को सबसे लाचार और “जी, पिता जी” वाला कमजोर बेटा क्यों बनाते. युवा अखिलेश सपा के चेहरे को अपनी तरह साफ-सुथरा बनाना चाहते हैं. मुख्यमंत्री के रूप में साढ़े चार साल के कार्यकाल में उन पर कोई व्यक्तिगत दाग नहीं लगा, यह उनके विरोधी भी मानते हैं. लेकिन चुनावी अखाड़े के पहलवान पिताश्री ने इसे ठीक नहीं माना. आरोपों की कमाई जरूरी है.
दो- चुनावी राजनीति और जोड़-तोड़ के लिए अमर सिंह अनिवार्य हैं. तभी तो उन्हें अखिलेश तथा राम गोपाल के भारी विरोध और सार्वजनिक आलोचना के बावजूद  सपा का राष्ट्रीय महासचिव बनाया गया. शिवपाल भी अत्यंत उपयुक्त हैं. सरकार में बहुत महत्वपूर्ण हैसियत रखने वाले “चाचा” अब पार्टी के प्रदेश अध्य्क्ष भी हो गए हैं. उनकी छवि और कार्यशैली की चर्चा अक्सर होती रहती है. उनके इर्द-गिर्द भांति-भांति के लोगों का जमावड़ा रहता है.  प्रदेश अध्यक्ष नहीं रहते हुए भी संगठन पर उनकी जबर्दस्त पकड़ थी. वे अब जब चाहें मुख्तार अंसारी और उन जैसे अन्य को पार्टी में शामिल करा सकते हैं. रास्ता निष्कंटक है.
तीन – मंत्रियों के खुल्लम-खुल्ला भ्रष्टाचार के कोई मायने नहीं है. शिकायतें, सबूत और जाचें अपनी जगह पड़ी रहें. गायत्री प्रजापति के मामले ने यह डंके की चोट पर बता दिया है. मुख्यमंत्री ने भले उन्हें भ्रष्ट मानते हुए मंत्रिमण्डल से हटाया लेकिन मुलायम और शिवपाल ने उनमें कुछ ऐसा खास देखा है जो सरकार और पार्टी के लिए बहुत जरूरी है. यह खूबी सारे धतकरम छुपा लेती है. एक सुपाठ यह भी कि गायत्री प्रजापति और राज किशोर सिंह होने में बड़ा अन्तर है. राजकिशोर जैसों को अभी और मेहनत करनी होगी.  
चार- समाजवाद को लोहिया के नाम से जोड़ने की गलती नहीं करनी चाहिए. अमर सिंह यूं ही अपने को “मुलायमवादी” नहीं कहते. वे आज की चुनावी राजनीति के सिद्धांतकार हैं. सोशल साइटों पर कुछ दिलजलों ने गायत्री प्रजापति की फोटो लगाकर टिप्पणी की थी- “समाजवाद का नया चेहरा.” उनके किए यह तीखा व्यंग्य था पर बात सच्ची और गम्भीर है. समाजवाद बदल गया है. अब तक सपा में अच्छे समाजवादी रहे आए राजेंद्र चौधरी से चुपचाप पूछ लीजिए, शायद बता दें.  
पांच- अंतिम यह कि सपा अखिलेश के चहरे को आगे कर चुनाव लड़ने की बात भले अब भी करे, लेकिन अखिलेश का कोई चेहरा ही नहीं बचा. इस युवा चेहरे पर कई चेहरे चस्पा हो गए हैं. मुलायम का चेहरा, शिवपाल का चेहरा, अमर सिंह का मुखड़ा और गायत्री का भी. अखिलेश में जनता यही चेहरे देखेगी और सपा को वोट देगी. अखिलेश का अपना चेहरा फिलहाल मिसफिट है, जब तक कि वे पिता और चाचा का चेहरा नहीं पा लेते. विफल हुए तो विकल्प चाचा हैं ही.

राजनीति का यह पुनर्पाठ फिलहाल सपा से निकला है लेकिन समय तथा स्थितियों के अनुसार सभी दलों पर लागू होता है. (नभाटा, 25 सितम्बर, 2016)

Sunday, September 18, 2016

इस कलह के जिम्मेदार खुद मुलायम हैंं


नवीन जोशी
परिवारवारिकराजनीतिक दलों में विरासत की जंग नई बात नहीं है. कांग्रेस इसका अपवाद रही क्योंकि उसमें एक से ज्यादा दावेदार कभी हुए नहीं. नेहरू के बाद इंदिरा उनकी अकेली वारिस थीं. संजय और राहुल गांधी में ठन सकती थी लेकिन बड़े भाई राजीव को राजनीति में कोई दिलचस्पी नहीं थी और उनकी बेगम सोनिया को इससे चिढ़ थी. संजय की अकाल मृत्यु नहीं हुई होती तो राजीव-सोनिया-राहुल-प्रियंका को आज इस रूप में कौन जानता. उनकी अगली पीढ़ी में राहुल और वरुण में विरासत का युद्ध हो सकता था लेकिन उनकी राहें (पार्टियां) पहले ही जुदा हो गईं थीं. चरण सिंह और बीजू पटनायक की पार्टियां भी एकमात्र उत्तराधिकारी के कारण बची रहीं. दक्षिण भारत की घोर पारिवारिक पार्टियों का अंदरूनी सत्ता संग्राम बहुत जाना-पहचाना है. एम जी आर के बाद उनकी राजनीतिक विरासत का युद्ध उनकी पत्नी (जानकी) और फिल्मों की नायिका (जयललिता) में छिड़ा. करुणानिधि के बेटों-बेटियों-पोतों का राजनीतिक युद्ध अब तक चला आ रहा है. बाल ठाकरे की शिव सेना की विरासत के लिए उनके बेटे और भतीजे में रार मची. अपना दलमें सोने लाल पटेल की विरासत के लिए मां-बेटी में जंग चल रही है. 
सो, अगर समाजवादी पार्टी में मुलायम सिंह की राजनीतिक विरासत के लिए मार मची है तो इस पर आश्चर्य कतई नहीं होना चाहिए. आश्चर्य इस बात पर किया जाना चाहिए कि राजनीतिक अखाड़े के उस्ताद मुलायम ने अपनी विरासत का मामला समय रहते बेहतर ढंग से हल करने में चूक क्यों की. उनका परिवार बड़ा है. कई भाई-भतीजे-बहुएं राजनीति में सक्रिय हैं. उन्हें अच्छी तरह पता रहा होगा कि इस बड़े राजनीतिक परिवार में उनका अगला वारिस बनने की महत्वाकांक्षा किस-किस में पल रही है. उन्हें अपनी जगह किसी एक को स्थापित करने से पहले मुकम्मल तैयारी करनी चाहिए थी ताकि युद्ध की स्थिति नहीं आए. उनके इस संकट को उन्हीं का पैदा किया हुआ मानना चाहिए.
मुलायम से अच्छी तरह और कौन जानता था कि उनके छोटे भाई और शुरू से पार्टी तथा परिवार में उनके अभिन्न सहयोगी शिवपाल अपने को उनका पहला उत्तराधिकारी मानते आए हैं. मुलायम अगर इस जगह अपने बेटे अखिलेश को देखना चाहते थे तो उन्हें शिवपाल को धीरे-धीरे इसके लिए तैयार कर लेना चाहिए था. सन 2012 के विधान सभा चुनाव में उन्होंने अखिलेश को प्रमुखता जरूर दी लेकिन उन्हें मुख्यमंत्री उम्मीदवार के रूप में पेश नहीं किया. बहुमत पा जाने के बाद उन्होंने अखिलेश का नाम मुख्यमंत्री के रूप में अचानक ही पेश कर दिया. शिवपाल इसके लिए कतई तैयार नहीं थे. झगड़ा वहीं से शुरू हो गया था. बीते साढ़े चार साल में इसकी परिणति कई रूपों में देखी गई. मुलायम कभी अखिलेश की और कभी उनके मंत्रियों की सार्वजनिक आलोचना कर शिवपाल को खुश रखने में लगे रहे. इससे अखिलेश अजीबोगरीब स्थिति में पड़े और उनके भीतर आक्रोश जमा होता गया. नतीजा सामने है.
चुनाव करीब हैं. इसलिए यह झगड़ा किसी तरह शांत हो जाएगा. नेता जी की बात पर अभी सुलह हो जाएगी लेकिन चिंगारी भीतर-भीतर सुलगती रहेगी और अवसर पाते ही भड़क उठेगी.  (नभाटा, 18 सितम्बर 2016)



Sunday, August 28, 2016

दलों में दम घुटने और कूदने-फांदने का समय


नवीन जोशी
आजकल सभी पार्टियों के भीतर कुछ नेताओं का दम अचानक घुटने लगा है. फिर वे किसी दूसरी पार्टी की खुली हवा में सांस लेते दिखाई देते हैं और उसके गुणगान करने लगते हैं, जिसको कोसते-गरियाते उनकी अब तक की राजनीति परवान चढ़ी होती है.
पार्टियों के रणनीतिकार दूसरे दलों के ऐसे बेचैन नेताओं की तलाश में रहते हैं. पहला मकसद बड़ी मछलियांफंसाने का होता है. मछली की जाति का विशेष महत्व है. स्वामी प्रसाद मौर्य का उदाहरण लेते हैं. वे बड़ी मछली हैं और उनका ओबीसी होना और भी मूल्यवान है. मौर्य इस कीमत को जानते हैं. इसीलिए बसपा छोड़ने पर पहले बाजार का रुख देखते रहे. अंतत: भाजपा में गए. भाजपा इसे बड़ी उपलब्धि के तौर पर प्रचारित कर रही है.  उसे  पिछड़े और दलित नेताओं की जरूरत है. किसी बड़े मुस्लिम नेता की और भी ज्यादा. लेकिन इससे अंदरूनी पेंच भी फंसते हैं. जैसे, भाजपा में एक बड़े मौर्य पहले से हैं, इस नाते बड़ा पद भी मिला है. अब दूसरे बड़े मौर्य के आ जाने से उनकी पूछ कम तो होगी. वे कुछ खिन्न बताए जाते हैं लेकिन इतने नहीं कि बगावत कर बसपा में चले जाएं. बसपा में उनका बड़ा स्वागत होगा.
हां, दल-बदल के दांव ऐसे भी होते हैं. तू मेरा ऊंट मार, मैं तेरा हाथी.  जैसे, अभी बसपा के हाथ पूर्व सपा सांसद रीना चौधरी लग गई हैं. वे आर के चौधरी की कमी पूरी करेंगी, पार्टी ऐसा मानती है. चुनावी राजनीति मोहरों का खेल है. कांग्रेस के तीन मुस्लिम विधायक बसपा में खिसक लिए. एक तो मायावती सौ से ज्यादा मुसलमानों को टिकट दे रही हैं, दूसरे, कांग्रेस में जीतने के आसार उनको सबसे कम लगे होंगे. कांग्रेस यू पी में खड़े हो पाने के लिए बड़ा जोर लगाए हुए है. हाल की उसकी रैलियों और सोनिया के रोड शो में खूब भीड़ जुटी लेकिन कांग्रेस में शामिल होने के लालायित बहुत कम होंगे. चुनाव जीतने की सम्भावना भी होनी चाहिए.
सबसे ज्यादा सम्भावनाशील पार्टी भाजपा मानी जा रही है. ब्राह्मणब्रजेश पाठक भी उसी के दरवाजे गए. लेकिन वहां पहले से मौजूद लोगों में चिंता भी है. दूसरे दलों से आए लोगों की पूछ ज्यादा होगी, टिकट का वादा तो है ही. सो, जो पहले से पैर जमाए और उम्मीदों से भरे है, उन्हें बेदखल होने की फिक्र खाए जा रही है. सीधे विरोध कोई नहीं रहा, उसके अपने खतरे हैं लेकिन कोई साक्षी महाराज से कहलवा रहा है तो कोई किसी और से. 

दल-बदल की मण्डी में बसपा के भाव कुछ कम हुए हैं तो सपा के बढ़े हैं. सपा में समस्या यह है कि कौन-सा दरवाजा खटखटाया जाए कि कोई नाराज न हो. चुनाव करीब आते-आते यह खेल तेज होगा. असंतुष्टों की फसल बढ़ेगी और दूसरे दल उन मोहरों को अपनी बाजी में फिट करने का कौशल दिखाएंगे. टिकट के लिए पाला बदलने वालों के बारे में साबित तथ्य यह है कि अंतत: वे अपना सम्मान और रुतबा खो देते हैं. मगर इस मुई राजनीति में सम्मान की चिंता है किसे! ( नभाटा, 28 अगस्त, 2016)