Friday, January 29, 2016

लोकवाणी, सिटीजन चार्टर और अब जन सुनवाई !

कोई चार-पांच साल पुरानी बात होगी. जनता को विविध सेवाएं ऑनलाइन उपलब्ध कराने और शिकायतों के त्वरित निपटान के लिए बनाए गए लोकवाणी केंद्र के माध्यम से सीतापुर के तत्कालीन डी एम आमोद कुमार ने उल्लेखनीय काम किया था. लोकवाणी केंद्र बने सभी जिलों में थे लेकिन सीतापुर जैसे चंद जिलों में हुए बेहतर काम के कारण ‘लोकवाणी’ की चर्चा राष्ट्रीय स्तर पर हुई थी. जैसा कि होता है अधिकारियों के तबादले के साथ उनके शुरू किए गए अच्छे काम भी ठप हो जाते हैं, लोकवाणी की चर्चा फिर नहीं सुनाई दी, हालांकि ये केंद्र आज भी कई जिलों में अस्तित्व में हैं. बीते सोमवार को जब मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने “जन शिकायतों के जल्द और पारदर्शी निपटारे के लिए देश के पहले एकीकृत पोर्टल जनसुनवाई” का शुभारम्भ किया तो हमें लोकवाणी की याद हो आई.  

बहुत समय नहीं हुआ जब प्रदेश के कुछ सरकारी दफ्तरों में सिटीजन चार्टर लागू करने की बात हुई थी. दावे किए गए थे कि जनता की किसी भी अर्जी का पंद्रह दिन में निपटारा कर दिया जाएगा. निपटारा नहीं होने की स्थिति में सम्बद्ध व्यक्ति को बताया जा सकेगा कि उसके काम की प्रगति क्या है. क्या कोई बता सकता है कि सिटीजन चार्टर योजना कहां दफ्न हो गई या कर दी गई?

विचार और योजना के स्तर पर कई अच्छे और जनहितकारी कार्यक्रम बनते हैं, सरकार उन्हें बड़े दावों के साथ जोर-शोर से शुरू करती है. कुछ समय बाद वे उनकी जगह प्रचार का शोर-शराबा दूसरे कार्यक्रम ले लेते हैं. लोकवाणी हो, सिटीजन चार्टर या जनसुनवाई पोर्टल वे सुशासन के ऑनलाइन औजार हैं. सुशासन के आधारभूत मूल्य हैं- पारदर्शिता, जवाबदेही और जिम्मेदारी. सरकार यहां सेवा-प्रदाता है जिसे जनता की सेवा करनी है. किसी भी व्यक्ति का कोई भी काम, चाहे वह जन्म-मृत्यु प्रमाण पत्र बनवाना हो या खसरा-खतौनी लेना या किसी काम में गड़बड़ी की शिकायत, उसका निपटारा एक समय-सीमा में पारदर्शी ढंग से होना चाहिए. जनता को दफ्तर-दफ्तर या विभाग-विभाग दौड़ने की जरूरत नहीं होनी चाहिए. जनता के उत्पीड़न अथवा किसी अधिकारी के भ्रष्टाचार की शिकायत भी इतने ही खुले रूप में सुनी–निपटाई जानी चाहिए.

सिटीजन चार्टर मूलत: 1991 में ब्रिटेन से निकली सुशासन की अवधारणा है जिसे बाद में कई देशों ने अपनी शासन प्रणाली का हिस्सा बनाया. भारत सरकार ने भी 1997 में इसे अपनाने की घोषणा की. कोई तीन वर्ष पूर्व प्रदेश शासन ने भी इसे लागू करने का ऐलान हुआ था. घोषणा करना और अमल में लाना अलग-अलग बातें हैं. उत्तर प्रदेश में तमाम घोषणाओं के बावजूद सरकारी काम-काज में सुशासन की संस्कृति बनी ही नहीं. कुछ सेवाओं के ऑनलाइन हो जाने से काम-काज में तेजी आई और सुधार भी हुआ लेकिन जिसे कहते हैं पारदर्शिता और जिम्मेदारी वह ऊपर से कार्य संस्कृति का हिस्सा बनने ही नहीं दी गई. हाल के महीनों में जिस तरह हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट ने यू पी में कुछ महत्वपूर्ण तैनातियों को खारिज किया उससे समझा जा सकता है कि यहां पारदर्शिता और जिम्मेदारी का क्या हाल है. ज्यादातर नेता और आला अधिकारी ही सुशासन पर कुण्डली मारे बैठे हैं.

जनता की वाजिब शिकायतों का निपटारा क्यों नहीं हो रहा, अधिकारी उसे क्यों और कहां दबाए बैठे हैं, क्या अड़ंगे लगा रहे हैं, वगैरह-वगैरह पर मुख्यमंत्री कार्यालय की नजर रहे यह बहुत अच्छा है. इससे पता चलता रहेगा कि सरकारी तंत्र कैसे काम कर रहा है या नहीं कर रहा है. मगर इसके लिए सुशासन के जिन तीन आधारभूत मूल्यों की जरूरत है, वे कहां हैं?
(नभाटा, जनवरे 29, 2016)



Sunday, January 24, 2016

अमित शाह के लिए यू पी ही होगा कड़ा इम्तहान


रविवार, 24 जनवरी 2016 को अमित शाह सर्वसम्मति से भाजपा अध्यक्ष चुन लिए जाएंगे. इस बार पूरे तीन साल के लिए. 09 जुलाई, 2014 को जब उन्होंने पहली बार भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष की जिम्मेदारी सम्भाली थी तो वह तत्कालीन अध्यक्ष राजनाथ सिंह की खड़ाऊं पहनने जैसा था. राजनाथ सिंह ने मोदी सरकार में शामिल होने के बाद अध्यक्ष पद छोड़ दिया था. लोक सभा चुनाव में यूपी के प्रभारी रहे अमित शाह के लिए 80 में से 73 सीटें जिताने का यह बड़ा इनाम था. मगर इस बार कुछ किंतु-परंतु भी उनके आड़े आ गये थे जिन्हें दूर करने के लिए खुद प्रधानमंत्री तथा संघ प्रमुख को हस्तक्षेप करना पड़ा.
नेतृत्व पर उठे सवाल
जुलाई 2014 से जनवरी 2016 आते-आते नरेंद्र मोदी और अमित शाह की कीर्ति फीकी पड़ी है. अजेय समझी जाने वाली इस जोड़ी को दिल्ली विधान सभा चुनाव में आप के हाथों बड़ी पराजय के बाद बिहार में शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा. बिहार चुनाव में भाजपा के सेनापति और रणनीतिकार नरेंद्र मोदी और अमित शाह ही थे. हाशिए पर धकेल दिए गए लाल कृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी और यशवंत सिन्हा जैसे वरिष्ठ नेताओं ने बिहार की हार पर मोदी और शाह के खिलाफ बगावती तेवर अपनाए. शाह की नेतृत्व क्षमता पर सवाल उठाए गए. इसी दौरान देश में बढ़ती असहिष्णुता, अभिव्यक्ति की आजादी पर खतरे और बहुलतावादी परम्परा को नष्ट किए जाने की साजिशों के आरोपों से मोदी सरकार की प्रतिष्ठा और भाजपा की स्वीकार्यता को आघात लगे. इसलिए भाजपा और संघ के भीतर यह चर्चा भी चली कि क्या किसी और नेता को पार्टी की बागडोर दी जाए.
मगर पलड़ा भारी
इस कुहासे के बावजूद अमित शाह का पलड़ा कई कारणों से भारी रहा. शाह को संघ के वरिष्ठों का पूर्ण समर्थन हासिल है. 2014 के लोक सभा चुनाव और उसके बाद हुए कई विधान सभा चुनावों में शाह ने संघ के कार्यकर्ताओं का बखूबी इस्तेमाल किया. पार्टी और संघ के जमीनी कार्यकर्ताओं से उनका सीधा सम्पर्क है. शाह बहुत ऊर्जावान और मेहनती नेता हैं. जिन राज्यों में भाजपा कमजोर है वहां पार्टी का जनाधार बनाने के लिए उन्होंने रणनीति बना रखी है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के वे पुराने सहयोगी और विश्वासपात्र हैं. दोनों में बहुत अच्छी समझदारी है और मोदी फिलहाल और किसी को पार्टी अध्यक्ष के रूप में नहीं देखना चाहते.
शाह के पक्ष में एक तुरुप चाल यह भी रही कि अगर इस समय अमित शाह की बजाय किसी और नाम पर विचार भी किया जाता है तो इसका अर्थ आडवाणी और जोशी की बगावत को महत्व देना होगा. इस तरह शाह के नाम पर फाइनल मुहर लग गई.
सबसे बड़ी चुनौती यूपी
अमित शाह के सामने कई बड़ी चुनौतियां हैं. इसी साल अप्रैल-मई में पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, असम, केरल और पुडुचेरी में चुनाव होने हैं. लोक सभा चुनाव में भाजपा को पश्चिम बंगाल में पैर रखने का जो मौका मिला था, उसे पसारना है. असम में बोडो पीपल्स फ्रण्ट से गठबंधन के बाद बढ़ी उम्मीदों को परवान चढ़ाना है. 2017 में यूपी, उत्तराखण्ड, पंजाब, गोवा और मणिपुर की बारी है. शाह की सबसे बड़ी चुनौती 2017 में उत्तर प्रदेश ही होगी जहां मजबूत वोट आधार वाली सपा और बसपा मुकाबिल हैं. लोक सभा चुनाव में मिली सफलता का कीर्तिमान विधान सभा चुनाव में मदद नहीं करने वाला.
इसलिए यू पी में शाह और संघ कई मोर्चों पर काम कर रहे हैं. बसपा के दलित आधार में सेंध लगाने के लिए आम्बेडकर के महिमामंडन का अभियान पहले से चल रहा है. 22 जनवरी को खुद प्रधानमंत्री ने लखनऊ दौरे में डा भीम राव आम्बेडकर महासभा के कार्यालय जाकर बाबा साहेब के अस्थि कलश पर फूल चढ़ाए. कुछ दलित नेताओं को भाजपा में लाने की रणनीति के तहत बसपा के पूर्व राज्य सभा सदस्य जुगल किशोर को ऐन मायावती के जन्म दिन पर पार्टी में शामिल किया गया. चंद रोज पहले संघ के अवध प्रांत की समन्वय बैठक में सह-सरकार्यवाह ने स्वयंसेवकों से अपील की कि वे दलितों के लिए सेवा कार्य करें. कल्याण सिंह मुख्यमंत्री पद के उमीदवार नहीं ही होंगे लेकिन इसका शिगूफा छोड़ कर लोधों को खुश करने की कोशिश हुई है.
अयोध्या में राम मंदिर निर्माण की हवा पहले ही बनाई जा चुकी है. पत्थरों की नई खेप मंगवाना और तराशने काम तेज करवाना बताता है कि यू पी के समर के लिए नरेंद्र मोदी सरकार के विकास के वादे पर ही अमित शाह निर्भर नहीं करेंगे. बिहार में विकास का यह नारा फेल हुआ और बीच चुनाव में भाजपा को जातीय व साम्प्रदायिक पत्ते खलने पड़े थे. नीतीश की तरह यूपी में अखिलेश विकास-पुरुष के रूप में ख्याति अर्जित नहीं कर सके हैं लेकिन लखनऊ मेट्रो, समाजवादी पेंशन स्कीम, आई टी सिटी और लखनऊ-आगरा एक्सप्रेस-वे जैसी महत्वाकांक्षी योजनाओं में तेजी लाकर इधर वे विकास के मुद्दे को चर्चा में लाने का पूरा प्रयास कर रहे हैं. इसलिए शाह की रणनीति है कि मोदी सरकार की नामामि गंगे, स्वच्छ भारत अभियान एवं बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ जैसी योजनाओं के प्रचार के साथ-साथ जातीय और धार्मिक मुद्दों को उभारा जाए. इसके लिए अमित शाह संघ की टीम का पूरा उपयोग कर रहे हैं. यूपी में उनके विश्वस्त सहयोगी पार्टी के प्रदेश महामंत्री (संगठन) सुनील बंसल हैं, जो संघ के ही पठाए हुए हैं.
यूपी के भाजपाइयों में प्रकट तौर पर शाह का कोई विरोध नहीं दिखता लेकिन नाराजगियां तो हैं ही. उनकी मनमानी कार्यशैली के अलावा पार्टी पदाधिकारियों के लिए भी अनुपलब्धता उनकी आलोचना के मुख्य बिंदु हैं. अमित शाह पार्टी पधाधिकारियों से अलग अपनी दूसरी टीम की मार्फत काम करने के लिए भी जाने जाते हैं.
बहरहाल, यूपी फतह हो सकी तो शाह फिर शाह होंगे. अन्यथा पार्टी में शांत पड़े विरोधी सजोर सिर उठाएंगे और तख्त डोलेगा.
(बीबीसी.कॉम में 24 जनवरी, 2016 को)





Friday, January 22, 2016

सिटी तमाशा/ इस फैसले को चाहिए हम सबका सक्रिय सहयोग


मोटर साइकल पर पीछे बैठे सज्जन के कंधे पर कपड़े का थैला टंगा दिखा. उस पर हरी स्याही से छपा है- पर्यावरण बचाएं, पॉलीथीन से दूर रहें.’ एक डिपार्टमेण्टल स्टोर के काउण्टर पर नोटिस टंगी है- ग्राहकों की सुविधा के लिए 20 रु में बड़ा और 10 रु में छोटा थैला उपलब्ध है. पॉलीथीन का इस्तेमाल अब नहीं होगा. ग्राहक जब चाहें थैला लौटा कर उसका मूल्य वापस ले सकते हैं. एक एफएम चैनल अपने श्रोताओं से पॉलीथीन के खतरों पर बात कर रहा है और उन्हें कपड़े के थैले नि:शुल्क बांटने की सूचना दे रहा है. ऐसे थैले कुछ अन्य संगठन और संस्थान भी बांट रहे हैं. मॉल और दुकानों में ईको-फ्रेण्डली लिफाफे और थैले दिख रहे हैं. बाजार में कागज के लिफाफे वर्षों बाद वापास आए हैं. कुछ स्वयंसेवी संगठन भी जनता को सचेत करने के वास्ते सक्रिय हुए हैं.

देख कर अच्छा लगता है कि अपने शहर में बहुत सारे सजग और समझदार नागरिक हैं. इस पहल को बढ़ाना होगा. पॉलीथीन से मुक्ति के लिए लम्बा सफर तय करना है. मैं सब्जी मण्डी में खड़ा हूँ. बहुत कम लोग घर से थैले लाए हैं. आलू, प्याज, टमाटर से लेकर धनिया, अदरक और हरी मिर्च के लिए अलग-अलग आकार की पन्नियां इस्तेमाल हो रही हैं. दुकानदारों को पॉलीथीन में सामान तौलने में कोई संकोच नहीं. खरीदने वालों को भी नहीं. मैंने पूछा- पॉलीथीन पर रोक लग गई, पता है?’ सब्जी वाला एक बार मेरी तरफ देख कर फिर तौलने में व्यस्त हो गया. खरीदने वाले सज्जन बोले- गुटखा पर भी रोक लगी थी, बंद हुआ? पॉलीथीन भी बंद न होगी. मैं कहा- कोई बंद नहीं कर पाएगा अगर आप नहीं चाहेंगे. पॉलीथीन के कई-कई थैले लटकाए वे चले गए तो मैंने हिसाब लगाया कि सब्जी खरीदने वाला हर व्यक्ति औसतन छह पॉलीथीन एक बार में घर ले जा रहा है. सुबह से शाम तक एक घर में कितनी पॉलीथीन पहुंच रही है! छोटे-छोटे दुकानदार, खोंचे-ढाबे सबसे ज्यादा पॉलीथीन का इस्तेमाल करते हैं. उन तक यह चेतना पहुंचाने की बहुत जरूरत है. इसे हम अपना फर्ज मान लें.
हम सब मिल कर ही इसे रोक सकते हैं. नियम बन गया है और सजा का भी प्रावधान भी है लेकिन क्या ही अच्छा हो कि किसी जोर-जबर्दस्ती की जरूरत ही न पड़े. हम घर से निकलें तो एक थैला साथ में हो. वह गाड़ी में रखा हो, साइकिल के हैण्डल में टंगा हो. पहले हम ऐसा ही करते थे. दाल-चावल और सब्जी लाने के अलग-अलग झोले घर में होते थे. फिर पॉलीथीन ने हम सबकी आदत बिगाड़ दी. हमारी बिगड़ी आदत ने पर्यावरण की हालत खराब कर दी. अब इसे दुरस्त करने का समय है. हर नागरिक को इसमें भूमिका निभानी होगी. ऐसे उदाहरण हैं जहां नागरिकों के सक्रिय सहयोग से पॉलीथीन पर पूरी रोक लगी हुई है, जैसे नैनीताल. वहां कई साल से इस पर रोक है और किसी को कोई दिक्कत नहीं होती.

ताज्जुब है कि पॉलीथीन उत्पादक अब भी विरोध पर अड़े हैं बजाय इसके कि कोई दूसरा काम शुरू करें. उन्हें समझना होगा कि यह फैसला उनके खिलाफ नहीं है, बल्कि मनुष्य के बेहतर भविष्य के लिए आवश्यक है. सरकार को भी चाहिए कि वह उनके सामने विकल्प रखे और नए उद्यम लगाने में उनकी सहायता करे. पॉलीथीन का इस्तेमाल पूरी तरह रोकने के लिए उसका उत्पादन बंद होना जरूरी हैं. उम्मीद है लखनऊ में इस अभियान को हम कामयाब बनाएंगे ताकि दूसरे जिले हम से सीख लें.  
(नभाटा, लखनऊ, 22 जनवरी, 2016) 




Thursday, January 14, 2016

सिटी तमाशा / उत्तरायणी कौतिक यानी शहर में मनुष्यता के पर्व


सूर्य का उत्तरायण होना सम्पूर्ण भारत में मनाया जाने वाला पर्व है. यह शीत ऋतु से सहमे-ठहरे समस्त जीव-जगत के जागरण का उत्सव है. निराला ने इसी के लिए कहा था- “रूखी री यह डार वसन वासंती लेगी” और चंद्र कुंवर बर्त्वाल ने लिखा था- “रोएगी रवि के चुम्बन से अब सानंद हिमानी, फूट उठेगी अब गिरि-गिरि के उर से उन्मद वाणी.” अब इसका क्या करें कि ग्लोबल वार्मिंग के इस बेरहम जमाने में इस बार शीत ही नहीं पड़ा और सूर्य के उत्तरायण होने का इंतजार किए बिना आम में बौर आ गए! वैसे, सूर्य का मकर-प्रवेश भी अब दो-तीन सप्ताह पहले हो जाता है. खैर, मनुष्य ने अभी उत्सवों-पर्वों का अपना पंचांग नहीं बदला है.

गोमती किनारे गोविंद बल्लभ पंत स्मृति उपवन में सजे उत्तरायणी कौतिकयानी मेले में लखनऊ के उत्तराखण्डी समाज की भागीदारी और आयोजकों का उत्साह देख कर हमें फिर अपनी उत्सव धर्मिता पर गर्व हुआ. लखनऊ कितना ही बड़ा महानगर हो गया हो और जीवन आपा-धापी से भरा, तो भी यहां विभिन्न समाजों में अपने पर्व-उत्सव मनाने की ललक बराबर मौजूद है. पंजाबियों की लोहड़ी पर भांगड़ा और गिद्दा का जोश देखा. बंग समाज ने चंद रोज पहले पौष मेला लगाया था. भोजपुरी समाज जब छठ पर्व मनाता है या नवरात्र में जगह-जगह डांडिया-उत्सवों की धूम मचती है तो अपने महानगर गांवों-कस्बों के समुच्चय और लोक संस्कृतियों के खूबसूरत गुलदस्ते नजर आते हैं. रोजी-रोटी की जद्दोजहद या मध्यवर्गीय तनावों में पिसते मनुष्य इन मेलों में सहज व उन्मुक्त रूप में शामिल होते हैं. पद-प्रतिष्ठा या दीन-हीनता भूल कर जब लोगों को झोड़ा नाचते या मशक-बाजे के साथ झूमता देखते हैं तो उनमें भोले मानुष के दर्शन होते हैं. इन कौतिकों में सारे भेद-भाव बिला जाते हैं. यह महत्वपूर्ण है क्योंकि अपने बनाए आवरणों में इनसान का असली चेहरा खो गया है. सड़क पर, बाजार में या घर-दफ्तर में मनुष्य वह नहीं रह जाता जो वास्तव में वह है या उसे दिखना चाहिए. ये मेले ही उसका निर्मल चेहरा सामने लाते हैं.


उत्तरायणी जैसे कौतिकों के बहाने ही नागर समाज को अपने लोक की याद आती है. लोक में उसकी जड़ें होती हैं. कहां-कहां से आकर किस-किस तरह के लोग एक शहर बनाते हैं. शहर के बड़ा होते-होते विविध भाषा-बोलियां, लोक नृत्य-गीत, रीति-रिवाज, खान-पान और पहनावे शहरों की औपचारिकता, संकोच और दिखावे में कहीं खोने लगते हैं. गांवों में जड़ें बचाए रखने वाली पीढ़ी तो मन के किसी कोने में अपना लोक भी सहेजे रखती है लेकिन प्रवासी समूहों की शहरों में ही पली-बढ़ी पीढ़ियां अपने लोक से अछूती ही रह जाती हैं. उत्तरायणी कौतिक में उत्तराखण्ड की नायाब फसलों, फलों, जड़ी-बूटियों, और व्यंजनों को हसरत से देख, चख और महसूस कर रही नई पीढ़ी का बाल-सुलभ उत्साह सुख देता है. दही-मूली-चीनी-मिर्च-भांगे के नमक के साथ साने गए पहाड़ी नींबू के चटखारे सिर्फ अपने मौलिक स्वाद का आनंद ही नहीं बताते, वे मनुष्य बने रहने की जद्दोजहद के लिए भी जरूरी स्वाद हैं. जैसे पेड़ लहलहाने के लिए अपनी जड़ों की मार्फत मिट्टी से खाद-पानी लेते हैं वैसे ही हम अपनी लोक-संस्कृति से मनुष्य बने रहने के लिए जरूरी तत्व ग्रहण करते हैं. इस दौर में मनुष्य बने रहना ही सबसे कठिन हो गया है. जब समय बहुत बर्बर हो, समाज में विघटनकारी ताकतें सक्रिय हों, हमारी बहुलतावादी परम्परा को खारिज करने की साजिशें रची जा रही हों और मनुष्य को प्रकृति के खिलाफ खड़ा किया जा रहा हो तब ऐसे कौतिक बहुत जरूरी हो जाते हैं. ये मेले बने रहें.    

Thursday, January 07, 2016

सिटी तमाशा/ वर्ना एक दिन हमारा ही गला घोट देगा पॉलीथीन


सन 1933 में रसायन विज्ञानियों का एक प्रयोग बिल्कुल ही गलत हो जाने पर दुर्घटनावश जो बना वह पॉलीथीन कहलाया. बाद में वह विद्युत इंसुलेशन से लेकर अनेकानेक काम का साबित हुआ. लेकिन वह राक्षस रक्तबीज की तरह कुछ ऐसा फैला कि हमारी धरती के लिए बड़ा खतरा बन गया है. कैरीबैग नामधारी पन्नियों, रैपरों, आदि के खिलाफ कई देशों में अभियान चल रहा है. मगर हम तो अपने ऊपर मंडराते खतरे देखने-समझने से ही इनकार करते हैं. सिर्फ अपना स्वार्थ देखते हैं, भविष्य के प्रति आंखें मूंद लेते हैं. जैसे ही प्रदेश सरकार ने पॉलीथिन पर रोक का फैसला किया, पॉलीथीन निर्माताओं और व्यापारियों ने इसका विरोध शुरू कर दिया. उनका तर्क है कि पॉलीथीन उद्योग में लाखों लोग रोजगार में लगे हैं. उन सब के सामने रोजी-रोटी का संकट खड़ा हो जाएगा. किसी का रोजगार नहीं छीना जाना चाहिए, लेकिन कौन सा संकट बड़ा है? क्या धरती और मनुष्य के लिए इस जहर का कारोबार करने की इजाजत दी जानी चाहिए?

बेहतर होता कि पॉलीथीन निर्माता खुद इस बड़े संकट को पहचान कर सरकार के फैसले का स्वागत करते और वैकल्पिक उद्यम चुनते. वे सरकार से कुछ समय, सलाह और सहायता की मांग करते लेकिन वे आंख मूंद कर सिर्फ विरोध पर अड़े हैं. जाहिर है, वे चोरी-छुपे पॉलीथीन बनाएंगे, बेचेंगे और प्रशासन छापेमारी करेगा. जैसा हमारे यहां होता है, नूरा-कुश्ती चलेगी और पॉलीथीन पर रोक वास्तव में लग नहीं पाएगी. शायद यही उद्यमी-व्यापारी चाहते हैं. प्रदेश में अगला साल चुनाव का है और सरकार किसी को नाराज नहीं करना चाहेगी. व्यापारियों की कई जन-विरोधी गतिविधियों को सरकार इसी कारण अनदेखा करती आई है.

पॉलीथीन पर रोक के छिट-पुट प्रयास पहले भी हो चुके हैं लेकिन जनता मानती है न व्यापारी. तीन-चार साल पहले छावनी परिषद ने प्रस्ताव पारित कर और अभियान चला कर छावनी क्षेत्र में इसका इस्तेमाल बंद करने का प्रयास किया था. आज वहां शायद ही किसी को इसकी याद हो. इस बार सरकार का फैसला व्यापक है और 21 जनवरी से अमल का शासनादेश भी आ चुका है. पॉलीथीन का इस्तेमाल बंद होना तभी सम्भव है जब निर्माता, व्यापारी, दुकानदार और जनता इसे वास्तव में बंद करने की ठानेंगे. लखनऊ में ही आकांक्षा समिति के विक्री केंद्रों पर पॉलीथीन का इस्तेमाल नहीं होता. सामान कागज के लिफाफों में मिलता है. आदतन लोग पॉलीथीन मांगते हैं तो बताया जाता है कि हम इस्तेमाल ही नहीं करते. यह समिति गरीब परिवारों की महिलाओं से अखबारी कागज के लिफाफे बनवाती है. इसी से सीख लेकर कागज के लिफाफे बनाने का उद्यम बड़े पैमाने क्यों नहीं शुरू किया जा सकता? तरह-तरह के खूबसूरत लिफाफे-थैले बनाए जा सकते हैं. मिट्टी के कुल्हड़, सकोरे, आदि बनाने वाले उपेक्षित हैं. पॉलीथिन निर्माता इसे ही नई टेक्नॉलॉजी से बड़े उद्यम में क्यों नहीं बदल सकते? बहुत सारे लोगों को रोजगार मिलेगा और मिट्टी की सेहत भी दुरुस्त रहेगी. हजार राहें खुल जाएंगी अगर आप मन से चाह भर लें.


वक्त की मांग है कि हम सभी समझें कि धरती के इस जहर को खत्म करना जरूरी है वर्ना यह हमें खत्म कर देगा. सरकार भी नियम बना कर सिर्फ छापेमारी न करे. वह पॉलीथीन के विकल्प, उसके लिए सलाह, तकनीकी और आर्थिक सहायता भी उपलब्ध कराए. अगर आप सुबह-सुबह बाजारों-कॉलोनियों में झाडू‌ लगती देखें या पॉलीथीन बीनने निकली महिलाओं के थैले में झांक लें तो सदमा लगेगा कि हमारे रोजमर्रा के जीवन में पॉलीथिन किस कदर पैठा हुआ है. इसलिए अब ठान ही लेना है. (NBT, Lko, 08.01.2016)