Sunday, March 13, 2016

किताबें कोई भी बेच लेगा लेकिन राम आडवाणी अब कहां मिलेंगे !

हम उन्हें राम भाई कहते थे.
“राम भाई,’ मई 2011 में एक दिन मैंने उन्हें फोन किया था- “साबरी ब्रदर्स की कव्वाली करा रहे हैं, आप जरूर आएं.
“माई प्लेजर उन्होंने कहा था. वे आए. उस कार्यक्रम में हमने राम आडवाणी समेत लखनऊ की दस सख्शियतों को सम्मानित भी किया था. राम भाई ने पूरे समय बैठ कर कव्वाली सुनी और बहुत खुश हुए थे.
दूसरे दिन उन्होंने मेरे पास एक लिफाफा भिजवाया. अंग्रेजी में लिखी छोटी-सी चिट-“ प्रिय नवीन जी, दिलकुशा की बैठकी हमेशा याद रहेगी. कृपा के लिए शुक्रिया. एक हजार रु भेज रहा हू. इन्हें साबरी बंधुओं तक पहुंचा दीजिएगा. मेरे पास उनका पता नहीं है.” पांच सौ के दो नोट लिफाफे में रखे थे.
उस कार्यक्रम में बहुत सारे लोग थे लेकिन सिर्फ राम भाई को याद रहा कि कव्वालों को कुछ नज़राना पेश करना लखनऊ की पुरानी रवायत है.

राम आडवाणी के निधन के साथ ही लखनऊ की पहचान का एक विशिष्ट प्रतीक ढह गया है. लखनऊ आने के बाद से ही वे इसकी धड़कन का हिस्सा थे. गोल्फ क्लब की शुरुआत करने वालों में वह भी शामिल थे. यहां के खास आयोजनों में उन्हें बराबर शरीक देखा जा सकता था.

लखनऊ की पुरानी जानी-पहचानी दुकान यूनिवर्सल बुक सेलर्स के चंदर प्रकाश कहते हैं- राम भाई लखनऊ की अहम सख्शियत थे, लखनऊ के लिए एक विशाल आयना. पूरी दुनिया में उनका और उनकी दुकान की इज्जत थी और इस वजह से लखनऊ का भी बहुत सम्मान होता था.
हज़रतगंज बाजार की ऐतिहासिक मेफेयर इमारत के एक कोने में 1951 (1948 में खुली यह दुकान तीन साल गांधी आश्रम वाली इमारत में थी) से चली आ रही राम आडवाणी बुकसेलर्स सिर्फ किताबों की एक दुकान नहीं थी. वह एक पुस्तक प्रेमी की इबादतगाह, साहित्य-संस्कृति-राजनीति के विशेषज्ञों-शोध छात्रों का अड्डा और लखनऊ के इतिहास और उसकी संस्कृति का जीवंत कोश थी.
अनेक बार तो वहां किताबों से कहीं ज्यादा जानकारियां खुद राम आडवाणी से मिल जाया करती थीं.
वहां घण्टों बैठ कर किताबें देखी जा सकती थीं, राम भाई से किताबों के बारे में लम्बी पूछ-ताछ की जा सकती थी और बिना कोई किताब खरीदे निस्संकोच वापस जाया जा सकता था. आपकी रुचि हो तो राम भाई बता सकते थे कि किस विषय पर कौन सी बेहतर पुस्तक आई हैं और दुनिया के किस कोने से किस पुस्तक की मांग उनके पास पहुंची है.

किताबें तो कोई भी बेच सकता है वे कहते थे, जो कभी उनके दादा ने रावलपिण्डी में किताबों की अपनी दुकान में दीक्षा के तौर पर उन्हें बताया था- मगर किताब को, उसके विषय को और उसके लेखक को जानना बिल्कुल अलग बात है. तभी तो आप जानेंगे कि कौन सी किताब दुकान में रखनी है.राम भाई के दादा जी की लाहौर और रावलपिण्डी में रेज बुक स्टोर नाम से किताबों की दुकानें थीं. किताबों से राम भाई की मुहब्बत वहीं शुरू हुई थी.

राम भाई किताबों को बहुत बेहतर ढंग से जानते थे. लेखकों और पाठकों को भी.

लखनऊ विश्वविद्यालय में राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर रहे डा रमेश दीक्षित कहते हैं कि किताबों के बारे में जानने वाला ऐसा दुकानदार कहीं नहीं होगा. वे बता देते थे कि किस विषय पर कौन सी पुस्तक आई है और वह किसलिए महत्वपूर्ण है.
कभी प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे गोविंद बल्लभ पंत, सुचेता कृपलानी, डा सम्पूर्णानंद उनकी दुकान में आया करते थे तो जवाहर लाल नेहरू और इंदिरा गांधी ने भी उनकी दुकान से किताबें मंगावाई थीं. हाल के वर्षों में लेखक और पुराने दोस्त रस्किन बॉण्ड, उपन्यासकार अमिताव घोष, इतिहासकार रोजी लवलिन जोंस, विलियम डेलरिम्पल जैसी हस्तियां लखनऊ आतीं तो राम भाई की दुकान में मत्था टेके बिना न रहतीं.

सामान्य से कुर्ते पाजामे और हलकी बढ़ी दाढ़ी वाले राम भाई सबसे वहुत अपनेपन से बतियाते थे. वे बहुत ही सरल और अच्छे इनसान थे. बहुत सादगी से जिंदगी जीते थे.

मेरी उनसे आखिरी मुलाकात कोई आठ महीने पहले उनकी दुकान में ही हुई थी. उन दिनों में पटना में तैनात था. यह जानकर वे बताने लगे थे कि बिहार के मुख्यमंत्री रहे सत्येंद्र नारायण सिंह ने मुझसे पटना में दुकान खोलने को कहा था लेकिन मैं लखनऊ नहीं छोड़ना चाहता था.
राजनीति के धुरंधरों से लेकर लगभग हर क्षेत्र के लोगों से उनका परिचय था और परिचय का जरिया किताबें ही बनी थीं.

सितम्बर 2015 में प्रख्यात इतिहासकार राम चंद्र गुहा ने देश में किताबों की चार विशेष दुकानों के बारे में एक लेख लिखा था. राम आडवाणी की दुकान का उसमें बड़े फख्र से जिक्र हुआ था.
उन्होंने लिखा था कि किताबों के व्यवसाय में राम आडवाणी से ज्यादा अनुभवी भारत में क्या, कहीं भी नहीं होगा. कुछ समय पहले दिल्ली एयरपोर्ट पर मैं लखनऊ के एक वकील से मिला. मैंने उनसे पूछा कि क्या वे अपने शहर में किताबों की मेरी पसंदीदा दुकान के बारे में जानते हैं. उनका जवाब था कि राम आडवाणी लखनऊ के लिए वैसे ही हैं जैसा वहां का बड़ा इमामबाड़ा.

इस पर राम गुहा की टिप्पणी थी कि इमामबाड़ा कहीं नहीं जाएगा लेकिन राम आडवाणी और उनकी दुकान जल्दी ही एक दिन सिर्फ दोस्तों और उनके ग्राहकों की यादों में ही रह जाएगी. राम भाई ने हाल ही में अपना 95वां जन्म दिन मनाया था.

सचमुच, अब राम भाई सिर्फ यादों में हैं. यही हाल किताबों की उनकी दुकान का भी होना है.



5 comments:

Unknown said...

Ye yaaden kabhi nahi mitengi sir...

पंकज सिंह महर said...

नमन

सुधीर चन्द्र जोशी 'पथिक' said...
This comment has been removed by the author.
सुधीर चन्द्र जोशी 'पथिक' said...
This comment has been removed by the author.
सुधीर चन्द्र जोशी 'पथिक' said...

तब नहीं पढ़ पाया था, आज पढ़ा तुम्हारा यह लेख। क्या खूबसूरत चित्र प्रस्तुत किया है तुमने राम आडवाणी जी का। जो राम आडवाणी को न जानता रहा हो, वह लखनऊ का नहीं हो सकता। सही कहा राम गुहा जी ने राम आडवानणी और उनकी दुकान केवल याद भर रह जायेगा।