Thursday, May 26, 2016

भक्तों से घबराए भगवान


बचपन में हम बड़े मंगल का बेसब्री से इंतज़ार करते थे. सिंचाई विभाग के सामने की जमीन पर कब्जा करके एक बाबा ने हनुमान जी को स्थापित कर लिया था. एक लम्बोतरे पत्थर को गेरुआ रंग कर माला पहना दी जाती थी. हमें वह  पवन पुत्र की दिव्य प्रतिमा नजर आती थी.  रोज शाम को आठ बजे आरती के समय हम घंटा बजाने पहुंच जाते. बदले मेंअंजुरी भर लड्डू मिलते. खैर, बड़े मंगल के दिन हम लाल लंगोट पहन, हाथ में एक पत्थर लेकर घर से नंगे बदन सड़क नापते हुए हनुमान जी, बल्कि बाबा के चरणों में माथा टेका करते थे. तब भक्त कम थे और जेठ का पहला मंगल ही बड़ा मंगल कहलाता था. अब भक्त बहुत सारे हो गए तो सारे मंगल बड़े हो गए. सब भक्तों ही की माया है. पहले इस दिन सिर्फ प्याऊ लगते थे, अमीर भक्त शरबत पिला दिया करते थे, बस. कचौड़ी, छोले, मैगी, चाउमिन, हलुआ, आईसक्रीम, वगैरह का भण्डारा तो आज के भक्तों की देन है.  हनुमान जी वही रहे, भक्त तरक्की कर गए. तरक्की का प्रसाद है जो थोक के भाव बंटता है.  तरक्की कैसे और किस वजह से हुई, यह हनुमान जी जानें.
तो, पिछले बड़े मंगल को हमारे वृद्ध मन ने धिक्कारा कि दो रोटी क्या मिलने लगी थी, हनुमान जी को ही भूल गए. अरे, किसी बड़े मंगल पर भण्डारा कर डालो, बुढ़ापा धन्य हो जाएगा. हमने भी सोचा, इस बार लाल लंगोटे वाले की जय बोली जाए. अब नंगे बदन सड़क तो नहीं नापी जा सकती, सड़क किनारे तम्बू लगाकर कुछ प्रसाद बांट दिया जाए. शायद हाउस टैक्स ही कुछ कम हो जाए. वैसे हमारे एक दोस्त बता रहे थे कि जो शुद्ध देशी घी का हलुआ-पूरी दिन भर बांटते हैं, वे हाउस टैक्स तो क्या, कोई भी टैक्स नहीं देते. उलटे, हनुमान जी के नाम पर खूब कमाई करते हैं . हमने घोषणा की- हे पवन सुत, अगले मंगल को हम भी भण्डारा करेंगे, तुम्हारे नाम पर प्लास्टिक के दोने में आलू-पूरी खिलाएंगे. कृपा रहे!
यह कहना था कि बजरंग बली साक्षात प्रकट हो गए. लाल लिबास, मुंह फुलाए, कंधे पर भारी गदा धरे और लम्बी पूंछ दरवाजे पर पटकते हुए बोले- खबरदार रे, मेरे पूर्व भक्त, ऐसी गलती मत करना. तू विगत भक्त ही अच्छा. अब भक्त मत बन. मैं  भक्तों से बहुत आजिज आ गया हूँ.मैंने कहा- हे वज्र देह, क्या हो गया? भक्त आप के नाम पर सब कुछ लुटाए दे रहे हैं और आप हैं कि...वे बोले- तू जानता नहीं वत्स, आजकल के भक्तों ने अपने भगवानों की वाट लगा रखी है. वे इस तरह पूजते हैं कि मेरी पूंछ ही गायब हो जाती है. प्रसाद खुद खाते-खवाते हैं और मैं तमाम कचरे के नीचे सड़ता रहता हूं. प्रभु राम टोकते हैं कि बरसात से पहले सब नालियां-नाले चोक करने का इंतजाम क्यों करा रहे हो. सीता मैया पल्लू से नाक दबाए बैठी रहती हैं.फिर पवन पुत्र हाथ जोड़ कर गिड़गिड़ाने लगे कि वत्स, मुझे इन भक्तों से निजात दिलाने के लिए कुछ करो. पुण्य भक्त कमाएं, और कचरा मेरे सिर! ऐसा रावण ने भी मेरे साथ नहीं किया था.

हम कहना चाहते थे कि हे बजरंगी, भक्तों पर कृपा तो आप ही करते हो. अब वे सिर चढ़े हो गए तो घबरा गए? मगर वे अंतर्धान हो गए. हमने गौर किया तो पाया कि आजकल भांति-भांति के भक्त बहुत गंद फैला रहे हैं, कुछ प्लास्टिक मलवे से, बाकी दिमागी कचरे से. (नभाटा, 27 मई 2016) 

Thursday, May 19, 2016

एक छुक-छुक ट्रेन की अविस्मरणीय यादें


हर साल 20 मई को हमें स्कूल से रिजल्ट मिलता था. उसी शाम बाबू मुझे चारबाग स्टेशन की छोटी लाइन ले जाते, जहां नैनीताल एक्सप्रेस खड़ी रहती. ट्रेन में दो-चार परिचित मिल ही जाते. किसी एक को मेरा हाथ थमा कर बाबू उससे कहते- बच्चे को हल्द्वानी से बागेश्वर की बस में बैठा देना तो! मैं मजे से उनके साथ यात्रा करता. हल्द्वानी में वे बस में बैठा देते और मैं अपने गांव पहुंच जाता. जुलाई के पहले हफ्ते में लखनऊ लौटने के लिए आस-पास के गांवों से काठगोदाम तक जाने वाले की खोज की जाती. कोई न कोई मिल जाता. तब हर शाम काठगोदाम से दो खास ट्रेनें चलती थीं- आगरा फोर्ट और नैनीताल एक्सप्रेस, जो पहाड़ की बड़ी आबादी को शहरों में पहुंचाती थीं. दोनों ही ट्रेनें अब इतिहास हो गईं. वक्त के साथ छोटी लाइनें बड़ी होने लगीं, आवागमन का स्वरूप बदल गया, प्रवास की प्रवृत्ति परिवर्तित हो गई और ये ट्रेनें सिर्फ यादों में रह गईं जो हमारे लिए अपने पहाड़ से जुड़े रहने का आत्मीय माध्यम थी.
लखनऊ वापसी में हम देखते कि उत्तराखण्ड के विभिन्न अंचलों से बसें भर-भर कर आतीं और नौकरी पर लौटते फौजियों, सरकारी कर्मचारियों और रोजी-रोटी की तलाश में भाग कर आते किशोरों को काठगोदाम स्टेशन में जमा करती जातीं. आगरा फोर्ट जल्दी छूटती थी, इसलिए उसे पकड़ने की बड़ी हड़बड़ी होती. उसके रवाना होने के बाद नैनीताल एक्सप्रेस प्लेटफॉर्म पर लगती. एक डिब्बे पर चॉक से खूब बड़े हर्फ में लिखा रहता- ‘56 ए पी ओ.यह पहाड़ का बहुत जाना–पहचाना पता था. फौजियों के लिए चिट्ठी पर सिर्फ नाम और 56 ए पी ओ लिखना काफी होता था. तो, वह डिब्बा फौजियों के लिए रिजर्व होता. वही सबसे सुरक्षित डिब्बा माना जाता. छोटे बच्चों वाली महिलाएं और अकेले बच्चे उसी में बैठते. फौजी उन्हें प्यार और सम्म्मान से जगह देते. मैंने इस डिब्बे में बहुत बार सफर किया. फौजियों की नम आंखें और उदास चेहरे मुझे भी रुलाते. लखनऊ से रवाना होते समय नैनीताल एक्सप्रेस खुशी और उल्लास से चहकती रहती. वापसी में उस पर उदासी पसर जाती.
बहुत बाद तक नैनीताल एक्सप्रेस हमारे लिए पहाड़ का हरकारा बनी रही. दोस्तों के लिए किताबें, अखबारों-पत्रिकाओं के लिए लेख और हाफ-टोन ब्लॉक हमने इसी ट्रेन से भेजे. नैनीताल एक्सप्रेस के डिब्बों का चक्कर लगाते हुए सिर्फ इतना कहना होता- दाज्यू, अल्मोड़ा के चेतना प्रेस या नैनीताल के राजहंस प्रेस तक यह बण्डल पहुंचा देंगे?’ परिचित न होते तो भी कई हाथ उठ जाते और सामान ठिकाने तक जल्दी और सुरक्षित पहुंच जाता. कोई 18-20 वर्ष पहले जब यह ट्रेन काठगोदाम से आखिरी बार चली, संयोग से मैं उसमें सवार था. पूरी यात्रा में लोग उदास होकर इस ट्रेन के संस्मरण सुनाते रहे. उसके बाद नैनीताल एक्सप्रेस चारबाग से और बाद में ऐशबाग से लाल कुंआ के बीच चली. तब भी हमारे लिए इस ट्रेन का महत्व बना रहा था. जब लालकुंआ से भी वह गायब हो गई तभी हमारा रिश्ता उससे टूट गया था.
यादें हमें परिवर्तन की प्रवृत्ति और उसकी दशा-दिशा का संकेत देती हैं. नैनीताल एक्सप्रेस के बंद हो जाने का कारण सिर्फ आमान परिवर्तन नहीं है. उत्तराखण्ड राज्य का बनना, समाज के मिजाज और आर्थिकी का बदलना बड़े कारण हैं. तो भी  हमारी पीढ़ी उस ट्रेन की छुक-छुक और इंजिन से उड़ते कोयले के चूरे और धुएं की गंध भुला न पाएगी. और आज तो 20 मई है! (नभाटा, 20 मई, 2016)


Thursday, May 12, 2016

सिटी तमाशा / सरकार के फैसले और जनहित


खबर है कि राजधानी के लोहिया पथ को और चौड़ा किया जाएगा. अभी यह आठ लेन की सड़क है. अब दस लेन की बनाई जाएगी. हम सोच में पड़ गए कि सरकार ने क्या सोच कर यह फैसला किया होगा? लोहिया पथ लखनऊ की सबसे अच्छी और चौड़ी सड़क है. आठ लेन की और कोई सड़क यहां नहीं है. हर चार-छह महीने में मेण्टीनेंस के नाम पर उसमें लाखों रु की लेयर बिछाई जाती है, रंग-रोगन किया जाता है. पिछले सात-आठ सालों में इस मार्ग पर इतना कंक्रीट, सीमेंट और कोलतार बिछा दिया गया है कि हजारों साल बाद की मानव सभ्यता (अगर बची रह गई तो!) हमारे समय के विकासपर हैरत के साथ अध्ययन करते-करते थक जाएगी. वीवीआईपी गाड़ियां ही नहीं, पूरा ट्रैफिक यहां फर्राटा भरते गुजर जाता है. अब दो लेन और बना कर क्या फायदा होने वाला है और किसको? उलटे जनता परेशानी में पड़ने वाली है क्योंकि जियामऊ के पास इस सड़क पर बनने वाला फुट ओवरब्रिज फिलहाल नहीं बनेगा. दस लेन की सड़क के लिए वह बाधा बन रहा है, इसलिए.  यह अलग बात है कि कालिदास मार्ग चौराहे के मुहाने पर साल भर से बन रहे कीर्ति स्तम्भोंके कारण लोहिया पथ छह लेन का ही रह गया है.
क्या सरकार ऐसे फैसले लेते वक्त यह नहीं सोचती होगी कि इनके बारे में जनता की क्या प्रतिक्रिया होगी? शायद ही कोई आम शहरी होगा जिसने लोहिया पथ की खबर पढ़ कर नाक-भौं न सिकोड़ी हो. साथ में भद्दी-सी टिप्पणी भी जरूर की होगी. कारण यह कि आम शहरी संकरी, गड्ढेदार और बेतरतीब सड़कों से परेशान है. आए दिन अखबारों के पन्नों पर विभिन्न इलाकों के मुहल्लों की नारकीय स्थितियों की तस्वीरें छपती रहती हैं. नालियां वहां बहती दिखती हैं जहां सड़क नाम की चीज होनी चाहिए. इन हालात को दिन-रात झेलने वाली जनता लोहिया पथ की खबर पढ़ कर क्या यही नहीं सोचेगी कि काश इस तरह बर्बाद किया जा रहा हमारा धन शहर की ऊबड़-खाबड़ सड़कों को ठीक करने में लगाया जाता, उसका एक हिस्सा ही सही. लेकिन सरकार में बैठे लोग पता नहीं किस तरह सोचते हैं.
जनता के लिए फैसले करने होते तो सरकार हर इलाके में अच्छी सड़क बनवाती, उसे मेण्टेन कराती. वह हर मुहल्ले में, घरों तक पीने लायक पानी पहुंचाने की व्यवस्था कराती. बढ़ते लोड से दगते ट्रांसफॉमरों को तुरंत बदलने के लिए बेहतर ट्रांसफॉर्मर स्टॉक में रखवाती ताकि बिजली सप्लाई यथासंभव बनी रहे. रास्तों से अतिक्रमण हटवाती, बाजारों में महिलाओं-पुरुषों के वास्ते साफ-सुथरे शौचालय बनवाती, गर्मी में पर्याप्त छांव की और जाड़ों में शीतलहर से गरीबों को बचाने के इंतजाम करवाती. वह यह भी देखती कि  शहर में सस्ती और सुलभ नगर बसें बराबर अंतराल पर चलें. मेट्रो का खूब गुणगान हो रहा है, उसके बावजूद सुचारू नगर बस सेवा की जरूरत बराबर बनी रहेगी.

ऐसे फैसले होते सुनाई-दिखाई नहीं देते. होते भी हैं तो सिर्फ कागजी. उन पर अमल नहीं होता. चुनाव नजदीक आ रहे हैं. विभिन्न वर्गों, जातीय गुटों को रिझाने के लिए लुभावने फैसले होंगे. भत्ते बढ़ाए जाएंगे, नई छुट्टियां घोषित होंगी लेकिन ऐसा फैसला नहीं होगा जिससे सरकारी काम-काज चुस्त-दुरुस्त हो, जनता को छोटे-छोटे काम के लिए महीनों दौड़ना न पड़े.  देखिएगा कि लोहिया पथ को और चौड़ा करने का काम युद्ध स्तर पर शुरू हो जाएगा. उधर पॉलिथीन पर रोक का बड़ा फैसला दम तोड़ गया. सरकार अगर यह सोचती है कि जनता जानती-समझती नहीं तो वह भारी गलतफहमी में है. (नभाटा, 13 मई 2016)

Friday, May 06, 2016

सिटी तमाशा / वर्ना पूरा तंत्र कानून का पालन कर बैठेगा


जब तक सत्ता के साथ हैं तब तक आपके सभी धतकर्म माफ हैं, आपके अवैध निर्माण  वैध हैं. अगर न्यायालय ने आपके अवैध निर्माण ढहाने के आदेश दिए हैं तब भी आंख बंद रखी जाएगी या चंद ईंटें हिलाने की तस्वीरें अदालत में पेश कर दी जाएंगी. सील इमारत के भीतर-भीतर निर्माण आप जारी रख सकेंगे और किसी ताकतवर राजनीतिक से उसका उद्घाटन भी करा लेंगे. लेकिन यदि आपने बगावत कर दी तो आपके अवैध कार्य घनघोर गैर-कानूनी हो जाएंगे और पूरी सरकारी ताकत लगाकर उसे ढहा दिया जाएगा. खोज-खोज कर आपके वैध-अवैध काम निशाने पर लिए जाएंगे, जिन्हें अब तक जानबूझ कर अनदेखा किया गया था. आपको जेल की हवा भी खानी ही होगी. बस, एक नजर के टेढ़ी होने का सवाल है. बागी सपा विधायक रामपाल यादव के अवैध निर्माण ढहाए जाने से और क्या संदेश निकाले जा सकते हैं?

विधायक के अवैध निर्माण अवश्य गिराए जाने चाहिए थे, लेकिन तभी जब उनका पता चल गया था. कम से कम तब तो जरूर ही ढहा दिए जाने चाहिए थे जब अदालत ने ऐसा निर्देश दिया था. राम पाल के ही नहीं, सभी विधायकों, नेताओं और दबंगों के अवैध निर्माण गिराए जाने चाहिए क्योंकि उनका बनना गैर-कानूनी है. कानून पर अमल इस तराजू से नहीं किया जाना चाहिए कि मामले का सबंध सत्ता के शत्रु से है या मित्र से. मित्र के पापों को पुण्य मानना और शत्रु के पाप ढूंढ-ढूंढ कर सामने लाना न्याय नहीं है. यह घोर अन्याय है और भयानक नजीर पेश करता है. इससे यह भी संदेश मिलता है कि सत्ता का विरोध हरगिज न करना, वर्ना वही हश्र किया जाएगा जो राम पाल का किया गया. यह साफ-साफ धमकी और दमन है.

राजधानी लखनऊ में सैकड़ों इमारतें अवैध बनी हैं और बनती जा रही हैं. हाई कोर्ट दर्जनों भवनों को गिराने का आदेश दे चुका है. स्वयं लविप्रा की सूची में सैकड़ों अवैध निर्माण दर्ज हैं. उन सबका बाल भी बांका नहीं हो रहा तो यही मानना चाहिए कि वे सब सत्ता के मित्रों के हैं. यानी उन सब पर सत्ता-प्रतिष्ठान का वरद हस्त है. यहां सत्ता-प्रतिष्ठान का अर्थ सिर्फ वर्तमान में सत्ता में काबिज लोगों से ही नहीं है. इसमें वे भी शामिल हैं जो सत्ता में आते-जाते रहते हैं. इस मामले में सब चोर-चोर मौसेरे भाई है. राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता के बावजूद एक-दूसरे के अवैध कार्यों को ढके रखा जाता है. सच कहा है कि शीशे के घरों में रहने वाले दूसरे के घर पत्थर नहीं फेंकते.  राम पाल ने यही गलती कर दी थी. कोई बात नहीं, वह राजनीति में हैं और आगे चल कर नुकसान की खूब भरपाई कर लेंगे.

अवैध निर्माण कौन होने देता है? क्या वह रातों रात जमीन पर उग आते हैं? वह खुले आसमान के नीचे पूरी रोशनी में होते हैं. जो जिम्मेदार हैं वे जानते हैं कि कहां अवैध निर्माण हो रहे हैं और कौन उन्हें होने दे रहा है. लविप्रा का ही मामला लें तो विविध स्तरीय इंजीनियरों की फौज इलाकावार तैनात है और उसे सब पता है. सत्ता में बैठे लोग अगर चाहें कि अवैध निर्माण न हों तो इन इंजीनियरों के पेच कसे जा सकते हैं. उन्हें जवाबदेह बनाया जा सकता है. एक भी अवैध निर्माण होने देने के लिए उन पर कड़ी कार्रवाई की जा सकती है. ऐसा नहीं होता. जाहिर है, पूरा तंत्र अवैध निर्माणों के पक्ष में जुटा है. हां, राम पाल बनेंगे तो पूरा तंत्र कानून का पालन करने में सक्रिय हो जाएगा.  (नभाटा, 6 मई 2016)