Thursday, May 19, 2016

एक छुक-छुक ट्रेन की अविस्मरणीय यादें


हर साल 20 मई को हमें स्कूल से रिजल्ट मिलता था. उसी शाम बाबू मुझे चारबाग स्टेशन की छोटी लाइन ले जाते, जहां नैनीताल एक्सप्रेस खड़ी रहती. ट्रेन में दो-चार परिचित मिल ही जाते. किसी एक को मेरा हाथ थमा कर बाबू उससे कहते- बच्चे को हल्द्वानी से बागेश्वर की बस में बैठा देना तो! मैं मजे से उनके साथ यात्रा करता. हल्द्वानी में वे बस में बैठा देते और मैं अपने गांव पहुंच जाता. जुलाई के पहले हफ्ते में लखनऊ लौटने के लिए आस-पास के गांवों से काठगोदाम तक जाने वाले की खोज की जाती. कोई न कोई मिल जाता. तब हर शाम काठगोदाम से दो खास ट्रेनें चलती थीं- आगरा फोर्ट और नैनीताल एक्सप्रेस, जो पहाड़ की बड़ी आबादी को शहरों में पहुंचाती थीं. दोनों ही ट्रेनें अब इतिहास हो गईं. वक्त के साथ छोटी लाइनें बड़ी होने लगीं, आवागमन का स्वरूप बदल गया, प्रवास की प्रवृत्ति परिवर्तित हो गई और ये ट्रेनें सिर्फ यादों में रह गईं जो हमारे लिए अपने पहाड़ से जुड़े रहने का आत्मीय माध्यम थी.
लखनऊ वापसी में हम देखते कि उत्तराखण्ड के विभिन्न अंचलों से बसें भर-भर कर आतीं और नौकरी पर लौटते फौजियों, सरकारी कर्मचारियों और रोजी-रोटी की तलाश में भाग कर आते किशोरों को काठगोदाम स्टेशन में जमा करती जातीं. आगरा फोर्ट जल्दी छूटती थी, इसलिए उसे पकड़ने की बड़ी हड़बड़ी होती. उसके रवाना होने के बाद नैनीताल एक्सप्रेस प्लेटफॉर्म पर लगती. एक डिब्बे पर चॉक से खूब बड़े हर्फ में लिखा रहता- ‘56 ए पी ओ.यह पहाड़ का बहुत जाना–पहचाना पता था. फौजियों के लिए चिट्ठी पर सिर्फ नाम और 56 ए पी ओ लिखना काफी होता था. तो, वह डिब्बा फौजियों के लिए रिजर्व होता. वही सबसे सुरक्षित डिब्बा माना जाता. छोटे बच्चों वाली महिलाएं और अकेले बच्चे उसी में बैठते. फौजी उन्हें प्यार और सम्म्मान से जगह देते. मैंने इस डिब्बे में बहुत बार सफर किया. फौजियों की नम आंखें और उदास चेहरे मुझे भी रुलाते. लखनऊ से रवाना होते समय नैनीताल एक्सप्रेस खुशी और उल्लास से चहकती रहती. वापसी में उस पर उदासी पसर जाती.
बहुत बाद तक नैनीताल एक्सप्रेस हमारे लिए पहाड़ का हरकारा बनी रही. दोस्तों के लिए किताबें, अखबारों-पत्रिकाओं के लिए लेख और हाफ-टोन ब्लॉक हमने इसी ट्रेन से भेजे. नैनीताल एक्सप्रेस के डिब्बों का चक्कर लगाते हुए सिर्फ इतना कहना होता- दाज्यू, अल्मोड़ा के चेतना प्रेस या नैनीताल के राजहंस प्रेस तक यह बण्डल पहुंचा देंगे?’ परिचित न होते तो भी कई हाथ उठ जाते और सामान ठिकाने तक जल्दी और सुरक्षित पहुंच जाता. कोई 18-20 वर्ष पहले जब यह ट्रेन काठगोदाम से आखिरी बार चली, संयोग से मैं उसमें सवार था. पूरी यात्रा में लोग उदास होकर इस ट्रेन के संस्मरण सुनाते रहे. उसके बाद नैनीताल एक्सप्रेस चारबाग से और बाद में ऐशबाग से लाल कुंआ के बीच चली. तब भी हमारे लिए इस ट्रेन का महत्व बना रहा था. जब लालकुंआ से भी वह गायब हो गई तभी हमारा रिश्ता उससे टूट गया था.
यादें हमें परिवर्तन की प्रवृत्ति और उसकी दशा-दिशा का संकेत देती हैं. नैनीताल एक्सप्रेस के बंद हो जाने का कारण सिर्फ आमान परिवर्तन नहीं है. उत्तराखण्ड राज्य का बनना, समाज के मिजाज और आर्थिकी का बदलना बड़े कारण हैं. तो भी  हमारी पीढ़ी उस ट्रेन की छुक-छुक और इंजिन से उड़ते कोयले के चूरे और धुएं की गंध भुला न पाएगी. और आज तो 20 मई है! (नभाटा, 20 मई, 2016)


2 comments:

विभा रानी श्रीवास्तव said...

आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" शनिवार 28 मई 2016 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!

कविता रावत said...

दाज्यू, अल्मोड़ा के चेतना प्रेस या नैनीताल के राजहंस प्रेस तक यह बण्डल पहुंचा देंगे?

.बचपन में गांव में बीते दिनों की जाने कितनी ही यादें मन में उभरने लगी है ..

बहुत सुन्दर संस्मरण