Thursday, June 23, 2016

विद्रोह और जूते चाटने का मध्यमान


पिछले दिनों मथुरा काण्ड के बाद भी इस सवाल ने सिर उठाया कि आईएएस-आईपीएस अधिकारी नेताओं की जन विरोधी कुटिल चालों और स्वार्थी अभियानों में सहयोगी बनने की बजाय उन्हें क्यों नहीं कहते. अगर ये अनैतिक, गलत आदेशों को मानने से इनकार कर दें तो बहुत सारी गड़बड़ियां रोकी जा सकती हैं. हमारे प्रशासनिक तंत्र की असली कुंजी इन अधिकारियों के हाथ में है. वे चाहें तो नियम विरोधी आदेश को भी रोका और दुरुस्त किया जा सकता है. अतीत में ऐसे कई उदाहरण हैं जब वरिष्ठ अधिकारियों ने मुख्यमंत्री तक के नियम विरोधी आदेश को मानने से इनकार किया. आजादी के तत्काल बाद ऐसे मंत्री हुए जो अधिकारियों की का सम्मान करते थे. बाद में ऐसे नेताओं की पीढ़ी आ गई जो एक अधिकारी की सुनकर दूसरे अधिकारी की मार्फत गलत काम करा ले जाती रही. इस तरह इनकार करने वाले अधिकारी का सम्मान बना रहता था. फिर ऐसे नेता आ गए जो सुनने ही को तैयार नहीं. वे ऐसे अफसरों का तबादला करके आज्ञाकारीअफसरों की तैनाती करने-कराने लगे. इस दौरान कहने वाले अफसरों की संख्या लगातार कम होती रही जबकि आज्ञाकारीअधिकारियों की संख्या तेजी से बढ़ती गई. उन्होंने नियम-कानूनों की परवाह न कर धारा में शामिल हो जाना सीख लिया.
नेताओं-मंत्रियों के नियम-कानून विरोधी आदेशों के पालन से इनकार करने वाले अफसरों का सरकार क्या बिगाड़ सकती है?  इसका उत्तर हम आईपीएस अधिकारी, फिलहाल आईजी अमिताभ ठाकुर के उदाहरण से अच्छी तरह समझ सकते हैं. यहां स्पष्ट कर दूं कि अमिताभ ठाकुर के बहुत सारे कदमों से हमारी असहमति है लेकिन वे इस बात के सबसे अच्छे उदाहरण हैं कि नेताओं की कुटिल चालों का सार्वजनिक रूप से और अदालतों तक जाकर विरोध करने वाले अधिकारियों का भी सरकार कुछ नहीं बिगाड़ सकती, कम से कम उनकी नौकरी को कोई खतरा नहीं होता. उन्हें बहुत दिन तक निलम्बित भी नहीं रखा जा सकता. ज्यादा से ज्यादा उन्हें सबसे शुष्क और बेकार मानी जाने वाली तैनातैयां दी जा सकती हैं लेकिन बेहतर काम करने की गुंजाइश उनके लिए वहां भी बनी ही रहती है. बस, उनकी अतिरिक्त कमाइयां, रुतबा और सत्ता से करीबी नहीं रह जाते. सत्ता की यह करीबी और तरलतैनातियां ही वह बड़ा कारण हैं जो अफसरों को नेताओं का पिछलग्गू बना देती हैं.  यह तथ्य अब चौंकाता नहीं कि भ्रष्टाचार के मामलों में  कई अफसरों ने नेताओं को पीछे छोड़ दिया है.
पूर्व मुख्य सचिव टी एस आर सुब्रमणियन ने अपनी पुस्तक में 1990 का आंखें खोल देने वाला प्रसंग दर्ज किया है. तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव आईएस सेवा सप्ताह के मुख्य अतिथि थे. अपने भाषण में आईएएस अधिकारियों से वे यह भी कह गए कि ’... आपके पास श्रेष्ठ दिमाग और शिक्षा है. आप जिस तरफ ध्यान लगा देंगे वहीं सफल हो जाएंगे. समाज आपका आदर करता है. फिर आप मेरे पास आकर मेरे पैर क्यों छूते हैं? आप मेरे जूते क्यों चाटते हैं? अपने व्यक्तिगत हित के लिए मेरे पास क्यों आते हैं? यदि आप ऐसा करोगे तो मैं आपकी इच्छानुसार कार्य कर दूंगा और फिर आपसे अपनी कीमत वसूल करूंगा.
तंत्र से बगावत करने वाले अफसर अपने गुस्से में ही जल-भुन कर रह जाते हैं. दूसरे छोर पर जूते चाटने वाले हैं जो पूरे प्रशासन को घिनौना बना देते हैं. इन दोनों का एक मध्यमान होता होगा जिसमें  विचलनों के बावजूद लोकतंत्र और जनता के शासन की महक भी शामिल रहती होगी. वह रास्ता चुनने से भी हमारे ज्यादातर बेहतरीन दिमाग कतराते क्यों हैं? (नभाटा, जून 24, 2016)


Thursday, June 02, 2016

आखिर हुज़ूर को जानकरी क्यों नहीं है?


चंद रोज पहले इस अखबार के एक पन्ने पर बड़ी खबर छपी थी कि मिट्टी की अवैध खुदाई से किसानों के खेत तक ढहने लगे हैं. डम्परों से फसल रौंदी जा रही है. इसकी तस्दीक करती तस्वीरें भी छपी थीं  किसानों की इस दुर्दशा पर सम्वाददाता ने शासन के एक प्रमुख अधिकारी से पूछा था. उनका जवाब भी साथ ही छपा था- इसकी जानकारी नहीं है. पता कराएंगे.जगह-जगह आवासीय भूखण्डों पर हो रहे अवैध निर्माणों पर लखनऊ विकास प्राधिकरण के अफसरों से पूछा जाता है तो उनका जवाब होता है- कोई शिकायत प्राप्त नहीं हुई है, दिखवा लेंगे.मंत्रियों और बड़े अफसरों से अक्सर भ्रष्टाचार या किसी गड़बड़ी के बारे में पूछिए तो जवाब आता है- संज्ञान में नहीं है, जांच करवा लेंगे.विधान सभा में भी कई बार सवाल के जवाब में लिखित उत्तर मिलता है कि –सूचना एकत्र की जा रही है.
बड़े अधिकारी जो शासन चलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, उन्हें पता क्या रहता है? किसी भी पार्टी की सरकार हो, अधिकारी हमेशा शासन में होते हैं. यह सूचना विस्फोट का युग है. हर पल तरह-तरह की जानकारियां विविध माध्यमों से बरस रहीं हैं. वे नियमित अखबारों के पन्ने पलटते हैं. घर-दफ्तर में उनके टीवी पर समाचार चैनल निरंतर चलते रहते हैं. भ्रष्टाचार, अवैध कब्जे-निर्माण, गरीबों-किसानों की दुर्दशा, बिजली-पानी का घोर संकट, जेलों में अपराधियों की मौज, जैसी तमाम खबरें चारों तरफ से बरस रही हैं. अवैध खुदाई से बर्बाद होते खेतों की तस्वीरें और किसानों का दर्द अखबार के पन्ने पर साफ-साफ दिख रहे हैं फिर भी जानकारी नहीं है. अगर ऐसा है तो बड़ी गम्भीर बात है, अभी जांच टीम भेजते हैंजैसे जवाब भी टालू माने जाएंगे, लेकिन वह भी बहुत कम सुनने को मिलते हैं.
इन्ही अधिकारियों यह खूब पता रहता है कि गरीबी की रेखा से कितने लोग ऊपर आ गए. कन्या विद्या धन, वृद्धावस्था पेंशन, जननी-शिशु स्वास्थ्य और ऐसी बहुत सारी सरकारी योजनाओं में कितने लोग लाभांवित हुए और कितनी रकम बांट दी गई. विकास के ऐसे सपनीले दावे करने में उन्हें महारत हासिल रहती है जिसका जमीन और जनता पर कोई असर दिखाई नहीं देता. सवाल उठता है कि हमारी यह सरकारी मशीनरी है किसके लिए और किसके हित में काम करती है? सरकार में बैठे नेताओं के लिए या जनता के लिए? जो कुछ वास्तव में जनता के साथ हो रहा है और जो सरकारी फाइलों में किया जा रहा है, उसकी सच्चाई इन अधिकारियों से ज्यादा कौन जानता-समझता होगा लेकिन तरक्की और तरल तैनातियों की सीढ़ियां चढ़ते-चढ़ते उनकी आंखों पर खूबसूरत पर्दा पढ़ चुका होता है. वे सरकारी तंत्र की मशीन बन कर रह जाते हैं.
कुछ अधिकारी अपनी प्रतिभा जनता की शिकायतों-तकलीफों को दबाने-छुपाने में लगाते हैं जबकि उनका काम है कि वे उन्हें समझें और उनका समाधान करने का यथासम्भव प्रयत्न करें. जरूरत हो तो सम्बंधित मंत्री अथवा सरकार के मुखिया तक बात पहुंचाएं. सच है कि सूचना विस्फोट के इस दौर में माध्यमों की विश्वसनीयता का संकट आ खड़ा हुआ है, लेकिन सरकारी तंत्र हमेशा अपने माध्यम से सूचना या सबूत जुटाने एवं जांच करनाने की बात करता है. उसमें विलम्ब तो होता ही है, निष्कर्ष अपनी सुविधा से तोड़े-मरोड़े भी जाते हैं. सरकार जनता के माध्यमों पर भरोसा नहीं करती और सरकारी तंत्र जनता का विश्वास खो चुका है. दिक्कत यह है कि कुछ भी करने के लिए यहां सरकारी तंत्र ही  समर्थ और सक्षम है. उसके बिना पत्ता भी नहीं हिलता. तब? (नभाटा, 03 जून)