Thursday, June 02, 2016

आखिर हुज़ूर को जानकरी क्यों नहीं है?


चंद रोज पहले इस अखबार के एक पन्ने पर बड़ी खबर छपी थी कि मिट्टी की अवैध खुदाई से किसानों के खेत तक ढहने लगे हैं. डम्परों से फसल रौंदी जा रही है. इसकी तस्दीक करती तस्वीरें भी छपी थीं  किसानों की इस दुर्दशा पर सम्वाददाता ने शासन के एक प्रमुख अधिकारी से पूछा था. उनका जवाब भी साथ ही छपा था- इसकी जानकारी नहीं है. पता कराएंगे.जगह-जगह आवासीय भूखण्डों पर हो रहे अवैध निर्माणों पर लखनऊ विकास प्राधिकरण के अफसरों से पूछा जाता है तो उनका जवाब होता है- कोई शिकायत प्राप्त नहीं हुई है, दिखवा लेंगे.मंत्रियों और बड़े अफसरों से अक्सर भ्रष्टाचार या किसी गड़बड़ी के बारे में पूछिए तो जवाब आता है- संज्ञान में नहीं है, जांच करवा लेंगे.विधान सभा में भी कई बार सवाल के जवाब में लिखित उत्तर मिलता है कि –सूचना एकत्र की जा रही है.
बड़े अधिकारी जो शासन चलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, उन्हें पता क्या रहता है? किसी भी पार्टी की सरकार हो, अधिकारी हमेशा शासन में होते हैं. यह सूचना विस्फोट का युग है. हर पल तरह-तरह की जानकारियां विविध माध्यमों से बरस रहीं हैं. वे नियमित अखबारों के पन्ने पलटते हैं. घर-दफ्तर में उनके टीवी पर समाचार चैनल निरंतर चलते रहते हैं. भ्रष्टाचार, अवैध कब्जे-निर्माण, गरीबों-किसानों की दुर्दशा, बिजली-पानी का घोर संकट, जेलों में अपराधियों की मौज, जैसी तमाम खबरें चारों तरफ से बरस रही हैं. अवैध खुदाई से बर्बाद होते खेतों की तस्वीरें और किसानों का दर्द अखबार के पन्ने पर साफ-साफ दिख रहे हैं फिर भी जानकारी नहीं है. अगर ऐसा है तो बड़ी गम्भीर बात है, अभी जांच टीम भेजते हैंजैसे जवाब भी टालू माने जाएंगे, लेकिन वह भी बहुत कम सुनने को मिलते हैं.
इन्ही अधिकारियों यह खूब पता रहता है कि गरीबी की रेखा से कितने लोग ऊपर आ गए. कन्या विद्या धन, वृद्धावस्था पेंशन, जननी-शिशु स्वास्थ्य और ऐसी बहुत सारी सरकारी योजनाओं में कितने लोग लाभांवित हुए और कितनी रकम बांट दी गई. विकास के ऐसे सपनीले दावे करने में उन्हें महारत हासिल रहती है जिसका जमीन और जनता पर कोई असर दिखाई नहीं देता. सवाल उठता है कि हमारी यह सरकारी मशीनरी है किसके लिए और किसके हित में काम करती है? सरकार में बैठे नेताओं के लिए या जनता के लिए? जो कुछ वास्तव में जनता के साथ हो रहा है और जो सरकारी फाइलों में किया जा रहा है, उसकी सच्चाई इन अधिकारियों से ज्यादा कौन जानता-समझता होगा लेकिन तरक्की और तरल तैनातियों की सीढ़ियां चढ़ते-चढ़ते उनकी आंखों पर खूबसूरत पर्दा पढ़ चुका होता है. वे सरकारी तंत्र की मशीन बन कर रह जाते हैं.
कुछ अधिकारी अपनी प्रतिभा जनता की शिकायतों-तकलीफों को दबाने-छुपाने में लगाते हैं जबकि उनका काम है कि वे उन्हें समझें और उनका समाधान करने का यथासम्भव प्रयत्न करें. जरूरत हो तो सम्बंधित मंत्री अथवा सरकार के मुखिया तक बात पहुंचाएं. सच है कि सूचना विस्फोट के इस दौर में माध्यमों की विश्वसनीयता का संकट आ खड़ा हुआ है, लेकिन सरकारी तंत्र हमेशा अपने माध्यम से सूचना या सबूत जुटाने एवं जांच करनाने की बात करता है. उसमें विलम्ब तो होता ही है, निष्कर्ष अपनी सुविधा से तोड़े-मरोड़े भी जाते हैं. सरकार जनता के माध्यमों पर भरोसा नहीं करती और सरकारी तंत्र जनता का विश्वास खो चुका है. दिक्कत यह है कि कुछ भी करने के लिए यहां सरकारी तंत्र ही  समर्थ और सक्षम है. उसके बिना पत्ता भी नहीं हिलता. तब? (नभाटा, 03 जून)


No comments: