Monday, October 24, 2016

राम कथा के भव्य लेजर शो से होगा डेंगू का इलाज?

चुनावी तमाशा

चुनाव सामने हैं. राजनैतिक दलों को मुद्दों की तलाश है. मुद्दे बनाए जा रहे हैं, उन पर बहस की जा रही है. सर्जिकल स्ट्राइक पर कोई अपनी पीठ ठोक रहा है और सवाल उठाने वालों को चीख-चीख कर देशद्रोही बताया जा रहा है. कोई रोड शो करके प्रधानमंत्री को गरिया रहा है, कोई मुसलमानों का नया शुभचिंतक दिखने की कोशिशों में है और किसी का ध्यान दलितों के घर खाना खाने और अम्बेदकर के गुणगान पर है.
उधर, राजधानी लखनऊ समेत प्रदेश के कई शहरों में डेंगू, चिकनगुनिया और घातक बुखार फैला है. सरकारी अस्पतालों में मरीजों के लिए जगह नहीं है. प्राइवेटअस्पताल मुर्दे को भी आईसीयू में रख कर तीमारदारों से धन वसूली में लगे हैं. स्वास्थ्य विभाग मानने को ही तैयार नहीं कि डेंगू से मौतें हो रही हैं जबकि अखबार रोजाना होने वाली मौतों की खबरों से भरे पड़े हैं. मौतों का आंकड़ा डेढ़ सौ से ऊपर करीब पहुंच गया है. सरकार हाई कोर्ट की फटकार के बावजूद दस की संख्या नहीं बता पा रही. जिम्मेदार विभाग पानी में क्लोरीन मिला पा रहे न शहरों में सड़ता कूड़ा उठवा पा रहे. पार्षद से सांसद तक चुनावी मोड में हैं जिसमें जनता के दुख-दर्द नहीं, सिर्फ उसके वोट दिखाई देते हैं.
देखिए, सबको अयोध्या और राम याद आ गए हैं. “राम लला हम आएंगे, मंदिर वहीं बनाएंगे” का नारा लगाने वाले अब अयोध्या में भव्य रामायण संग्रहालय बनवाने की बात कर रहे हैं. राम मंदिर का झुनझुना कई कारणों से नहीं बज पा रहा, इसलिए. मंदिर बनवाने वालों पर गोली चलवाने वालों का दावा है कि अयोध्या में राम संग्रहालय तो हम बनवाने वाले हैं. हमने प्रस्ताव पास कर रखा है. ताला खुलवाने वाले अब इसे आरोप मानने की बजाय हनुमान गढ़ी के दर्शन कर छवि बदलने का प्रयास कर रहे हैं. राम के नाम पर चुनावी युद्ध का बिगुल बज चुका है.
बीमारियों और मौतों से दहशत में जी रही जनता को समझ में नहीं आ रहा कि राम के नाम पर संग्रहालय की घोषणा से मच्छर कैसे मरेंगे, कूड़ा कैसे हटेगा और उचित इलाज की व्यवस्था कैसे होगी. डेंगू और घातक बुखार दलितों को मार रहा है, मुसलमानों को भी तथा ब्राह्मणों-ठाकुरों-पिछड़ों को भी. उनका मरना नहीं दिख रहा, उनके वोट बटोरने पर पूरी नजर है. इलाज का हाल राजधानी ही में बुरा है तो बाकी प्रदेश की क्या कहें लेकिन सरकार का ध्यान स्मार्ट फोन योजना का प्रचार करने पर ज्यादा है गोया कि उसमें बीमारियों से बचने का वैक्सीन छुपा हो.
राजनैतिक दलों को जनता की मूल समस्याओं को चुनाव का बड़ा मुद्दा बनाने का ख्याल नहीं है. कोई उन कारणों की पड़ताल नहीं कर रहा कि डेंगू से हर साल और ज्यादा लोग क्यों मरते जा रहे हैं. उन कारणों को दूर करने और इलाज की बेहतर सुविधाओं की बात नहीं हो रही. विकास की बातें सभी दलों के नेता कर रहे लेकिन बेहतर इलाज और बीमारियों की रोकथाम की व्यवस्था उनके विकास में शामिल नहीं. रामायण संग्रहालय बनाना विकास है. वहां रोजी-रोटी, कपड़ा और दवाएं मिलेंगी या राम कथा का आकर्षक लेजर शो सारे दुख-दर्द हर लेगा? (नभाटा, 23 अक्टूबर, 2016)


भाजपा का ‘दलितं शरणं गच्छामि’ और अंतर्विरोध


नवीन जोशी
भाजपा अध्यक्ष अमित शाह और पार्टी के अन्य नेताओं की मौजूदगी में मंच से अगर “जय श्री राम” की बजाय महात्मा बुद्ध, डॉ अम्बेदकर और सम्राट अशोक की जय-जय कार हो तथा मायावती को दलित-विरोधी साबित किया जाए तो समझना चाहिए कि दलित जातियों के समर्थन के लिए भाजपा कितनी बेकरार है.  यह नजारा 14 अक्टूबर को कानपुर में धम्म चेतना यात्रा के समापन अवसर का है. बौद्ध भिक्षुओं की अगुवाई में गृह मंत्री राज नाथ सिंह ने यह यात्रा बीती 24 अप्रैल को सारनाथ से शुरू कराई थी. 174 दिन की इस यात्रा में मुख्यत: भाजपा का दलित हितैषी चेहरा प्रचारित किया गया.
अमित शाह और उनकी टीम को लगता है कि यूपी की सत्ता हासिल करने के लिए दलितों का समर्थन पाना होगा. कम से कम, दलितों के एक वर्ग को बसपा से दूर करना जरूरी है. इसका कारण भी है. यादव-मुस्लिम समर्थन समाजवादी पार्टी को मजबूत करता है तो व्यापक दलित समर्थन बहुजन समाज पार्टी को बड़ी ताकत है. एक लम्बे समय से ये दोनों पार्टियां अपने इसी आधार के बूते यूपी की सत्ता में आती रही हैं.
वर्तमान में कुछ सत्ता विरोधी रुझान, कुछ मुस्लिम नाराजगी और ताजा आंतरिक कलह सपा के खिलाफ जाता लगता है. इसका लाभ बसपा को न मिल जाए, इसके लिए भाजपा की रणनीति है कि बसपा के दलित आधार को कमजोर किया जाए. बसपा कमजोर नहीं हुई और कहीं मुसलमान भी उसकी तरफ झुक गए तो भाजपा के लिए निश्चय ही बड़ी मुश्किल हो जाएगी.
इसलिए भाजपा दो मोर्चों पर काम कर रही है. पहला, बसपा में तोड़-फोड़ मचा कर उसके ज्यादा से ज्यादा नेताओं को भाजपा में लाना और दूसरा, दलितों को रिझाने के लिए कई तरह के अभियान और कार्यक्रम चलाना.
बसपा के कई नेताओं को भाजपा अपने पाले में खींच लाने में सफल रही है. खासकर, कांशीराम के समय से बसपा की रीढ़ रहे दलित नेता जुगल किशोर और पिछड़े नेता स्वामी प्रसाद मौर्य के आने को भाजपा बड़ी उपलब्धि मानती है. प्रमुख पासी नेता आर के चौधरी पर भी भाजपा ने खूब डोरे डाले लेकिन चौधरी ने बसपा से बाहर आकर स्वतंत्र रहना बेहतर समझा. बसपा के बागियों से भाजपा को लाभ हो या नहीं, बसपा  में मायावती के खिलाफ बगावत और भगदड़ का संदेश जरूर फैल गया.
अपनी दलित हितैषी छवि बनाने और दलित समाज तक उसे पहुंचाने के लिए भाजपा बहुत प्रयत्नशील है. 2014 में केन्द्र की सत्ता में आने के बाद से ही वह अम्बेदकर के महिमा मण्डन में लग गई थी. लोक सभा चुनाव में यूपी की सभी 17 सुरक्षित सीटें जीतने से भाजपा का यह मानना स्वाभाविक ही था कि दलित वर्ग के वोट भी उसे अच्छी संख्या में मिले हैं. वह अपने इन नए वोटरों को आगे भी जोड़े रखना चाहती है.
बिहार विधान सभा चुनाव में उसने दलित वोटरों को रिझाने के लिए काफी मशक्कत की थी. बिहार के कई दलित नेताओं को पार्टी में शामिल करने के अलावा पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम माझी से गठबंधन किया था. लेकिन आर एस एस प्रमुख मोहन भागवत ने आरक्षण खत्म करने वाला बयान देकर उसके दलित प्रेम की हवा निकाल दी थी. फिर कोई सफाई भाजपा के काम नहीं आई.
उसके बाद हैदराबाद में शोध छात्र रोहित वेमुला की आत्महत्या और उस पर भाजपा मंत्रियों के बयानों ने भाजपा के दलित हितैषी अभियान को बड़ा धक्का पहुंचाया. इससे उबरने के लिए उसने यू पी में दलितों के बीच सघन कार्यक्रम  शुरू किए. भाजपा और आर एस एस दोनों इस अभियान में शामिल हैं.
22 जनवरी, 2016 को जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लखनऊ आए तो डॉ भीम राव अम्बेदकर महासभा के कार्यालय जाना उनके दौरे का महत्वपूर्ण कार्यक्रम था. वहां उन्होंने अंबेदकर के अस्थिकलश पर फूल चढ़ा कर शीश नवाया. उसी दौरान वाराणसी के संत रविदास मंदिर में  प्रधानमंत्री ने पूजा की और प्रसाद ग्रहण किया. यह सब दलित समाज को स्पष्ट संदेश देने के लिए ही था.
इस वर्ष के प्रारम्भ में ही आर एस एस के अवध प्रांत की लखनऊ में हुई समन्वय बैठक में सह-सरकार्यवाह ने  स्वयंसेवकों से अपील की थी कि वे दलितों के बीच सेवा कार्यकरें. इसके तहत एक दलित परिवार को गोद लेना और उनके साथ भोजन ग्रहण करना शामिल है. इस सेवा कार्यमें बड़े भाजपा नेता भी शामिल हुए. खुद अमित शाह ने प्रधानमंत्री के चुनाव क्षेत्र वाराणसी में एक दलित परिवार के घर खाना खाया जिसका व्यापक प्रचार किया गया था.
भाजपा के उत्तर प्रदेश अनुसूचित जाति मोर्चा ने गणतंत्र दिवस से एक अभियान शुरू किया जिसका शीर्षक था “डॉ अम्बेदकर सबके हैं.” एक महीने तक पूरे प्रदेश में चले इस अभियान में दलित बस्तियों में जाकर अम्बेदकर के योगदान को याद किया गया. यह भी बताया गया कि नरेंद्र मोदी सरकार समाज के वंचित लोगों के लिए क्या-क्या कर रही है.
लेकिन इस पूरे दौर में भाजपा केअपने ही फुटकर संगठन उसे दलित-उत्पीड़क साबित करने पर तुले रहे. रोहित वेमुला की आत्महत्या का मुद्दा तो गर्म था ही, तथाकथित गोरक्षकों ने गोरक्षा के नाम पर जगह-जगह दलितों और मुसलमानों का जिस तरह उत्पीड़न किया, वह भाजपा के दलित हितैषी अभियान पर भारी पड़ा है. प्रधानमंत्री द्वारा फर्जीगोरक्षकों की प्रताड़ना के बाद मामला कुछ शांत हुआ लगता है लेकिन भाजपा और संघ के बेकाबू संगठनों ने इस अभियान के अंतर्विरोध खूब उजागर कर दिए.  भाजपा को जो नुकसान वे पहुंचा गए, उसकी भरपाई मुश्किल ही लगती है. ( बीबीसी.कॉम)
  
  
   
 


  

Sunday, October 23, 2016

अखिलेश के बागी तेवर की वजह कम नहीं


नवीन जोशी
बीते सितम्बर में ऐसा क्या हुआ कि यू पी के युवा मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की त्योरियां चढ़ गईं? वह अखिलेश जो पिछले साढ़े चार साल से पिता मुलायम की सार्वजनिक फटकार को पिता की डांटकह कर विनम्रता से सुन लेते थे, जो अपने चाचा और काबीना मंत्री शिवपाल के हस्तक्षेपों को चुपचाप अनदेखा कर देते थे, क्यों सीना तान कर खड़े हो गए? मुख्यमंत्री के रूप में अपने अधिकारों का प्रयोग करने साहस दिखाते हुए उन्होंने गायत्री प्रसाद प्रजापति और राज किशोर सिंह को मंत्रिपरिषद से बर्खास्त कर दिया, यह जानते हुए भी कि गायत्री प्रजापति पिता मुलायम और चाचा शिवपाल के करीबी एवं बहुत खास है. उन्होंने मुख्य सचिव दीपक सिंघल को भी हटा दिया, जिन्हें महीने भर पहले ही उन्होंने शिवपाल के कहने पर यह कुर्सी सौंपी थी. और, जैसे इतना ही काफी न हो, खुद शिवपाल के महत्वपूर्ण विभाग छीन लिए. अखिलेश अच्छी तरह जानते रहे होंगे कि उनके इन कदमों की कैसी प्रतिक्रिया होगी, जो कि फौरन हुई भी.
आखिर अखिलेश ने ये कदम क्यों उठाए? आज समाजवादी पार्टी टूट की कगार पर है, यादव परिवार और पार्टी में साफ-साफ दो पाले खिंच गए हैं, पहली बार मुलायम के वर्चस्व को चुनौती मिली है और आसन्न चुनावों में पार्टी को कलह का नुकसान होने की पूरी संभावना है. मान-मनौवल के मुलायम के लगातार प्रयासों के बावजूद अखिलेश ने अपने विद्रोही सुर बरकरार रखे हैं. यहां तक कि उन्होंने उन्हीं तारीखों में रथ-यात्रा पर अकेले निकलने का ऐलान कर दिया है जिन दिनों सपा अपनी स्थापना की रजत जयंती मना रही होगी. अखिलेश की इस बगावत के कुछ खास कारण  हैं और उनकी जड़ें सन 2012 तक फैली हैं, जब चाचा शिवपाल के विरोध के बावजूद पिता मुलायम ने उन्हें मुख्यमंत्री बना दिया था.
पहला, सरकार चलाने की आजादी न मिलना: मुख्यमंत्री बना दिए जाने के बावजूद अखिलेश सरकार चलाने के लिए स्वतंत्र नहीं रहे. मंत्रियों के चयन से ले कर विभागों के वितरण तक में उनकी राय का महत्व नहीं था. शुरू-शुरू में अनुभव की कमी के कारण पिता और चाचा के हस्तक्षेप को स्वाभाविक माना गया. लेकिन समय बीतने के बावजूद यही होता रहा. शिवपाल ने धीरे-धीरे ज्यादातर महत्वपूर्ण विभाग खुद ले लिए. सरकार के निर्णयों पर भी मुलायम और चाचाओं की छाप रहती. अफसरों की तैनाती और तबादलों की सूची अखिलेश के जारी करने के बावजूद रोक दी जाती या बिना बताए बदलवा दी जाती. प्रदेश में साढ़े तीन मुख्यमंत्रीहोने का विपक्ष का आरोप यूं ही नहीं लगता रहा. मुख्यमंत्री की प्रमुख सचिव वास्तव में मुलायम की निजी सचिव के तौर पर काम करती हैं. वक्त के साथ यह कुण्ठा अखिलेश के भीतर जमा होती रही.
दूसरा, नकारात्मक छवि और आसन्न चुनाव:  युवा अखिलेश अपनी सरकार ही की नहीं, समाजवादी पार्टी की छवि भी साफ-सुथरी बनाना चाहते थे. मुख्यमंत्री बनने कै बाद निजी बातचीत में अखिलेश ने इस लेखक से कहा था कि यह मेरे राजनीतिक करिअर की शुरुआत है. मुझे अच्छे नतीजे दिखाने होंगे और सरकार के साथ-साथ पार्टी की पुरानी छवि भी सुधारनी होगी. तभी मैं लम्बी पारी खेल सकूंगा. लेकिन उन्होंने पाया कि उनके हाथ बंधे है.
चुनाव के करीब जब शिवपाल की पहल पर माफिया मुख्तार अंसारी की पार्टी का सपा में विलय का फैसला लिया गया तो अखिलेश ने अपने हाथ खोलने का निर्णय किया. उनके विरोध का शुरू में सम्मान हुआ. उसी के बाद अखिलेश ने तय किया कि संगीन आरोपों से घिरे मंत्रियों की छुट्टी कर सरकार की छवि सुधारने का यही सही समय है. गायत्री प्रजापति और राजकिशोर जैसे मंत्रियों की बर्खास्तगी इसी का नतीजा थी, जिसमें मुलायम की सहमति भी उन्होंने ले ली थी. लेकिन स्वतंत्र मुख्यमंत्री के रूप में अखिलेश शिवपाल को मंजूर नहीं हुए, जिनकी खुद की छवि अच्छी नहीं है. शिवपाल ने विरोध किया तो मुलायम ने बेटे की बजाय भाई का साथ दिया.
पार्टी की सफाई तो दूर, अपनी ही सरकार की धुलाई-पुछाई नहीं करने दिए जाने से अखिलेश का नाराज होना स्वाभाविक है, जबकि प्रचारित यही किया जा रहा था कि अगला चुनाव युवा मुख्यमंत्री की साफ-सुथरी छवि के आधार पर लड़ा जाएगा.
तीसरा, वादाखिलाफी:  कलह के पहले दौर में मुलायम ने सुलह करा दी थी. शिवपाल और अखिलेश को अपने सामने बैठा कर मुलायम ने जो फार्मूला तय किया था, उसमें शिवपाल कै विभागों और मंत्री के रूप में  गायत्री की वापसी के साथ प्रदेश अध्यक्ष के रूप में अखिलेश  की बहाली शामिल थी. अखिलेश का मानबनाए रखने के लिए टिकट वितरण में उन्हें बराबर अधिकार देने की बात थी. यह बताते हुए अखिलेश ने उसी दोपहर एक चैनल के कार्यक्रम में यह भी घोषणा की थी कि नेता जी और हमने तय किया है कि परिवार के बीच कोई बाहरी अब नहीं आएगा, ‘बाहरी को बाहर कर दिया जाएगा. तब सभी ने यही समझा था कि अमर सिंह पर कार्रवाई होगी.
हुआ ठीक उलटा. अखिलेश को प्रदेश सपा अध्यक्ष का पद वापस नहीं दिया गया. टिकट वितरण का अधिकार देने के लिए संसदीय बोर्ड में बड़ा पद देने की बात भी हवा में रह गई और आश्चर्यजनक रूप से अमर सिंह को पार्टी का राष्ट्रीय महामंत्री बनाने का ऐलान खुद मुलायम ने अपने हाथ से लिख कर किया. अखिलेश के लिए यह वादाखिलाफी थी, अपमान की हद तक.
चौथा, जले पर नमक: सुलह के बाद प्रदेश सपा अध्यक्ष की हैसियत से शिवपाल ने सबसे पहले अखिलेश के समर्थकों पर अनुशासनात्मक कार्रवाई करते हुए उन्हें पार्टी से निकाल दिया. यह कार्रवाई एकतरफा थी. अखिलेश के खिलाफ नारे लगाने वाले शिवपाल समर्थकों से पूछ-ताछ तक नहीं की गई. टिकट वितरण में अखिलेश को अधिकार देने की बात का मखौल उड़ाते हुए उनके समर्थकों का पूर्व में घोषित टिकट भी शिवपाल ने काट दिया. यह अखिलेश के लिए बहुत अपमानजनक था. फिर, जले पर नमक छिडकने की तरह मुख्तार अंसारी की पार्टी कौमी एकता दल के सपा में विलय को पहले ही हुआमान लेने की घोषणा कर दी गई. मुलायम लगातार शिवपाल के साथ खड़े दिखे.
विद्रोही तेवर बरकार रखने के सिवा अखिलेश के पास कोई चारा नहीं बचा.
अब अगर कोई यह कहे कि आसन्न चुनावों में सम्भावित हार की जिम्मेदारी से बेटे अखिलेश को बचाने के लिए यह मुलायम का रचा नाटक है या इसी कारण खुद अखिलेश अपनी स्वच्छ छवि बनाए रखने के लिए अलग राह चुन रहे हैं, तो हंसा ही जा सकता है. (प्रभात खबर, 23 अक्टूबर, 2016)




Monday, October 17, 2016

रैलियों में भीड़ का जुटना क्या कोई संकेत होता है?


नवीन जोशी
कांशीराम निर्वाण दिवस पर मायावती की रैली में भारी भीड़ जुटी. नरेंद्र मोदी और अमित शाह की सभाओं में खूब जमावड़ा लगता है. मुलायम सिंह यादव और मुख्यमंत्री की सभाओं में अच्छी भीड़ न जुटे, ऐसा नहीं हो सकता. इस बार सोनिया गांधी और राहुल के रोड शो में इतनी भीड़ उमड़ी कि खुद कांग्रेसी चौंक गए और विपक्षी नेताओं के कान भी खड़े हुए.
यह भीड़ क्या संकेत करती है?  क्या यह भीड़ लोकप्रियता और मिलने वाले वोटों का परिचायक है? जनता का यह जुटान स्वत: उमड़ता है या इसे विविध तरीकों से जुटाया जाता है? क्या भीड़ प्रबंधन राजनैतिक दलों का नया पैंतरा है ताकि मीडिया में छाया जा सके और लोकप्रियताका संदेश दिया जा सके?
अपने बड़े नेताओं की सभाओं के लिए भीड़ जुटाना राजनैतिक दलों के प्रादेशिक नेताओं-कार्यकर्ताओं के लिए कोई नई बात नहीं है. विधायकों से लेकर, सभासदों और ग्राम प्रधानों तक को भीड़ के लक्ष्य दिए जाते रहे हैं. चंद रु, भोजन और शहर घूमने का लालच देकर भोले-भाले ग्रामीणों को बसों में भर-भर कर लाया जाता रहा है. दूसरे  की सभाओं-रैलियों को अपने से कम भीड़ वाला बता कर जीत के दावे किए जाते रहे हैं. मीडिया वाले भी भीड़ के अनुमानित आंकड़ों का खेल खेलते रहे हैं.
आम भारतीय कौतुक प्रेमी होता है. जरा-जरा सी बात पर मजमा लगा लेना आम बात है. चुनावों के दौरान उड़नखटोलादेखने के लिए ग्रामीण नेताओं की सभाओं का रुख करते हैं. नेता भी भीड़ कम देख कर हेलीकॉप्टर के दो-चार फेरे गांवों के ऊपर लगा लेते हैं. भीड़ कम होने की आशंका में सभाएं रद्द भी की जाती रही हैं. भीड़ नेताओं के लिए संजीवनी का काम करती है. भारी जमावड़ा देख कर उनका मनोबल और गले की ताकत, सब बढ़ जाते हैं.
मायावती की रैलियां भारी भीड़ के कारण बड़ी सभाओं का पैमाना बनती हैं. इस बार जब यह माना जा रहा है कि उनकी राजनैतिक ताकत कम हुई है, नौ अक्टूबर को जुटी जबर्दस्त भीड़ क्या कहती है? पिछले करीब तीन दशक से कांग्रेस की हालत यूपी में बहुत पतली रही है मगर इस बार  सोनिया और राहुल के रोड शो जबर्दस्त भीड़ वाले हुए हैं. क्या यह कांग्रेस की हालत सुधरने का संकेत है, जैसा कि कई कांग्रेसी और विश्लेषक भी मान रहे हैं? इसके उलट, कुछ विश्लेषक इसे प्रशांत किशोर के प्रबंधन का कौशल बता रहे हैं.
सभी राजनैतिक दल अगर भीड़ प्रबंधन में माहिर हो गए हैं तो यह आकलन मुश्किल ही होगा कि किसके पास जुटाई गई भीड़ है और किसके पास असली वोटर.  एक विश्लेषण यह हो सकता है कि चूंकि प्रदेश में कोई चुनावी लहर नहीं है, इसलिए जनता अपना मन बनाने के लिए सभी दलों के नेताओं को सुनना-देखना चाहती है. लहर की अनुपस्थिति में बहुत बड़ा मतदाता वर्ग अंतिम समय तक अनिर्णय की मानसिकता में रहता है.
भीड़ स्वत: जुट रही हो, जैसा कि सभी दल दावा करते हैं, या जुटाई जा रही हो, यह बात कई चुनावों में साबित हो चुकी है कि हमारा आम मतदाता बहुत समझदार और चतुर है. इंतजार कीजिए.
(नभाटा, 16 अक्टूबर, 2016)


Thursday, October 13, 2016

कांशीराम के बिना कहां पहुंची बसपा?


नवीन जोशी
इस नौ अक्टूबर को कांशीराम का देहांत हुए दस वर्ष हो जाएंगे. क्या यह सिर्फ संयोग है कि इस समय उनकी राजनैतिक उत्तराधिकारी मायावती और बहुजन समाज पार्टी सबसे कठिन दौर से गुजर रही हैं या इसके पीछे कांशीराम का न होना भी एक कारण है?
मायावती को भी शायद इस समय कांशीराम की बहुत जरूरत है. तभी तो वे उनके निर्वाण दिवस पर लखनऊ में विशाल रैलीकर रही हैं. पिछले तीन साल इस दिन उन्होंने कोई रैली नहीं की, जैसा कि उससे पहले करती रही थीं. पूरे दलित समाज को एकता का संदेश देने और अपना एकछत्र नेतृत्व दिखाने की आज उन्हें बड़ी जरूरत जो आन पड़ी है.
कांशी राम के कई पुराने साथी और बसपा को खड़ा करने में भागीदार रहे प्रमुख नेता-कार्यकर्ता इस बीच बसपा छोड़ चुके हैं या हाशिए पर हैं. पिछले तीन-चार महीने में आर के चौधरी और स्वामी प्रसाद मौर्य जैसे पुराने नेताओं ने पार्टी छोड़ी है. पार्टी को अलविदा कहने वालों में करीब दर्जन भर विधायक, सांसद और पूर्व सांसद भी हैं. सभी ने मायावती पर अम्बेडकर और कांशी राम के मिशन की अनदेखी करने और टिकट बंटवारे में भारी रकम वसूलने के आरोप लगाए हैं.  
पार्टी छोड़ कर जाने वालों ने उन्हें दलित की बेटीकी बजाय दौलत की बेटीतक कहा है. ये आरोप मायावती के लिए नए नहीं हैं और पार्टी छोड़ कर जाने वालों का आरोप लगाना भी अजूबा नहीं है. लेकिन यह देखना मौजूं होगा कि क्या कांशीराम के बिना बसपा उनके मिशन से भटक गई है?आक्रामक नेतृत्व की क्षमता देख कर जिस मायावती को कांशीराम ने अपना वारिस घोषित किया था और उम्मीद की थी कि वे मेरे अधूरे कामों को आगे पूरा करेंगी, क्या वह मायावती अब बदल गई हैं?
एक सच तो यह है कि कांशीराम की मृत्यु के अगले ही वर्ष, 2007 के विधान सभा चुनाव में उत्तर प्रदेश की विधान सभा में पूर्ण बहुमत पाप्त करके मायावती ने कांशी राम का एक बड़ा स्वप्न साकार कर दिखाया था. कांशी राम बहुमत के साथ सत्ता पर काबिज होने को वह कुंजी मानते थे जिससे दलितों की मुक्ति का ताला खुलता है. विरोधाभास यह कि मायावती ने यह कुंजीउस सोशल इंजीनियरिंगके जरिए हासिल की जिसमें सवर्णों, खासकर ब्राह्मणों का साथ लिया गया और नारे बदले गए.
इस सोशल इंजीनियरिंग से मायावती ने कांशीराम के बहुजनको सर्वजनमें बदल दिया था. इसके साथ ही उन्होंने अपनी भाषा और व्यवहार की आक्रामकता बहुत कम कर दी थी ताकि सवर्ण समाज अपमानित महसूस नहीं करे. उनकी बहुमत वाली सरकार में सवर्णों को महत्वपूर्ण भागीदारी दी गई. इससे दलित समाज में बेचैनी फैली. 2012 के विधान सभा चुनाव और 2014 के लोक सभा चुनाव में बसपा की पराजय के लिए इस प्रयोग को भी जिम्मेदार ठहराया गया.
क्या यह कांशीराम के दिखाए रास्ते से विचलन था? क्या कांशीराम इस सोशल इंजीनियरिंग की इजाजत देतेदलित समाज और राजनीति पर शोध करने वाले समाज विज्ञानी बद्री नारायण अपनी पुस्तक “कांशीराम- लीडर ऑफ दलित्स” में लिखते हैं कि मायावती का सर्वजन वास्तव में कांशीराम के प्रयोगों का ही नतीजा था. कांशीराम के भागीदारीसिद्धांत में सभी जातियों और समुदायों को राजनैतिक प्रतिनिधित्व देना शामिल था. मनुवादी पार्टीभाजपा के समर्थन से दो बार यूपी की सत्ता हासिल करने का प्रयोग भी कांशीराम ने ही किया था, जिसकी अम्बेडकरवादियों और वामपंथियों ने कड़ी आलोचना की थी. तब कांशी राम का जवाब होता था- अगर हमने भाजपा का सिर्फ एक सीढ़ी की तरह इस्तेमाल किया तो क्या गलत है?’
अपने साहिबके उदाहरणों से सबक लेकर ही सही, ‘सर्वजनकी सरकार बनाने के बाद क्या मायावती ने दलितों की मुक्ति का वह ताला खोलने की कोशिश की जो कांशीराम चाहते थे? क्या व्यापक दलित समाज का वास्तविक विकास होना शुरू हुआ?
मायावती के चार बार यूपी की मुख्यमंत्री बनने से, जिसमें पांच साल का एक पूरा कार्यकाल भी शामिल है, दलितों का सामाजिक सशक्तीकरण जरूर हुआ. उन्होंने अपने दमन का प्रतिरोध करना और हक मांगना शुरू किया लेकिन आर्थिक स्तर पर कुछेक दलित जातियां ही लाभान्वित हुईं. 60 से ज्यादा दलित जातियों में से सिर्फ तीन-चार यानी चमार, पासी, दुसाध और मल्लाह जाति के लोगों के हिस्से ही सत्ता के लाभ, विधायकी, मंत्री पद, नौकरियां, ठेके, आदि आए. कांशीराम ने दलितों के लिए अपना घर-परिवार छोड़ा था और कोई सम्पत्ति अर्जित नहीं की लेकिन मायावती पर इसके विपरीत खूब आरोप लगे.
मायावती के खिलाफ यह बात प्रमुखता से कही जाती है कि दलित स्वाभिमान की लड़ाई को आर्थिक सशक्तीकरण और दूसरे जरूरी मोर्चों तक ले जाना और सभी दलित जातियों को उसमें शामिल करना उनसे सम्भव नहीं हो पाया या इस तरफ उनका ध्यान नहीं है. 
कांशीराम दलितों में महिला-नेतृत्व विकसित करने पर काफी जोर देते थे. मायावती के चयन के पीछे यह भी एक कारण था और वे कहते भी थे कि बसपा में कई मायावतियां होनी चाहिए लेकिन खुद मायावती के नेतृत्व में कोई नेत्री नहीं उभरी. उन पर आरोप यह भी है कि वे पार्टी में नेताओं को उभरने नहीं देतीं. कांशीराम जिस तरह दौरे करते थे, कार्यकर्ताओं और नेताओं से मिलते थे, मायावती का व्यवहार ठीक उसके उलट है. विधायकों-नेताओं से वे मुश्किल से मिलती हैं और कार्यकर्ता तो उन्हें सभाओं के मंच पर दूर से ही देख पाते हैं.
बसपा में मायावती से नाराजगियां कांशीराम के जीते-जी ही उभरने लगी थीं. कांशीराम का पूरा विश्वास हासिल करने और पार्टी में नम्बर दो की जगह लेने के बाद मायावती के व्यवहार से कांशीराम के करीबी नेता-कार्यकर्ता खिन्न रहने लगे थे. जब भी बसपा नेताओं ने कांशीराम से शिकायत की तो उन्होंने मायावती ही का पक्ष लिया. डा मसूद अहमद जैसे कांशीराम के पुराने सहयोगी को मायावती के खिलाफ आवाज उठाने पर न केवल पार्टी और सरकार से बर्खास्त किया गया था बल्कि सरकारी आवास से उनका सामान तक बाहर फिंकवाया गया था. 2001 में आर के चौधरी को इसी कारण पार्टी छोड़नी पड़ी थी. बाबूराम कुशवाहा का भी वैसा ही हश्र हुआ.
यह सिलसिला आज तक चला आ रहा है. कांशीराम ने जिस मेहनत से पार्टी जोड़ी थी और सहयोगी जुटाए थे, मायावती उतनी ही आसानी से नेताओं को बाहर का रास्ता दिखा देती हैं.
वे कांशी राम के रास्ते से दूर हो गई हैं, इस आरोप का मायावती जोर-शोर से खण्डन करती रही हैं. 2012 का विधान सभा चुनाव हारने के बाद प्रेस कांफ्रेंस में उन्होंने कहा था कि कुछ लोग मेरे खिलाफ ऐसा दुष्प्रचार कर रहे हैं. सच्चाई यह है कि मैं मान्यवर कांशीराम के सिद्धांतों के प्रति पूरी तरह प्रतिबद्ध हूं और पूरे दिल से उनका अनुसरण कर रही हूं.
2012 और 2104 की पराजयों के बाद मायावती के रुख में कुछ बदलाव दिखा है. सर्वजनका प्रयोग उन्होंने पूरी तरह छोड़ा नहीं है लेकिन बहुजनकी ओर वापसी की है. 2017 के चुनाव के लिए मायावती मुस्लिम समुदाय का समर्थन हासिल करने पर बहुत जोर दे रही हैं. उन्होंने एक सौ के करीब टिकट मुसलमानों को दिए हैं. मुसलमान कांशीराम के बहुजन का महत्वपूर्ण हिस्सा थे लेकिन मायावती की नजर इस बार उन पर खास इसलिए गई है कि वे मुलायम सिंह से नाराज लगते हैं.
इस वर्ष की शुरुआत में एक सम्वाददाता सम्मेलन में उन्होंने घोषणा की थी कि सत्ता में आने पर अब वे मूर्तियां नहीं लगवाएंगी, हालांकि दलित नेताओं की मूर्तियां स्थापित करना कांशीराम के दलित आंदोलन का सांस्कृतिक-राजनैतिक एजेण्डे का महत्वपूर्ण हिस्सा था.
कांशीराम दलित समाज के सर्वागींण विकास के लिए राजनैतिक सत्ता हासिल करना जरूरी मानते थे. उनकी नजर अल्पकालीन लाभों में न हो कर बहुत दूर तक जाती थी. एक बार फिर सत्ता पाने के लिए मायावती भी प्रयत्नशील हैं लेकिन कांशीराम जैसे विजन का उनमें अभाव दीखता है. पिछले दस वर्षों में यूपी के बाहर बसपा का प्रभावी विस्तार भी मायावती नहीं कर पाईं.
अब जबकि बसपा बगावतों से कमजोर हुई दिखती है और भाजपा एवं सपा जैसे प्रबल प्रतिद्वंद्वी मुकाबिल हैं, बसपा के लिए 2017 का चुनाव कड़ी परीक्षा साबित होने वाला है.
बसपा के अब तक के पड़ावों में मायावती का महत्वपूर्ण योगदान रहा है. आगे की यात्रा और भी चुनौतीपूर्ण है. क्या कांशीराम की असली वारिस होने को वे साबित कर सकेंगी?  

 (http://www.bbc.com/hindi/india-37596939)