Monday, October 17, 2016

रैलियों में भीड़ का जुटना क्या कोई संकेत होता है?


नवीन जोशी
कांशीराम निर्वाण दिवस पर मायावती की रैली में भारी भीड़ जुटी. नरेंद्र मोदी और अमित शाह की सभाओं में खूब जमावड़ा लगता है. मुलायम सिंह यादव और मुख्यमंत्री की सभाओं में अच्छी भीड़ न जुटे, ऐसा नहीं हो सकता. इस बार सोनिया गांधी और राहुल के रोड शो में इतनी भीड़ उमड़ी कि खुद कांग्रेसी चौंक गए और विपक्षी नेताओं के कान भी खड़े हुए.
यह भीड़ क्या संकेत करती है?  क्या यह भीड़ लोकप्रियता और मिलने वाले वोटों का परिचायक है? जनता का यह जुटान स्वत: उमड़ता है या इसे विविध तरीकों से जुटाया जाता है? क्या भीड़ प्रबंधन राजनैतिक दलों का नया पैंतरा है ताकि मीडिया में छाया जा सके और लोकप्रियताका संदेश दिया जा सके?
अपने बड़े नेताओं की सभाओं के लिए भीड़ जुटाना राजनैतिक दलों के प्रादेशिक नेताओं-कार्यकर्ताओं के लिए कोई नई बात नहीं है. विधायकों से लेकर, सभासदों और ग्राम प्रधानों तक को भीड़ के लक्ष्य दिए जाते रहे हैं. चंद रु, भोजन और शहर घूमने का लालच देकर भोले-भाले ग्रामीणों को बसों में भर-भर कर लाया जाता रहा है. दूसरे  की सभाओं-रैलियों को अपने से कम भीड़ वाला बता कर जीत के दावे किए जाते रहे हैं. मीडिया वाले भी भीड़ के अनुमानित आंकड़ों का खेल खेलते रहे हैं.
आम भारतीय कौतुक प्रेमी होता है. जरा-जरा सी बात पर मजमा लगा लेना आम बात है. चुनावों के दौरान उड़नखटोलादेखने के लिए ग्रामीण नेताओं की सभाओं का रुख करते हैं. नेता भी भीड़ कम देख कर हेलीकॉप्टर के दो-चार फेरे गांवों के ऊपर लगा लेते हैं. भीड़ कम होने की आशंका में सभाएं रद्द भी की जाती रही हैं. भीड़ नेताओं के लिए संजीवनी का काम करती है. भारी जमावड़ा देख कर उनका मनोबल और गले की ताकत, सब बढ़ जाते हैं.
मायावती की रैलियां भारी भीड़ के कारण बड़ी सभाओं का पैमाना बनती हैं. इस बार जब यह माना जा रहा है कि उनकी राजनैतिक ताकत कम हुई है, नौ अक्टूबर को जुटी जबर्दस्त भीड़ क्या कहती है? पिछले करीब तीन दशक से कांग्रेस की हालत यूपी में बहुत पतली रही है मगर इस बार  सोनिया और राहुल के रोड शो जबर्दस्त भीड़ वाले हुए हैं. क्या यह कांग्रेस की हालत सुधरने का संकेत है, जैसा कि कई कांग्रेसी और विश्लेषक भी मान रहे हैं? इसके उलट, कुछ विश्लेषक इसे प्रशांत किशोर के प्रबंधन का कौशल बता रहे हैं.
सभी राजनैतिक दल अगर भीड़ प्रबंधन में माहिर हो गए हैं तो यह आकलन मुश्किल ही होगा कि किसके पास जुटाई गई भीड़ है और किसके पास असली वोटर.  एक विश्लेषण यह हो सकता है कि चूंकि प्रदेश में कोई चुनावी लहर नहीं है, इसलिए जनता अपना मन बनाने के लिए सभी दलों के नेताओं को सुनना-देखना चाहती है. लहर की अनुपस्थिति में बहुत बड़ा मतदाता वर्ग अंतिम समय तक अनिर्णय की मानसिकता में रहता है.
भीड़ स्वत: जुट रही हो, जैसा कि सभी दल दावा करते हैं, या जुटाई जा रही हो, यह बात कई चुनावों में साबित हो चुकी है कि हमारा आम मतदाता बहुत समझदार और चतुर है. इंतजार कीजिए.
(नभाटा, 16 अक्टूबर, 2016)


No comments: