Saturday, January 21, 2017

मुलायम-युग के बाद नया चोला पहन रही सपा



दृश्य 2007: गठबंधन सरकार के मुख्यमंत्री हैं मुलायम सिंह यादव और विधान सभा चुनाव का सामना कर रहे हैं. लखनऊ में अपने बंगले से सुबह जल्दी निकलते हैं औरअंधेरा होने के बाद लौटते हैं. एक दिन में नौ-दस चुनाव सभाएं. हेलीकॉप्टर एक जगह 30 मिनट से ज्यादा नहीं रुकता. बंगले में वापस आकर नेताओं-कार्यकर्ताओं-मीडिया से मिलने का लम्बा सिलसिला. सोने के लिए मुश्किल से चार घंटे. चुनाव सभाओं में कभी हरयाणा से चौटाला को ला रहे हैं तो कभी आंध्र से चंद्र बाबू नायडू को, असम से गोस्वामी तो कर्नाटक से बंगरप्पा.

दृश्य 2012: विपक्षी नेता के रूप में बहुमत वाली मायावती सरकार के खिलाफ तूफानी चुनाव प्रचार. युवाओं की कमान बेटे अखिलेश को दी है तो खुद अपनी चुनाव सभाओं में सपा प्रत्याशियों को मंच पर खड़ा करके जनता के सामने उनसे माफी मंगवा रहे हैं-इन्होंने गलती की थी और आपने सजा दे दी. अब आप इन्हें माफी दे दो और जितवा दो.

साल 1992 में समाजवादी पार्टी के गठन से पहले मुलायम ने काफी पापड़ बेले, बड़ी उठा-पटक झेली और सपा को यू पी की ताकतवर पार्टी बनाने के लिए जबर्दस्त मेहनत की. गांव-देहात तक साइकिल चलाई और धर्मशाला में सोए. इस तरह लोहिया के इस चेले की साइकिल बड़ी धमक से एकाधिक बार यूपी की सत्ता तक पहुंची. यू पी का यह नेता देश का भी बड़ा नेता बना. क्षेत्रीय दलों और वामपंथियों के बीच सम्मान से स्वीकारा जाने वाला.

लेकिन मुलायम नामधारी यह देहाती पहलवान राजनीति में भी अपना चरखा दांव चलाता रहा. कभी दुश्मनों से दोस्ती की और दोस्तों को चित किया. इसी वजह से एक बार प्रधानमंत्री की दौड़ में आगे होकर भी उसे दगा मिली.
बढ़ती उम्र और कतिपय बीमारियां भी मुलायम को घर नहीं बैठा सकीं. उनके तेवर और दांव-पेंच चलते रहे. बेटे को यूपी की कमान सौंप कर वे केंद्र की राजनीति में जमना चाहते थे. प्रधानमंत्री बनने का सपना अब भी कुनमुना रहा था. लेकिन परिस्थितियां कुछ ऐसी बनीं कि मुलायम का अपना पसंदीदा दांव उनके अपने ही बेटे ने उनके खिलाफ लगा दिया.

विपरीत परिस्थितियों में भी ठसक से रहने वाले मुलायम आज अपने ही बनाए अखाड़े में चित हैं. 2017 के विधान सभा चुनाव में वे सेनापति नहीं हैं, संरक्षक हैं. आदेश देने वाले नहीं, मजबूरी में आशीर्वाद देने वाले पिता. अब बेटा है सेनापति और सर्वे-सर्वा. टिकट के लिए मुलायम के दर पर अब भीड़ नहीं है. उलटे, वे बेटे को छोटी-सी लिस्ट थमा कर निवेदन कर रहे हैं कि इन्हें टिकट दे देना.

मुलायम का यह हश्र दयनीय है. यहां इस विश्लेषण में जाने का समय नहीं है कि उनकी यह गति क्यों हुई. संक्षेप में सिर्फ इतना कि इसके लिए कोई और नहीं वे खुद दोषी हैं. उन्होंने समय और स्थितियां के अनुकूल आचरण करने में भूल की. सन 2012 की चुनाव सभाओं में जब वे कह यह रहे थे कि यह चुनाव युवाओं का है और वे ही सपा की सरकार बनाएंगे, तो फिर क्यों भूल गए कि युवा बेटे को सत्ता सौपने के बाद उसकी राह में रोड़े नहीं लगाने चाहिए. बेटा बगावत नहीं करता तो अपना राजनैतिक भविष्य डुबो बैठता. खैर.
अब पूछा जा सकता है कि मुलायम के सुप्रीमोन रह जाने के नफा-नुकसान हैं? पार्टी की चुनाव-सम्भावनाओं पर इसका क्या असर पड़ेगा? चुनाव प्रचार का दृश्य कैसा होगा?  

इस बात पर सभी राजनैतिक विश्लेषक एकमत हैं कि मुलायम के नेतृत्व में सपा का जो नतीजा इन चुनावों में निकलता, अखिलेश के कमान सम्भालने के बाद उससे अच्छा ही रहेगा. अखिलेश की बगावत उनकी लोकप्रियता का ग्राफ काफी बढ़ा है.

वैसे भी, जिन हालात में अखिलेश पिता मुलायम को अपदस्थ कर समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने उससे काफी हद तक सवालों के उत्तर मिल जाते हैं. चुनाव आयोग ने भी माना कि सपा का भारी बहुमत अखिलेश गुट के साथ है. मुलायम अपने पक्ष में कोई दस्तावेज ही पेश नहीं कर सके. साफ है कि लगभग सारी पार्टी अखिलेश के साथ चली गई. जो चंद नेता मुलायम के साथ रह गए थे वे भी चुनाव आयोग के निर्णय के बाद उधर हो लिए. बचे शिवपाल और अमर सिंह तो वे खुद ही अंतर्धान हो गए हैं. इस चुनाव में तो उनकी कुछ नहीं चलने वाली. अमर सिंह को पार्टी से बाहर ही समझिए.

पार्टी में दो-फाड़ होता तो कयास लगाए जा सकते थे कि किस गुट का क्या अंजाम होगा. साइकिल चुनाव चिह्न जब्त हो जाता तो बड़े सवाल खड़े हो जाते. अपने पूर्व कथन के मुताबिक अगर मुलायम अखिलेश के खिलाफ चुनाव लड़ते तो अद्भुत और अभूतपूर्व नजारा बनता. इस सब की नौबत नहीं आई. पूरी पार्टी अब अखिलेश के पीछे एक है. नेता जीबदल गए हैं. इसके साथ पार्टी का चेहरा भी थोड़ा बदला है. इसलिए कुछ परिवर्तन तो अभी होने लगे हैं.

टिकट वितरण का निर्णय अखिलेश और रामगोपाल कर रहे हैं. अपराधी प्रवृत्ति वाले कुछ खास नेताओं को टिकट नहीं मिलेगा, यह साफ है. हवा भांप कर माफिया अतीक अहमद ने खुद ही चुनाव लड़ने से मना कर दिया है. मुख्तार अंसारी भी टिकट नहीं पाएंगे, यद्यपि ये सब अब अखिलेश के पाले में हैं. यह देखना रोचक होगा कि अखिलेश ऐसे तत्वों से किस हद तक पार्टी की सफाईकर पाते हैं क्योंकि मुलायम के जमाने से सपा में अपराधी नेताओं की भरमार है. सभी दागियों को टिकट वंचित करना सम्भव नहीं होगा. मुख्तार के भाई टिकट पा सकते हैं. चुनाव जीताऊ उम्मीदवार भी तो चाहिए. इसी कारण उन पूर्व मंत्रियों में भी कुछ को टिकट मिलेगा जिन्हें अखिलेश ने ही अपनी सरकार से हटा दिया था.

कुछ महीने पहले जब पिता-पुत्र टकराव चरम पर था, एक मंच से मुलायम ने मुख्यमंत्री बेटे को लताड़ते हुए कहा था- हैसियत क्या है तुम्हारी, सिर्फ साफ-सुथरी छवि से चुनाव जिता सकते हो?’ अखिलेश को अब अपनी हैसियत ही साबित करनी है. मुलायम शीर्ष पर होते तब भी सपा को यह चुनाव अखिलेश की निजी छवि और सरकार की उपलब्धियों के आधार पर लड़ना था. मतदाताओं को स्वाभाविक रूप से यह संदेश भी मिल गया है कि अखिलेश के काम-काज में अब रुकावट डालने वाला कोई नहीं होगा.

कांग्रेस से तालमेल करने की अखिलेश की सोची-समझी रणनीति पर अमल हो गया है. मुलायम शायद राजी नहीं होते.

मुलायम की अखिल भारतीय स्वीकार्यता की कमी अखिलेश को नहीं खलने वाली. लालू, ममता बनर्जी समेत कुछ अन्य बड़े नेता अखिलेश का प्रचार करने आने वाले हैं. कलह के समय मुलायम के ज्यादातर राष्ट्रीय दोस्त अखिलेश का ही पक्ष ले रहे थे.

और, यह नहीं मानना चाहिए कि मुलायम चुनाव प्रचार वास्ते नहीं निकलेंगे. उनकी भूमिका भीष्म पितामह से ज्यादा ही होने वाली है. उधर चाचा शिवपाल भी घर बैठे नहीं रहेंगे. उन्हें भी अपना भविष्य देखना है.

सत्ता में वापस आ गए तो अखिलेश की बल्ले-बल्ले होनी ही है. अन्यथा पिता व चाचा की तरफ से पराजय के लिए इंगित किए जाएंगे. लेकिन सपा में अब मुलायम-युग नहीं लौटेगा. चुनाव के बाद वह क्रमश: नया अवतार लेगी. 

-नवीन जोशी
(प्रभात खबर, 22 जनवरी 2017) 




मुलायम-पुत्र की बजाय कोई और बगावत करता तो?


नवीन जोशी

कई बार मेरे मन में यह ख्याल आता है कि अगर अखिलेश मुलायम के बेटे न होकर तेज-तर्रार सपा नेता मात्र होते तो क्या मुलायम के खिलाफ बगावत कर पाते? करते तो क्या अधिसंख्य सपा सांसद, विधायक और दूसरे नेता-कार्यकर्ता उनका साथ देते? और, क्या अंतत: विजयी अखिलेश को मुलायम उसी तरह आशीर्वाद देते जैसे कि अब हार मानने के बाद दे रहे हैं? उदाहरण के लिए, क्या आजम खां ऐसी बगावत कर सकते थे? तौबा-तौबा!

यानी राजनैतिक दलों में नेतृत्व हस्तांतरण या हथियाने के लिए रक्त-सम्बंधी होना जरूरी है.

जवाब में नरेंद्र मोदी का ख्याल आता है. मोदी जी ने भाजपा के बूढ़े नेतृत्व के खिलाफ बगावत ही की, हालांकि उसका स्वरूप खुली चुनौती की बजाय लम्बी व्यूह-रचना थी. मोदी की टीम ने बहुत चतुराई और रणनीति से आडवाणी जी को हाशिए पर डाल कर पूरी भाजपा पर कब्जा कर लिया. लेकिन सवाल उठता है कि यदि अटल- आडवाणी का कोई रक्त-सम्बंधी भाजपा में नम्बर दो की हैसियत में होता तो क्या मोदी यह तख्ता पलट कर पाते? भाजपा नेता और कार्यकर्ता तब किसका साथ देते?

बात जाहिर है कि राहुल गांधी पर आएगी. उन्हें कांग्रेस में मां सोनिया के बाद नम्बर दो की हैसियत से काम करते हुए काफी समय हो गया है. अब पार्टी अध्यक्ष बनाने की बात चल रही है. मगर राहुल में नेतृत्व की क्षमता दिखाई नहीं देती. बल्कि, अक्सर वे मजाक का पात्र बन जाते हैं. कांग्रेस की युवा पीढ़ी में राहुल से काबिल कई युवा हैं. कुछ सयाने कांग्रेसी भी राहुल की तुलना में  कहीं ज्यादा योग्य और नेतृत्व सम्भालने में सक्षम हैं लेकिन कोई इस बारे में सोच भी नहीं सकता, बगावत करना तो दूर. इंदिरा गांधी की तरह सोनिया भी अपने बेटे के अलावा किसी और को नेतृत्व देने का ख्याल दिल में लाएं भी क्यों!

पता नहीं नेहरू अपनी एकमात्र पुत्री इंदिरा की ताजपोशी करते या नहीं. उनकी मृत्यु अचानक हुई. शायद तब के दिग्गज कांग्रेसी ऐसा न होने देते. अन्यथा शास्त्री जी प्रधाननमंत्री कैसे बनते. खैर. घुट्टी में राजनीति पीने वाली इंदिरा ने 1969 में बूढ़ी चौकड़ीके खिलाफ बगावत कर कांग्रेस के बड़े धड़े पर कब्जा किया और जल्द ही खुद कांग्रेस बन गईं. उसके बाद किसी की हिम्मत उन्हें चुनौती देने की नहीं हुई. बहू होने के बावजूद मेनका का क्या हश्र हुआ? राजीव के समय में विश्वनाथ प्रताप सिंह ने बगावत की लेकिन वह पार्टी पर कब्जा करने से ज्यादा बाहर जाकर नया दल बनाना था. कांग्रेस पूरी राजीव के साथ ही रही. एक बार विश्वनाथ प्रताप ने बयान दे दिया था कि कांग्रेस में ना द तिवारी बेहतर प्रधानमंत्री बनने के काबिल हैं. तब तिवारी जी को राजीव के प्रति अपनी वफादारी साबित करने में पसीने छूट गए थे. वही तिवारी जी आज अपने बेटे को राजनीति में स्थापित करने के लिए किस गति को प्राप्त हुए हैं !

बाद में प्रधानमंत्री मटीरियलतिवारी जी और अर्जुन सिंह ने बगावत की थी लेकिन वह सोनिया से ज्यादा नरसिंह राव के खिलाफ थी. दोनों को बाद में वापस सोनिया ही की शरण जाना पड़ा क्योंकि उनका साथ और किसी कांग्रेसी ने नहीं दिया.
अब तो वंशवाद की कटु आलोचक भाजपा भी उसी राह पर चल पड़ी है. (नभाटा, 22 जनवरी, 2017)






Wednesday, January 18, 2017

उत्तराखण्ड के साथियों से एक अपील


सुबह पता चला कि आज उत्तराखण्ड परिवर्तन पार्टी (उपपा) का नौवां स्थापना दिवस है. उत्तराखण्ड में अपेक्षित परिवर्तन के लिए राजनैतिक विकल्प की कामना से आठ साल पहले पी सी तिवारी एवं साथियों ने इस पार्टी का गठन किया था. कुछ चुनाव भी इस बीच लड़े लेकिन सफलता बहुत दूर रही. इस बार भी वह कुछ सीटों पर उम्मीदवार खड़े कर रही है.
उत्तराखण्ड के निरंतर बिगड़ते हालात को बदलने के लिए कई जुझारू संगठनों, नए-पुराने आंदोलनकारियों, जनता के विभिन्न वर्गों, खासकर युवाओं-महिलाओं में बेचैनी अक्सर सामने आती है. उपपा ने पिछले साल नानीसार में ग्रामीणों की जमीन हड़पने के खिलाफ जो जोरदार संघर्ष किया, उसे सभी का समर्थन मिला था. पी सी तिवारी और उनके कुछ साथियों पर जानलेवा हमला हुआ था. जनता की जमीन साजिशन हड़पने और आंदोलनकारियों पर हमले के खिलाफ बहुत सारे लोग, संगठन, आदि नानीसार में एकत्र हुए थे. नानीसार आंदोलन ने जन संगठनों की एकता की जरूरत रेखांकित की थी लेकिन बहुत जल्द वे सब फिर अपने-अपने कोनों में सीमित हो गए.   
आज नानीसार आंदोलन और उसमें व्यापक भागीदारी की याद इसलिए आ रही है कि उनमें से कुछ संगठन, दल और कार्यकर्ता उत्तराखण्ड के अलग-अलग हिस्सों में चुनाव लड़ या लड़ा रहे हैं.  सब अलग-अलग हैं, यह जानते हुए भी कि उत्तराखण्ड में सार्थक हस्तक्षेप के लिए उनकी एकता बहुत जरूरी है. अलग-अलग चुनाव लड‌कर वे कुछ हासिल नहीं कर सकते.
उत्तराखण्ड लोक वाहिनी, उपपा, विभिन्न वामपंथी दल,  परिवर्तन की चाह से हर चुनाव में  बनने वाले कुछ गुट और कई लड़ाकू साथी निर्दलीय भी चुनाव लड़ते आए हैं. इनमें से जीतता एक भी नहीं. भाजपा और कांग्रेस बारी-बारी से राज्य की सत्ता में आते और जनता के संसाधनों की लूट मचाते हैं. जनता उनसे आजिज आने के बावजूद उन्हें चुनती है क्योंकि किसी और राजनैतिक ताकत पर उसकी भरोसा बन नहीं पाया.
परिवर्तन चाहने वालों और उत्तराखण्ड के चौतरफा शोषण से लड़ने वालों, उसके खिलाफ आवाज उठाने वालों और तरह-तरह से हस्तक्षेप करने वालों की कमी नहीं है लेकिन दुर्भाग्य कि वे एक नहीं हो पाते. एक न हो पाने की वजहें बहुत बड़ी नहीं हैं. उत्तराखण्ड के वर्तमान दयनीय हालात क्या उनमें न्यूनतम सहमति के आधार पर भी एकता नहीं कर सकते?
जैसे, उपपा और उस जैसे जो भी संगठन/दल, इसमें स्वराज अभियान को भी शामिल मानें, चुनाव लड़ने या लड़ाने जा रहे हैं, क्या वे सब मिलकर एक दूसरे का तन-मन-धन से समर्थन नहीं कर सकते? वे तमाम लोग जो किसी भी रूप में बेहतरी के लिए सक्रिय हैं और जो उनसे सहानुभूति रखते हैं, इसे एक जरूरी अभियान मान कर इस चुनाव में हर सम्भव साथ नहीं दे सकते?
रातों रात कोई बड़ी राजनैतिक शक्ति खड़ी नही हो सकती जो भाजपा या कांग्रेस का मुकाबला करे. सभी परिवर्तनकामी ताकतें  मिलकर चुनाव लड़ें और यह कोशिश करें कि आठ-दस या पांच-छह विधायक जिता लें. ये पांच-छह विधायक भी काफी हो सकते हैं सरकार पर दवाब बनाने के लिए. यह भी हो सकता है कि इन चंद विधायकों के बिना कोई सरकार बन ही नहीं पाए, उस स्थिति में ये विधायक किसी भी सरकार को बाहर से समर्थन दें और उत्तराखंड के संसाधनों की लूट वाला कोई भी फैसला पारित न होने दें. ऐसा होने पर सरकार गिरा दें. होने दें बार-बार चुनाव.
इससे एक तरफ कुछ हद तक लूट-खसोट रुकेगी तो दूसरी तरफ जनता तक यह संदेश जाएगा कि राज्य में बदलाव तथा वास्तविक विकास के लिए किन ताकतों पर भरोसा किया जा सकता है.
आप सोचें कि पी सी तिवारी, कमला पंत, राजा बहुगुणा, प्रभात ध्यानी, आदि (उदाहरणार्थ चंद मित्रों के नाम लेने के लिए क्षमा करेंगे) को विधान सभा में क्यों नहीं पहुंचना चाहिए और बदलाव के लिए बेचैन लोगों में किसको इस पर आपत्ति हो सकती है? आखिर ये और इन जैसे तमाम जुझारू साथियों की पीठ सड़कों पर लड़ने-पिटने के लिए ही कब तक ठोकी जाएगी?
क्या इस बारे में अब भी नहीं सोचा जाना चाहिए, हालांकि चुनाव सिर पर हैं? मैंने नानीसार आंदोलन के वक्त भी ऐसी अपील की थी. हो सकता है यह सब बहुत सरलीकृत उपाय और भावुक अपील लगती हो लेकिन यह प्रयास क्यों नहीं किया जा सकता जबकि उत्तराखण्ड की लूट चरम पर पहुंच गई है और कोई दूसरा विकल्प भी सामने नहीं है? चुनाव का बहिष्कार करके क्या होगा? और, भाजपा-कांग्रेस को हराने लायक बड़ा राजनैतिक विकल्प बनाने का इंतजार कब तक करेंगे और तब तक उत्तराखण्ड बचेगा भी?
तो, दोस्तो?   
-नवीन जोशी, 18 जनवरी, 2017


  

Tuesday, January 17, 2017

उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव ; सपा पर चुनाव आयोग के फैसले से बदली तस्वीर


नवीन जोशी
समाजवादी पार्टी के झगड़े पर निर्वाचन आयोग के फैसले ने उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव की तस्वीर बदल दी है. बल्कि, कहना चाहिए कि पहले चरण के चुनाव के लिए नामांकन प्रारम्भ जोने की पूर्व संध्या पर आए आयोग के फैसले ने इस रण को काफी हद तक साफ कर दिया है. अखिलेश यादव के गुट को साइकिल चुनाव चिन्ह दिए जाने के निणय ने यह भी घोषित कर दिया कि असली समाजवादी पार्टी उन ही का गुट है.
सोलह जनवरी की शाम यह भी करीब-करीब तय हो गया था कि अखिलेश कांग्रेस से चुनावी तालमेल करेंगे. सम्भावना तो यह भी है कि सपा, कांग्रेस, रालोद और चंद अन्य छोटे दलों का गठबंधन बने. जद (यू) और लालू  भी साथ आ सकते हैं. बिहार की तर्ज पर बनने वाला यह गठबंधन ही भाजपा के असली मुकाबिल होगा.  इसका सीधा अर्थ यह होगा कि बसपा कमजोर पड़ेगी और तीसरा कोण ही बना पाएगी, क्योंकि अखिलेश के असली सपा घोषित होने एवं कांग्रेस समेत अन्य दलों से गठबंधन होने की स्थिति में मुसलमानों का असमंजस खत्म होने के आसार हैं. भाजपा को हराने के लिए उनका बहुमत गठबंधन के साथ जाएगा.
अगर सपा का साइकिल चुनाव चिन्ह जब्त हो जाता और अखिलेश एवं मुलायम गुट नए चुनाव चिह्नों पर चुनाव लड़ते तो तस्वीर दूसरी होती. तब मुसलमान मतदाता काफी भ्रम की स्थिति में होते और बहुत सम्भावना थी कि वे मायावती के साथ जाते अथवा उनका विभाजन होता. उस स्थितिमें भाजपा को फायदा होता और उसका मुख्य मुकाबला बसपा से होने की सम्भावना बनती. चुनाव आयोग के दो टूक फैसले ने अचानक परिदृश्य बदल दिया.
अधिसंख्य राजनैतिक विश्लेषक यह मान रहे थे कि आयोग साइकिल चुनाव चिह्न को जब्त कर लेगा.  राजनैतिक दलों के अदरूनी झगड़े में अक्सर ऐसा होता रहा है. लेकिन इस बार स्थिति सर्वथा भिन्न थी. आयोग ने पाया कि समाजवादी पार्टी के सांसदों, विधायकों, पार्षदों और पार्टी के विभिन्न संगठनों का बहुमत अखिलेश के साथ है. आयोग ने अपने निर्णय में कहा कि मुलायम सिंह यादव अपने समर्थन में पर्याप्त दस्तावेज पेश नहीं कर सके. अखिलेश के प्रबल समर्थक राम गोपाल यादव ने अपने पक्ष में दस्तावेजों का विशाल पुलिंदा आयोग को सौंपा था.
यू पी का चुनाव संग्राम हमेशा से देश भर की उत्सुकता का केंद्र बना रहता है. लोक सभा के चुनाव हों या विधान सभा का निर्वाचन, केंद्र की सत्ता पर उसकी धमक रहती है. कहते भी हैं कि दिल्ली का रास्ता यूपी से होकर जाता है. इसलिए 2017 का प्रदेश विधान सभा का चुनाव 2019 के लोक सभा चुनाव की पूर्व पीठिका भी है.  आइए, देखें कि पार्टीवार हालात और परिदृश्य कैसे हैं.
भाजपा: उम्मीदें और आशंकाएं
 2014 के लोक सभा चुनाव 72 सीटें जीतने से भाजपा उत्साहित जरूर है लेकिन उसे मालूम है कि विधान सभा चुनाव में वैसी सफलता दोहरा पाना लगभग असम्भव है. वह लोक सभा का चुनाव था, यूपीए के सामने दस साल के शासन की सत्ता विरोधी लहर थी और नरेंद्र मोदी के रूप में एक अति सक्रिय और बड़े-बड़े वादे करने वाला चेहरा सामने था. यह विधान सभा का चुनाव है जहां क्षेत्रीय शक्तियां अपनी पूरी ताकत के साथ मैदान में है और नरेंद्र मोदी का जादू काफी उतर चुका है. इसलिए भाजपा काफी सतर्क है और कई मोर्चों पर काम करती आई है.
दलित वोट यहां बहुत महत्वपूर्ण हैं जिन पर बसपा का कब्जा रहा है. भाजपा ने इस वोट बैंक पर सेंध लगाने के बड़े जतन कर रखे हैं. उसने बसपा में तोड़-फोड़ मचाई, कई प्रभावशाली दलित-पिछड़े नेताओं को उसने अपना बना लिया. अम्बेडकर को महिमामण्डित किया. अमित शाह समेत कई नेताओं ने दलितों के घर जा कर भोजन किया. दलित कल्याण के वादे किए और मायावती को बदनाम करने का प्रयास किया. लेकिन इस सबके बावजूद भाजपा अपना दलित-हितैषी चेहरा प्रस्तुत कर पाई इसमें संदेह है. उलटे गोरक्षा के नाम पर देश भर में दलितों पर हिंदूवादी संगठनों ने जो भयानक अत्याचार किए, उसके दाग जरूर उसके हिस्से में प्रमुखता से है.
सवर्णों का बड़ा तबका भाजपा के साथ जाएगा, ऐसा लगता है. मुसलमान भाजपा के खिलाफ रहे हैं और वे भाजपा को हरा सकने वाली पार्टी या प्रत्याशी की तलाश करते हैं. इससे धार्मिक ध्रुवीकरण का सिलसिला शुरू होता है. मुसलमानों के एकमुश्त भाजपा विरोधी वोट का भय दिखा कर हिंदू वोटों के ध्रुवीकरण की कोशिश यह पार्टी करती है और इस बार भी अन्दरखाने यह सब चल रहा है. यह किस हद तक हो पाएगा और अधिसंख्य मुसलमान किस पार्टी के साथ जाएंगे, इस पर भाजपा का बहुत कुछ निर्भर है. गैर-यादव कुछ पिछड़ी जातियों पर भी भाजपा डोरे डालती आयी है. उसकी अब तक घोषित सूची में पिछड़ी जतियों का अच्छा ध्यान रखा गया है. पिछड़े नेताओं की भाजपा में बड़ी पूछ है.
लेकिन भाजपा में अंदरखाने बहुत असंतोष भी है. दूसरे दलों से बड़ी संख्या में कद्दावार नेताओं को भाजपा में शामिल किए जाने से पुराने भाजपाई आशंकित हैं. इससे भितरघात का खतरा बढ़ा है. असंतोष बढ़ता जाएगा. दूसरे दलों से बड़े-बड़े नेताओं को भाजपा में लाने वाले अमित शाह के लिए बड़ी चुनौती है कि वे कैसे इसे सम्भालते हैं.
सपा: नए युग की शुरुआत
पारिवारिक और पार्टी के झगड़े ने अब मुलायम सिंह को समाजवादी पार्टी के केंद्र से हाशिए पर डाल दिया है. अखिलेश जहां उनका पूरा सम्मान करने की बात करते हैं, वहीं शिवपाल और अमर सिंह को वे अब कतई बर्दाश्त नहीं करने वाले. अखिलेश ही अब सपा के सर्वेसर्वा हैं. अब मुलायम को तय करना होगा कि वे चुनाव में अखिलेश के मुकाबले खड़े होते हैं या संरक्षक बन कर आशीर्वाद देते हैं. झगड़े का नुकसान समाजवादी पार्टी को नहीं मुलायम और शिवपाल को हुआ है.
इस पूरे दौर ने अखिलेश यादव को साफ-सुथरे, बेहतर, विकास परक चिंतन वाले युवा नेता के रूप में स्थापित किया है. सत्ता संग्राम में अखिलेश को बहुत लोकप्रियता मिली है. मुझे तो लगता है कि मुलायम के नेतृत्व में एक रहते हुए समाजवादी पार्टी इस चुनाव में उतनी मजबूत नहीं होती जितनी आज अखिलेश के नेतृत्व में वह दिखाई देती है. साइकिल चुनाव चिन्ह जब्त हो जाता तो भी अखिलेश गुट काफी मजबूती से चुनाव लड़ता. अब तो पार्टी उनकी है और चुनाव चिह्न भी.
यह बात गौर करने वाली है कि अखिलेश सरकार में कई विकास परियोजनाएं पूरी हुईं, बिगड़ती कानून व्यवस्था की नकेल कसने की कोशिश हुई और समाजवादी पार्टी का आधुनिक रूप उभरा, जिससे युवाओं का बड़ा वर्ग  उनका समर्थक दिखता है. अपराधी तत्वों से पार्टी को मुक्त कराने की उनकी कोशिशें भी खूब सराही गई है. नोट किया जाना चाहिए कि कुछ महीने पूर्व तक सपा नेताओं की गुण्डागर्दी और मंत्रियों के भ्रष्टाचार की चर्चा करने वाले लोग आज अखिलेश की सराहना कर रहे हैं.
इसके बावजूद लाख टके का सवाल बना रहेगा कि क्या पारिवारिक युद्ध और विभाजन के बावजूद मुसलामन अखिलेश वाली सपा के साथ रहेंगे? क्या वे यह मानते हैं कि मुलायम के बिना भी अखिलेश भाजपा को हरा सकने में सक्षम हैं? जैसा भरोसा उनका मुलायम में रहा है, वैसा ही अखिलेश में भी रहेगा? या क्या उन्हें अखिलेश की मुस्लिम एप्रोच में फर्क नजर आता है? यह सवाल इसलिए कि मुलायम ने चुनाव आयोग का फैसला आने से ठीक पहले यह क्यों कहा कि अखिलेश मुसलमान विरोधी है. वे क्या संदेश देना चाहते थे और क्या वह संदेश मुसलमानों ने ग्रहण किया?
गौरतलब है कि अखिलेश सरकार ने श्रवण यात्रा और कैलाश मानसरोवर यात्रियों को आर्थिक सहायता देने जैसी कुछ योजनाओं से हिंदुओं को भी खुश करने की कोशिश की है. अगर मुसलमानों का भरोसा डगमगाया तो अखिलेश मुश्किल में होंगे और भाजपा बड़े फायदे में. इसीलिए अखिलेश काफी पहले से कांग्रेस के साथ गठबंधन की बात करते रहे हैं जो अब मुमकिन होता लग रहा है.
बसपा: सता के करीब या बहुत दूर
बहुजन समाज पार्टी, बल्कि मायावती के लिए यह बहुत चुनौती भरा चुनाव साबित होगा. उनके दलित वोटों के एकछत्र साम्राज्य पर बहुत हमले हुए हैं. उनके कुछ विश्वस्त नेता और कांशीराम के समय से चले आ रहे समर्पित साथी उन्हें छोड़ गए हैं. दलितों की नई पीढ़ी वोटर बन गई है जो दलित सशक्तीकरण की चाह के बावजूद मायावती पर आंख मूंद कर भरोसा नहीं करती.  मायावती बसपा को दलित कोण से ऊपर विकसित नहीं कर सकीं.
इसके बावजूद दलितों का बड़ा वर्ग मायावती के साथ है लेकिन सिर्फ उन ही की मदद से वे ज्यादा सीटें नहीं जीत सकतीं. कांशी राम ने इसीलिए कतिपय गैर-दलित जातियों और मुसलमानों को साथ लेने की रणनीति बनाई थी. बहुजनशब्द इसीलिए पार्टी के नाम में रखा गया था. मायावती ने 2007 में कुछ सवर्ण जातियों, खासकर ब्राह्मणों को साथ लेकर जो सोशल इंजीनियरिंगगढ़ी, वह इसी रणनीति का विस्तार थी. इसी के बल पर उन्हें बहुमत मिला था.  मगर 2007 और 2017 में बहुत फर्क है. मायावती ने इस बार भी ब्राह्मणों-ठाकुरों को काफी संख्या में टिकट भले दिए हों, लेकिन उन्हें पता है कि भाजपा के उभार ने उस इंजीनियरिंग को ध्वस्त कर दिया है.
यही कारण है कि मायावती ने इस चुनाव में सबसे ज्यादा टिकट मुसलमानों को दिए हैं. सपा के झगड़े से भाजपा को फायदा होने का डर दिखा कर वे मुसलमानों का अधिसंख्य वोट हासिल करने की जुगत में हैं. उन्होंने सार्वजनिक तौर पर कहा भी है कि मुसलमानों ने बसपा को ही वोट देना चाहिए क्योंकि वे ही भाजपा को हरा सकती हैं. तो, इस बार मायावती की रणनीति दलित-मुस्लिम एकता कायम करने रही है. 1992 के बाबरी मस्जिद ध्वंस के बाद से मुसलमानों के बड़े वर्ग का भरोसा मुलायम पर रहा है. मायावती को उम्मीद है कि इस बार समीकरण बदलेगा और मुसलमान पारिवारिक झगड़े से कमजोर हुई सपा को छोड़ कर उनके साथ आएंगे.
मुसलमानों का बहुमत बसपा के साथ जाता है तो मायावती एक बार फिर यूपी की सत्ता के बहुत करीब होंगी लेकिन समाजवादी पार्टी के बारे में चुनाव आयोग के फैसले ने इसे मुश्किल बना दिया है. मुसलमानों के समर्थन के बिना मायावती कुछ वर्षों के लिए राजनैतिक हाशिए पर चली जाएं तो आश्चर्य नहीं.
कांग्रेस: गठबंधन ही सहारा
कांग्रेस के लिए यह करो या मरो टाइप का चुनाव है.  कांग्रेस की हालत खराब है. इससे नीचे जाने का मतलब है कांग्रेस का लोप हो जाना. राम चंद्र गुहा जैसे इतिहासकार और समाजशास्त्री कांग्रेस के अवसान की भविष्यवाणी कर चुके हैं. इसलिए यू पी का चुनाव तय करेगा कि कांग्रेस और राहुल गांधी हाशिए से निकल कर मैदान में आ पाते हैं या गायब हो जाते हैं.
फिलहाल जो दृश्य है उसमें कांग्रेस यूपी में अकेले चुनाव लड़ने की हालत में नहीं दिखती. उसके पास न कार्यकर्ता बचे है न दमदार प्रत्याशी. दो मास पहले जो कांग्रेस बड़े जोर शोर से मैदान में ताल ठोक रही थी वह इस इंतजार में है कि सपा का अखिलेश धड़ा चुनाव पूर्व गठबंधन के  लिए आगे आए. अब यह सम्भावना बन गई है. अगर सपा(अखिलेश) और कांग्रेस का गठबंधन होता है तो नया समीकरण बनेगा जिसमें मुसलमान वोटर नई उम्मीद देख सकते हैं. इस गठबन्धन में रालोद और चंद फुटकर दल भी शामिल किए जा सकते हैं.
जैसी कि चर्चा थी कि गठबंधन होने की स्थिति में डिम्पल-यादव और प्रियंका गांधी मिलकर चुनाव प्रचार करेंगी. यह दोनों लोकप्रिय चेहरे गठबंधन के लिए स्टार प्रचारक होंगे और निश्चय ही भीड़ खींचेंगे. अखिलेश और राहुल का एक मंच पर आना भी कम आकर्षक नहीं होगा.
देखिए, क्या-क्या मंजर सामने आते हैं. ( जनवरी 16, रात 10 बजे)


Sunday, January 08, 2017

कभी ‘गार्जियन’ रहे शिवपाल से अखिलेश की क्यों ठनी?


नवीन जोशी
अभी-अभी अपनी स्थापना की स्वर्ण जयंती मना चुकी समाजवादी पार्टी अगर आज टूटी है (सिर्फ औपचारिकता ही बाकी है)  तो इसकी वजह अखिलेश और शिवपाल का झगड़ा ही है.
आखिर, अखिलेश के अपने चाचा से रिश्ते क्यों और कब से बिगड़े? अपने जिस भाई को मुलायम सबसे ज्यादा मानते हैं, उसी चाचा शिवपाल से अखिलेश की कबसे ठनने लगी?
अखिलेश के बचपन के पन्ने बताते हैं जब पिता मुलायम राजनीति में घनघोर व्यस्त रहा करते थे तो अखिलेश की घर और स्कूल की पढ़ाई की देख-रेख शिवपाल और उनकी पत्नी सरला ही करती थीं. राजनीति के बीहड़ों में लड़ते हुए जब मुलायम सिंह की जान तक को खतरा था तो उन्होंने तब अपने एक मात्र पुत्र अखिलेश को सुरक्षा कारणों से स्कूल से निकाल कर घर बैठा दिया था. 1980 से 1982 के उन दो सालों में चाची सरला उसे घर पढ़ाया करती थीं. अखिलेश की मां बीमार रहती थीं.   
सन 1983 में जब अखिलेश को धौलपुर मिलिट्री स्कूल में भर्ती कराया गया तो चाचा शिवपाल ही उन्हें इटावा से वहां लेकर गए थे. भर्ती की सारी औपचारिकताएं शिवपाल ने पूरी कीं क्योंकि मुलायम को फुर्सत नहीं होती थी. स्कूल में अखिलेश के गार्जियन शिवपाल और सरला यादव थे. चाचा-चाची ही अखिलेश से मिलने धौलपुर जाया करते थे.
बीते सितम्बर में जब चाचा-भतीजे का झगड़ा सड़क तक आया तब मुलायम ने कहा भी था कि अखिलेश को शिवपाल ने ही पाला है. साथ में उन्होंने यह भी जोड़ा था कि समाजवादी पार्टी बनाने में शिवपाल का बहुत बड़ा योगदान है. तब मुलायम यही बताने की कोशिश कर रहे थे कि अखिलेश और शिवपाल के रिश्ते कितने पुराने और मजबूत हैं और यह भी कि शिवपाल पार्टी के लिए कितने जरूरी हैं.
अपनी तमाम कोशिशों के बावजूद मुलायम न चाचा-भतीजे के रिश्ते बचा सके, न पार्टी.  मुलायम के लिए यह बहुत कष्टकारी समय होगा.
जब शिवपाल समाजवादी पार्टी को खड़ा करने में मुलायम के कंधे से कंधा मिला कर चल रहे थे तब मैसूर के इंजीनियरिंग कॉलेज में अखिलेश की दिलचस्पी पढ़ाई के अलावा सिर्फ खेल और कुछ फिल्मों में थी. समाजवादी पार्टी के गठन की खबर उन्हें अखबारों से देखी थी. राजनीति में उनकी कोई दिलचस्पी न थी. मैसूर से इंजीनीयरिंग में ग्रेजुएशन करके वे पोस्ट ग्रेजुएशन करने आस्ट्रेलिया चले गए.
पिता का भी कोई इरादा अखिलेश को राजनीति में लाने का न था. समाजवादी नेता के तौर पर में वे राजनीति में वंशवाद के सख्त खिलाफ थे. अखिलेश पढ़ाई पूरी करके आस्ट्रेलिया से लौटे और 1999 में “गर्ल फ्रेण्ड डिम्पल से उनकी शादी कर दी गई. वे हनीमून के लिए गए ही थे कि पिता मुलायम ने फोन करके बताया कि तुम्हें चुनाव लड़ना है. यह बिल्कुल अचानक हुआ और पिता की खाली की गई कन्नौज सीट से चुनाव जीत कर वे लोक सभा पहुंच गए.
उसी के बाद अखिलेश ने राजनीति और समाजवादी पार्टी की गतिविधियों में दिलचस्पी लेना शुरू किया. वरिष्ठ पत्रकार सुनीत ऐरन ने अखिलेश यादव पर लिखी अपनी पुस्तक में एक जगह अखिलेश को यह कहते उद्धृत किया है-“मैं राजनीतिक पिता का बेटा न होता तो आज फौजी होता.”
शिवपाल तब तक समाजवादी पार्टी में बहुत प्रभावशाली हो चुके थे. मुलायम अपने इस सबसे छोटे भाई पर बहुत भरोसा करते रहे. उन्हें अघोषित रूप से अपना वारिस मानते रहे. अखिलेश चाचा शिवपाल का बहुत सम्मान करते थे. अंदरखाने भी किसी खटास के लक्षण नहीं दिखते थे.
2009 के लोक सभा चुनाव में सपा के खराब प्रदर्शन के बाद अखिलेश ने समाजवादी पार्टी में ज्यादा रुचि लेनी शुरू की. पार्टी की छवि बदलने की छोटी-छोटी कोशिशें उन्होंने करनी चाहीं. तब शिवपाल यादव पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष थे.
अपराधी पृष्ठभूमि के लोगों को राजनीति में प्रश्रय देने और कानून खराब कानून व्यवस्था के लिए समाजवादी पार्टी की सरकार की हमेशा आलोचना होती रही है. अखिलेश ने इस छवि से निजात पानी चाही. राजनीति में बहुत अनुभवी नहीं होने के बावजूद एक जुनून उनमें था. मुलायम सिंह ने जो भी सोचा हो, उसी साल (2009) पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष का पद शिवपाल से लेकर अखिलेश को दे दिया.
अखिलेश पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष के रूप में खूब सक्रिय हुए. उन्होंने अपनी युवा टीम खड़ी की और सपा का रूपांतरण शुरू किया. शिवपाल ने कोई आपत्ति या नाराजगी तब व्यक्त नहीं की लेकिन इसे अखिलेश के साथ उनके रिश्तों में खटास पैदा होने की शुरुआत मान सकते हैं.
अखिलेश लगातार सक्रिय और मजबूत होते गए. अमर सिंह को भी अनेक कारणों से उन्होंने पसंद नहीं किया.शिवपाल के प्रति भी शायद तभी से राय बदलनी शुरू हुई हो.
 2012 के विधान सभा चुनावों में अखिलेश की खूब चली. डी पी यादव को कैसे उन्होंने किनारे किया यह किस्सा खूब प्रचलित है. तभी से उनकी एक अलग और साफ-सुथरी छवि बननी शुरू हुई. यह शिवपाल और मुलायम की छवि से भिन्न थी.
2012 के चुनाव में सपा को विधान सभा में पूर्ण बहुमत मिलने का श्रेय अखिलेश के हिस्से आया और बिल्कुल अचानक ही मुलायम ने उन्हें मुख्यमंत्री बनाना तय किया. शिवपाल ने मुलायम के इस प्रस्ताव का सख्त विरोध किया. मुलायम ने कैसे उन्हें मनाया और साढ़े चार साल कैसे सरकार में खीचतान चली, यह सब ताजा इतिहास है.
चाचा-भतीजे के बचपन से चले आ रहे मीठे रिश्ते एक बार कड़ुवे हुए तो फिर बात बिगड़ती चली गई. (BBC, Dec 31, 2016)




लोहा, कुंदन, उजाला उर्फ किस्सा नए नारों का


चुनाव की तिथियां घोषित होने के बाद राजनैतिक दलों के बैनर-पोस्टर हटा दिए गए हैं. चौराहे और सड़कें साफ और खुली-खुली दिखने लगी हैं. सपा के पारिवारिक सत्ता संग्राम में तो बैनरों-होर्डिंगों की बाढ़-सी आ गई थी, इतनी कि सामने से आने वाला ट्रैफिक भी इनके कारण मुश्किल से दिखता था. राजनीतिक होर्डिंगें डिजायन और प्रस्तुति में आंख की किरकिरी जैसी लगती हैं लेकिन पिछले दिनों कुछ रोचक और रचनात्मक होर्डिंग दिखाई दीं. सपा के झगड़े ने नारे लिखने वालों की रचनात्मकता भी खूब बढ़ाई.
अखिलेश को जब उनके खेमे ने सपा का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया तो कालिदास मार्ग व लोहिया पथ के इर्द-गिर्द कुछ होर्डिंग बोल्ड अक्षरों में ध्यान खींच रहे थे- लोहा तप कुंदन हुआ’. एक तरफ मुलायम और दूसरी तरफ अखिलेश के चेहरे थे. आम तौर पर राजनैतिक होर्डिंग नेताओं के चेहरों और नामों से भरी रहती हैं और उन्हें पढ़ पाना भी दुष्कर होता है लेकिन यह होर्डिंग अपने डिजायन और नारे के कारण खास बन गई. आप कह सकते हो कि लोहा तो तप कर कुंदन नहीं बनता लेकिन यहां सिर्फ भावना देखिए. होर्डिंग लगवाने वाला भक्त बूढ़े नेता जीको यह संदेश दे रहा है कि उसके युवा नेता कुंदनबन गए हैं, अब आप संरक्षक ही ठीक! इस समर्थक के मन में शायद लोहे को प्रतीक बनाने के पीछे मुलायम के लिए बहु-प्रचलित यह नारा रहा हो- मन से हैं मुलायम और इरादे लोहा’, खैर.  
अखिलेश के समर्थन में एक और होर्डिंग कह रही थी- फिर सौंप दो उजाले के हाथ कुर्सी’. पृष्ठभूमि में बिजली के लट्टू लटक रहे थे. अखिलेश को उजाला बताया जा रहा था और साथ ही यह भी कि उनके राज में बिजली की कोई कमी नहीं रही. सच-झूठ का सवाल क्या उठाना, हम तो यह कहना चाह रहे कि नारा नए अंदाज का ध्यान खींचू था. एक और होर्डिंग बहुत बड़े अक्षरों में सिर्फ बधाईकह रही थी. उसमें किसी का फोटो नहीं था लेकिन साफ है कि उस मौके पर बधाई न शिवपाल को दी जा सकती थी, न मुलायम को!
सपा के झग़ड़े के चरम दौर में प्रधानमंत्री की भी चुनावी रैली लखनऊ में हुई. मोदी जी एक नारा उछाल गए- मैं कहता हूँ भ्रष्टाचार मिटाओ, वे कहते हैं मोदी को हटाओ’. पता नहीं उनके जेहन में कहीं साठ-सत्तर के दशक का इंदिरा गांधी का लोकप्रिय नारा था या वे अपनी  रौ में ऐसा कह गए, लेकिन सोशल साइटों पर लोग फौरन सक्रिय हो गए कि जैसे इंदिरा गांधी ने देश से गरीबी हटा दी थी, वैसे ही मोदी जी भ्रष्टाचार खत्म करेंगे. मोदी के आलोचकों ने याद दिलाया कि इंदिरा गांधी ने तब नारा दिया था- मैं कहती हूँ गरीबी मिटाओ, वे कहते हैं इंदिरा हटाओ’. सब जानते हैं कि गरीबी हटाओ का नारा खोखला साबित हुआ था. श्रीमती गांधी के आलोचकों ने तब नारे को बदल कर “गरीब मिटाओकर दिया था. मोदी जी का नारा क्या रूप लेगा, वक्त ही बताएगा.

चुनाव सिर पर हैं तो नारों और जुमलों की भरमार होगी. गीत-संगीत भी सुनाई देंगे.आचार संहिता के कारण होर्डिंग नहीं दिखेंगे लेकिन जनता तक लुभावने नारे पहुंचाने के लिए राजनैतिक दलों के पास उपायों की कमी नहीं.  (NBT, Jan 08, 2017)

बसपा के बैंक खाते की सूचना से निकले बड़े सवाल


हजार और पांच सौ के नोट बंद किए जाने के बाद आम धारणा थी कि सबसे ज्यादा नुकसान मायावती और समाजवादी पार्टी के बड़े नेताओं का हुआ होगा. इस पर चुटकियां भी ली जाती थीं. चंद रोज पहले अचानक प्रवर्तन निदेशालय की ओर से बताया गया कि नोटबन्दी के बाद बहुजन समाज पार्टी के बैंक खाते में 104 करोड़ रु जमा किए गए.मायावती के भाई आनंद कुमार के खाते में इसी बीच एक करोड़ 43 लाख जमा हुए. मीडिया में इसे बड़े खुलासे के तौर पर उछाला गया. अगले ही दिन मुस्कराती-खिलखिलाती मायावती ने इसे बहुजन समाज से पार्टी मिले चंदे की रकम बता कर सारे खुलासे की हवा निकाल दी. इसी के साथ उन्होंने पलट दांव भी चला. भाजपा को चुनौती दी कि वह बताए कि आठ नवम्बर के बाद उसके और उसके बड़े नेताओं के खाते में कितनी रकम जमा की गई?
जो भाजपाई मायावती को घेरना चाह रहे थे वे अब खिसियानी बिल्ली की तरह लग रहे हैं. यह सवाल अब बहुत बड़ा हो गया है कि आखिर भाजपा के खाते में कितने पुराने नोट जमा हुए? इससे भी बड़ा सवाल यह है कि मोदी जी ने राजनीतिक दलों को क्यों छूट दे दी कि वे पुरानी करंसी में चाहे जितनी रकम अपने खातों में जमा करें, उनसे पूछताछ नहीं की जाएगी. वह मोदी जी जो अपनी सभाओं में गरज-गरज कर कह रहे हैं कि उन्होंने काले धन वालों की कमर तोड़ दी है, भ्रष्टाचार पर बड़ी चोट कर दी है, आदि-आदि, वही मोदी जी राजनीतिक दलों को मिलते भारी चंदे को सार्वजनिक क्यों नहीं करना चाहते, जबकि वह काले धन को संरक्षण देने का सबसे बड़ा जरिया है? राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदे को यूपीए सरकार ने सूचना के अधिकार के दायरे से बाहर कर दिया था. अब मोदी सरकार भी उसी नक्शे कदम पर है. काला धन और भ्रष्टाचाचार खत्म करना है तो राजनीतिक दलों को उस प्रक्रिया से क्यों बख्शा जाना चाहिए?
काले धन और भ्रष्टाचार का एक बड़ा स्रोत है सांसद और विधायक निधि. मोदी जी इसे खत्म करने की मांग पर चुप क्यों हैं? बल्कि, खबर यह है कि सांसद निधि की रकम बढ़ाए जाने पर विचार हो रहा है. मोदी जी हमारे पूरे तंत्र से भ्रष्टाचार और काला धन खत्म करना चाहते हैं. बहुत अच्छी बात है. लेकिन जनता देख रही है कि करोड़ों की नई करंसी काला धन रखने वालों के पास सबसे पहले पहुंची जबकि जनता सौ के नोट के लिए भी तरसती रही. आखिर यह सब इसी सिस्टम को चलाने वालों के कारण हुआ. जनता यह भी जानती है कि सांसद और विधायक निधि का किस तरह दुरुपयोग होता है, उसमें कितना भ्रष्टाचार है. लेकिन कोई भी प्रधानमंत्री उसे खत्म करने का साहस नहीं कर सका. अगर मोदी जी अन्य प्रधानमंत्रियों से अलग हैं, जैसा कि वे खूब दावा करते हैं, तो यह काम उन्हें जरूर करना चाहिए.
बसपा के खाते में जमा हुई रकम का आंकड़ा तो लीक कर दिया गया लेकिन भाजपा समेत अन्य दलों के खातों में जमा हुई पुरानी करंसी के बारे में जानने का अधिकार जनता को क्यों नहीं है? (NBT, Jan 01, 2017)

      

सरकारें चुनाव पूर्व इतनी सक्रिय और ‘जन-हितैषी’ क्यों हो जाती हैं?


बहुत कुछ बदल गया लेकिन चुनाव के मौकों पर सत्तारूढ़ पार्टियों का जनता को झुनझुना थमाना बंद नहीं हुआ. एक दिन में 5790 शिलान्यास, 17 अति पिछड़ी जातियों को अनुसूचित जाति का दर्जा देना, रेवड़ी की तरह यश भारती बांटते रहना.... अखिलेश सरकार कोई नई नजीर पेश नहीं कर रही. चुनाव करीब देख सभी सरकारें इसी तरह के लुभाववनेफैसले करती रही हैं. रश्म अदायगी की तरह यह सब कबसे चला आ रहा है.
क्या जनता ऐसे फैसलों से खुश होती है और सत्तारूढ़ पार्टी के पक्ष में इससे जनमत बनता है? या जनता अच्छी तरह जानती है कि यह चुनावी झुनझुने हैं? जनता कई मायनों में क्रमश: समझदार हुई है. उसे पता है कि चुनाव के मौकों पर सरकारें सभी को खुश करना चाहती हैं. इसलिए वह अपनी कई लम्बित मांगों को चुनाव के ऐन पहले जोर-शोर से उठाती है. देखिए कि पिछले कुछ समय से समाज के विभिन्न वर्ग अचानक सड़कों पर उतर आए हैं. धरना स्थल से लेकर विधान भवन तक नारेबाजी, जुलूस और उग्र आंदोलन हो रहे हैं. दिन भर रास्ते जाम रहते हैं. यह सब सरकार तक अपनी आवाज पहुंचाने के तरीके हैं और सबको उम्मीद रहती है कि इस नाजुक समय में उनकी मांग पूरी कर दी जाएंगी. चुनाव पूर्व का यह अवसर स्वर्णिम माना जाता है.
जनता के विभिन्न वर्ग इस मौके की ताक में रहते हैं तो सरकार ढूंढ-ढूंढ कर लोगों को खुश करने की कोशिश में लगी रहती है. ऐसे-ऐसे फैसले कर दिए जाते हैं जो नियम-कानूनों पर खरे नहीं उतरते और जिनके बाद में रद्द हो जाने की पूरी सम्भावना रहती है. 17 अति पिछड़ी जातियों को अनुसूचित जाति का दर्जा देने का फैसला ऐसा ही है. सपा सरकार अपने पहले कार्यकाल में भी यह फैसला कर चुकी थी लेकिन कानूनी अड़चनों के कारण लागू नहीं हो पाया था. फैसला हुआ लेकिन सम्बद्ध वर्ग को उसका कोई लाभ नहीं हुआ. चुनावी फैसलों की नियति ऐसी भी होती है.
सत्तारूढ़ पार्टी के चुनाव हार जाने पर इनमें से कई फैसले या तो रद्द कर दिए जाते हैं या भुला दिए जाते हैं. सत्ता में नई-नई आई दूसरी पार्टी के लिए फैसले बदलना मुश्किल नहीं होता क्योंकि चुनाव बहुत दूर होते हैं और जनता भी जानती है कि नई सरकार पर इन फैसलों को अमल में लाने की जिम्मेदारी नहीं है.
सरकारें अपने पूरे कार्यकाल के काम-काज पर भरोसा क्यों नहीं करती होंगी? अगर ऐसे तमाम फैसले करना जनहित में है तो उन्हें पहले क्यों नहीं किया जाता? क्या सरकारें और राजनीतिक दल मानते हैं कि जनता की याददाश्त बहुत छोटी होती है और पहले लिए गए फैसले उसे याद नहीं रहते? क्या यह माना जाता है कि जनता अपने छोटे-छोटे स्वार्थों के लिए ही राजनीतिक दलों का मुंह ताकती है? क्या वह भरोसा नहीं करती कि सरकारें व्यापक जनहित में ही महत्वपूर्ण फैसले करेंगी? लगता तो ऐसा ही है और यह बहुत अफसोसनाक है. कैसी लोकतांत्रिक त्रासदी है कि एक अदद सड़क या पार्क या वेतन-भत्ते में संशोधन वगैरह, मांग जायज हो या नाजायज, के लिए लोग चुनाव का इंतजार करते हैं. आखिर बाकी समय सरकारों को हम किस काम के लिए छोड़े रखते हैं? (NBT, Dec 25, 2016)