Friday, March 31, 2017

सरकारी अभियान और अति-उत्साही कार्यकर्ता



अपने कार्यकर्ताओं में अतिशय जोश भर कर चुनाव लड़ने वाली पार्टियों को सत्ता में आने के बाद सबसे अधिक हानि वे ही कार्यकर्ता पहुंचाते हैं. 2012 में प्रदेश की सत्ता में आने पर समाजवादी पार्टी के छुटभैये नेता-कार्यकर्ता दबंगई पर उतर आए थे. उन्होंने न केवल पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों के कॉलर पकड़े बल्कि राजमार्गों की चुंगी चौकियों के कर्मचारियों के साथ मार-पीट की. सता के मद में वे भूले रहे कि नियम-कानून और सामान्य शिष्टाचार का पालन उन्हें भी करना ही चाहिए. तत्कालीन मुख्यमंत्री और सपा के बड़े नेताओं ने इस गुण्डई पर रोक लगाने की कोई कोशिश नहीं की.

अब प्रचण्ड बहुमत से प्रदेश की सत्ता में आते ही भाजपा और उसके सहयोगी संगठनों के अतिउत्साही कार्यकर्ता दबंगई पर उतारू हो गए हैं. अपने को गोरक्षा समिति का सदस्य बताने वालों ने लखनऊ में  नगर निगम की उस गाड़ी को रोक लिया जो आवारा घूमने वाले गाय व सांड़ों को पकड़ कर गोशाला ले जा रही थी. उन गोरक्षकों ने ड्राइवर और कर्मचारियों की एक नहीं सुनी, बल्कि गोकशी का आरोप लगाते हुए उनकी पिटाई की. उन्होंने भाग कर अपनी जान बचाई. उसी दिन गोकशी के आरोप से सम्भल में बड़ा बवाल होने की खबर आई. ये अच्छे लक्षण नहीं हैं. प्रदेश की नई सरकार को ऐसे बेलगाम कार्यकर्ताओं पर तत्काल अंकुश लगाना चाहिए.

एण्टी-रोमियो अभियान इसका एक और ज्वलंत उदाहरण है. पार्टी कार्यकर्ता ही नहीं, पुलिस वाले भी जोश में आ गए. भाई-बहन, पति-पत्नी तक थाने पहुंचा दिए गए. महिला कॉलेजों की छुट्टी के समय बाइक सवार दल वहां जय श्री रामके नारे लगाते हुए रक्षक बन कर चक्कर काटने लगे. गनीमत कि खुद मुख्यमंत्री ने पुलिस को नसीहत दी कि युवा जोड़ों को बेवजह न सताया जाए. मामला कुछ शांत हुआ है लेकिन पूरी तरह नहीं.

यह समझा जाना जरूरी है कि ऐसे निरंकुश कार्यकर्ताओं या संवेदनहीन अभियानों से न तो गोरक्षा होगी और न ही महिलाओं के साथ छेड़खानी रुकेगी. पहले बेहतर समझ और चौकस किंतु संवेदनशील तंत्र बनाए जाने की जरूरत है. स्वयंभू सिपाही कानून अपने हाथ में लेने लगे तो अराजकता फैलेगी, विभिन्न तबके आशंकित रहेंगे और सरकार की प्रतिष्ठा गिरेगी. याद कीजिए कि केंद्र में मोदी सरकार के आने के बाद देश भर में गोरक्षा के नाम पर कितने अप्रिय विवाद और हिंसा की घटनाएं हुई थीं. इस बारे में प्रधानमंत्री के मौन ने व्यापक प्रतिरोध को जन्म दिया था. लम्बे समय बाद मोदी जी ऐसे गोरक्षकों को फर्जीऔर धंधेबाज बताने को मजबूर हुए थे. तब कुछ अंकुश लग पाया. प्रदेश सरकार को चाहिए कि वह शुरू से ऐसे सेनानियों से सतर्क रहे एवं संवेदनशीलता का परिचय दे.

हमारा संविधान हर नागरिक को धर्म, पंथ, विचार, खान-पान, पहनावे, आदि की स्वतंत्रता देता है. किसी भी राजनैतिक विचार वाली पार्टी की सरकार हो, वह संविधान की मूल भावना से संचालित होनी चाहिए. इसी कारण सरकार के मुखिया और मंत्रीगण संविधान में सच्ची निष्ठा रखने की शपथ लेते हैं. यह बात पार्टी कार्यकर्ताओं को भी अच्छी तरह समझानी चाहिए कि सरकार किन मूल्यों से बंधी है, कि उनके विपरीत आचरण से सरकार बदनाम होगी. (नभाटा, 01 अप्रैल, 2017) 






Monday, March 27, 2017

सिटी तमाशा/ पुराने स्टिकर खुरचना और नए नाम लिखना


ये बदलाव के दिन हैं. मौसम ही नहीं बदला, सत्ता भी बदली. अब जगह-जगह लिखावट बदल रही है. जैसे पांच, कालिदास मार्ग के फाटक पर अखिलेश यादव की जगह लिखा गया- आदित्यनाथ योगी. इसी तरह पुरानी लिखावटें नई इबारतों में बदल रही हैं. उस दिन देखा कि पुलिस पेट्रोल की एक गाड़ी किनारे खड़ी करके एक सिपाही उस पर लिखा 100और ‘1090’ मिटाने में लगा है. स्टिकर था, धीरे-धीरे खुरचा जा रहा था. पूछा- इसकी जगह अब क्या लगाओगे?’ जवाब में वह मुस्करा दिया और प्रेम से अपने काम में लगा रहा. उसके हाथ बता रहे थे कि वह स्टिकर खुरचने में माहिर हो चुका है.
हम सोचने लगे कि ‘100’ नम्बर तो बहुत पुराना है. पुलिस कण्ट्रोल रूम का नम्बर. किसी भी तरह की पुलिस सहायता के लिए 100 मिलाना होता है. लेकिन 100 के साथ लिखा ‘1090’ अखिलेश सरकार की देन है. तत्काल पुलिस सहायता और महिला सुरक्षा के वास्ते. लोहिया पथ का एक प्रमुख चौराहा उसी के नाम पर पड़ गया. ‘1090’ ने कितने लोगों की मदद की और अपने उद्देश्य में कितनी सफल रही, यह तो पीड़ित जानें लेकिन उसकी सारी व्यवस्था सरकारी यानी जनता के धन से हुई थी. वह असफल रही या कमजोर साबित हुई तो उसकी समीक्षा होनी चाहिए, उसमें सुधार होना चाहिए. सुधार होता है या गाड़ियों में नया स्टिकर लगता है- एण्टी रोमियो उड़नदस्ता’.
सरकार बदलने के साथ योजनाएं भी बदल जाती हैं. हमने पहले भी देखा है. जैसे विधवा पेंशन और वृद्धावस्था पेंशनकई साल से सभी राज्य सरकारें दे रहीं हैं. बसपा उसे शाहूजी विधवा पेंशनकह देती है, सपा उसके नाम में शाहूजी हटाकर समाजवादीजोड़ देती है. भाजपा सरकार कई साल बाद आई है तो एक नया नाम उसमें जुड़ जाएगा. इसी तरह ग्रामीण छात्राओं को सायकल, होशियार बच्चों को लैपटॉप, छात्रवृत्ति, वगैरह कोई सरकार बंद नहीं करती. थोड़ा रद्दोबदल के साथ, जिसमें नाम का बदलाव मुख्य होता है, योजना जारी रहती है. नई सरकार के ये शुरुआती दिन नाम बदलने, स्टिकर खुरचने, फाइल कवर और सीट कवर बदलने, आदि-आदि के दिन होते हैं. देखें, सपा सरकार की श्रवण यात्राका नया नाम क्या रखा जाता है. वैसे श्रवण नाम भाजपा को भाना चाहिए था लेकिन उसमें सपा की छूत है.  
अफसरान यह सारे काम बड़ी चुस्ती-फुर्ती से करते हैं. इसका उन्हें बहुत अच्छा अनुभव है. वे पहले ही भांप लेते हैं कि नए निजाम को क्या पसंद है. एक चीज जो सख्त नापसंद की जाती है, वह है पुरानी सरकार की गंध और उसकी योजनाओं के नाम. आपने देखा ही होगा कि मुख्य सचिव राहुल भटनागर ने नया मुख्यमंत्री तय होने से पहले ही आदेश जारी कर दिया था कि सभी सरकारी कर्मचारी-अधिकारी समय से दफ्तर आना शुरू कर दें क्योंकि सरकार बदल गई है. पुरानी सरकार में समय से आने का निर्देश जारी नहीं हुआ था, इसलिए. वे लम्बे अनुभव से जानते हैं कि बदलाव होना ही नहीं, दिखना भी चाहिए. इसलिए फटाफट नेम प्लेट,आदि बदल जाते हैं, रंगाई-पुताई हो जाती है. नई कुर्सियां, नई कारें, नए एसी खरीदे जाते हैं. नई सरकार इस खर्च पर सवाल नहीं उठाती. बिल पर फौरन चिड़िया बैठा देती है.
ये सारे बदलाव हो जाने के बाद ही नई सरकार सेटल हो पाती है. (नभाटा, 25 मार्च, 2017) 




Saturday, March 18, 2017

प्रचण्ड बहुमत के साथ आई भारी भरकम चुनौतियां


उत्तर प्रदेश में डेढ़ दशक के बाद बन रही भारतीय जनता पार्टी की सरकार के लिए सबसे बड़ी चुनौती राज्य की जनता को उस बदलाव का असल अहसास कराना है जिसका जिक्र प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और दूसरे नेता अपने आक्रामक चुनाव अभियान में मुख्य मुद्दा बनाए हुए थे. यू पी को बदलना है’, ‘भेदभाव मिटाना है’, भ्रष्टाचार खत्म करना है’, ‘बहनों-बेटियों को सुरक्षा का माहौल देना है’, ‘ग़ुंडा राज खत्म करना हैजैसे वादे चुनाव प्रचार में बड़े जोर-शोर से किए गए. संवाद शैली वाले भाषणों में मोदी जी फिर सभा से पूछते थे- बोलो, करना है कि नहीं करना है?’ भीड़ समवेत स्वर में जवाब देती थी- करना है’.
तो, अब यह सब करके दिखना ही बड़ी जिम्मेदारी है और प्रदेश के माहौल को देखते हुए बड़ी चुनौती भी. साफ-सुथरी छवि की सरकार का चयन इसकी पहली सीढ़ी होनी चाहिए. सपा-बसपा की पूर्व सरकारों के अपराधी चेहरों पर भाजपा ने खूब अंगुली उठाई है. मुलायम के चहेते मंत्री गायत्री प्रजापति के किस्से चुनाव में खूब उछाले गए. जिस तरह जातीय समीकरणों के आधार पर जिताऊ उम्मीदवारों का चयन किया गया, उसे देखते हुए सरकार गठन में अच्छी छवि के मंत्री चुनना और जातीय संतुलन बनाना कठिन काम होगा. पिछले पंद्रह साल में भ्रष्टाचार के सभी मामलों की जांच कराना कम टेढ़ी खीर नहीं होगा.
अखिलेश सरकार में कानून व्यवस्था सबसे ज्यादा छाया रहा. पुलिस में एक जाति विशेष के लोगों की प्रमुख तैनाती और राजनैतिक हस्तक्षेप बढ़ते अपराधों और अपराधियों को कानून के हवाले करने में बड़ी बाधा थे. पुलिस को इस व्याधि से मुक्त करना आसान काम नहीं है. क्या भाजपा सरकार सख्त पुलिस अफसरों को आगे कर उन्हें आजादी से काम करने की छूट दे पाएगी, यह बड़ा सवाल है. कुछेक मामलों को छोड़कर मायावती के शासन में पुलिस पर दवाब लगभग नहीं होते थे. बेहतर कानून व्यवस्था के लिए यह अनिवार्य शर्त है. सभी भगोड़े अपराध्यों को 45 दिन के अंदर जेल भिजवाने का उसका वादा भी कम चुनौती पूर्ण नहीं. यही बात भूमाफिया से अवैध कब्जे वाली जमीनों को मुक्त कराने के वादे के लिए भी कही जा सकती है.
आर्थिक मोर्चे पर बड़ी चुनौतियां मुंह बाए खड़ी हैं. किसानों का फसली ऋण माफ करना और लघु एवं सीमांत किसानों को व्याज मुक्त फसली ऋण देना भाजपा का प्रमुख वादा रहा. इस पर वह तुरंत अमल करना चाहेगी. अखिलेश सरकार ने एक्सप्रेस-वे, मेट्रो, आई टी सिटी जैसी कई बड़ी परियोजनाओं के लिए बहुत बड़ा बजट तय किया है. लुभावने चुनावी कार्यक्रमों के कारण खजाने पर पहले ही भारी दवाब हैं. ऋण माफी और आर्थिक दवाब बढ़ाएगी. बड़े बजट वाली पूर्व सरकार की महत्वाकांक्षी एवं लोकप्रिय परियोजनाओं का बजट रोकना नई सरकार की बदनामी का कारण क्षीबनेगा, जो वह नहीं चाहेगी. विद्यार्थियों को मुफ्त लैपटॉप देने जैसे लुभावने वादे खजाने पर और भी अनुत्पादक बोझ बढ़ाएंगे. राज्य के पास ज्यादा संसाधन हैं नहीं. जनता पर नए टैक्स वह लादना नहीं चाहेगी. प्रदेश में बिजली सप्लाई बढ़ाने के लिए जरूरी निवेश भी उसे जुटाना है.
उत्तर प्रदेश में अल्प्संख्यक कल्याण, हज और वक्फ मामलों का बड़ा विभाग है. कई धड़ों में बंटी बड़ी मुस्लिम आबादी के परस्पर विरोधी हित इससे जुड़े हैं. भाजपा के पास एक भी मुसलमान विधायक नहीं. किसी को टिकट ही नहीं दिया था. इन मामलों को सूझ-बूझ से निपटाना और असंतोष पैदा न होने देना इस सरकार के लिए मुश्किल भरा काम होगा. सपा-बसपा सरकारों में तुष्टीकरण के आरोप लगाने वाली भाजपा के लिए सबका साथ, सबका विकासजाहिर है कि आसान नहीं  होने वाला. यांत्रिक बूचड़खानों को बंद करने की उसकी घोषणा पर अमल भी आक्रोश पैदा करने वाला होगा.
महिला सुरक्षा महत्वपूर्ण मुद्दा है लेकिन इसके नाम पर हर कॉलेज के आसपास गठित होने वाले एण्टी रोमियो दलोंके मॉरल पुलिसिंगजैसा साबित हो जाने के खतरे हैं, जिससे अप्रिय विवाद जन्म लेंगे. भाजपा सरकार को विहिप, बजरंग दल, गोसेवक समितियों जैसे अपने सहयोगी संगठनों के अति उत्साही कार्यकर्ताओं को नियंत्रण में रखना होगा. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और आचार-विचार की आजादी जैसे विवाद उठे तो महौल खराब होगा.
भाजपा को प्रचण्ड बहुमत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की छवि से मिला है. प्रदेश सरकार को अपने काम और आचरण से उनकी छवि को कम से कम 2019 तक बनाए रखना भी एक चुनौती होगा.

(आदित्य नाथ योगी के मुख्यमंत्री चुने जाने से पहले लिखी गई टिप्पणी)

विपक्षहीनता और प्रचण्ड विजय के खतरे



नवीन जोशी
जैसे भी हा-हाकारी या आह्लादकारी चुनाव नतीजे आए हैं उनका सम्मान किया जाना चाहिए. लोकतंत्र नाम की जो व्यवस्था हमारे यहां है उसका भी तकाजा यही है. जो जीते वे तो मगन हैं ही, जो हारे वे भी पिटे मुंह पर मुस्कान लाने की कोशिश करते हुए कह रहे हैं कि हम जनादेश का सम्मान करते हैं. सिर्फ मायावती और केजरीवाल को इसमें ईवीएम मशीनों के साथ छेड़खानी की साजिश नजर आई है, जिसमें अखिलेश यादव और हरीश रावत ने भी अपना मद्धिम सुर लगाया है.
उत्तराखण्ड और उत्तर प्रदेश में भाजपा की जीत विस्मयकारी एवं स्तब्धकारी है. धारा के विपरीत पंजाब में कांग्रेस की वापसी हुई है तो वैकल्पिक राजनीति के रूप में उभरी आपके लिए सबक निकले हैं कि बाकी दलों की राह अपनाने में उसका भविष्य नहीं है. नरेंद्र मोदी का जादू जनता के सिर चढ़कर बोल रहा है. वे कुशल मदारी या बाबाओं की तरह हमारे अधकचरे लोकतंत्र के लोक को सम्मोहित करने में खूब कामयाब हुए हैं. इस सम्मोहन की पोल खोलने या उन्हें चुनौती देने की स्थिति में फिलहाल कोई नेता नहीं है. मणिपुर और गोवा में कांग्रेस के बड़ी पार्टी बनने के बावजूद सत्ता पर भाजपाई कब्जा कतई शुभ संकेत नहीं.
उत्तराखण्ड : हरीश रावत की सरकार ने ऐसा कुछ भी नहीं किया था कि मोदी का मायाजाल जरा भी कम हो पाता. रावत जी की उत्तराखण्ड के जन आंदोलनों में भागीदारी रही है और राजनीति की सीढ़ियां उन्होंने पहले पायदान से चढ़ी हैं. वे इस राज्य की मूल समस्याओं और जनता की आकांक्षाओं से भली-भांति परिचित हैं. वे चाहते तो मुख्यमंत्री बनने के बाद इस दिशा में कुछ शुरुआत कर सकते थे. यह संदेश जनता तक पहुंचा सकते थे कि राजनीति के दांव-पेंचों के बावजूद उनका इरादा नेक है. लेकिन उन्होंने उलटे-उलटे काम किए. अपने परिवार को निजी लाभ पहुंचाने से लेकर जालसाजी से ग्रामीणों की जमीन बड़ी कम्पनियों को सौंपने तक. गैरसैण में विधान सभा की बैठकें करने के नाटक उन्हें जनहितैषी साबित करने वाले नहीं थे.
सरकार की गलत नीतियों का विरोध करने वाले आन्दोलनकारियों और ग्रामीणों के दमन ने मुख्यमंत्री के रूप में हरीश रावत का जन विरोधी चेहरा उजागर किया. उनकी सरकार को पार्टी के असंतुष्टों और भाजपा  द्वारा अस्थिर करने की साजिशें सत्ता की राजनीति का घिनौना रूप हैं लेकिन सिर्फ इसीलिए काम नहीं करने देने के उनके बहाने चलने वाले नहीं थे. इसलिए उत्तराखण्ड में कांग्रेस की हार पहले से ही दीवार पर लिखी इबारत जैसी थी. मोदी के जादू ने उसे और शर्मनाक बना दिया. हरीश रावत की दोनों सीटों से पराजय साबित करती है कि मुख्यमंत्री के रूप में खुद उनकी छवि कितनी खराब थी.
राज्य की जनता एक बार फिर भाजपा का शासन देखेगी. कोई भी मुख्यमंत्री बने, शासन के तौर तरीके, नौकरशाही की तिकड़में और माफिया वर्चस्व का स्थाई भाव राज्य के हालात में कोई जमीनी बदलाव शायद ही ला पाए. परिवर्तन के जोशीले नारों के बावजूद प्रधानमंत्री मोदी भी चार धाम यात्रा के लिए ऑल वेदर रोडजैसे हवाई सपने ही दिखा पाते हैं. जल-जंगल-जमीन की कुव्यवस्था, प्राकृतिक संसाधनों का असंगत दोहन, उजड़ते-निर्जन होते गांवों, शिक्षा और चिकित्सा सेवाओं की दुर्दशा, बेरोजगारी जैसे बड़े मुद्दों पर भाजपा या मोदी जी के पास भी कोई कोई स्पष्ट जनमुखी नीति नहीं है.
पिछले सोलह सालों में भाजपा और कांग्रेस की सरकारों ने उत्तराखण्ड की जनता और उसके संसाधनों के साथ जो किया है उससे बाहर निकलने का उपाय वैकल्पिक राजनीति में ही दिखता है. राजनैतिक विकल्पहीनता के लिए आंदोलनकारी और परिवर्तनकामी शक्तियां कम जिम्मेदार नहीं हैं. वे एक विश्वसनीय, जिम्मेदार, राज्यव्यापी सम्मिलित प्रतिपक्ष खड़ा नहीं कर सकीं. उनके अलग-अलग, फुटकर संघर्ष और चुनावी महत्वाकांक्षाएं अधिकतम हजार-बारह सौ वोट जुटा पाते हैं. राज्य की जनता के पास बारी-बारी कांग्रेस और भाजपा को चुनने के अलावा और कोई विकल्प नहीं रह जाता.
क्या उत्तराखण्ड के विभिन्न कोनों में बदलाव के लिए सक्रिय व्यक्ति, संगठन, नए-पुराने आंदोलनकारी और बेचैन युवा अगले पांच साल में एक राजनैतिक विकल्प तैयार करने की शुरुआत अभी से करेंगे?
उत्तर प्रदेश का किस्सा उत्तराखण्ड से इस मायने में थोड़ा भिन्न है कि यहां राष्ट्रीय दलों के अलावा दो क्षेत्रीय विकल्प मौजूद हैं. जातीय-धार्मिक गोलबंदियों के आधार पर बनीं समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने पिछले सत्रह साल से भाजपा को और सत्ताईस साल कांग्रेस को सत्ता से बाहर कर रखा था.
मण्डल-बाद की राजनीति में सपा और बसपा का उदय हुआ. सपा ने समाजवाद के नाम पर कतिपय पिछड़ी जातियों को राजनैतिक-सामाजिक ताकत दी तो बाबरी मस्जिद ध्वंस के बाद मुसलमानों के संरक्षण के बहाने ताकतवर राजनैतिक विकल्प बनाया. बसपा ने दलित और अतिशय पिछड़ी जातियों के राजनैतिक सशक्तीकरण का जरूरी काम किया. लेकिन इन जातीय गोलबंदियों ही में घिरे रहना, इन्हें वोट-बैंक की तरह इस्तेमाल करना और वास्तविक विकास की उपेक्षा करना इन दोनों दलों की कमजोरी भी बना. इसी कमजोरी को मोदी और अमित शाह के नेतृत्व में भाजपा ने बड़ी चालाकी से अपनी ताकत में बदला.
मुसलमानों को किसी भी कीमत में खुश रख कर उनके वोट हथियाने की कोशिशों एवं तथाकथित मुस्लिम नेताओं की सौदेबाजी से उपजे तुष्टीकरण-असंतोषको भाजपा ने अपने हिंदू और राष्ट्रवादी एजेण्डे से खूब हवा दी. पिछड़ी जातियों के नाम पर अधिकतम लाभ चंद यादव परिवारों तक सीमित कर देने से जन्मे अन्य पिछड़ी जातियों की नाराजगी को भी उसने खूब भुनाया. उधर, दलित सशक्तीकरण की राजनीति से आगे विकास की मुख्य धारा में आने की उम्मीद पाल रही दलितों की नई पीढ़ी मायावती की राजनैतिक गुलाम बनी रहने को तैयार न थी. इन सब जातियों की चतुर व्यूह रचना भाजपा ने तैयार की, जिसमें बिहार में हुई भूलें सुधार दी गईं.
जब अमित शाह इस सोशल इंजीनियरिंग को परवान चढ़ा रहे थे तभी नरेंद्र मोदी काले धन और भ्रष्टाचार के खिलाफ निर्णायक युद्ध का ऐलान कर रहे थे. कभी चाय बेचने वालेऔर अपने को पिछड़ीजाति के गरीब परिवार का बेटा बताने वाले इस प्रधानमंत्री का भ्रष्ट अमीरों के खिलाग जंग का ऐलान इंदिरा गांधी के गरीबी हटाओनारे की तरह गरीब-गुरबों पर जादू-सा असर कर रहा था. जो नोटबन्दी गरीबों के लिए कष्टकारी और बेरोजगारी लाने वाली बनी, आम जनता उसे नरेंद्र मोदी के जादू में काले धन के खिलाफ युद्ध में आवश्यक आहुति मान रही थी. ऊपर से उनका आक्रामक चुनाव प्रचार और नाटकीय भाषण एक सम्मोहन रच रहे थे. मीडिया अपनी जिम्मेदारी भूल कर मोदी के फुलाए गुब्बारे में अपनी भी हवा भर रहा था. विपक्ष में ऐसा कोई प्रभावशाली, विश्वसनीय नेता नहीं था जो इस गुब्बारे की हवा निकाल सके. पिटे हुए नेताओं की मोदी की निंदा-आलोचना ने उनकी लोकप्रियता ही बढ़ाई. 
इन सब ने मिलाकर ऐसा चमत्कारी प्रभाव पैदा किया, जिसका अंदाजा किसी को नहीं था, शायद खुद मोदी और भाजपा को भी नहीं. उत्तर प्रदेश की 403 में 325 और उत्तराखण्ड की 70 में 56 सीटें जीत कर आज मोदी देश के अजेय और आजादी के बाद के सबसे बड़े नेतामाने जा रहे हैं. वास्तव में भाजपा की यह जीत जितनी सत्तारूढ़ पार्टियों और उनके मुख्यमंत्रियों की विफलता का नतीजा है उतनी ही मोदी के मायाजाल और भाजपा के उग्र राष्ट्रवाद की.
इस जीत के खतरे: नरेंद्र मोदी का उदय ऐसे समय में हुआ जब देश के राजनैतिक मंच पर नेताओं का अकाल हो गया है. नेहरू-गांधी परिवार पर आश्रित कांग्रेस सोनिया गांधी की सीमित आभा और अपरिपक्व राहुल की नादानियों (या बेवकूफियों) से सिमट रही है. यूपीए के दस साला शासन के भ्रष्टाचार और योग्य किंतु निष्क्रिय एवं मौन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के कारण राजनैतिक निर्वात पैदा हो गया था. वामपंथी पार्टियां अपने ही अंतर्विरोधों से चुक गईं और क्षेत्रीय दलों के अहंवादी, बूढ़े क्षत्रप 1997, 1989 और 1996 की तरह संयुक्त विकल्प बनाने की स्थिति में नहीं रहे.
ऐसे में आर एस एस पोषित नरेंद्र मोदी का बरास्ता गुजरात राष्ट्रीय अवतार हुआ. उनकी डिजिटल-पीआर टीम ने राजनीति का जो मोदी मॉडल तैयार किया उसने देश के राजनैतिक निर्वात को तेजी से भरना शुरू किया. सत्तर साल की नाकामयाबियोंएवं परिवारवाद और भ्रष्टाचारको जड़ से मिटाने तथा देश को बदल डालनेके नारे के साथ कट्टर हिंदू राष्ट्रवादी एजेण्डे ने विंध्य पर्वत माला के पार दक्षिण और सुदूर उत्तर-पूर्व भारत तक भाजपा का झण्डा पहुंचा दिया. दिल्ली और बिहार विधान सभाओं ने इस अभियान पर तनिक विराम लगाया था. अब उत्तराखण्ड और उत्तर प्रदेश में उसने और भी आक्रामकता के साथ ब्राण्ड मोदी को स्थापित कर दिया है.
आज देश में विपक्षहीनता की स्थिति बन रही है. कांग्रेस का सिकुड़ना और क्षेत्रीय दलों का हाशिए पर जाना कतई अच्छा नहीं. भाजपा में भी मोदी ने अपने आस-पार किसी नेता को उभरने नहीं दिया है. 2014 से लेकर 2017 तक उनकी निजी जीत के रूप में पेश किए जा रहे हैं. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, संस्थानों की स्वायत्तता, बहुलतावाद और समाज के इंद्रधनुषी ताने-बाने पर इतना खतरा पहले कभी नहीं था. तर्कवादियों की हत्या से लेकर गोहत्या-निषेध के नाम पर देश भर में पिछले साल जो हुआ वह प्रवृत्ति क्या अब और नहीं बढ़ेगी? एक बड़ी असहमत आबादी भय में रहेगी. लोक सभा में भारी बहुमत वाली मोदी सरकार को अगले साल तक राज्य सभा में भी बहुमत हासिल हो जाएगा. तब सरकार की मनमानियां भी रोकी नहीं जा सकेंगी.
यह स्थिति लोकतंत्र के लिए अच्छी नहीं . मोदी के भाषणों के मैंऔर मेरी सरकारसे वैसे भी निरंकुशता की गंध आती है. 1971 में इंदिरा गांधी ने ऐसी ही ताकत पाई थी जो प्रतिरोध और चुनौती मिलने पर 1975 में तानाशाह और हिंस्र हो उठी थीं. विखरे विपक्ष को और ब्राण्ड-मोदी की अजेयता से खुश होने वालों को भी इस खतरे पर जरूर ध्यान देना चाहिए. आखिर नरेंद्र मोदी के पराक्रम का गुब्बारा फूटेगा ही. तब उनकी प्रतिक्रिया कैसी होगी?  


  



सूखी डालों पर सत्ता का वसंत तलाशने के दिन

सिटी तमाशा

नवीन जोशी
चुनाव नतीजे की दूसरी सुबह एक परिचित का फोन आया- भाई साहब, कौन मुख्यमंत्री बन रहा है?’ हमने कहा- पता नहीं’. वे बोले- कोई नया नेता सी एम बन गया तो थोड़ी मुश्किल होगी. आप तो जानते हैं.तब हमें ध्यान आया कि वे कई तरह के धंधे करते हैं. सत्ता की मदद की उन्हें हमेशा चाहिए.
कई तरह के लोग हैं जो जानना चाहते हैं कि कौन मुख्यमंत्री बनेगा, कौन-कौन मंत्री होगा, किसे कौन सा विभाग मिलेगा, वगैरह-वगैरह. सता के गलियारों में घूमने वाले, नाजायज को जायज करने वाले, सम्पर्क बनाने और उसे भुनाने वाले, कितनी ही तरह के लोग यही जानने में अपनी ऊर्जा खर्च कर रहे हैं, वे इन दिनों बहुत व्यस्त हैं. ठेकेदार, सरकार को सामान की सप्लाई करने वाले, कॉर्पोरेट जगत के उच्चाधिकारी, आदि-आदि अति सक्रिय हैं. पहले से सूंघ-सांघ कर गोटियां बिछा लेनी हैं. कहीं दूसरा बाजी न मार ले.
आईएएस अफसरों का एक खेमा सपा सरकार जाने से उदास है तो दूसरा खेमा नई सरकार से उम्मीदें बांधे है. कुछ अधिकारी है जो निवर्तमान सी एम के करीबी थे या नेता जी के खास थे, वे मान कर चल रहे हैं कि उन्हें तो सूखीपोस्टिंग ही मिलनी है. उनके अच्छे दिन गए. इनमें चंद ऐसे हैं जो सरकार बदलने के साथ निष्ठा बदलने में माहिर हैं. कोई भी पार्टी सत्ता में आए, कोई सी एम हो, वे सत्ता-शीर्ष के नजदीक बने रहने का जादू जानते हैं. वे अफसर जो सपा सरकार में उपेक्षित थे, सूखे पदों पर दिन काट रहे थे, उनके यहां वसंत आया है. इनमें भी कुछ नए मुख्यमंत्री की आहट ले रहे हैं, क्योंकि तरल पदों के भी कई स्तर होते हैं. वर्षों बाद दिन फिरे हैं तो कोई कसर क्यों रह जाए.
सचिवालय में एक बड़ा वर्ग है, अनु सचिवों, उप सचिवों, समीक्षा अधिकारियों, आदि का जो 11 मार्च की शाम से ही सम्भावित मंत्रियों के इर्द-गिर्द घूम रहे हैं. कुछ पुराने रिश्तों की याद दिला रहे हैं तो कोई किसी खास वक्त की नजदीकी. इन सबको नए मंत्रियों के साथ अटैचहोने की लालसा है. मंत्रियों के साथ किसी भी रूप में जुड़ने के बड़े मजे हैं. कोई ओएसडी बनना चाहता है. इसके लिए सचिवालय या किसी सरकारी विभाग में होना भी जरूरी नहीं. बस, मंत्री जी से अच्छे सम्पर्क होने चाहिए और मंत्री को आपकी क्षमताका पता होना चाहिए. सभी मंत्रियों को अपना भरोसेमंद स्टाफ और ओएसडी चाहिए. वे किसी को भी तैनात कर सकते हैं. सी एम सचिवालय में तैनाती मिल गई तो क्या बात! उसके लिए ऐसे प्रमुख सचिव का विश्वासपात्र होना जरूरी है जो सी एम का पसंदीदा हो. इसके लिए जानना जरूरी है कि सी एम कौन बन रहा है.
और तो और, सरकारी गाड़ियों के ड्राइवर और पुलिस महकमे के अंगरक्षक तक जुगाड़ में लगे हैं. मंत्री के साथ चलने का रुतबा तो है ही, सत्ता की हनक उनके हिस्से भी आ जाती है.

कुछ नेता मुख्यमंत्री की कतार में हैं, कुछ विधायक मंत्री बनने की जोड़-तोड़ में और बहुत सारे लोग नई सरकार से भांति-भांति के लाभ लेने की जुगत बैठाने में लगे हैं. आम वोटर ही है जो मतदान करने के बाद से बिल्कुल बेचारा हो गया है और टुकुर-टुकुर तमाशा देख रहा है. (नभाटा, 18 मार्च, 2017)

Monday, March 06, 2017

नतीजों के इंतजार तक कयास, दावे और भ्रम

प्रदेश की चुनावी तस्वीर अंतत: क्या होगी, इस बारे में बहुए से कयास चल रहे हैं. कहा जा रहा है कि मतदान के हर चरण के बाद बदल रही है. मतदान का सिर्फ एक चरण बाकी है. विकास के दावों और वादों से शुरू हुआ प्रचार हर चरण के बाद और तीखा होकर निजी आरोपों-प्रत्यारोपों बदलता गया. जातीय जोड़-तोड़ तथा धार्मिक ध्रुवीकरण तो हर चुनाव में हर दल की रणनीति का हिस्सा होते हैं. इस बार बेमतलब और बेहूदी जुमलेबाजी में शीर्ष नेता भी खूब शामिल रहे. क्या ऐसा इसलिए है कि चुनावी तस्वीर किसी एक के स्पष्ट पक्ष में नहीं दिख रही है और नेता विचलित हैं?
अधिकारी पत्रकारों से पूछ रहे हैं कि किसे जिता रहे हो. पत्रकार इंटेलीजेंस के अधिकारियों से उनका आकलन पता करने में लगे हैं. मीडिया की निजी निष्ठाएं उनके कवरेज में झलक रही हैं. सोशल साइटों पर भांति-भांति के आकलन दिखाई दे रहे हैं. वहां एक अलग संग्राम छिड़ा हुआ है. भाजपा, सपा-कांग्रेस औए बसपा के समर्थक एक दूसरे के खिलाफ शब्दों के जहरीले तीर छोड़ रहे हैं. प्रकट रूप में किसी पार्टी के पक्ष में लहर नहीं दिखती लेकिन कुछ विश्लेषक भाजपा और कुछ बसपा की लहर भी देख रहे हैं.
सपा का झगड़ा जब चरम पर था तब लगता था कि यूपी की सत्ता के लिए मुख्य लड़ाई भाजपा और बसपा के बीच होगी. सन 1992 के बाबरी मस्जिद ध्वंस के बाद से सपा के साथ मजबूती से जुड़े रहे मुसलमान मतदाता असमंजस में बताए जा रहे थे. कहा जा रहा था कि उनका झुकाव मायावती की ओर है. मायावती की रणनीति भी दलित-मुस्लिम समीकरण के सहारे चुनाव जीतने की थी. भाजपा भी बसपा को मुख्य प्रतिद्वंद्वी मान कर मायावती को दलित विरोधी साबित करने में लगी थी.    
सपा की लड़ाई का फैसला अखिलेश यादव के पक्ष में होते ही यह दृश्य बदलने लगा. लगभग पूरी सपा पर अखिलेश का कब्जा होने, सायकिल चुनाव चिह्न उन्हें मिलने तथा कांग्रेस से अंतिम क्षणों में तालमेल होने से मुसलमानों का असमंजस खत्म होने के संकेत देखे जाने लगे. युवा मुख्यमंत्री अखिलेश की साफ-सुथरी छवि, अपराधी छवि के नेताओं से दूरी बनाने और कतिपय उल्लेखनीय उपलब्धियों के आधार पर कहा जाने लगा कि वे दौड़ में आगे रहेंगे.
भाजपा 2014 के लोक सभा नतीजों की बदौलत और प्रधानमंत्री मोदी की छवि के सहारे स्वाभाविक रूप से सत्ता की दावेदार है. तर्क यह कि अमित शाह की टीम ने जातीय कार्ड बहुत खूबी से चले हैं. मुसलमान मतदाताओं में सपा या बसपा का असमंजस पैदा करने में भी उनकी भूमिका है. इस आधार पर बताया जा रहा है कि भाजपा सरकार बना लेगी.
कोई पश्चिम यूपी का मतदान भाजपा के खिलाफ होने के दावे कर रहा है तो कोई बुंदेलखण्ड में भाजपा की पताका फहरा रहा है. किसी रिपोर्ट में बताया जा रहा है कि अखिलेश यादव की बेहतर छवि और उनकी चर्चित उपल्ब्धियों से उन्हें तारीफ तो खूब मिल रही है लेकिन वोट उस अनुपात में नहीं. सपा-कांग्रेस का गठबंधन सम्भवत: खास फायदे का सौदा नहीं हुआ, वगैरह.
विभिन्न न्यूज चैनलों को देखते और अखबारों-पोर्टलों के विश्लेषण पढ़ कर भ्रम ही होता है. आठ मार्च को मतदान के बाद एक्जिट पोल के नतीजे भी जाहिर है अलग-अलग तस्वीर पेश करेंगे. सभी को बेसब्री से नतीजों का इंतजार है. गायत्री प्रजापति को भी, जो फिलहाल पुलिस सुरक्षा में अंतर्धान हैं!  (नभाटा, 5 मार्च, 2017)