Saturday, April 29, 2017

भरोसे और ईमान की उलट-पुलट दुनिया!


पेट्रोल पम्पों पर पड़े छापे में घटतौली के अत्याधुनिक तरीके की खबर पढ़ कर हम बहुत देर तक अखबार थामे सन्न रह गये. कहां-कहां और कैसे-कैसे होने लगी है चोरी. हमारी प्रतिभाएं क्या इसी में लगी हैं कि कैसे ठगी की जाए, कैसे चोरी की जाए, कैसे मिलावट की जाए ? कमाने का वाजिब तरीका बचा नहीं या लिप्सा इतनी ज्यादा बढ़ गयी है कि हर धंधे में मुनाफे के वास्ते चोर रास्तों की तलाश पहले होती है? किस पर और कैसे भरोसा करें?

नोटबंदी के दिनों की बात है. पेट्रोल भराने के लिए पम्प पर जैसे ही गाड़ी रोकी, एक  युवक लपक कर हाथ मिलाने आ गया. अपना आई-कार्ड दिखाते हुए उसने कहा था- सर, मैं फौजी हूँ. आप मेरे क्रेडिट कार्ड से तेल भरवा लीजिए और अपना पांच सौ रु कैश मुझे दे दीजिए.मेरे हाथ में नोट देख कर उसने कहा- मुझे कैश की बहुत जरूरत है और मिल नहीं रहा. सभी से यह निवेदन कर रहा हूँ.’  हमने कुछ देर सोचा फिर माफी मांग ली- सॉरी, समय बहुत खराब है. मैं नहीं कर पाऊंगा.’ ‘कोई बात नहीं, सरकह कर वह दूसरे ग्राहक के पास चला गया. बाद में बहुत अफसोस हुआ. उस फौजी पर भी हमने संदेह किया. वह आई-कार्ड दिखा रहा था. पेट्रोल पम्प वालों से उसने सहमति ली होगी. संकट में इस तरह नकदी जुटा रहा होगा. शक करने के लिए हमने खुद को धिक्कारा.

फिर सोचा, क्या करें. हर तरफ धोखाधड़ी है. वह फौजी था भी? सही और जरूरत मंद आदमी पर भी ठग होने का संदेह होता है. कई बार फोन आते हैं कि हम अमुक संस्था से बोल रहे हैं. एक बच्चे को कैंसर के इलाज के लिए आपकी मदद चाहिए. संस्था वाले पूरा परिचय देते हैं. मामला गलत नहीं लगता. कुछ लोग मेल और फोन पर बताते हैं कि महज पांच सौ रु महीने में आप एक अनाथ बच्चे की परवरिश कर सकते हैं. बैंक खाते समेत सारा विवरण देते हैं. मदद करने का मन करता है लेकिन फिर शक होने लगता है. यह कैसा वक्त है कि जरूरतमंद की मदद करना चाह कर भी नहीं कर पाते. कभी मदद कर दी तो बहुत दिनों तक संदेह होता रहता है कि सही जगह मदद पहुंची भी होगी!

पेट्रोल पम्प पर हमसे कहा जाता है- ‘सर, जीरो देख लीजिए.हम मीटर पर अंत तक आंखें गड़ाए रहते हैं. दूसरों को भी ऐसी हिदायत देते हैं. अब पता चला कि मीटर सही है मगर उसकी तौल में इलेक्ट्रॉनिक चिप लगी है जो हमारी सतर्कता के कान काटती आयी है. कितने आराम से हम ठगे जा रहे हैं! बेवकूफ साबित हुए हम!

तीसरे-चौथे महीने रद्दी वाले को पुराने अखबार बेचते हुए हम उसकी लानत-मलामत करते हैं. उसके तराजू और बांट जांचते हैं. फिर भी उसे ठग और चोर बताते हैं. वह पेट की दुहाई देते हुए सब सुनता रहता है.  रिक्शे वाले को हम कितनी आसानी से कह देते हैं – लूट मचा रखी है, जरा-सी दूरी के दस रु मांग रहे हो?’ गरीब रद्दी वाले, रिक्शे वाले क्या ठगते-लूटते होंगे! लूट तो वे रहे हैं जिन्हें हम सलाम करते हैं, जिन पर शंका भी नहीं हो पाती.  
(नभाटा, 29 अप्रैल, 2017) 



Sunday, April 23, 2017

सपा के ‘भ्रष्टाचार’ से योगी सरकार की छवि चमकाने का प्रयोग


उत्तर प्रदेश के आला अफसर जिन परियोजनाओं को तत्कालीन मुख्यमंत्री अखिलेश यादव का ड्रीम प्रॉजेक्ट कहते थे, चुनाव से पहले जिन्हें पूरा हुआ दिखाने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाया गया, वही परियोजनाएं अब उन अफसरों के लिए फंदा बन रही हैं. अपने जिन विकास कार्यों को अनोखी उपलब्धियां प्रचारित करके अखिलेश यादव उत्तर प्रदेश की सत्ता में दोबारा आने की उम्मीद बांधे थे, उन्हें आज योगी सरकार के मंत्री भ्रष्टाचार के कीर्तिमान साबित करने में पसीना बहा रहे हैं.
यूरोप के शहरों को नजीर बना कर राजधानी लखनऊ के विभिन्न इलाकों में अखिलेश सरकार ने जो सायकिल पथ बनाये थे, योगी सरकार उन्हें तोड़ने की तैयारी कर रही है. गलत भी नहीं है यह कहना कि अनेक जगह ये सायकिल पथ अनावश्यक और यातायात के लिए बाधा बन गये हैं. इस्तेमाल भी कोई नहीं करता.
नयी दिल्ली के इण्डिया इण्टरनेशनल सेण्टर की तर्ज पर लखनऊ में बना जे पी इण्टरनेशनल सेण्टर, साबरमती रिवर फ्रण्ट से प्रेरित गोमती रिवर फ्रण्ट डेवलपमेण्ट प्रॉजेक्ट, लखनऊ-आगरा एक्सप्रेस-वे, आई टी सिटी जैसी महत्वाकांक्षी परियोजनाएं अखिलेश सरकार की विकास-कथा का शीर्षक थीं. लखनऊ-आगरा एक्सप्रेस-वे के लिए अखिलेश चुनाव सभाओं में कहते थे कि यदि प्रधानमंत्री मोदी इस सड़क से गुजर जाएं तो वे भी समाजवादी पार्टी को वोट देने को मजबूर हो जाएंगे.
वोट तो उन्हें शाबाशी देने वालों ने भी नहीं दिया मगर मोदी जी की यूपी टीम अखिलेश के ड्रीम प्रॉजेक्ट्स की नींव से भ्रष्टाचार के बोल्डर खोद निकालने में जुट गयी है. एक-एक मद में हुए खर्च की जांच हो रही है. फाइलें, टेण्डर, भुगतान, वगैरह की पड़ताल हो रही है. बेईमानी और मनमानी के सबूत जुटाने के लिए मंत्री सीढ़ियों से  से पन्द्रह मंजिल तक चढ़ जाने का करिश्मा दिखा रहे हैं.
इस तरह भ्रष्टाचार-मुक्त पारदर्शी सरकार की छवि भी बन जा रही है.
नयी सरकारें पुरानी सरकार के काम-काज में मीन-मेख निकाला करती रही हैं. मामला विरोधी दल की सरकार का हो तो उपलब्धियां खारिज की जाती रही हैं. चुनाव प्रचार में वादे किये जाते हैं कि सत्ता में आने पर इस सरकार के सभी कार्यों की जांच करायी जाएगी. लेकिन आम तौर पर अमल नहीं किया जाता.
सन 2102 के चुनाव प्रचार में अखिलेश यादव हर सभा में ऐलान करते थे कि सत्ता में आने पर समाजवादी सरकार मायावती द्वारा लगायी गयीं पत्थर की मूर्तियों को ध्वस्त करा देगी. पत्थरों पर होने वाले खर्च की जांच कराएंगे.
सत्ता में आने पर उन्होंने एक भी मूर्ति को हाथ तक नहीं लगने दिया. जांच बैठाने की बात भी वे भूले रहे. इस पर आक्रोशित उनके एक अति-उत्साही समर्थक ने लखनऊ में मायावती की एक मूर्ति पर हथौड़े चला दिये थे. अखिलेश सरकार ने उस कार्यकर्ता से न केवल पल्ला झाड़ लिया, बल्कि रातोंरात भग्न मूर्ति को मायावती की नयी मूर्ति से ससम्मान बदल दिया था.
शीशे के घरों में रहने वाले दूसरे के घरों पर पत्थर नहीं फेंकते, राजनीति में बराबर सम्मानित इस सिद्धांत का योगी सरकार उल्लंघन कर रही है तो निश्चय ही बड़े कारण होंगे.
यूपी विजय के लिए मोदी और अमित शाह ने सारी ताकत झौंक दी थी तो इसीलिए कि दिल्ली का रास्ता यूपी से होकर जाता है. 2019 के संग्राम के लिए यूपी जीतना जरूरी था. वह मोर्चा फतह हुआ. अब चिड़िया की आंख की तरह सिर्फ 2019 दिखायी दे रहा है.
महंत आदित्यनाथ योगी को मुख्यमंत्री बनाना उसी लक्ष्य का महत्वपूर्ण हिस्सा है. अगर उसी रणनीति में शामिल है पूर्ववर्ती अखिलेश सरकार को महाभ्रष्ट साबित करना, तो क्या आश्चर्य.
अपनी कमीज की चमकदार सफेदी तभी उजागर होगी जब दूसरे की कमीज को बहुत मैली दिखाया जा सके. यूपी को बदलने का नारा है. भ्रष्टाचार-मुक्त, पारदर्शी, वास्तविक विकास लाने वाली सरकार का चेहरा गढ़ना है. नये मानक बनाने हैं तो पुराने ध्वस्त करने होंगे.
गायत्री प्रसाद जैसे अखिलेश के मंत्रियों ने और यादव सिंह जैसे अखिलेश के इंजीनियरों ने तथा अनिल यादव जैसे अखिलेश के अफसरों ने मौके भी कम नहीं दिये हैं. योगी सरकार को सबूतों के लिए ज्यादा मेहनत करनी नहीं पड़ेगी.
2019 में भाजपा को हराने के लिए महागठबंधन बनाने की कवायद विपक्षी दल करने लगे हैं. उसका मुकाबला भी तो करना है. बन पड़ा तो ऐसे गठबंधन को महाभ्रष्टों का जमावड़ा सिद्ध करना होगा. जनता को बताना होगा कि ईमानदारी से काम करने वाली सरकार को उखाड़ने के लिए सारे बेईमान एक हो गये हैं.  ताकतवर क्षेत्रीय क्षत्रपों का जातीय, पक्षपातपूर्ण और दागदार चेहराजनता के सामने रखना है.
दिल्ली में पहली बार भाजपा की पूर्ण बहुमत वाली सरकार बनी है. यूपी की सत्ता पंद्रह साल बाद मिली है. इसका श्रेय भाजपा के नये, अपेक्षाकृत युवा नेतृत्व को जाता है. इस अवसर दीर्घावधि का बनाना है. यूपी ही नहीं, देश को बदलना है. 70 साल की बदहाली दुरुस्त करनी है. भाजपा सबसे अलग है, यह दिखा देना है.
मोदी से लेकर योगी तक आजकल इसी मिशन में लगे हैं. यूपी इसकी नयी प्रयोगशाला है. अपने ही कारणों से कांग्रेस और वाम दलों के पराभव के कारण भारतीय मध्य वर्ग को यह प्रयोग खूब भा रहा है, जिसके नायक नरेन्द्र मोदी हैं
-नवीन जोशी
(firstpost hindi, april 21, 2017) 


 





Friday, April 21, 2017

यह ईटिंग प्वॉइण्ट है हमारे तंत्र का चेहरा


एक पुलिस अधिकारी के निकट सम्बन्धी नहीं पीटे गये होते तो पत्रकारपुरम चौराहे पर मनीष ईटिंग प्वॉइण्ट के खिलाफ इस बार भी कार्रवाई नहीं होती. पुलिस हरकत में आई और फिलहाल दुकान में ताला लग गया है. अवैध रूप से संचालित मनीष ईटिंग प्वॉइण्ट समेत कुछ मांसाहार परोसने वाली दुकानों और मॉडल शॉप के कारण चौराहा तो जाम रहता ही है, रात बारह-एक बजे हंगामा तथा गुण्डागर्दी से राहगीर एवं आस-पास के निवासी परेशान रहते हैं. इसकी लिखित शिकायत एकाधिक बार आवास आयुक्त, लविप्रा उपाध्यक्ष, जिलाधिकारी, पुलिस क्षेत्राधिकारी और गोमतीनगर थाने में की जा चुकी है. शिकायत लेकर अधिकारियों से मिलने वालों में कई वरिष्ठ पत्रकार भी शामिल रहे हैं. पूर्व जिलाधिकारी राजशेखर ने इसके समाधान के लिए पत्र लिख कर सबद्ध विभागों की बैठक भी पिछले साल बुलायी थी. फिर भी कोई समाधान नहीं निकला. अवैध काम करने वालों के पास धन की ताकत और मजबूत गठजोड़ होते हैं.

ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं. राजधानी लखनऊ में तो बेहिसाब. जो जितना बड़ा शहर, वह उतना घिनौना नरक बन रहा है. नरक बनाने या बन जाने देने वाले वही हैं जिन पर इसे रहने लायक और सुंदर बनाने का जिम्मा है. अवैध धंधे इसलिए फल-फूल रहे हैं कि नियम-कानूनों का पालन करने वाले ही उसे तोड़ने दे रहे हैं. वेतन वे नियमों की चौकसी करने का लेते हैं लेकिन उनका उल्लंघन करने देकर करोड़ों कमाते हैं. भ्रष्टाचार पर रोक लगाने की बातें करने वाले भली-भांति जानते हैं, देखते रहते हैं.

नई कॉलोनियों का नियोजन खूबसूरत होता है. बाद में उसका क्या हाल कर दिया जाता है, इसका बेहतरीन उदाहरण है गोमती नगर. कभी खूबसूरत, खुले और हरे-भरे लगने वाले विवेक खण्ड, विनय खण्ड, विराम खण्ड, विकास खण्ड, आदि इलाके रिहायशी मकानों में बने वाणिज्यिक प्रतिष्ठानों से भरे पड़े हैं. पत्रकारपुरम तो अमीनाबाद जैसा बन गया है, जहां पैदल चलना भी मुश्किल है. यही हाल ज्यादातर कॉलोनियों का है, इंदिरा नगर हो या विकास नगर या राजाजीपुरम.

किसी भी पार्टी की सरकार इसे नहीं रोक सकी. नगर निगम, लविप्रा, आवास-विभाग और सम्बद्ध थाने इसके लिए पूरी तरह जिम्मेदार हैं. आज योगी सरकार सख्ती कर रही है तो वही अफसर कड़क दिखने का नाटक कर रहे हैं जो इसके लिए दोषी हैं. अखिलेश सरकार में रामपाल यादव की अवैध इमारत इसलिए गिरा दी गयी थी कि मुखिया की भृकुटि टेढ़ी हो गयी थी. जिन्होंने उसे गिराया पहले वही उसे बनवा रहे थे. अब योगी सरकार में लविप्रा के अधिकारी. अभियंता वही काम कर रहे हैं. बीते बुधवार को 86 करोड़ रु कीमत वाली सरकारी जमीन को दबंगों के कब्जों से मुक्त करवाया गया. उस पर कब्जा किसने होने दिया था? इन्ही लोगों ने.!


जब तकअफसरों की पूरी जवाबदेही नहीं होगी, उन्हें सजा नहीं दी जाएगी, उनसे वसूली नहीं होगी और सिर पर डण्डा हर समय तना नहीं रहेगा, तब तक यह थमने वाला नहीं. मनीष ईटिंग प्वॉइण्ट का ताला भी खुल ही जाएगा. वैसे भी वहां दूसरी अवैध दुकानें नाले-नालियों व पार्कों में कचरा फेंकने, सड़क जाम करने और गुण्डागर्दी में मशगूल हैं ही. हर बार तो पुलिस के करीबी पिटने वाले नहीं. (नभाटा, 22 अप्रैल, 2017) 

Monday, April 17, 2017

कांशीराम ने अपना घर छोड़ा था, मायावती ने उनके मूल्य छोड़ दिये

                                                        
अपने भाई आनंद कुमार को बहुजन समाज पार्टी का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और पार्टी में अपने बाद नम्बर दो की हैसियत देने के लिए मायावती की काफी आलोचना हो रही है. विरोधी दल ही नहीं, दलित आंदोलन से जुड़े कई पुराने नेताओं ने भी इस कदम के लिए उनकी आलोचना की है.
बसपा मुखिया मायावती ने शुक्रवार को अम्बेडकर जयंती पर लखनऊ में आयोजित रैली में यह घोषणा की. उन्होंने यह शर्त जरूर रखी है कि आनंद कुमार कभी विधायक, सांसद, मंत्री या मुख्यमंत्री नहीं बनेंगे. हाँ, वे अपना रियल एस्टेट बिजनेस चलाने और घर वालों को राजनीति में लाने के लिए स्वतंत्र होंगे.
विपक्षी नेता इस कारण आलोचना कर रहे हैं  कि अब तक मायावती खुद दूसरे दलों पर परिवारवाद को बढ़ाने का आरोप लगाती रही हैं.
कांशीराम के पुराने साथियों और कई दलित नेताओं ने इसलिए उनकी निंदा की है कि कांशीराम ने दलित आंदोलन के प्रति पूर्ण समर्पण के लिए अपने परिवार से सारे सम्पर्क तोड़ लिये थे. कांशीराम ने मायावती को अपना राजनैतिक वारिस बनाया था और उनसे अपने काम को आगे ले जाने की उम्मीद की थी.  
इस प्रसंग में यह जानना समीचीन होगा कि दलित आंदोलन को व्यापक रूप देने और बामसेफएवं डीएस-4’ जैसे संगठनों के जरिए बहुजन समाज पार्टी को खड़ा करने वाले कांशीराम का अपने परिवार और सम्पति के बारे में क्या सोचना था और उन्होंने किया क्या था.
सन 1978 में बामसेफ’ (बैकवर्ड एण्ड माइनॉरिटीज कम्युनिटीज एम्प्लॉई फेडरेशन) को संगठन का औपचारिक रूप देने के बाद कांशीराम ने पुणे में अपनी नौकरी छोड़ दी थी और पूरी तरह दलित आंदोलन के लिए समर्पित हो गये. तभी उन्होंने तय कर लिया था कि अब अपने परिवार से भी कोई ताल्लुक नहीं रखेंगे. उन्होंने कई प्रतिज्ञाएं कीं और अपने घर वालों को बताने के लिए लम्बी चिट्ठी लिखी थी.
दलित मामलों के अध्ययेता प्रोफेसर बदरीनारायण ने अपने पुस्तक कांशीराम: लीडर ऑफ दलित्समें एक उद्धरण दिया है जिसमें कांशीराम की बहन सबरन कौर के हवाले से बताया गया है कि कांशीराम ने कभी घर न लौटने, खुद का मकान न बनाने और दलितों, पिछड़ों, अल्पसंख्यकों के घरों को ही अपना घर मानने की शपथ ली थी. उन्होंने अपने सम्बंधियों से कोई नाता नहीं रखने, किसी शादी, जन्म दिन समारोह, अंत्येष्टि, आदि में भाग न लेने और बाबा साहब अम्बेडकर का सपना साकार करने तक चैन से न बैठने की कसम खायी थी.
कांशीराम की चिट्ठी पढ़कर माता बिशन कौर बहुत परेशान हुईं थीं और बेटे को मनाने पुणे भागीं. उन्होंने कांग्रेस के एक दलित विधायक की बेटी से कांशीराम का विवाह तय रखा था. दो महीने तक साथ रह कर वे कांशीराम को मनाती रहीं.  फिर हार कर बहुत दुख के साथ वापस लौट आईं.
बाद की घटनाएं गवाह हैं कि कांशीराम ने अपनी  सारी कसमें निभाईं. राखी बांधना तो दूर, वे अपनी बहन की शादी में भी शामिल नहीं हुए. न ही उसकी अचानक मृत्यु पर गये. बड़े बेटे होने के बावजूद वे अपने पिता की चिता को अग्नि देने नहीं गये. सम्पत्ति अर्जित करने का तो सवाल ही नहीं था. नौकरी छोड़ने के बाद वे अपने बकाया भत्ते लेने भी दफ्तर नहीं गये थे.
कांशीराम का पूरा जीवन दलितों की आजादी और उनके अधिकारों के लिए जबर्दस्त संघर्ष और त्याग का उदाहरण है. मायावती से भी उन्होंने ऐसी ही अपेक्षा की थी, जब यह कहा था कि मेरी दिली तमन्ना है कि मेरी मृत्यु के बाद मायावती मेरे कामों को आगे बढ़ाएंगी.
मायावती ने भी अपने शुरुआती दौर में दलित आंदोलन के लिए कम संघर्ष नहीं किया. कांशीराम ने यूं ही उन्हें अपना उत्तराधिकारी घोषित नहीं किया था. बदरीनारायण की उसी किताब में कांशीराम को एक जगह यह कहते उद्धृत किया गया है- “मायावती ने उत्तर प्रदेश में सायकिल से घूम-घूम कर जिस तरह बहुजन समाज पार्टी का संदेश जनता तक पहुंचाया है उसे मैं कभी नहीं भूल सकता, वह भी ऐसे समय में जबकि बसपा के चुनाव जीतने के आसार दूर-दूर तक नहीं थे. इस लड़की ने बुलंदशहर से बिजनौर तक सायकिल चलायी और लगातार मेरे साथ बनी रही. अगर उसने इतनी मेहनत नहीं की होती तो मैं बसपा को इतना आगे ले जाने में सफल नहीं हुआ होता.”    
मायावती कांशीराम का बहुत सम्मान करती रही हैं. बीमारी के लम्बे दौर में मायावती ने उनकी बहुत सेवा की. जब कांशीराम के परिवार ने उनके इलाज एवं देखभाल का जिम्मा जबरन खुद लेना चाहा तो अदालत ने भी मायावती ही का साथ दिया था. कांशीराम की चिता को अग्नि मायावती ने ही दी थी.
यह सब देखते हुए दलित समाज का मायावती से यह अपेक्षा रखना कि वे कांशीराम के पदचिह्नों पर चलेंगी, अस्वाभाविक नहीं है.
सन 2017 की मायावती वही नहीं हैं जिसकी तारीफ के पुल कांशीराम बांधते थे. सायकिल चलाकर दलित समाज में घुलना-मिलना वे कबके छोड़ चुकीं. अब उनके पास आलीशान बंगले हैं. वे ऊंची चहारदीवारियों के भीतर रहती हैं. उन पर अपार दौलत जमा करने के आरोप लगते रहते हैं.
मायावती के भाई आनंद कुमार पर भी बेहिसाब कमाई करने के आरोप हैं. उनके खिलाफ जांच चल रही है. नोटबंदी के बाद उनके खाते में बड़ी रकम जमा होने की खबरें आई थीं. उसी भाई को, जो बताते हैं कि बसपा का प्राथमिक सदस्य तक नहीं था, बहुजन समाज पार्टी का दूसरे नम्बर का मुखिया घोषित करके मायावती ने स्वाभाविक ही आलोचनाओं को न्योता दिया है.

कांशीराम के जीवन मूल्य बताते हैं कि वे इस फैसले को कतई पसंद नहीं करते.  

(http://hindi.firstpost.com/politics/kanshi-ram-leave-his-family-for-dalits-and-his-aim-mayawati-bsp-anand-kumar-pr-24058.html)

Saturday, April 15, 2017

रिश्वत के लिए तो नकदी ही चाहिए होगी!


चौदह अप्रैल को अम्बेडकर जयंती मनायी जाती है. उसी दिन गुड फ्राइडे पड़ा. इस बार इसी दिन डिजिटल इण्डिया डे भी मनाया गया. डिजिधन मेलेलगाये गये. प्रधानमंत्री का बड़ा जोर है डिजिटल इण्डिया पर. सब कुछ, विशेष रूप से सारे भुगतान डिजिटल हो जाएं, ऐसा उनका प्रयास है. नोटबंदी को, जो पहले चोर धन के खिलाफ अभियान के तौर पर शुरू की गयी थी, बाद में डिजिटल भुगतान का बाना पहना दिया गया.
हाल ही में नीति आयोग के चेयरमैन का यह बयान छपा था कि जल्दी ही एटीएम, क्रेडिट कार्ड, डेबिट कार्ड, सब खत्म हो जाएंगे. सिर्फ डिजिटल ट्रांजेक्शन हुआ करेगा. डिजिटल इण्डिया डे पर उनका बयान याद करते हुए बड़ा अचम्भा हो रहा है. डिजिटल ट्रांजेक्शन हो, बहुत अच्छी बात है लेकिन अपना हिंदुस्तान भी तो इसके लिए तैयार हो. इण्डियातो डिजिटल हो जाएगा, मान लिया, लेकिन अपने हिंदुस्तान को “डिजिधनसमझने में ही लम्बा समय लगेगा.
एटीएम फिर सूखने लगे हैं. जनता एक से दूसरे एटीएम की तरफ दौड़ रही है. इसके पीछे की यह सच्चाई सामने आ रही है कि रिजर्व बैंक ने बैंकों को नकदी देने में कटौती शुरू कर दी है. नकदी कम आने से एटीम पूरे नहीं भरे जा रहे. जनवरी से मार्च के बीच बैंकों की नकदी 30 फीसदी कम कर दी गयी है. आगे इसे 50 फीसदी तक कम करने का लक्ष्य बताया जा रहा है. मकसद वही कि ज्यादा से ज्यादा लेन-देन डिजिटल हो.
नोटबन्दी के बाद के कुछ महीनों में डिजिटल लेन-देन बढ़ गया था. सरकार इससे खुश थी. फिर नकदी सप्लाई के साथ डिजिटल लेन-देन कम हो गया. अब सरकार रिजर्व बैंक की मार्फत जनता पर डिजिटल लेन-देन बढ़ाने का दवाब बना रही है.
इसमें कोई हर्जा नहीं है, बशर्ते हमारी सामाजिक-आर्थिक संरचना एकसार होती. गांवों की बात जाने दीजिए, बड़े शहरों में एक बड़ी आबादी का पूरा जीवन नकदी के बिना चलता ही नहीं. घर से कूड़ा उठाने वालों को पहली तारीख होते ही नकद पैसा चाहिए. घर-घर झाड़ू-पोचा लगाने, खाने बनाने वाली महिलाएं, अखबार-सब्जी-दूध वाले, रिक्शा-ऑटो वाले, दिहाड़ी मजदूर, चाट-चना-सत्तू, खीरा- ककड़ी, फल के ठेले-खोमचे-रेहड़ी वाले... कहां तक गिनाएं. इन सब की बड़ी दुनिया है हमारे चारों तरफ. इनको कैसे डिजिधनके दायरे में लाया जाएगा? कूलर में घास भरने वाले को कैसे डिजिटल भुगतान किया जाए?
लेन-देन में पारदर्शिता और भ्रष्टाचार कम करने में डिजिटल ट्रांजेक्शन बहुत मददगार होगा लेकिन इसके लिए उस विशाल आबादी का जीवन संकट में नहीं डाल देना चाहिए जो बैंकिंग से ही अभी बाहर है.अभी हम पूरी तरह क्रेडिट-डेबिट कार्ड वाले भी नहीं हुए. करोड़ों नए खाते खुलवा देने से ही सारा देश बैंकिंग के दायरे में नहीं आ जाता. ऐसे हिंदुस्तान के लिए डिजिटल इण्डियाअभी तो अव्यावहारिक ही है.
सरकारी लेन-देन, जन-कल्याण योजनाओं, आदि में डिजिटल भुगतान को निश्चय ही बढ़ावा दिया जाना चाहिए ताकि भ्रष्टाचार कम हो. लेकिन हमारे भ्रष्ट तंत्र ने इसका आसान तोड़ निकाल लिया. खाते में धन ट्रांसफर करने से पहले कमीशन रखवा लिया जाता है. घूस का भुगतान तो डिजिटल होगा नहीं! उसके लिए नकदी ही चाहिए. कागज पर या सिद्धांत में विचार बहुत सुंदर लग सकता है. जमीन पर असलियत कुछ और होती है.   
(नभाटा, 15 अप्रैल, 2017)

  

Monday, April 10, 2017

मायावती : राजनैतिक बियाबान या मिशन की ओर वापसी?


उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव परिणामों के विश्लेषण का एक दौर गुजर जाने के बाद जो कतिपय प्रश्न महत्वपूर्ण बने रह गये हैं उनमें एक बहुजन समाज पार्टी और उसकी एकछत्र नेत्री मायावती के बारे में है. दलितों के सामाजिक-आर्थिक सशक्तीकरण के लिए कांशीराम ने सत्ता की जिस राजनीति को अनिवार्य माना था, क्या उसी राजनीति के विद्रूप ने दलित आंदोलन और बसपा को त्रासद अंत तक ला दिया है? बसपा के सामने अब सिर्फ राजनैतिक बियाबान है या मायावती सम्पूर्ण दलित समाज को एक बार फिर राजनैतिक रूप से एकजुट करने में समर्थ होंगी? क्या उनमें इसकी क्षमता और दृष्टि है?
अपनी पराजय के लिए इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों में छेड़-छाड़ की साजिश को जिम्मेदार ठहरा कर मायावती ने प्रकट रूप में अपनी अपरिपक्वता ही का परिचय दिया. क्या वे इसके वास्तविक कारण तलाशने का प्रयास भी कर रही हैं? क्या उन्हें लगता है कि कुछ रणनीतिक भूलें हुई हों? क्या दलित आंदोलन के मूल मिशन से भटकने के जो आरोप लगे हैं, उनमें कुछ सच्चाई हो सकती है?
बसपा छोड़ने वाले कई नेता मायावती पर तरह-तरह के आरोप लगाते रहे हैं लेकिन पार्टी के भीतर, वह भी काडर स्तर से नेतृत्व के प्रति शिकायत और असंतोष के स्वर पहली बार उठ रहे हैं. बसपा के कुछ नेता और खासकर कार्यकर्ता स्वीकार करने लगे हैं पार्टी अपने मूल उद्देश्य और एजेण्डे से भटक गयी.  इसीलिए उसकी दुर्गति हुई.
कहा जा रहा है कि बहुजन समाज पार्टी को बहुजन की बजाय सर्वजन की पार्टी बना दिया गया. सवर्णों, खासकर ब्राह्मणों को बहुत महत्व दिया गया. दलित, विशेष रूप से गैर-जाटव दलित जातियां उपेक्षित रह गईं. पार्टी के पुराने, समर्पित नेताओं की उपेक्षा की गयी.
दलित अध्ययेता और राजनैतिक चिंतक इस बारे में काफी समय से मायावती को सचेत करते रहे हैं. 2007 में पूर्ण बहुमत से यूपी की सत्ता में आयी बसपा जब 2009 के लोक सभा चुनाव में अपेक्षित सीटें नहीं जीत सकीं तब दलित चिंतक चंद्रभान प्रसाद ने  मायावती के लिए पांच बातेंशीर्षक से एक छोटा लेख लिखा था. उसमें एक सवाल यह था कि “किसकी सलाह पर मायावती ने इतने व्यापक पैमाने पर ब्राह्मणों को उच्च पदों पर बैठा दिया? क्या दलित सरकार का कोई स्पष्ट दलित एजेण्डा है? अभी हाल में प्रदेश के महाविद्यालयों में 85 प्रिंसिपल नियुक्त किये गये जिसमें एक भी दलित नहीं है.”  उन्होंने चेतावनी दी थी कि “इन बातों पर बसपा फौरन विचार नहीं करती तो आगामी विधान सभा चुनावों में उसे विपक्ष में बैठना पड़ेगा, वह भी मुख्य विपक्षी दल के रूप में नहीं, बल्कि तीसरे या चौथे पायदान पर.”
आज लोक सभा में बसपा का एक भी सदस्य नहीं. प्रदेश विधान सभा में मात्र 19 विधायकों के साथ वह तीसरे पायदान पर है.
2007 में पूर्ण बहुमत पाने वाली बसपा 2012 में अपनी सत्ता बचा नहीं सकी थी. उसी साल अमेरिका की केलीफोर्निया यूनिवर्सिटी के राजनीति शास्त्र विभाग के प्रदीप छिब्बर और राहुल वर्मा ने बसपा की राजनैतिक रणनीति और चुनावी प्रदर्शन पर अध्ययन किया. उन्होंने लिखा था कि “2009 से विभिन्न राज्यों के विधान सभा चुनावों में बसपा का प्रदर्शन खतरनाक गिरावट के संकेत देता है और लगता नहीं कि वह 2007 जैसा प्रदर्शन दोहरा पाएगी.”  इसके कारणों की व्याख्या करते हुए उन्होंने लिखा था कि “एक तो बसपा में बाहर से आये ऐसे नेताओं को तरजीह दी गयी जिनकी निष्ठा उसकी विचारधारा में है ही नहीं. दूसरा कारण, जो कहीं ज्यादा नुकसानदेह साबित हुआ, यह कि मायावती ने पार्टी संगठन में  सत्ता-केंद्र पनपने के भय से दूसरे नेताओं को उभरने नहीं दिया. किसी पार्टी के लम्बे समय तक सक्रिय रहने और विस्तार पाने के लिए दूसरे-तीसरे दर्जे के नेताओं का विकास जरूरी होता है.”
ये बहुत महत्वपूर्ण सुझाव थे जिन पर मायावती ने ध्यान नहीं दिया. चुनावों में वे 50 फीसदी तक टिकट सवर्णों को देने लगीं. नतीजा यह हुआ कि दलित जातियों का, मायावती के अपने जाटवों को छोड़कर, बसपा से मोहभंग होने लगा. बसपा के कई पुराने नेता, जो कांशीराम के समय से दलित या बहुजन आंदोलन को खड़ा करने में समर्पित थे, पार्टी छोड़कर जाने लगे या मायावती ने ही उन्हें बाहर कर दिया.  
2017 के विधान सभा चुनावों के लिए भाजपा की रणनीति में बसपा की इन कमजोरियों का लाभ उठाना प्राथमिकता पर था.  इसकी अनदेखी कर मायावती अपनी तथाकथित सोशल इंजीनीयरिंगपर लगी रहीं, जिसके साथ इस बार मुसलमानों पर अत्यधिक फोकस भी जोड़ दिया गया. मुसलमानों ने उन पर भरोसा नहीं किया, सवर्णों ने किनारा कर लिया और बहुतेरे दलित साथ छोड़ गये.
चूंकि उत्तर प्रदेश में दलित इतनी बड़ी तादाद में नहीं हैं कि अकेले उनके समर्थन से बसपा सत्ता पा सके, इसलिए सवर्णों को साथ लेना मायावती की चुनावी रणनीति की मजबूरी थी. कांशीराम ने भी इसे अपने भागीदारीसिद्धांत में शामिल किया था. मगर मायावती ने इसे ही सत्ता-प्राप्ति का सदाबहार फॉर्मूला मान लिया और दलित एजेण्डे की उपेक्षा की. कांशीराम दलित-सवर्ण एकरसता को तब तक व्यावहारिक नहीं मानते थे जब तक कि दलित बराबरी का दर्जा नहीं पा लेते.
कांशीराम ने दो दशक से भी ज्यादा समय तक अथक मेहनत और अविराम संघर्ष से जिस दलित आंदोलन को मिशनमान कर खड़ा किया था, वह आज बिखरने की कगार पर है. इसकी जिम्मेदारी स्वाभाविक ही मायावती पर आती है. ये वही मायावती हैं जिन्हें कांशीराम ने 2001 में अपना वारिस घोषित किया था. 25 अगस्त 2003 को लखनऊ की विशाल रैली में उन्होंने  कहा था कि “मेरी तीव्र इच्छा है कि मेरी मृत्यु के बाद मायावती मेरे अधूरे कामों को पूरा करें.”  वे मायावती को इसमें सक्षम मानते थे और अपने पुराने साथियों से कहीं ज्यादा उन पर भरोसा करते थे.
2007 में मायावती के नेतृत्व में बसपा को पूर्ण बहुमत के साथ उत्तर प्रदेश की सत्ता में काबिज देखने के लिए कांशीराम जीवित नहीं थे. लेकिन उसी के बाद बसपा का लगातार पराभव और विचलन भी होता गया. आज दस साल बाद के चुनाव नतीजों ने मायावती के नेतृत्व और बसपा के अस्तित्व पर प्रश्न चिह्न लगा दिया है.
1983 से कांशीराम के साथी रहे दलित नेता दद्दू प्रसाद को, जिन्हें डेढ़ साल पहले मायावती ने पार्टी से निकाल दिया था, हाल में बसपा में वापस लिए जाने से  क्या यह समझा जाए कि मायावती आत्मचिंतन कर रही हैं? क्या वे बसपा को मिशनकी राह पर वापस लाएंगी?
ऊंची चहारदीवारी और अत्यंत गोपनीयता में रहने वाली मायावती के बारे में कोई भी जवाब समय ही दे सकता है.
(http://hindi.firstpost.com/politics/up-assembly-elcection-2017-will-mayawati-be-able-to-restore-bsp-might-in-up-politics-sa-23177.html )



Friday, April 07, 2017

दारू के खिलाफ महिलाओं के गुस्से को समझिए


हमारे समाज में महिलाएं अनेक कारणों से दुखी रहाती हैं. गुस्सा उन्हें कभी-कभी आता है. आजकल वे बहुत गुस्से में हैं. शराब की दुकानों-ठेकों पर उनके गुस्से का बांध टूट रहा है.
सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया कि राष्ट्रीय राजमार्गों से शराब की दुकानें दूर करो. नशे में गाड़ियां चलाने से दुर्घटनाएं बेहिसाब बढ़ती जा रही हैं. जानें जा रही हैं.  500 मीटर दूर करो दारू की दुकानें. सो, राष्ट्रीय राजमार्गों से हट रही दुकानें बस्तियों में खुलने लगीं. वहां पहले से बहुत दुकानें हैं. बस्तियों में, बाजारों में, गली-मुहल्लों में, जो नेशनल हाईवेनहीं कहलाते, वहां या जिनका नाम नेशनल हाईवेसे बदल कर स्टेटया डिट्रिक्ट हाईवेकर दिया गया है, सब जगह दारू के ठेके हैं. साल-दर-साल ये दुकानें बढ़ती जा रही हैं.
महिलाएं कब से देख रही हैं. भुगत रही हैं. रोती रही हैं. नशे की सबसे बड़ी आफत उन्ही पर टूटती है. जेवर-जमीन गिरवी रख दिए गए या बिक गए. पति-बेटे-भाई नाकरा हो गए, अपाहिज हो गए या मर गए. मजूरी और वेतन घर आने से पहले ठेकों की भेंट चढ़ गए. बच्चों के स्कूल छूट गए और रसोई के डिब्बे रीते रह गए. जब आवाज उठाई तो पीटी गईं. फिर भी परिवार की गाड़ी उन्ही को खींचनी है. उन्होंने ही संभालने हैं बच्चे. नशे की यह बीमारी बढ़ती ही जाती है. पर्याप्त दवा नहीं, दारू. पेट भर खाना नहीं, शराब. अच्छी पढ़ाई नहीं, नशा. उन्ही के तन-मन पर होते हैं सारे हमले. गुस्सा फूट रहा है.
सुन रही है सरकार ? अब तक तो किसी सरकार ने नहीं सुनी. उलटे, सरकारी आय का सबसे बड़ा साधन बनाते गए इस धंधे को. सरकार नशे से खूब कमा रही है. बड़ी-बड़ी कम्पनियां, ठेकेदार उससे ज्यादा कमा रहे हैं. सब मालामाल हो रहे हैं. सिर्फ परिवार उजड़ रहे हैं, जिसकी धुरी स्त्रियों को सम्भालनी होती है. सरकार और कारोबारियों की कमाई के लिए महिलाएं भांति-भांति के अत्याचार झेल रही हैं.
सरकार में आने से पहले इस पार्टी ने बड़े-बड़े वादे किए. महिलाओं ने बढ़-चढ़ कर इसे वोट दिए. शायद इसलिए उन्हें इससे उम्मीद है कि यह धंधा कुछ कम हो. उनके कष्ट कुछ कम हों. मगर यहां तो दूर की दुकानें भी करीब चली आ रही हैं. गुस्सा नहीं फूटेगा?
क्या इतना जरूरी है नशे का धंधा? सरकार को विकास कार्यों के लिए या उसके नाम पर आय चाहिए तो क्या नशा ही मुख्य स्रोत बचा है? नशाबंदी नहीं कर सकते ? चलो, नशाबंदी को व्यावहारिक नहीं मानते; तो क्या जरूरी है कि दवा-राशन की दुकानों और स्कूलों से ज्यादा दारू के ठेके खुलें? दवा की दुकान रात दस बजे तक ही खुलेगी मगर दारू रात ग्यारह-बारह बजे तक बेचने की इजाजत क्यों जरूरी है? दुकानों के भीतर ही पीने की व्यवस्था करना क्यों आवश्यक है? बस्तियों से दूर उसकी नियंत्रित और सीमित विक्री क्यों नहीं की जा सकती? आय के दूसरे स्रोत नहीं ढूढे जा सकते?
उजड़ते परिवारों को सम्भालते-सम्भालते खुद टूटी जा रही स्त्रियां तर्क नहीं कर पा रहीं. सिर्फ आक्रोश फूट रहा है. इस गुस्से में ढेरों सवाल हैं. रोमियोऔर बूचड़खानों के खिलाफ व्यस्त सरकार इन महिलाओं का आक्रोश भी समझेगी?   (नभाटा, 08 अप्रैल, 2017)


Wednesday, April 05, 2017

अखिलेश यादव के लिए भी असली समय शुरू होता है अब

नवीन जोशी
विधान सभा चुनाव में बड़ी प्राजय के बाद समाजवादी पार्टी के युवा राष्ट्रीय अध्यक्ष,अखिलेश यादव क्या सोच रहे हैं? अगले पांच साल के लिए उनकी रणनीति क्या है? वे योगी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार के खिलाफ सजग विरोधी नेता की हैसियत से उत्तर प्रदेश में मोर्चा सम्भालते हुए क्या वे समाजवादी पार्टी को नया स्वरूप और तेवर देंगे? या, सत्ता छिन जाने के बाद बसपा नेत्री मायावती की तरह राज्य सभा का रास्ता पकड़ेंगे? अथवा, क्या पिता मुलायम और चाचा शिवपाल के ताजा तीखे हमलों से विचलित हो समर्पण कर देंगे? इन सवालों का जवाब युवा अखिलेश यादव का राजनैतिक भविष्य तय करेगा, जिन्होंने अपनी पार्टी की दागी छवि और समझौतावादी बुजुर्ग नेतृत्व से बगावत करके समाजवादी पार्टी की बागडोर अपने हाथ में ली थी. अपनी सरकार का विकास-एजेण्डा सामने रखकर बड़ी उम्मीद से चुनाव में उतरे अखिलेश की बड़ी हार ने उनके सामने ये सवाल पेश किये हैं.        
अखिलेश यादव के बारे में मुलायम सिंह की चंद रोज पहले की गई कटु टिप्पणी और उसके बाद चाचा शिवपाल यादव ने बिना अखिलेश का नाम लिये जो कहा, वह अप्रत्याशित नहीं. माना जा रहा था कि विधान सभा चुनाव में करारी शिकस्त के तुरंत बाद अखिलेश पर मुलायम खेमे और परिवार के दूसरे गुट की ओर से तीखे हमले होंगे. पूरी कोशिश होगी कि हार का सारा दोष अखिलेश के सिर मढ़ कर मुलायम को फिर पार्टी की बागडोर सौंपी जाए. पार्टी में पुनर्प्रतिष्ठा और अखिलेश से बदलालेने का इससे अच्छा मौका उनके लिए और क्या हो सकता था. आश्चर्यजनक रूप से चुनाव नतीजों के तुरंत बाद मुलायम ने अखिलेश को जिम्मेदार नहीं ठहराया. बल्कि, उनकी पहली प्रतिक्रिया बहुत संयत और समझौते वाली थी. उन्होंने कहा था कि चुनाव में पराजय की जिम्मेदारी किसी एक की नहीं है. शिवपाल ने जरूर इशारे में अखिलेश पर निशाना साधा था, यह कह कर कि यह समाजवादी पार्टी की नहीं, ‘घमण्डकी हार है. परंतु मामले को किसी ने तूल नहीं दिया.
अमर सिंह ने उसी समय अखिलेश के खिलाफ मोर्चा खोलने की कोशिश की थी. उनका बयान था कि समाजवादी पार्टी को बचाने के लिए नेता जी को पुन: पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया जाना चाहिए. इस पर भी मुलायम ने कोई तवज्जो नहीं दी थी.
अब अचानक मुलायम ने कह दिया कि अखिलेश ने मेरा बहुत अपमान किया. उनकी यह टिप्पणी सुर्खियां बनी कि प्रधानमंत्री ने जब यह कहा था कि जो अपने बाप का नहीं हुआ, वह आप का क्या होगा, तो क्या गलत कहा. इसी के अगले दिन शिवपाल ने बिना नाम लिये अखिलेश को अनुभवहीन एवं परम्परा और पारिवारिक मर्यादा का सम्मान नहीं करने वाला बताया.
पूछा जाना चाहिए कि मुलायम ने चुनाव नतीजों के तीन सप्ताह बाद सार्वजनिक मंच से अखिलेश के खिलाफ ऐसा तीखा बयान क्यों दिया? क्या उन्हें उम्मीद थी कि भारी पराजय के बाद अखिलेश को उनका महत्व समझ में आ जायेगा और वे उनसे क्षमा मांगने दौड़े आएंगे? क्या वे यह आशा लगाये थे कि अखिलेश राष्ट्रीय अध्यक्ष पद से इस्तीफा देकर उन्हें फिर से वहां प्रतिष्ठित कर देंगे? या, क्या वे यह इंतज़ार कर रहे थे कि अखिलेश कम से कम शिवपाल को पार्टी में  सम्मानजनक ढंग से पुनर्प्रतिष्ठित करते हुए उन्हें विधायक दल का नेता बना देंगे?   
ध्यान दिया जाए कि मुलायम ने अखिलेश पर यह हमला तब किया जब विधान सभा में समाजवादी पार्टी विधायक दल का नेता शिवपाल को नहीं बनाया गया. समाजवादी पार्टी में और मीडिया में भी यह अटकलें लगाई जा रही थीं कि क्या अखिलेश, शिवपाल को सपा विधायक दल का नेता बनाएंगे? क्या उनके मन में कहीं यह अपराध बोध है कि उनका विद्रोह करना इतनी बुरी हार का कारण बना? लेकिन अखिलेश ने समझौते के कोई संकेत दिये बिना पार्टी के एक वरिष्ठ विधायक राम गोविंद चौधरी को विधान सभा में सपा विधायक दल का नेता नियुक्त किया. इस पद के लिए उन्होंने शिवपाल तो दूर, आजम खां के नाम पर भी विचार नहीं किया जो मुलायम के चहेते होने के साथ-साथ सपा का मुस्लिम चेहरा भी रहे हैं. इससे एक सवाल का जवाब मिल गया कि अखिलेश समर्पण करने वाले नहीं. 
निर्विवाद तथ्य है कि मुलायम सिंह ने बहुत मेहनत और संघर्ष करके समाजवादी पार्टी को बनाया एवं मजबूत किया, जिसकी वे बार-बार दुहाई देते हैं. शुरुआती दौर में मुलायम बड़े लड़ाका विरोधी नेता के रूप में जाने-माने गये. उतना ही सच यह भी है कि कालान्तर में उन्होंने सपा को समाजवादी राह से भटक कर पिछड़ों के नाम पर यादवों और धर्मनिरपेक्षता के नाम पर मुसलमानों को किसी भी कीमत पर खुश रखने वाली पार्टी बन जाने दिया. अराजक, भ्रष्ट एवं अपराधी पृष्ठभूमि वाले नेताओं को प्रश्रय दिया. अगर आज उदार लोकतांत्रिक सोच वाला जनता का बड़ा तबका मोदी के नेतृत्व में भाजपा के उग्र हिंदू राष्ट्रवाद तथा भ्रष्टाचार विरोधी प्रचार से सम्मोहित हुआ है तो इसके लिए मौलानामुलायम की राजनीति को भी जिम्मेदार मानना चाहिए.
अखिलेश यादव ने पहले सपा प्रदेश अध्यक्ष और बाद में मुख्यमंत्री के रूप में सपा को इस दागदार छवि से मुक्ति दिलानी चाही. यह कोशिश उन्हें पहले शिवपाल और फिर मुलायम से बगावत की हद तक ले गयी. जब उनके सामने यह अवसर आया कि उन्हें पार्टी की बागडोर अपने हाथ में लेनी होगी तो वे चूके नहीं. तब वे चूक गये होते तो मुलायम-शिवपाल के आज्ञाकारी पिछलग्गू बन कर रह जाते. पार्टी के अधिसंख्य नेताओं तथा कार्यकर्ताओं ने उन्ही का साथ दिया.
सन 2017 की चुनावी पराजय ने उनके सामने एक और महत्वपूर्ण अवसर उपस्थित कर दिया है. रचनात्मक एवं सशक्त विपक्ष की भूमिका निभा कर अपनी राजनीति को धार देने का. उनके लिए बहुत अच्छा रहेगा यदि वे कोई उपचुनाव लड़कर विधान सभा पहुंचें. सरकार की कमजोरियां उजागर करके एवं जनता के जरूरी मुद्दे उठा कर विरोधी दल के नेता के रूप में अपनी बेहतर छवि गढ़ें. अभी वे विधानमण्डल दल के नेता हैं. इस हैसियत में भी वे विपक्षी नेता की भूमिका में आ सकते हैं. शर्त यह है कि उन्हें प्रदेश भर का दौरा कर जनता से लगातार मिलना, उसकी ज्वलंत समस्याएं जानना, पार्टी का नया ढांचा तैयार कर कार्यकर्ताओं को सक्रिय बनाना और वाजिब मुद्दों पर सड़क पर संघर्ष करना होगा. उनके पास पांच साल का पर्याप्त मौका है. वे युवा हैं, उनका राजनैतिक करिअर अभी शुरू ही हुआ है और चुनाव में पराजय के बावजूद जनता में उनकी छवि अच्छी है. 
कठिन जरूर है लेकिन यदि अखिलेश यह रास्ता चुनते हैं तो दीर्घकालीन राजनीति की मजबूत सीढ़ियां वहीं से शुरू होती हैं. कभी उनके पिता इसी मार्ग से शीर्ष तक पहुंचे थे. जनता के मुद्दों पर पांच साल तक संघर्ष की तुलना में एक अपेक्षाकृत आसान रास्ता राज्य सभा का है लेकिन वह राजनीति की खुरदुरी जमीन से उनका पलायन माना जायेगा. सत्ता-च्युत होने पर मायावती यही रास्ता चुनती रहीं और इसीलिए जनता से बराबर दूर होती गयी हैं. एक खास वोट बैंक पर निर्भर राजनीति ज्यादा नहीं चल सकती, यह इस चुनाव ने साबित कर दिया है.
प्रदेश में योगी सरकार ने अपने एजेण्डे पर अमल शुरू कर दिया है. अखिलेश के लिए अपना एजेण्डा तय करने का भी यही समय है.
(First post Hindi, April 04, 2017)