Friday, May 26, 2017

मोबाइल में बच्चे, पार्क में पिल्ले!

सिटी तमाशा

मुश्किल से एक साल की रही होगी वह गुड़िया-सी बच्ची, जिसे लेकर युवा दम्पति हमसे  मिलने आये थे. गोद से उतर कर वह अपने मम्मी-पापा के मोबाइल पकड़ने की जिद कर रही थी.
-आंख खोलते ही इसे मोबाइल चाहिएमम्मी ने सगर्व बताया- स्मार्ट फोन ऑपरेट कर लेती है.
-बेटा, अंकल को दिखाओ मोबाइल में अपनी फोटो,’ पापा ने प्रदर्शन शुरू कराया. नन्ही बिटिया ने मोबाइल स्क्रीन पर तेजी से अंगुली दौड़ाई और फोटो खोल दिये. फिर अंगुली की रफ्तार से उन्हें खिसकाया और अपनी फोटो पर अंगुली रख दी.
-शाबाश!’ मम्मी चहकी-अब पापा को कॉल करो.बिटिया ने स्क्रीन पर कुछ अंगुलियां चलाईं और फोन कान पर लगा कर तुतलाई- हैलो..हैलो, पापा!फोन उसकी हथेलियों के लिए काफी बड़ा था, फिसल कर गिर गया. मम्मी परेशान हो कर फोन को हुआ नुकसान जांचने लगीं. बिटिया अब पापा के फोन की ओर लपकी. जितनी देर वे बैठे बिटिया के मोबाइल-प्रेम और नन्ही उम्र में विशेषज्ञता की बातें होती रहीं.
उन्हें विदा कर गेट बंद कर रहा था कि सामने के पार्क पर नजर गयी. वहां कुत्ते के चार-छह पिल्ले उछल-कूद कर रहे थे. अच्छा बड़ा, हरा-भरा पार्क है. गर्मी के बावजूद शाम खुशनुमा थी. वहां मनुष्य का एक भी बच्चा नहीं था. पानी उगलते पाइप से भी पिल्ले ही खिलंदड़ी कर रहे थे.
उसी सुबह अखबार में पीजीआई में पेट रोगों पर हुए सम्मेलन में विशेषज्ञ-चिकित्सक डा घोषाल का वक्तव्य छपा था- बच्चों को मिट्टी में खेलने दीजिए. हैण्ड पम्प का पानी पीने दीजिए. इससे उनका इम्यून सिस्टम मज्बूत होगा. इसके बिना आजकल के बच्चों का इम्यून सिस्टम कमजोर हो रहा है. रोगों से लड़ने की उनकी क्षमता खत्म हो रही है.
मुझे पंद्रह-बीस वर्ष पहले के इसी पार्क के दृश्य याद आ गये जब बच्चों से पार्क गुलजार रहता था. खेलते-कूदते बच्चे कीचड़ में सन कर लौटते थे. घर आने की पुकार अनसुनी करके अंधेरा होने तक खेलते रहते थे. पार्क के पाइप से पानी पी लेते और डांट खाते थे. उनके घुटने छिले रहते थे और आये दिन कपड़ों के बटन गायब पाये जाते थे. वह पीढ़ी बड़ी होकर अपने सपनों की तितलियों का पीछा करने निकल गयी. उसके बाद की पीढ़ियों ने अपने पार्क पिल्लों के हवाले कर दिये. उनके सपनों और शरीर पर मोबाइल-हमला हो गया.
मुहल्ले में बच्चे हैं पर वे कभी-कभार ही बाहर दिखाई देते हैं. बालकनियों, छतों पर मोबाइल से बात करते या उसमें खोए बच्चों के दृश्य बहुत आम हैं. कमरों में मोबाइल या कम्प्यूटर में डूबे खामोश बच्चों की पीढ़ी हमारे सामने बड़ी हो रही है.  गौर कीजिए तो सुबह कॉलोनी से स्कूल जाते बच्चों में ज्यादातर थुल-थुल दिखाई देंगे. उनका खान-पान बदल गया है. उनके खेल बदल गये हैं. गेंद ताड़ी, छुपन-छुपाई, सेवन टाइल्स, रस्सी कूद, गुट्टक, सिकड़ी, जैसे नाम आज के बच्चों के लिए कतई अनजान हैं. मोबाइल के स्क्रीन पर लेकिन अजब-गजब खेल हैं. खेल हैं कि खतरनाक हथियार हैं!
पुराने को बदलना ही है. अपने जमाने को ही आज पर आरोपित करना गलत है लेकिन विकसित होते तन-मन के लिए उछल-कूद का कोई विकल्प नहीं. मोबाइल में सिमटती दुनिया से आंखें नहीं मोड़ी जा सकतीं लेकिन पार्क को पिल्लों के हवाले करके मोबाइल में पल रही पीढ़ी के बारे में चिंता करनी चाहिए.   (नभाटा, 27 मई, 2017)




    

Tuesday, May 23, 2017

दलित राजनीति में नयी सुगबुगाहट


दलित राजनीति के मोर्चे पर इस समय सबसे ज्यादा हलचल और अगर-मगर हैं. भारतीय राजनीति का यह अध्याय नये सिरे से लिखा जाने वाला तो नहीं? दलितों के एकजुट समर्थन के सहारे चार बार यूपी की सत्ता हासिल करने वाली बहुजन समाज पार्टी बिखराव के दौर से गुजर रही है. कांग्रेस की अखिल भारतीयता का अपहरण करने में लगभग कामयाब हो चुकी भारतीय जनता पार्टी दलितों का राष्ट्रव्यापी समर्थन पाने की जीतोड़ कोशिश में है और दलित राजनैतिक नेतृत्व में बन रहे निर्वात में भीम सेना की हुंकार गूंज रही है. राजनीतिक प्रेक्षकों, पार्टियों और नेताओं के कान खड़े हैं. बसपा और भाजपा नेतृत्व के माथे पर स्वाभाविक ही चिंता की रेखाएं है.
पहले थोड़ा भीम सेना के बारे में. कोई दो साल पहले नौकरी की तलाश में भटकते दो युवकों, विनय रत्न और चंद्रशेखर ने तय किया कि उन्हें अपने दलित समाज की उन्नति के लिए कुछ सार्थक कदम उठाने चाहिए. शिक्षा ही सबसे अच्छा रास्ता सूझा. सो, सहारनपुर के फतेहपुर भादों गांव में एक पाठशाला खोली गयी. दलित बच्चों की नि:शुल्क शिक्षा के लिए. यह कारवां तेजी से बढ़ा. बताते हैं कि आज पश्चिम उत्तर प्रदेश के सहारनपुर, मुजफ्फरनगर, मेरठ और शामली जिलों में ऐसी 350 पाठशालाएं हैं. अभियान सिर्फ शिक्षा तक सीमित नहीं रहा. कुएं से पानी पी लेने जैसे मुद्दों पर दलित उत्पीड़न, महिलाओं पर अत्याचार और भेदभाव के कई मुद्दे भी उठने लगे. इस तरह भीम सेना बनी. पाठशालाओं के साथ सदस्यता बढ़ती गयी. उत्पीड़न के खिलाफ आवाज दबायी जाने लगी तो वह और जोर से उठने लगी. पिछले दिनों शब्बीरपुर में सवर्णों के हाथों एक दलित युवक की मौत के विरोध को प्रशासन ने दबाया तो वह भड़क उठा. उसके नेताओं पर नक्सली होने तक के आरोप लगे. भीम सेना एक आह्वान पर जंतर-मंतर पर बड़े और आक्रामक प्रदर्शन ने देश का ध्यान खींचा है.
भीम सेना के प्रदर्शन की अनुगूंज कोई तीन दशक पहले कांशीराम के ऐसे ही प्रदर्शनों की याद दिलाती है, जिनसे अंतत: बहुजन समाज पार्टी का जन्म हुआ था. इस प्रदर्शन में सवर्ण-विरोध और भाजपा-संघ विरोधी स्वर भी बहुत मुखर हुए. भीम सेना का कोई राजनैतिक कार्यक्रम घोषित नहीं हुआ है लेकिन उसमें दलितों को आकर्षित करने वाले राजनैतिक चुम्बक के संकेत देखे जा सकते हैं. गुजरात में पटेलों और महाराष्ट्र में मराठों के हालिया प्रदर्शनों के तेवर भी इसमें देखे गये.
2014 के लोक सभा चुनाव में पूरे सफाये और उत्तर प्रदेश के हाल के विधान सभा चुनाव में बहुत बड़ी पराजय के बाद मायावती बहुजन समाज पार्टी को बचाये रखने का रास्ता ही खोज रही थीं कि भीम सेना ने उनकी नींद उड़ा दी है. दलित नेतृत्व कहीं और उभरना उन्हें क्यों मंजूर होगा. सहारनपुर जिले में दलित अत्याचार की बड़ी वारदात के बावजूद शांत बैठी मायावती मंगलवार को भागी-भागी सहारनपुर गयीं तो सिर्फ इसलिए कि बीते रविवार को दिल्ली के जंतर-मंतर पर भीम सेना के आह्वान पर हजारों दलितों की भीड़ जमा हो गयी थी. चिंता की लकीरें भारतीय जनता पार्टी के नेताओं के माथे पर भी देखी जा रही हैं. दोनों की परेशानी के बड़े कारण हैं और उनका तात्कालिक महत्त्व भी है.
बाबा साहेब आम्बेडकर की वैचारिकी और क्षेत्रीय दलित नेताओं के आंदोलन ने स्वतंत्रता-आंदोलन के समय से महाराष्ट्र में चाहे जितनी लहरें उठायीं हों, सत्ता की राजनीति से दलित सशक्तीकरण का प्रयोग कांशीराम ने ही सफल करके दिखाया. बामसेफऔर डीएस-4’ के आंदोलनों से होते हुए 1984 में बहुजन समाज पार्टी बना कर कांशीराम ने सम्पूर्ण दलित, बल्कि बहुजन समाजको राजनीतिक रूप से गोलबंद किया. वे दलित-वंचित जातियों को यह विश्वास दिलाने में कामयाब रहे कि उनकी दयनीय हालत के लिए सवर्ण मानसिकता वाले राजनीतिक दल जिम्मेदार हैं और इसे बदलने के लिए उन सबका बहुजन समाज पार्टी को सत्ता तक पहुंचाना जरूरी है. कांशीराम की आवाज पंजाब और महाराष्ट्र जैसे दलित बहुल राज्यों में क्यों कर अनसुनी रही, यह अलग विश्लेषण की मांग करता है लेकिन उत्तर प्रदेश के दलित समाज ने बसपा को सिर-आंखों पर बैठाया.
पिछले दो-ढाई दशक से यूपी और राष्ट्रीय स्तर पर भी मायावती की राजनैतिक चमक-धमक इसी दलित- समर्पण की देन रही मगर 2014 और 2017 के चुनावों ने साबित कर दिया कि वे दलित समाज की अपेक्षाओं पर खरी नहीं उतरीं. उनकी अपनी उपजाति के जाटवों को छोड़ दें तो बाकी दलित जातियां बसपा से छिटकी हुई हैं. बल्कि, भीम सेना के उभार में नये जाटव नेतृत्व के उभार के संकेत मिल रहे हैं.
राष्ट्रीय स्तर पर परिवर्तन की लहर ने 2014 में दलित वोटरों को नरेंद्र मोदी की तरफ झुकाया तो 2017 के विधान सभा चुनाव में वे मायावती से मोहभंग के कारण भाजपा की अप्रत्याशित भारी विजय का कारण बने. नरेंद्र मोदी के लखनऊ में बाबा साहेब की अस्थियों के सामने मत्था टेकने, दलित बस्तियों में बौद्ध भिक्षुओं की यात्राओं, अमित शाह प्रभृति का दलित बस्तियों में खाना खाने और बड़े पैमाने पर दलितों-पिछड़ों को टिकट देने की भाजपाई रणनीति ने यूपी फतह करा दी. अब इसी प्रयोग को भाजपा दूसरे राज्यों में दोहराने जा रही है, खासकर वहां जहां जल्दी ही विधान सभा चुनाव होने है.
नरेंद्र मोदी का कांग्रेस-मुक्त भारत का नारा भी राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा का दलित-आधार बनाने और उसे मजबूत करने की मांग करता है. कभी अविजित मानी जाने वाली कांग्रेस की अखिल भारतीयता के पीछे दलित-मुस्लिम जनाधार मुख्य हुआ करता था. इसी जनाधार के खोते जाने से कांग्रेस हाशिए पर जाती रही और आज भाजपा को अपनी अखिल भारतीयता पर पक्की मोहर लगाने के लिए ही दलित समर्थन की सबसे ज्यादा जरूरत है.
इसलिए भीम सेना का एकाएक उभार पर भाजपा चौकन्नी है. योगी सरकार बनने के दो महीने में ही पश्चिम यूपी के दलित उत्पीड़न काण्ड और उससे उपजा भीम सेना का आक्रोश भाजपा के लिए बड़ा सिर दर्द बन सकता है. उसके ध्यान में निश्चय ही है कि तमिलनाडु, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में दलित वोट कितने महत्वपूर्ण हैं. एक मात्र बड़ा राज्य जहां अभी कांग्रेस सत्ता में है और जिसे भाजपा उससे छीन लेना चाहती है, उस कर्नाटक में दलित अभी कांग्रेस के साथ दिखते हैं. यह समीकरण वह तोड़ना चाहती है.  मतलब यह कि भाजपा के एजेण्डे में दलित अभी सबसे ऊपर हैं.
भाजपा की मुश्किल यह भी है कि उसके और उससे जुड़े संगठनों के मूल चरित्र में बड़ा बदलाव लाये बिना उसका दलित-हितैषी चेहरा विश्वसनीय नहीं बन सकता. दलित-प्रेम के तमाम नारों, अभियानों और कार्यक्रमों के बावजूद आये दिन होने वाले दलित-उत्पीड़नों से उसका दामन दागी बना रहता है.

बहरहाल, दलित समाज इस समय राजनैतिक नेतृत्वहीनता की स्थिति में है. भीम सेना के उभार में वे एक नई उम्मीद देख सकते हैं. ऐसा हुआ तो बसपा और हाशिये पर जाएगी एवं भाजपा की उम्मीदों को झटका लग सकता है. (प्रभात खबर, 24 मई, 2017) 

Friday, May 19, 2017

बदलाव आये तो भला किस रास्ते से?

सिटी तमाशा
हमारी तरह आप भी खुश हुए होंगे कि बड़े पैमाने पर पेट्रोल-डीजल की घटतौली पकड़ी जा रही है. तेल चोरी करने वाली चिपें बतौर सबूत जमा हो रही हैं. पकड़े गये पम्प सील किये जा रहे हैं. उनके मालिकों की पकड़-धक‌ड़ हो रही है. हमारा अब तक जो नुकसान हुआ, सो हुआ. अब आगे तेल चोरों की हिम्मत टूटेगी. औरों को भी सबक मिलेगा.
आम जनता हमेशा ऐसा सोचती है. कार्रवाइयों, वादों पर जल्दी भरोसा कर बैठती है. फिर उसका भ्रम टूटने लगता है. चोरी की पकड़ में काफी पम्प आ गये तो एक दिन पम्प मालिकों ने एकाएक हड़ताल कर दी. एसटीएफ और प्रशासन पर उत्पीड़न का आरोप लगा दिया. आरोप लगा दिया कि चोरी पकड़ने के नाम पर सताया जा रहा है. हड़ताल हुई तो तेल कम्पनियों और प्रशासन से बातचीत हुई. बीच का रास्ता निकाला गया कि जिन मशीनों में चिप लगी पायी गयी, सिर्फ उन्हें सील किया जाएगा. बाकी मशीनों से तेल बेचते रहेंगे.
फिर हम देखते हैं कि पम्पों पर छापे में एसटीएफ की भूमिका कम हो गयी. कहा गया कि उन्हें दूसरे जिलों में भेजा है. असलियत कुछ और निकली. घटतौली जांचने का जिम्मा आपूर्ति विभाग को मिल गया. उन्हें सब चाक-चौबंद मिलने लगा. मशीनों से छेड़छाड़ के यानी चिप निकाले जाने के सबूत मिले लेकिन उस मशीन को दुरस्त करार दिया गया. पकड़-धकड़ बंद. कोई रिपोर्ट नहीं. अब पम्प वालों को कोई शिकायत नहीं है. जनता हैरत में है कि हुआ क्या! किसी नये तरीके से फिर तेल चोरी होने लगे तो भी लम्बे समय तक कोई पत्ता नहीं हिलेगा.
दो दिन पहले की खबर है कि नेहरू एनक्लेव में एक नेताजी छत पर अवैध निर्माण करा रहे थे. पड़ोसियों ने शिकायत की. एलडीए के लोग तोड़ने गये तो नेताजी ने समर्थकों के साथ बवाल कर दिया. टीम लौट गयी. पुलिस ऐसे में भी मदद को आती नहीं. सड़क पर गरीब पंक्चर बनाने वाले, रेहड़ी-खोंचे वाले अतिक्रमण के नाम पर आये दिन उजाड़े जाते हैं लेकिन सड़क किनारे घोर अवैध इमारतें बिना कोई मानक पूरा किए शान से खड़ी हैं. उनहें तोड़ने का आधा-अधूरा नाटक रोज ही होता है.
मुख्यमंत्री योगी कह रहे हैं विधायकों से कि जनता से, अफसरों से शालीन व्यवहार कीजिए. अफसर विधायकों के हाथों पिट रहे हैं, गाली खा रहे हैं. दबंग हाथ पुलिस के गिरेबां पकड़ रहे हैं. नेता सत्तारूढ़ दल का हो या विपक्ष का उसकी अकड़ जा ही नहीं रही. लाल बत्ती बंद हो गयी, दबंगई नहीं गई. पुलिस एस्कॉर्ट है, निजी गनर हैं, रास्ता साफ करते सिपाही हैं.

सारा तंत्र इस वीआईपी अकड़ का मारा है. पेट्रोल पम्प तेल चोरी करेंगे. पकड़ोगे तो अकड़ दिखाएंगे. ज्यादातर पम्प नेताओं, उनके सम्बन्धियों और दबंग लोगों के हैं. अधिसंख्य अवैध निर्माण उन्हीं के हैं. काले धंधे वे कर रहे या करा रहे हैं. भाषणों में नैतिकता और सदाचार बघारे जा रहे हैं. आचरण में उनकी बखिया उधेड़ी जा रही है. सत्ता में चेहरे अवश्य बदल गये हैं लेकिन पीछे से सत्ता को चलाने वाले वही हैं. गरीब शहीद के घर थोड़ी देर को एसी, सोफा, कालीन भेजने वाले. सड़कों को पानी से धुलवाने वाले वही हैं. नारे खूब हवा में हैं लेकिन असल में परिवर्तन के दरवाजे पर सख्त पहरा बैठा है. (नभाटा,20मई,2017) 

Friday, May 12, 2017

कहां रहिए, क्या खाइए, बताइए तो!

नसीमुद्दीन के बसपा के निष्कासन की खबर सुन कर टीवी खोला लेकिन अपने प्रिय चैनल में कुछ और ही चल रहा था. गैस के चूल्हे पर पत्ता गोभी का एक पत्ता भूना जा रहा था. तेज आंच में भी उस हरे-धानी पत्ते का बाल बांका न हुआ, वह आग को चुनौती देता वैसा ही बना रहा. हम नसीमुद्दीन को भूल कर करामाती पत्ता गोभी को देखते रहे.  अब गोभी के उस पत्ते को खीचा-ताना जा रहा था जो रबर की माफिक खिंचता ही चला गया. हम हैरान. यह सुन कर तो हम सन्न ही रह गये कि यह गोभी सब्जी बनाने के लिए बाजार से खरीदी गयी थी. वह किसी खेत की मिट्टी में उगायी गयी थी या नकली सब्जियों के कारखाने में, खुदा जाने!

चंद रोज पहले ही हमने पत्ता गोभी के गुण पढ़े थे कि विटामिन सी से भरपूर है, कैलोरी कम है और आंत का कैंसर होने से रोकने में सहायक है. तभी इन दिनों खूब पत्ता गोभी खा रहे थे कि यह वज्रपात! हम एकाएक इस रिपोर्ट पर भरोसा न करते मगर चंद रोज पहले एक परिचित, समझदार बिटिया बता कर गयी थी कि अंकल, आजकल नकली अण्डे आ रहे हैं. ऑमलेट बनाओ तो वह प्लास्टिक की तरह हो जाता है. नकली अण्डों की खबर कहीं पढ़ी भी थी. तब हंस दिये थे कि आज के पत्रकार कैसी-कैसी खबरें छपने लगे हैं. मगर उस बिटिया ने कहा तो हमें अपने फ्रिज में रखे अंण्डों पर शक हो गया. उनमें कुछ अजीब आकार के दिखे. कोई टेढ़ा, कोई कम्बख्त ऊबड़-खाबड़ खोल वाला. हमने माथे पर हाथ मारा कि प्रोटीन का हमारा एक अच्छा स्रोत भी नकली हो गया! साजिश मुर्गी की है या बाजार की?

अभी तक हवा-पानी के प्रदूषण और मिलावट से डरते थे. अब नकली सब्जी और अण्डे आने लगे! दूध से अपच है सो दही का सहारा रहता था. घर में क्या बढ़िया दही जम जाया करता था. अब नहीं जमाते  क्योंकि दही की बजाय अजीब लसलसा पदार्थ मिलता है. दही के तार बनने लगते हैं, शहद की तरह. दूध में पानी की मिलावट का जमाना गया. अब नकली दूध बनने लगा है, सुना. जाने क्या-क्या रसायन मिलाकर दूध बना देते हैं कि झाग भी दिखे और मलायी भी जमे! बाजार का गाढ़ा दही ललचाता है मगर जाने क्या मिला कर जमाते होंगे.

डॉक्टर कहते हैं पपीता खाइए, केला खाइए, हरा साग खाइए. आये दिन सुनते-पढ़ते हैं कि केला, पपीता, आम, आदि कार्बाइड से पकाये जा रहे हैं और लोगों को बीमार बना रहे हैं. हरे साग के पत्तों से महक नहीं आती, नथुनों में पेस्टीसाइड की तीखी दुर्गंध भर जाती है जो पकने पर भी जाती नहीं. लौकी हाथ में लो तो ऑक्सीटोसिन का इंजेक्शन दिखता है. तरबूज के लाल रंग में किसी सीरिंज का डंक चुभता है. सेब को रंगा और पॉलिश किया जा रहा है. डाइटीशियन से पूछा तो कह रही थी कि नमक के पानी में भिगो कर रखिए, पोटाश से धोइए. हमने सोचा कि पोटाश ही खाना है तो फल क्यों खरीदें!


चूल्हे की तेज आंच में मजे से मुस्कराता और प्लास्टिक की तरह खिंचता गोभी का पत्ता देखने के बाद हम बहुत व्याकुल हैं. हे बजरंगबली, इस जेठ में इतनी कृपा कर कि रबर की आंतें दे या वह जगह बता जहां....  (नभाटा, 12 मई, 2017)

Sunday, May 07, 2017

सबसे संगीन आरोप और संकट के जिम्मेदार केजरीवाल स्वयं हैं


नवीन जोशी
अरविंद केजरीवाल पर उनके ही एक केबिनेट मंत्री कपिल मिश्रा के भ्रष्टाचार के संगीन आरोप कानूनन साबित हों या नहीं, आम आदमी पार्टी और उसकी सरकार की साख जिस तेजी से दिल्ली और देश की जनता की नजरों में गिरती जा रही है उसे साबित करने की जरूरत नहीं. लगातार विवादों और आरोपों से घिरती जा रही आप मतदाताओं की नजरों से तो उतर ही रही है, पारदर्शी और ईमानदार वैकल्पिक राजनीति की सम्भावनाओं को बड़ी क्षति पहुंचा रही है.
केजरीवाल को दो करोड़ रुपए लेते अपनी आंखों से देखने का कपिल मिश्र का आरोप जांच-पड़ताल के पैमाने पर सबूत मांगेगा. क्या कपिल मिश्र के पास इसके सबूत हैं? क्या ऐसे प्रमाण हैं जिनके आधार पर वे सत्येंद्र जैन को शीघ्र जेल भिजवाने का दावा कर रहे हैं? दिल्ली के उपराज्यपाल से उनकी मुलाकात सिर्फ भभकी है या उसमें कुछ दस्तावेजी आधार भी हैं? केजरीवाल हाल के महीनों में चाहे जितने एकाधिकारवादी, अराजक और बड़बोले दिखायी दिये हों, उन पर स्वयं रिश्वत लेने का आरोप स्तब्धकारी और अविश्वसनीय लगता है. उनकी तानाशाहीसे आजिज आकर आपछोड़ने और स्वराज इण्डिया पार्टी बनाने वाले योगेंद्र यादव ने भी अपनी ट्विटर-प्रतिक्रिया में केजरीवाल पर घूस लेने के आरोप पर अविश्वास ही जाहिर किया है.
यह भी तथ्य है कि यह आरोप उस सख्श ने लगाया है जो दिल्ली की सड़कों पर पारदर्शिता की लड़ाई और आपकी स्थापना के दिनों से केजरीवाल का बराबर का साथी रहा है. कपिल मिश्रा ने आपकी अंदरूनी लड़ाई और केजरीवाल के खिलाफ विरोधी दलों के अभियान के दौरान केजरीवाल का पूरा साथ दिया था.  
आखिर ऐसी क्या बात है कि वही साथी अचानक केजरीवाल पर अब तक का सबसे संगीन आरोप लगाने लगा? जैसा कि आपकी तरफ से आरोपों की सफाई में मनीष सिसौदिया ने कहा, क्या मंत्रिमण्डल से हटाये जाने पर ही कपिल मिश्र केजरीवाल से इस हद तक खफा हो गये? श्री सिसौदिया के मुताबिक दिल्ली में पानी के संकट से निपटने में कपिल मिश्र की अक्षमता के कारण मुख्यमंत्री ने उन्हें मंत्रिमण्डल से हटाने का फैसला किया.
मंत्रिमण्डल में फेरबदल, कुछ को हटाना और दूसरों को शामिल करना सभी राज्य सरकारों में होता है. हटाये जाने वाले मंत्रियों का नाराज होना स्वाभाविक है लेकिन इस तरह के संगीन आरोप लगाना विरला वाकया है. इस दुर्भाग्यपूर्ण घटनाक्रम के पीछे इतनी सी वजह समझ में नहीं आती. रिश्वत लेने का आरोप चाहे जितना अपुष्ट और अविश्वसनीय हो, कुछ दूसरे कारण अवश्य होंगे.
सत्येंद्र जैन केजरीवाल के मंत्री हैं, उनके करीबी भी और उनका दामन भी आरोपों से साफ नहीं है. दिल्ली के पानी टैंकर घोटाले में जो रिपोर्ट कपिल मिश्र ने चंद रोज पहले केजरीवाल को सौंपी थी, उस पर केजरीवाल या सरकार का मौन भी सवालों के घेरे में है.
यह वजह तो साफ है ही कि केजरीवाल के तौर-तरीकों ने आपमें अराजक स्थिति पैदा कर रखी है. वे अपनी जगह भले ईमानदार हों लेकिन इतने व्यावहारिक कतई साबित नहीं हुए कि उस ऐतिहासिक अवसर का सार्थक उपयोग कर पाते जो उन्हें जनता ने उन्हीं की बातों से प्रभावित होकर दिया था. उलटे, वे लगातार विवाद पैदा करते रहे. उनके मंत्री और वे खुद आरोपों से घिरते गये.
अगर कारण भितरघात या साजिश है तो यह जानते हुए भी कि कपिल मिश्र कुमार विश्वास खेमे के आदमी हैं, केजरीवाल ने उन्हें अपनी सरकार से हटा कर एक नया मोर्चा क्यों खोल दिया? जबकि दो रोज पहले ही अमानतुल्लाह को पार्टी से निलंबित करके कुमार विश्वास से भाईचारा पुनर्स्थापित किया था? अमानतुल्लाह ने राजनीति के गलियारों की सुन-गुन को खुलेआम कह दिया था कि कुमार विश्वास भाजपा के इशारे पर पार्टी के खिलाफ काम कर रहे हैं. कुमार विश्वास को खुश करना और उनके करीबी को मंत्रिमंडल से बाहर करना, केजरीवाल का कैसा दांव है? क्या इससे वे भाजपा को ही मौके नहीं दे रहे?
एमसीडी चुनावों में बड़ी विजय के बाद अगर मोदी-शाह की भाजपा दिल्ली की आपसरकार को अस्थिर करने की चाल चल रही हो तो क्या आश्चर्य. अरुणाचल एवं उत्तराखण्ड के थोड़ा पुराने और गोवा व असम के ताजा भाजपाई खेल गवाह हैं कि वह दिल्ली में भी ताक लगाये बैठी होगी.
अगर अरविंद केजरीवाल यह जानते हैं कि आपसरकार मोदी व शाह के लिए आंख की किरकिरी है तो वे बार-बार उन्हें यह मौका क्यों दे रहे हैं कि वे इस किरकिरी को दूर करने कोशिश करते रहें?
अपनी स्थापना के सिर्फ दो साल के भीतर दिल्ली की सत्ता पा लेने वाली आम आदमी पार्टी उतनी ही तेजी से विघटन की कगार पर है. एक और टूट सामने खड़ी है. पार्टी बचे या टूटे, केजरीवाल बेईमान साबित हों या नहीं, वैकल्पिक राजनीति की उम्मीद ध्वस्त हो रही है. यह सबसे बड़ा नुकसान है. भविष्य के बेहतर प्रयोगों पर जनता आसानी से भरोसा करने वाली नहीं.     
 ( http://hindi.firstpost.com/politics/kapil-mishra-arvind-kejriwal-is-responsible-for-this-mess-28130.html)

Saturday, May 06, 2017

सफाई का सर्वेक्षण नहीं, माथे का इलाज चाहिए


प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्रियों और अनेकानेक मंत्रियों के झाड़ू लगाने या स्वच्छ भारत के बारे में भाषण देने से शहर या गांव-कस्बे साफ नहीं होते. उसे आप दिखावा कह सकते हैं या अधिक से अधिक सफाई बरतने का संदेश ग्रहण कर सकते हैं. विकास प्राधिकरणों, नगर निगमों, नगर पालिकाओं, आदि को अपने-अपने क्षेत्रों में कायदे से सफाई न कराने का जिम्मेदार ठहराया जा सकता है क्योंकि यह उनका दायित्व है. जितनी गंदगी रोज हमारे नगरों-कस्बों में निकलती है, उसे रोजाना साफ करने की क्षमता इन निकायों में नहीं है. न पूरे संसाधन हैं, न पर्याप्त अमला. यह भी स्थापित सत्य है कि अपनी क्षमता भर भी ये निकाय काम नहीं करते. भ्रष्टाचार, निकम्मापन और नेतागीरी हावी है. सफाई में हमारा प्रदेश फिसड्डी है और गोण्डा देश में सबसे ज्यादा गंदा पाया जाता है तो आश्चर्य क्या!
स्वच्छता सिर्फ सरकारी और स्वायत्तशासी विभागों का काम नहीं है. यह हर नागरिक का भी काम है. वास्तव में यह काम नहीं है, सोच है. सफाई दिमाग में होती है और वहीं से निकलती है. आचार-विचार की सफाई हो या मुहल्ले और शहर की, वह सबसे पहले दिमाग में होती है. हमारा मुहल्ला गंदा है माने हमारे मुहल्ले के दिमागों में सफाई नहीं हैं. नगर-शहर गंदे हैं तो उनके दिमाग साफ नहीं है. नगर निगम हों या नागरिक, बात माथे की है. समाज का माथा गंदा है.
मैं अपने घर में सफाई रखता हूँ. कूड़ेदान रखता हूँ और उसका इस्तेमाल करता हूँ. मैं कागज-पत्तर हों या पान की पीक, कमरे के ओने-कोने में नहीं फेंकता. बाथरूम बराबर साफ रखता हूँ. नियमित झाड़ू-पोचा लगाने की व्यवस्था है. गंदगी देखकर डांट लगाता हूँ. घर के बाहर निकलते ही मैं बदल जाता हूँ. कहीं भी कचरा फेंक देता हूँ. पान की पीक से सड़क, सीढ़ी और दफ्तर की फर्श रंग देता हूँ. कहीं भी फारिग हो लेता हूँ. कुछ खा-पीकर प्लास्टिक के कप-प्लेट जहां मर्जी आए, उछाल देता हूँ. कहीं गंदगी देख कर बच कर निकलता हूँ और नगर निगम को कोसता हूँ. मेरा माथा खराब है. मेरा मुहल्ला, मेरा शहर साफ हो ही नहीं सकता. हनुमान जी और लक्ष्मण जी को नगर निगम की जिम्मेदारी देकर देख लीजिए.
हनुमान जी के नाम से याद आया. बड़े मंगल के पर्व शुरू होने वाले हैं. पूड़ी-कचौड़ी, हलवा, खीर, शर्बत, आदि-आदि के भोग से हनुमत-सेवा करने का ठेका देना है. पुण्य कमाना है. हनुमान जी बड़े दयालु हैं. बढ़िया प्रसाद बांटूंगा ताकि मेरी ठगी, मेरा भ्रष्टाचार क्षम्य रहे. प्रसाद खिलाने और खाने वाले को कचरा फैलाने में कोई पाप नहीं दिखता. पुण्य मिले न मिले, झूठे दोने, पत्तल, गिलास और चम्मचों से सड़कें-नालियां भर जाएंगी. भक्ति में दूसरे से आगे निकलना है, गंदगी नहीं देखनी. हनुमान जी सब देख लेंगे. बेचारे बजरंगबली बोल पाते तो बताते किभक्तों का खराब है.
कचरा बीन कर रोटी कमाने वाली बड़ी आबादी नहीं होती तो देखते कि गन्दगी और सड़ांध से कैसे बजबजाते हमारे शहर. उनकी गरीबी और लाचारी ने विशाल उपभोक्ता-वर्ग और भद्र-लोक का नरक भरसक साफ कर रखा है. नगर-निकायों की नाक कुछ बचा रखी है. तो भी हमारे लिए वे गंदे और दुरदुराने लायक हैं. हमें सफाई  रैंकिंग की नहीं, माथे के इलाज की जरूरत है.  (सिटेीीतमाशा, नभाटा, 6 मई 2017)