Tuesday, May 23, 2017

दलित राजनीति में नयी सुगबुगाहट


दलित राजनीति के मोर्चे पर इस समय सबसे ज्यादा हलचल और अगर-मगर हैं. भारतीय राजनीति का यह अध्याय नये सिरे से लिखा जाने वाला तो नहीं? दलितों के एकजुट समर्थन के सहारे चार बार यूपी की सत्ता हासिल करने वाली बहुजन समाज पार्टी बिखराव के दौर से गुजर रही है. कांग्रेस की अखिल भारतीयता का अपहरण करने में लगभग कामयाब हो चुकी भारतीय जनता पार्टी दलितों का राष्ट्रव्यापी समर्थन पाने की जीतोड़ कोशिश में है और दलित राजनैतिक नेतृत्व में बन रहे निर्वात में भीम सेना की हुंकार गूंज रही है. राजनीतिक प्रेक्षकों, पार्टियों और नेताओं के कान खड़े हैं. बसपा और भाजपा नेतृत्व के माथे पर स्वाभाविक ही चिंता की रेखाएं है.
पहले थोड़ा भीम सेना के बारे में. कोई दो साल पहले नौकरी की तलाश में भटकते दो युवकों, विनय रत्न और चंद्रशेखर ने तय किया कि उन्हें अपने दलित समाज की उन्नति के लिए कुछ सार्थक कदम उठाने चाहिए. शिक्षा ही सबसे अच्छा रास्ता सूझा. सो, सहारनपुर के फतेहपुर भादों गांव में एक पाठशाला खोली गयी. दलित बच्चों की नि:शुल्क शिक्षा के लिए. यह कारवां तेजी से बढ़ा. बताते हैं कि आज पश्चिम उत्तर प्रदेश के सहारनपुर, मुजफ्फरनगर, मेरठ और शामली जिलों में ऐसी 350 पाठशालाएं हैं. अभियान सिर्फ शिक्षा तक सीमित नहीं रहा. कुएं से पानी पी लेने जैसे मुद्दों पर दलित उत्पीड़न, महिलाओं पर अत्याचार और भेदभाव के कई मुद्दे भी उठने लगे. इस तरह भीम सेना बनी. पाठशालाओं के साथ सदस्यता बढ़ती गयी. उत्पीड़न के खिलाफ आवाज दबायी जाने लगी तो वह और जोर से उठने लगी. पिछले दिनों शब्बीरपुर में सवर्णों के हाथों एक दलित युवक की मौत के विरोध को प्रशासन ने दबाया तो वह भड़क उठा. उसके नेताओं पर नक्सली होने तक के आरोप लगे. भीम सेना एक आह्वान पर जंतर-मंतर पर बड़े और आक्रामक प्रदर्शन ने देश का ध्यान खींचा है.
भीम सेना के प्रदर्शन की अनुगूंज कोई तीन दशक पहले कांशीराम के ऐसे ही प्रदर्शनों की याद दिलाती है, जिनसे अंतत: बहुजन समाज पार्टी का जन्म हुआ था. इस प्रदर्शन में सवर्ण-विरोध और भाजपा-संघ विरोधी स्वर भी बहुत मुखर हुए. भीम सेना का कोई राजनैतिक कार्यक्रम घोषित नहीं हुआ है लेकिन उसमें दलितों को आकर्षित करने वाले राजनैतिक चुम्बक के संकेत देखे जा सकते हैं. गुजरात में पटेलों और महाराष्ट्र में मराठों के हालिया प्रदर्शनों के तेवर भी इसमें देखे गये.
2014 के लोक सभा चुनाव में पूरे सफाये और उत्तर प्रदेश के हाल के विधान सभा चुनाव में बहुत बड़ी पराजय के बाद मायावती बहुजन समाज पार्टी को बचाये रखने का रास्ता ही खोज रही थीं कि भीम सेना ने उनकी नींद उड़ा दी है. दलित नेतृत्व कहीं और उभरना उन्हें क्यों मंजूर होगा. सहारनपुर जिले में दलित अत्याचार की बड़ी वारदात के बावजूद शांत बैठी मायावती मंगलवार को भागी-भागी सहारनपुर गयीं तो सिर्फ इसलिए कि बीते रविवार को दिल्ली के जंतर-मंतर पर भीम सेना के आह्वान पर हजारों दलितों की भीड़ जमा हो गयी थी. चिंता की लकीरें भारतीय जनता पार्टी के नेताओं के माथे पर भी देखी जा रही हैं. दोनों की परेशानी के बड़े कारण हैं और उनका तात्कालिक महत्त्व भी है.
बाबा साहेब आम्बेडकर की वैचारिकी और क्षेत्रीय दलित नेताओं के आंदोलन ने स्वतंत्रता-आंदोलन के समय से महाराष्ट्र में चाहे जितनी लहरें उठायीं हों, सत्ता की राजनीति से दलित सशक्तीकरण का प्रयोग कांशीराम ने ही सफल करके दिखाया. बामसेफऔर डीएस-4’ के आंदोलनों से होते हुए 1984 में बहुजन समाज पार्टी बना कर कांशीराम ने सम्पूर्ण दलित, बल्कि बहुजन समाजको राजनीतिक रूप से गोलबंद किया. वे दलित-वंचित जातियों को यह विश्वास दिलाने में कामयाब रहे कि उनकी दयनीय हालत के लिए सवर्ण मानसिकता वाले राजनीतिक दल जिम्मेदार हैं और इसे बदलने के लिए उन सबका बहुजन समाज पार्टी को सत्ता तक पहुंचाना जरूरी है. कांशीराम की आवाज पंजाब और महाराष्ट्र जैसे दलित बहुल राज्यों में क्यों कर अनसुनी रही, यह अलग विश्लेषण की मांग करता है लेकिन उत्तर प्रदेश के दलित समाज ने बसपा को सिर-आंखों पर बैठाया.
पिछले दो-ढाई दशक से यूपी और राष्ट्रीय स्तर पर भी मायावती की राजनैतिक चमक-धमक इसी दलित- समर्पण की देन रही मगर 2014 और 2017 के चुनावों ने साबित कर दिया कि वे दलित समाज की अपेक्षाओं पर खरी नहीं उतरीं. उनकी अपनी उपजाति के जाटवों को छोड़ दें तो बाकी दलित जातियां बसपा से छिटकी हुई हैं. बल्कि, भीम सेना के उभार में नये जाटव नेतृत्व के उभार के संकेत मिल रहे हैं.
राष्ट्रीय स्तर पर परिवर्तन की लहर ने 2014 में दलित वोटरों को नरेंद्र मोदी की तरफ झुकाया तो 2017 के विधान सभा चुनाव में वे मायावती से मोहभंग के कारण भाजपा की अप्रत्याशित भारी विजय का कारण बने. नरेंद्र मोदी के लखनऊ में बाबा साहेब की अस्थियों के सामने मत्था टेकने, दलित बस्तियों में बौद्ध भिक्षुओं की यात्राओं, अमित शाह प्रभृति का दलित बस्तियों में खाना खाने और बड़े पैमाने पर दलितों-पिछड़ों को टिकट देने की भाजपाई रणनीति ने यूपी फतह करा दी. अब इसी प्रयोग को भाजपा दूसरे राज्यों में दोहराने जा रही है, खासकर वहां जहां जल्दी ही विधान सभा चुनाव होने है.
नरेंद्र मोदी का कांग्रेस-मुक्त भारत का नारा भी राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा का दलित-आधार बनाने और उसे मजबूत करने की मांग करता है. कभी अविजित मानी जाने वाली कांग्रेस की अखिल भारतीयता के पीछे दलित-मुस्लिम जनाधार मुख्य हुआ करता था. इसी जनाधार के खोते जाने से कांग्रेस हाशिए पर जाती रही और आज भाजपा को अपनी अखिल भारतीयता पर पक्की मोहर लगाने के लिए ही दलित समर्थन की सबसे ज्यादा जरूरत है.
इसलिए भीम सेना का एकाएक उभार पर भाजपा चौकन्नी है. योगी सरकार बनने के दो महीने में ही पश्चिम यूपी के दलित उत्पीड़न काण्ड और उससे उपजा भीम सेना का आक्रोश भाजपा के लिए बड़ा सिर दर्द बन सकता है. उसके ध्यान में निश्चय ही है कि तमिलनाडु, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में दलित वोट कितने महत्वपूर्ण हैं. एक मात्र बड़ा राज्य जहां अभी कांग्रेस सत्ता में है और जिसे भाजपा उससे छीन लेना चाहती है, उस कर्नाटक में दलित अभी कांग्रेस के साथ दिखते हैं. यह समीकरण वह तोड़ना चाहती है.  मतलब यह कि भाजपा के एजेण्डे में दलित अभी सबसे ऊपर हैं.
भाजपा की मुश्किल यह भी है कि उसके और उससे जुड़े संगठनों के मूल चरित्र में बड़ा बदलाव लाये बिना उसका दलित-हितैषी चेहरा विश्वसनीय नहीं बन सकता. दलित-प्रेम के तमाम नारों, अभियानों और कार्यक्रमों के बावजूद आये दिन होने वाले दलित-उत्पीड़नों से उसका दामन दागी बना रहता है.

बहरहाल, दलित समाज इस समय राजनैतिक नेतृत्वहीनता की स्थिति में है. भीम सेना के उभार में वे एक नई उम्मीद देख सकते हैं. ऐसा हुआ तो बसपा और हाशिये पर जाएगी एवं भाजपा की उम्मीदों को झटका लग सकता है. (प्रभात खबर, 24 मई, 2017) 

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