Friday, June 30, 2017

राजनीति की बेशर्मी और कलंकित अभयदान


क्या यह बहुत स्तब्ध और क्षुब्ध करने वाली बात नहीं है कि मुलायम सिंह यादव ने गायत्री प्रजापति को निरपराध घोषित करते हुए जेल में उन्हें हो रही तकलीफों पर आंसू बहाये हैं? यहां तक कह दिया कि गायत्री के साथ जेल में आतंकवादियों की तरह सलूक किया जा रहा है और मैं उनके लिए डीजीपी एवं मुख्यमंत्री से मिलूंगा. वहां बात नहीं बनी तो प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति से भी मुलाकात करूंगा. गायत्री प्रजापति गैंग रेप के आरोप में जेल में बंद हैं. उनकी गिरफ्तारी पिछली फरवरी में सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर हुई थी. वर्ना कई संगीन आरोपों के बावजूद समाजवादी पार्टी के शासन में गायत्री को कोई छू नहीं सकता था. सपा दोबारा सत्ता में आ जाती तो गायत्री आज भी मुलायम के चरणों में बैठ कर मनचाहा कर रहे होते.  
क्या मुलायम सिंह ने तनिक भी नहीं सोचा होगा कि वे किस व्यक्ति को पाक-साफ घोषित कर रहे हैं और वे जो कह रहे हैं उसका समाज पर क्या प्रभाव पड़ेगा? जब वे गैंग रेप के एक आरोपी के बचाव में उतर रहे हैं, उसे जेल में देख कर द्रवित हो रहे हैं, तो क्या यह संदेश भी नहीं दे रहे कि राजनैतिक संरक्षण में बलात्कार के आरोपी का भी कुछ नहीं बिगड़ सकता? क्या वे गायत्री जैसे आरोपियों का मनोबल नहीं बढ़ा रहे? इस बयान के बाद खुद उनके बारे में जनता क्या सोच रही होगी? और सोचिए, कि उनकी ख्वाहिश देश का प्रधानमंत्री बनने की रही है.
दु:ख है कि आज के नेता इस तरह नहीं सोचते और मुलायम तो बिल्कुल भी नहीं. पहले भी वे राजनीति में अपराधी चरित्र के लोगों को लाते और उनका बचाव करते रहे हैं. नेताओं पर दर्ज संगीन आपराधिक मुकदमों को वे राजनीतिक दुर्भावना करार देते हैं लेकिन बलात्कार के आरोपी का इस तरह बचाव अत्यन्त दुखद और दुर्भाग्यपूर्ण है. गौर किया जाए कि सुप्रीम कोर्ट को बीती फरवरी में यह कहना पड़ा था कि गायत्री प्रजापति का स्थान जेल में होना चाहिए.
तब समाजवादी पार्टी का राज था और गायत्री की तूती बोलती थी. उन पर मुकदमा लिखना तो दूर, खुद पुलिस उनकी मदद करती फिर रही थी. शिकायतकर्ता मां बेटी को पुलिस अफसर ही धमका रहे थे और जांच भटकाने में लगे थे. सुप्रीम कोर्ट के दखल से मुकदमा लिखा गया और गिरफ्तारी हुई, हालांकि चुनाव तक वे अपने क्षेत्र में खुले आम घूमते रहे थे. लोकायुक्त की जांच में गायत्री के खिलाफ बड़े घपले के सबूत मिले थे मगर उस पर कोई कार्रवाई कैसे होती, जबकि रेप का मुकदमा लिखे जाने के बावजूद प्रजापति मंत्री पद पर शोभायमान रहे. मुलायम के खिलाफ आईजी अमिताभ ठाकुर को फोन पर धमकाने वाला मामला भी गायत्री से जुड़ा है. अमिताभ और उनकी पत्नी नूतन ने गायत्री के कई घोटालों की पड़ताल की थी.  

तत्कालीन मुख्यमंत्री अखिलेश ने एक बार जोश में गायत्री को मंत्रिमण्डल से बर्खास्त कर दिया था. पिता के फरमान से फौरन वापस लेना पड़ा. तब गायत्री ने मुलायम के चरणों में बैठ कर हंसते हुए फोटो खिंचवाया था. अब वे जेल में उन चरणों पर रो दिये होंगे. वह हंसी हमारी आज की राजनीति की बेशर्मी है. यह रोना कलंकित अभयदान की याचना है. महिलाओं का अपमान है. अफसोस, अपने को लोहिया का शिष्य कहने वाले मुलायम यह नहीं देख पाते.  (सिटी तमाशा, नभाटा, 30 जून, 2017) 

फेसबुक - भयानक शोर, बदमिजाजी और गोलाबारी


जब फेसबुक, ट्विटर जैसी सोशल साइटें नहीं थीं क्या तब भी सामयिक और ज्वलंत मुद्दों पर अपनी भिन्न-भिन्न राय रखने वाले लोग एक-दूसरे पर इतनी तीखी और फूहड़ टिप्पणियां, गाली-गलौज करते थे, जितनी/जैसी इन दिनों कर रहे हैं? विवाद अप्रिय स्थिति तक पहुंच जाए तो किसी को ब्लॉककरते थे और कैसे? फेसबुक और ट्विटर पर पिछले कुछ वर्षों से जैसी मार-काट मची है, उसे देख कर हैरान होते हुए मैं सोचता हूं.
परस्पर लम्बा पत्र-व्यवहार, अखबारों के चिट्ठी-पत्री स्तम्भ में कुछ पाठकों में मत-मतांतर का सिलसिला, चाय-काफी की मेजों पर देर तक चलने वाली बहसें, कभी-कभी गुस्सा और अबोला भी विरोधी विचार वालों के बीच हमेशा होता रहा है. कई शहरों के कॉफी हाउस गरमागरम बहसों के लिए प्रसिद्ध रहे हैं. किसी जमाने में जब लखनऊ कॉफी हाउस खूब गुलजार रहता था, उसकी एक दीवार में यह चेतावनी टंगी हुई थी- “अ लाउडेस्ट व्हिस्पर इज बेटर दैन अ लो शाउट” यानी बहुत धीरे चीखने से कहीं अच्छा है कि खूब जोर से फुसफुसाया जाए.” बहस कीजिए, शोर-शराबा नहीं.
आज फेसबुक में बेहद शोर है. बहुत बदमिजाजी है. वह भयानक शोर हमारे कानों को सुनाई नहीं देता लेकिन हमारे दिल-दिमाग को सुन्न बना रहा है. वहां हर कोई अपनी और दूसरे की वॉल पर चीख रहा है. तर्क और विचार नहीं, सिर्फ चीख-चिल्लाहट और गाली-गलौज है.  
मैं फेसबुक के अपने “मित्रों” में अधिकसंख्य के बारे में बता सकता हूं कि मुद्दा कोई भी हो, वे किस पाले में खड़े होंगे और क्या-कैसी राय व्यक्त करेंगे. साफ-साफ पाले खिंचे हुए हैं. यूं भी कह सकते हैं कि दो पालों में बंटे लोगों ने वहां कब्जा कर लिया है. मुद्दा कोई भी हो, एक-दूसरे पर हमले किये जा रहे हैं. कुछ वर्ष पहले तक इतना तीखा विभाजन नहीं था. मुद्दे को समझने की चेष्टा की जाती थी. तब राय बनायी जाती थी. विपरीत मत से आश्वस्त होने पर कुछ लोग राय बदल भी लेते थे या शालीनता से स्वीकार कर लेते थे कि हमारी राय अलग ही रहेगी. इससे रिश्तों पर आंच नहीं आती थी. आज शोसल साइटों ने पुराने और अच्छे रिश्ते तक बिगाड़ दिये हैं.  
पिछले डेढ-दो दशक में धीरे-धीरे और 2012 के आसपास से समाज में तीव्र वैचारिक ध्रुवीकरण हुआ है. इसी दौरान सोशल साइट भी विकसित और लोकप्रिय हुईं. अब हर-एक के पास एक मंच है, हाथ में  एक माइक है और वह चीखे जा रहा है. आरएसएस, भाजपा और उसके संगठनों ने बहुत चालाकी से ब्रेन-वॉशिंग की है. उग्र हिंदू-राष्ट्रवाद के प्रचार-प्रसार और उसके सत्तारोहण ने उस बहुत बड़ी आबादी को भी आक्रामक बना दिया है जो बहुत उदार एवं सहिष्णु था. जनाधार छीझने से किनारे होते गये वाम-मार्गी भी अपनी सारी खीझ वहीं निकाल रहे हैं और उसी अंदाज़ में. कांग्रेस, समाजवादी और क्षेत्रीय राजनैतिक दलों की सत्ता की अवसरवादी राजनीति ने इसे पनपने देने के बढ़िया जमीन तैयार की. आज वे विलाप की मुद्रा में भले हों, उन्हें कैसे श्रेय-वंचित किया जाए!
एक बड़ा पाला भाजपा, बल्कि नरेंद्र मोदी समर्थकों का है. वे हर बात में वामपंथियोंऔर सेकुलरोंको पानी पी-पी के गरिया रहे हैं. दूसरी तरफ से भक्तोंपर ताबड़तोड़ हमले हो रहे हैं. सेकुलरऔर भक्तयहां सबसे प्रचलित और सबसे बुरी गालियां हैं.  कोई भी पोस्ट, कितनी ही विचारणीय और मौजूं क्यों न हो, पूरी पढ़ी नहीं जाती, बात समझी नहीं जाती. आपको किसी पाले में धकेल कर हमला पहले शुरू हो जाता है. कई बार तो यह देख कर ही गोलाबारीहोने लगती है कि पोस्ट भक्तकी है या सेकुलरकी. मारो-मारो का शोर उठता है और लोग पिल पड़ते हैं.
पिछले वर्ष असहिष्णुता की बहस में यही हुआ. लेखकों, फिल्मकारों, इतिहासकारों, विज्ञानियों, समाज-विज्ञानियों, आदि-आदि की पुरस्कार वापसी के मुद्दे को उसके मूल में समझने की बजाय, उसका खूब मखौल बनाया गया. नाम ही पड़ गया पुरस्कार वापसी गैंग’. आप भक्तहैं या गैंगमें शामिल हैं. गोहत्या के नाम पर निर्दोष लोगों की हत्या का विरोध हो अथवा सर्जिकल स्ट्राइक, कश्मीर में सेना की भूमिका, सेनाध्यक्ष के बयान और बिल्कुल हाल का एनडीटीवी मामला, आप सवाल उठाएंगे तो एक पाले में फैंक दिये जाएंगे.  शोर-बली और कुतर्क-बली किसी भी बाहुबली से ज्यादा आक्रामक हैं. विमर्श की गुंजाइश नहीं. सवाल पूछना गुनाह.    
यहां झूठ और अफवाह फैलाने वालों का गिरोह भी बहुत सक्रिय है. कोई इतिहासका गोपनीयअध्याय खोल कर आपको बतायेगा कि नेहरू परिवार किस मुस्लिम-खानदान की विरासत को ढोते हुए भारत को बर्बाद करने पर तुला है, कि ताजमहल असल में तेजोमहालय है, और ऐसी सूची बहुत लम्बी है. कहीं की फोटो कहीं लगा दी जाएगी, किसी पर किसी की आवाज डब कर दी जाएगी. टेक्नॉलॉजी राजनैतिक गिरोहबाजों का खिलौना बन गयी है.  
जिन सोशल साइटों को हर व्यक्ति का अपना मंच होना था, कहने-सुनने-समझने का अवसर बनना था, हमारे यहां उन पर लट्ठमार पालेबाजों, अफवाह फैलाने और राजनैतिक दुष्प्रचार वालों का कब्जा हो गया है. यह अकारण नहीं कि बहुत सारे संतुलित लोग यह टिप्पणी करते हैं कि यहां विमर्श सम्भव नहीं. गम्भीर, विचारणीय पोस्ट पढ़ी नहीं जाती. ऊल-जलूल पोस्ट सैकड़ों लाइक एवं कमेण्ट खींचती है. इसलिए लोग मित्र-सूचीकी छंटाई करते हैं.  ब्लॉककरते हैं, ‘मित्रको शत्रु बनाते हैं.  तो, आज फेसबुक में एक मित्र-सूची है और एक शत्रु-सूची भी बन गयी है.  
ई-मेल में अंग्रेजी के बड़े हिज्जे (कैपिटेल लेटर) लिखना शोर मचाना और इसीलिए असभ्यता माना जाता है. सोशल साइट्स के लिए जैसे कोई आचार-विचार बना ही नहीं! यहां हर कोई आजाद  है किसी विषय पर, किसी से कुछ भी कह देने के लिए. आप किसी से व्यर्थ न उलझना चाहें और मौन धारण कर लें तब भी वह ललकारेगा- डर कर भाग गये?’ चर्चा न हुई, डब्ल्यू-डब्ल्यू-ई का मारक अखाड़ा हो गया!  
बहुत सारे सीधे-सरल लोग इस बहिया में बहे जा रहे हैं. हमारे देश की विशाल आबादी के पास खूब समय है, बेरोजगारी है, अशिक्षा और नासमझी है. सस्ते इण्टरनेट की दुनिया मजेदार तमाशा है.  उन्हें झूठ भी सच लग रहा है. वे किसी पाले में घसीट लिये गये हैं, दुष्प्रचार का औजार बना दिये गये हैं, यह वे जान ही नहीं पाते.
यह बहुत खतरनाक बात है.   




Wednesday, June 28, 2017

शिक्षा को तीर्थ-दर्शन कराती सरकारें


कश्मीर की अशान्ति, किसान आंदोलन और राष्ट्रपति चुनाव की उम्मीदवारी के शोर-शराबे के बीच जून के तीसरे सप्ताह में आगे-पीछे आयी दो महत्वपूर्ण खबरें खो-सी गयीं. दोनों खबरें सरकारी तंत्र की शिक्षा के प्रति घोर उपेक्षा की कीमत पर दूसरी प्राथमिकताओं की तरफ इशारा करती हैं. पहली खबर 21 जून को पंजाब विधान सभा से मिली. एक सवाल के जवाब में वित्त मंत्री मनप्रीत सिंह बादल ने बताया सरकार ने शिरोमणि अकाली दल-भाजपा सरकार के समय की मुखमंत्री तीरथ दर्शन यात्रा स्कीम रद्द कर दी है क्योंकि राज्य की शैक्षिक संस्थाओं को धन नहीं मिल पा रहा है. इस स्कीम में पिछली बादल सरकार ने  वर्ष 2016-17 में नि:शुल्क तीर्थ यात्रा पर एक अरब 39 करोड़ 38 लाख रु खर्च किये थे जबकि पंजाब विश्वविद्यालय धन की मांग करता रह गया, बाबा फरीद चिकित्सा विश्वविद्यालय की 40 करोड़ रु की जरूरत पूरी नहीं हुई और कपूरथला सैनिक स्कूल को दस साल से कोई फण्ड नहीं मिल पाया था.
अगले दिन दूसरी खबर उत्तराखण्ड से आयी. 22 जून को नैनीताल हाई कोर्ट ने सख्त निर्देश जारी किया कि उत्तराखण्ड सरकार कार, एसी, फर्नीचर जैसी ऐशो-आराम की चीजें नहीं खरीद सकेगी क्योंकि वह राज्य के सरकारी स्कूलों को न्यूनतम जरूरी सुविधाएं भी दे पाने में बुरी तरह विफल रही है. अदालत ने राज्य में शिक्षा की खस्ताहाली के लिए राज्य सरकार जिम्मेदार ठहराया. दरअसल, हाई कोर्ट ने पिछले साल नवम्बर में सरकार को निर्देश दिया था कि वह राज्य के सभी सरकारी स्कूलों को बेंच, डेस्क, स्कूल ड्रेस, मिड डे मील, कम्प्यूटर, ब्लैक बोर्ड और लाइब्रेरी की सुविधा उपलब्ध कराए. साथ ही लड़के व लड़कियों के लिए अलग-अलग साफ-सुथरे शौचालय बनवाए. अदालत ने पाया कि सराकार ने अब तक इस निर्देश पर अमल नहीं किया है. पिछले नवम्बर में उत्तराखण्ड में कांग्रेस की सरकार थी आज उसकी जगह भाजपा की प्रचण्ड बहुमत वाली सरकार है. 
यह तीसरी खबर भी जून महीने ही की है कि उत्तर प्रदेश की बेसिक शिक्षा राज्य मंत्री अनुपमा जायसवाल ने समाज के सम्पन्न लोगों से सरकारी स्कूलों को गोद लेने की अपील की है ताकि उनमें बेहतर शिक्षा देने की व्यवस्था की जा सके. यानी अपने प्राथमिक विद्यालयों को सुधारने के लिए उत्तर प्रदेश सरकार के पास इससे बेहतर उपाय अथवा चिंतन फिलहाल नहीं है.
ये खबरें साफ बताती हैं कि सरकारों की प्राथमिकता में शिक्षा कहां है. बेसिक स्कूल हों या विश्वविद्यालय या चिकित्सा एवं शोध-संस्थान, वे आवश्यक खर्चों के लिए भी सरकार का मुंह ताकते रहते हैं या खुद धन जुटाने की मशक्कत करते हैं. दूसरी तरफ, सरकारें लोक-लुभावन योजनाओं पर जनता का धन पानी की तरह बहाती हैं. पंजाब की पिछली अकाली-भाजपा सरकार के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल ने जनता के विभिन्न वर्गों को खुश करने के लिए मुखमंत्री तीरथ दर्शन स्कीम चलायी. यह उनकी प्रिययोजनाओं में था जिसमें अलग-अलग दल बनाकर लोगों को देश के विभिन्न तीर्थ-स्थानों की यात्रा करायी गयी. हजारों की संख्या में बस और ट्रेन यात्राएं हुईं. पूरा खर्च सरकार ने उठाया. जाहिर है, इसका उद्देश्य धर्मभीरु जनता को खुश करना और उनका वोट हासिल करना था.
अखिलेश यादव के नेतृत्व वाली  उत्तर प्रदेश की पिछली समाजवादी सरकार ने भी बिल्कुल इसी तरह की समाजवादी श्रवण योजनायोजना चलायी थी. उसमें भी समाज के वरिष्ठ एवं गरीब लोगों का चयन कर उनके लिए आईआरसीटीसी के जरिए कई तीर्थ स्थानों के लिए विशेष ट्रेनें चलवाईं. समाजवादी पार्टी तब भाजपा और हिंदूवादी संगठनों की ओर से मुस्लिम-तुष्टीकरण का आरोप झेल रही थी. हज यात्रा के लिए सरकारी सहायता निशाने पर थी. भाजपा के आक्रामक प्रचार की काट के लिए सरकार ने स्वयं श्रवण कुमार बन कर आस्थावान हिंदुओं को उनके तीर्थ-स्थलों में नि:शुल्क घुमा कर पुण्य कमाया. यही नहीं, हज-यात्रा-सब्सिडी के जवाब में कैलाश-मानसरोवर यात्रियों को पचास हजार रु की नकद सहायता देना शुरू किया. इस पूरे दौर में सरकारी विद्यालय स्कूल भवन, अध्यापकों, कॉपी-किताबों, ड्रेस, शौचालयों, आदि मूल जरूरतों के लिए तरसा किए.
शैक्षिक संस्थानों को धन उपलब्ध कराने के लिए तीरथ दर्शन स्कीम बंद करने का पंजाब की नयी कांग्रेस सरकार का फैसला स्वागत योग्य तो है लेकिन सिर्फ इतने से जाहिर नहीं होता कि शिक्षा जगत के हालात सुधारने की उसकी दीर्घकालीन योजना क्या है? प्राथमिक विद्यालयों का हाल पूरे देश में कमोबेस एक जैसा है. उनमें बच्चों के बैठने के लिए साधारण बेंच-डेस्क, ब्लैक बोर्ड और पढ़ाने के लिए अध्यापक तक नहीं हैं. कहीं-कहीं तो स्कूल भवन खण्डहर हैं, कम्प्यूटर और अलग शौचालय की कौन कहे. यही वजह है कि निजी विद्यालय बेतहाशा फल-फूल रहे हैं. गरीब से गरीब आदमी भी अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूल में भर्ती कराना चाहता है. उनकी लूट-खसोट हमेशा खबरों में रहती है.
उत्तराखण्ड हाईकोर्ट के सख्त आदेश से अदालत की वह चिंता और बेचैनी समझी जा सकती है जो शिक्षा क्षेत्र के हालात सुधारने के प्रति सभी दलों की सरकारों की अनिच्छा या उपेक्षा से उपजती है. अगर सरकार स्कूलों को अत्यंत जरूरी सुविधाएं भी नहीं दे सकती तो उसे अपने लिए कार, एसी, फर्नीचर, वगैरह खरीदने का भी हक नहीं, यह आदेश असाधारण स्थितियों में ही दिया गया है. उत्तराखण्ड राज्य बने सोलह वर्ष हो चुके. वहां की जनता अपनी विशिष्ट भौगोलिक स्थितियों के मद्देनजर उत्तर प्रदेश में अन्याय और शोषण की शिकायत करती थी. शिक्षा और पलायन ही से रोजी-रोटी का रास्ता खुलता था और स्कूल मीलों दूर होते थे. राज्य बनने के बाद स्कूल भवन तो खूब बने लेकिन उनमें पढ़ाई की पूरी क्या, न्यूनतम जरूरी व्यवस्था भी नहीं की गयी. राज्य बनने के सोलह साल बाद एक पीआईएल के जरिए आए अदालती निर्देश के बावजूद उसके पालन की पहल न तब की कांग्रेस सरकार ने की थी, न वर्तमान भाजपा सरकार कर रही है. अदालत इससे सख्त टिप्पणी और क्या कर सकती है?
उत्तराखण्ड सरकार को अदालत के इस आदेश से परेशानी स्वाभाविक थी. सो, वह इसे बदलने का अनुरोध लेकर उसकी चौखट पर  जा पहुंची (अदालत ने थोड़ी-सी राहत दी है) लेकिन सभी स्कूलों को जरूरी संसाधन देने के मूल मुद्दे का क्या होगा? पंजाब के शैक्षिक संस्थानों का आर्थिक संकट, माना कि, अभी कुछ दूर कर दिया जाएगा लेकिन शिक्षा का सम्पूर्ण सुधार सरकारों का प्राथमिक एजेण्डा कब बनेगा? उत्तर प्रदेश की नयी योगी सरकार ने कैलाश-मानसरोवर यात्रियों की सहायता राशि बढ़ाकर एक लाख रु करने में तनिक देर नहीं लगायी लेकिन सरकारी स्कूलों में छात्रों को बांटने के लिए किताबें, ड्रेस, आदि की खरीद उसी तरह विलम्बित है जैसे पूर्ववर्ती सरकार में थी. और, स्कूलों को गोद लेने की अपील क्या यह नहीं बताती कि सत्ता में सिर्फ पार्टी बदली है, प्राथमिकताएं नहीं? (प्रभात खबर, 28 जून, 2017)


Saturday, June 24, 2017

42 साल पहले अखबारों का मुंह बंद करने वाले वे सेंसर-आदेश


 “सूचना विभाग में सेंसर के श्री वाजपेई ने फोन किया था कि सेंसर-आदेशानुसार परिवार नियोजन, शिक्षा शुल्क में वृद्धि तथा सिंचाई दरों में वृद्धि के विरुद्ध किसी प्रकार का समाचार न छापा जाए. इसके अतिरिक्त, छात्र-आंदोलन की खबरें भी नहीं छपेंगी.”
11 जुलाई, 1976  को लखनऊ के प्रतिष्ठित दैनिक स्वतंत्र भारतके सम्पादकीय विभाग के एक वरिष्ठ सदस्य ने ये पंक्तियां टाइप करके निर्देश-रजिस्टर में लगायीं ताकि सभी देखें और पालन कर सकें. देश भर के सभी अखबारों में उन दिनों रोजाना ऐसे कई-कई सेंसर-आदेश पहुंचते थे. अखबारों की खबरों पर कड़ा पहरा था.   
आज से 42 वर्ष पहले, 25 जून, 1975 की रात तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अपनी सत्ता बचाने और बढ़ते राजनैतिक विरोध को कुचलने के लिए देश में आंतरिक आपातकाल लागू कर दिया था. जनता के सांविधानिक अधिकार निलंबित कर दिये गये थे. विरोधी नेता गिरफ्तार कर जेल में डाले गये. प्रेस पर सेंसरशिप लागू कर दी गयी थी.  
अखबारों में क्या छपेगा, क्या नहीं, यह सम्पादक नहीं, सेंसर अधिकारी तय करते थे. राज्यों के सूचना विभाग, भारत सरकार के पत्र सूचना कार्यालय (पीआईबी) और जिला-प्रशासन के अधिकारियों को सेंसर-अधिकारी बना कर अखबारों पर निगरानी रखने का काम दिया गया था. ये अधिकारी सम्पादकों-पत्रकारों के लिए निर्देश जारी करते थे. खुद उन्हें ये निर्देश दिल्ली के उच्चाधिकारियों, कांग्रेस नेताओं, खासकर इंदिरा गांधी एवं उनके छोटे बेटे संजय गांधी की चौकड़ी से प्राप्त होते थे. इन पर अमल करना अनिवार्य था अन्यथा गिरफ्तारी से लेकर प्रेस-बंदी तक हो सकती थी.
अगस्त, 1977 में जब इन पंक्तियों के लेखक ने दैनिक स्वतंत्र भारतमें बतौर प्रशिक्षु सह-सम्पादक काम करना शुरू किया तो सम्पादकीय-निर्देश-रजिस्टर में नत्थी कई सेंसर-आदेश देखे थे. बाद में उसमें से कुछ सेंसर-आदेश अपने सुरक्षित रख लिये थे.
इमरजेंसी के 42 साल बाद आज इन चंद निर्देशों को पढ़ने पर उस डरावने माहौल का अंदाजा लगता है जिसमें पत्रकारों को काम करना पड़ा था, अखबारों पर कैसा अंकुश था और कैसी-कैसी खबरें रोकी जाती थीं.
एक सेंसर-आदेश 20 जुलाई, 1976 को तत्कालीन सम्पादक अशोक जी के हस्ताक्षर से इस तरह था-
“नसबंदी में मृत्यु या अन्य धांधली की खबरें न दी जाएं. प्राप्त होने पर इन्हें समाचार सम्पादक श्री दीक्षित या मुझे दिया जाए.”
इसी बारे में एक सेंसर-आदेश एक नवम्बर 1976 का भी है- “विधानमण्डल का आज से अधिवेशन शुरू हो रहा है. परिवार नियोजन के सम्बन्ध में कुछ जिलों में कुछ अप्रिय घटनाएं हुई थीं. समाचार देते समय इन घटनाओं के कृपया टोन डाउनकरें और इस सम्बंध में पुराने निर्देशों का पालन करें. (ध्रुव मालवीय का फोन)- हस्ताक्षर, सहायक सम्पादक”
गौरतलब है कि इमरजेंसी में संजय गांधी ने सनक की तरह जनसंख्या-नियंत्रण कार्यक्रम चलवाया. सरकारी कर्मचारियों, डॉक्टरों, आदि को नसबन्दी के बड़े लक्ष्य दिये गये. अविवाहित युवकों, बूढ़ों, भिखारियों तक को पकड़-पकड़ कर उनकी जबरन नसबन्दी की गयी. असुरक्षित नसबन्दी के कारण देश भर में बहुत मौतें हुई थीं. रोहिण्टन मिस्त्री के अंग्रेजी उपन्यास अ फाइन बैलेंसमें इस सबका मार्मिक और दहलाने वाला चित्रण है.
एक और सेंसर-आदेश देखिए-
“सेंसर अधिकारी, एम आर अवस्थी का फोन, नौ अक्टूबर 1976 को-
1-भारत और अन्य किसी देश के बीच शस्त्रास्त्र अथवा रक्षा समझौते की सूचना तथा उस पर कोई टिप्पणी प्रकाशित न की जाए.
2-बस्ती जिले में बीडीओ तथा एडीओ की हत्या का समाचार न छापा जाए.” –सहायक सम्पादक
बिना तारीख का एक सेंसर-नोट कहता है- “गुजरात हाईकोर्ट के जजों के तबादले सम्बंधी बहस का कोई समाचार बिना सेंसर कराए नहीं जा सकता.” (1976 में गुजरात हाई कोर्ट के एक न्यायाधीश ने अपने तबादले को बड़ा मुद्दा बनाकर अदालत में चुनौती दी थी और भारत सरकार को भी पार्टी बना लिया था. इस पर लम्बी अदालती बहस चली थी)
10 दिसम्बर ,1976 को समाचार सम्पादक के हस्ताक्षर से जारी आदेश- “14 दिसम्बर को संजय गांधी का जन्म-दिवस है. इस संदर्भ में किसी भी कांग्रेसी नेता का संदेश नहीं छपेगा. सूचना विभाग से टेलीफोन पर सूचना मिली.”
28 दिसम्बर (सन दर्ज नहीं) को समाचार सम्पादक के हस्ताक्षर से जारी अंग्रेजी में टाइप किया हुआ “सेंसर-निर्देश- कांग्रेस, यूथ कांग्रेस और अखिल भारतीय कांग्रेस के भीतर अथवा आपस में विवाद और गुटबाजी के बारे में कोई भी खबर, रिपोर्ट और टिप्पणी कतई नहीं दी जाए (शुड बी किल्ड). यह विशेष रूप से केरल, पश्चिम बंगाल और उड़ीसा कांग्रेस की खबरों पर लागू होगा.”
25 अक्टूबर (सन दर्ज नहीं) का अंग्रेजी में हस्तलिखित नोट- “सेंसर ऑफिस से श्री पाठक का निर्देश- यह फैसला हुआ है कि 29 अक्टूबर से होने वाले चौथे एशियाई बैडमिण्टन टूर्नामेण्ट में चीन की बैडमिण्टन टीम की भागीदारी भारतीय अखबारों में बहुत दबा दी जाए.”  आज यह समझ पाना मुश्किल है कि चीन की बैडमिण्टन टीम के भारत आकर खेलने की खबर तत्कालीन इंदिरा सरकार क्यों दबाना चाहती थी.
इस लेखक के हाथ लगे सेंसर-आदेश इमरजेंसी लगने के करीब साल भर बाद के हैं. बिल्कुल शुरू के आदेश और सख्त रहे होंगे. कुछ आदेश ऐसे भी होंगे जो मालिकों या सम्पादकों को सीधे सुनाए गये होंगे, बिना कहीं दर्ज किये.
सभी अखबारों को सेंसर-आदेशों का पालन करना पड़ा था. विरोध के प्रतीक-रूप में कतिपय अखबारों ने एकाधिक बार अपने सम्पादकीय की जगह खाली छोड़ी. कुछ छोटे लेकिन न झुकने वाले पत्रों ने प्रकाशन स्थगित किया या सरकार ने ही उन्हें बंद कर सम्पादकों-पत्रकारों को जेल में डाल दिया था.
25 जून 1975 की रात लागू इमरजेंसी 21 मार्च 1977 तक रही. यह पूरा दौरआजाद भारत के लिए बहुत भयानक था. लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की आजादी के लिए सबसे काला दौर, जब हर प्रकार का प्रतिरोधी-स्वर कुचल दिया गया था.
आपातकाल हटने के बाद हुए चुनाव में कांग्रेस (इ) की बहुत बुरी पराजय हुई. इंदिरा गांधी और संजय दोनों चुनाव हारे. उन्हें अपने सबसे बुरे दिन देखने पड़े थे.

लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की आजादी छीनने की कोशिश करने वालों के लिए वह दौर एक बड़ा और जरूरी सबक है. इसीलिए अभी हाल में एनडीटीवी के मामले में दिल्ली प्रेस क्लब में हुई विरोध सभा में कुलदीप नैयर से लेकर अरुण शौरी तक ने याद दिलाया कि जिस किसी ने प्रेस की आजादी पर हमला किया, उसने अपने ही हाथ जलाए.  
- नवीन जोशी
(http://thewirehindi.com/11949/emergency-press-censorship-indira-gandhi/) 

सरकारी स्कूलों के लिए ऐसा करिए, तो!


कुछ ही दिन पहले प्रदेश की बेसिक शिक्षा मंत्री अनुपमा जायसवाल की अपील ने ध्यान खींचा था. उन्होंने अधिकारियों से अपील की थी कि वे सरकारी विद्यालयों को गोद लें. अपने यहां लावारिस बच्चों और चिड़िया घर के पशु-पक्षियों से लेकर उजड़े गांवों को गोद लेने का चलन है. गोद लेने वाला उन्हें पालता-पोषता है, विकसित करता है. उनकी जिंदगी सुधर जाती है.
पता नहीं, मंत्री महोदया को यह विचार हिंदी मीडियमफिल्म देख कर आया या उनका मौलिक चिंतन उस तरफ गया जब उन्होंने कुछ सरकारी स्कूलों का दौरा किया. लेकिन सरकारी विद्यालयों का हाल सचमुच इस लायक है कि उन्हें कोई गोद ले. सरकार उन्हें कहां तक पाले-चलाए! हिंदी मीडियमफिल्म ने कम से कम इस विषय पर कुछ तो सोचने को मजबूर किया. उस  फिल्म का नायक अंत में एक सरकारी विद्यालय को गोद लेकर उसे इस लायक बना देता है कि उसके बच्चे नामी अंग्रेजी स्कूल के बच्चों से टक्कर लेने लगते हैं.
सरकारी विद्यालयों का हाल यह है कि उनके बच्चे पीम-संग-योग कार्यक्रम में बुलाने काबिल भी नहीं. उसके लिए भी बड़े निजी स्कूलों के बच्चे चाहिए. योग कार्यक्रम में जैसी चटाई मुफ्त मिली वैसी कोई चीज सरकारी विद्यालय के बच्चों ने कभी देखी न होगी. खैर, मंत्री जी की अपील पर अभी तक कोई आगे आया नहीं. कोई आएगा भी, इस पर हमें शक है.
हमारे पास बहुत पहले से सरकारी विद्यालयों को दुरुस्त करने का एक आयडिया है. इस पर मंत्री जी अमल करा दें तो विद्यालयों की हालत रातों रात सुधर जाएगी. गोद लेने वाले की जरूरत नहीं पड़ेगी. पूरा सरकारी तंत्र सिर के बल खड़ा होकर उन्हें ठीक कर देगा. इमारत चमक जाएगी, फर्नीचर बढ़िया आ जाएगा, लड़के-लड़कियों के शानदार शौचालय बन जाएंगे. काबिल टीचर तैनात हो जाएंगे और वे नियमित पढ़ाने लग जाएंगे. बजट की कोई कमी न होगी.
दावा है कि हमारे आयडिया पर अमल होने के बाद सरकारी विद्यालय इतने बेहतर हो जाएंगे कि आज के नामी निजी स्कूलों की पूछ बंद हो जाएगी. उनका परीक्षा परिणाम सबसे शानदार हो जाएगा. सारे अभिभावक अपने बच्चों को सरकारी विद्यालयों में भर्ती कराने के लिए दौड़ने लगेंगे. निजी विद्यालयों की दुकानदारी भी इससे बंद हो जाएगी. और, यह काम प्रदेश में बदलाव का नारा लगाने वाली भाजपा सरकार क्यों नहीं करना चाहेगी. सत्तर से चली आ रही शिक्षा-अराजकता का अंत वह अवश्य करना चाहेगी. इसके लिए यह अचूक नुस्खा है.
चलिए, हम बता देते हैं अपना आयडिया. प्रदेश हित में बिल्कुल मुफ्त में.  फौरन यह नियम बना दिया जाए कि प्रदेश सरकार के सभी मंत्रियों के परिवार में जितने भी बच्चे, नाती-पोते हैं, उनकी पढ़ाई सिर्फ सरकारी स्कूलों में होगी. सांसदों, विधायकों और  सत्तारूढ़ दल के पदाधिकारियों के समस्त परिवार जनों के सभी बच्चों के लिए सिर्फ सरकारी विद्यालयों के दरवाजे खुले होंगे.  यही अनिवार्यता समस्त प्रशासनिक अधिकारियों के परिवार जनों के लिए भी हो. इनमें किसी को भी अपने बच्चे, बच्चों के बच्चे, आदि प्रदेश या प्रदेश के बाहर किसी भी निजी स्कूलों में पढ़ाने का अधिकार न होगा.
तो मंत्री जी, बेहाल विद्यालयों को गोद लेने की अपील मत कीजिए, हमारे आयडिया पर अमल करके देखिए. शर्त यह भी कि फिर गरीबों के बच्चे वहां से खदेड़े नहीं जाएंगे. (नभाटा,24 जून, 2017)




  

Monday, June 19, 2017

उत्तराखण्ड में राजनैतिक विकल्प के लिए विमर्श-तीन (अंतिम)/ सभी दलों के भीतर तलाशने होंगे उत्तराखण्ड के हितैषी


इस विमर्श की शुरुआत उत्तराखण्ड में कांग्रेस- भाजपा (और सपा-बसपा टाइप भी) से इतर एक पारदर्शी वैकल्पिक राजनैतिक दल की सम्भावना तलाशने की अपेक्षा से की गयी है.  यह मान कर चला गया कि कांग्रेस और भाजपा की सरकारें उत्तराखण्ड को एक हिमालयी राज्य के रूप में, उसके विशिष्ट भौगोलिक-प्राकृतिक लिहाज से जनता की आकांक्षाओं के अनुरूप विकसित करने के बारे में कुछ करना तो दूर सोच के स्तर पर भी असफल रही हैं. इन दोनों दलों की सरकारों ने उत्तराखण्ड को मिनी उत्तर प्रदेश के रूप में देखा, चलाया और उसके संसाधनों का दुरुपयोग किया, लूट की और होने दी. आज का उत्तराखण्ड इस मायने में कल के उत्तर प्रदेश के पहाड़ी हिस्से से कई मायनों में विपन्न और बरबाद है.
इसलिए, अब तक की चर्चा से अगर यह संदेश गया हो कि वैकल्पिक राजनीतिक दल/समूह के गठन में कांग्रेस, भाजपा, सपा, बसपा, उकांद, आदि में सक्रिय अथवा उससे सम्बद्ध पहाड़ के शुभेच्छु राजनैतिक अछूत की तरह दूर ही रखे जाएं, तो क्षमा कीजिएगा, मैं अब ऐसा नहीं सोच रहा. बल्कि, सुझाव इसके उलट है.
कई मित्रों को यह चौंकाने वाला विचार लग सकता है. सोचते हुए कुछ देर के लिए चौंका मैं भी था. फिर लगा कि कोई भी नया प्रयोग, नयी पहल पूर्वाग्रहों के साथ नहीं होनी चाहिए, खासकर जब कि हम एक व्यावहारिक, राज्यव्यापी, जनता तक पहुंच सकने और उसे प्रभावित कर पाने वाला दल या समूह बनाने का प्रयोग करने की वकालत कर रहे हों. इस राह में कोई राजनैतिक अछूत नहीं होना चाहिए. बाद में क्रमश: छंटनी-वंटनी, आना-जाना, वगैरह लगा रहेगा, लेकिन फिलहाल पहली शर्त सिर्फ पहाड़ को बचाने-बनाने बारे में न्यूनतम किंतु घनघोर सहमति होनी चाहिए.
यानी हमें कांग्रेस, भाजपा, बसपा, सपा, वाम दलों एवं उक्रांद के भीतर मौजूद उत्तराखण्ड के हितचिन्तकों की ओर भी अवश्य देखना चाहिए और उन्हें वैकल्पिक राजनैतिक पहल से जोड़ना चाहिए. यह नहीं मानना चाहिए कि इन दलों के भीतर उत्तराखण्ड के वासतविक हितैषी नहीं होंगे, कम से कम कुछ न्यूनतम मुद्दों पर. गम्भीर, जमीनी, सम्भावनाशील प्रयास होने पर ऐसे कुछ लोग साथ आ सकते हैं. उनके जनाधार का लाभ मिल सकता है. वैचारिक मतभिन्नता को फिलहाल के लिए अलग रखना होगा, यह बात पहले कही जा चुकी है.
उदाहरण के लिए, कांग्रेस के प्रदीप टम्टा का नाम लेने की इजाजत चाहता हूँ. कभी उत्तराखण्ड संघर्षवाहिनी के जुझारू कार्यकर्ता-नेता रहे प्रदीप के भीतर क्या उस उत्तराखण्ड का सपना जीवित नहीं है, जिसके हम सब साझीदार हैं? कांग्रेस की राजनीति ने उन्हें आज जहां भी, जैसा भी बना रखा हो, मैं समझता हूं कि उत्तराखण्ड के लिए वैकल्पिक राजनीति की तलाश में वे महत्त्वपूर्ण हो सकते हैं. उक्रांद के काशी सिंह ऐरी का भी नाम लूंगा. मेरी जानकारी अत्यंत सीमित है लेकिन भाजपा, सपा, बसपा और वाम दलों की उत्तराखण्ड इकाइयों में भी ऐसे कुछ नाम निश्चय ही होंगे. जो तड़प इन सबको अलग राज्य की मांग के लिए एक कर सकती थी, वैसी ही जरूरत और ललकार इस नये प्रयोग के लिए एकजुट क्यों नहीं कर सकती?
ऐसे लोगों के साथ आने से वैकल्पिक राजनैतिक सम्भावना का आधार व्यापक होगा, पहले से यत्र-तत्र सक्रिय परिवर्तनकामी ताकतों को अपने सीमित दायरे से निकल कर बड़े क्षेत्र में काम करने का, अपनी बात ले जाने का अवसर मिलेगा. इससे नयी राजनैतिक पहल को बेहतर परिचित चेहरा मिलेगा और जनता के बीच पहचान बनाने में आसानी होगी.  
इस सुझाव से कुछ मित्र बिदकेंगे, सवाल उठाएंगे, पुरानी निष्ठाओं-दगाओं की बात करेंगे, लेकिन अर्ज किया जा चुका है कि राजनैतिक मतभेद, पुराने त्याग, दगाबाजी, विवाद, निजी मनमुटाव, वगैरह दूर रखना प्रयोग के लिए आवश्यक शर्त है.
याद दिलाने की जरूरत नहीं होनी चाहिए कि भारतीय राजनीति की तात्कालिक जरूरतों ने ऐसे प्रयोग पहले भी किये हैं. 1963-67 के दौर में राम मनोहर लोहिया ने गैर-कांग्रेसवाद के लिए ऐसा प्रयोग किया था. इसी के बाद 1967 में नौ राज्यों में बनी संयुक्त विधायक दल की सरकारों में जनसंघ और वाम दल साथ थे. 1977 में आपातकालके बाद जय प्रकाश नारायण के आह्वान पर बनी जनता पार्टी में जनसंघ भी शामिल थी. आज की भारतीय जनता पार्टी उसी विलय से निकला जनसंघी अवतार है.
वे प्रयोग अल्पजीवी रहे लेकिन आप यह नहीं कह सकते कि वे सफल नहीं हुए. वे भारतीय राजनीति में नयी राह  बनाने वाले प्रयोग साबित हुए. आज के उत्तराखण्ड में हम भी किसी दीर्घजीवी राजनैतिक विकल्प की बात नहीं कर रहे. कोई जन-हितैषी दीर्घजीवी विकल्प बन जाए, इससे अच्ची बात क्या हो सकती है लेकिन अभी तो सिर्फ एक नयी राह की तलाश है. इसलिए प्रयोग करने की बात हो रही. विफल हो तो हो, प्रयोग होंगे तो उनसे सम्भावनाएं बनती हैं. बंद दीवार में एक झरोखा खुलता है. उत्तराखण्ड में हमें आज ऐसे ही एक झरोखे की जरूरत नहीं महसूस होती क्या?
योगेंद्र यादव की बात दोहराते हुए कि राजनीति में प्रयोग होते रहते हैं, वे विफल भी होते हैं लेकिन सपने टूटने नहीं चाहिए, इस अपील को बहस के लिए आप सब के बीच छोड़ता हूं. अगले चुनाव तक काफी समय है लेकिन शुरुआत अभी ही करनी होगी. छोटी-छोटी समूह-चर्चाओं, आम हो गये सोशल साइट-ग्रुप एवं फोन तथा दुर्लभ होते पत्रों से भी शुरुआत की जा सकती है.
तो मित्रो, सकारात्मक सोच के साथ एक पत्र लिख डालिए.  
शुभकामनाएं.
-नवीन जोशी




Friday, June 16, 2017

विद्यार्थियों के साथ यह सलूक चिंतनीय है


बांह या सीने पर काला फीता बांध कर काम करना विरोध जताने का बहुत पुराना और शालीन तरीका माना जाता है. किसी नेता के दौरे में या सभा में काले झण्डे दिखाना विरोध जताने का पुराना प्रचलन है. देश विभाजन के लिए राजी न होते महात्मा गांधी को राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सदस्यों का काले झण्डे दिखाना सिर्फ फिल्मी दृश्यों में ही नहीं दर्ज नहीं है. आजाद भारत में निर्वाचित सांसद-विधायक भी अक्सर काले झण्डे लेकर सदन में जाते हैं और सत्तारूढ़ दल के खिलाफ लहराते नजर आते हैं. आशय यह कि विरोध का यह तरीका अहिंसक ही माना जाता रहा है.

कोई दसेक छात्र-छात्राएं आठ दिन से इसलिए जेल में हैं कि उन्होंने मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी को काले झण्डे दिखाये. मुख्यमंत्री उस दिन शिवाजी से सम्बद्ध हिंदवी कार्यक्रम में भाग लेने लखनऊ विश्वविद्यालय जा रहे थे. कुछ छात्र-छात्राएं इस कार्यक्रम का विरोध कर रहे थे. उनका तर्क यह था कि विश्वविद्यालय के धन का इस्तेमाल इस तरह के कार्यक्रम में करना गलत है. वे काले झण्डे लेकर रास्ते में खड़े थे और मौका मिलते ही मुख्यमंत्री के काफिले के सामने जा खड़े हुए. काफिला कुछ मिनट रोकना पड़ा. दो लड़कियों समेत चंद युवा गिरफ्तार किये गये. धाराएं ऐसी लगा दीं कि अदालत से उनकी जमानत न हो सकी. उन पर मुख्यमंत्री की सुरक्षा को खतरे में डालने का आरोप है. सभी जेल में हैं और आठ को विश्वविद्यालय से निलम्बित कर दिया गया है.

मुख्यमंत्री की सुरक्षा को खतरे में डालना निश्चय ही गम्भीर बात है लेकिन यह अपराध’ उन युवाओं का कैसे हो गयायह चूक तो सरासर सुरक्षा में लगे अमले की है. मुख्यमंत्री के लिए सुरक्षा दस्ते का बड़ा और चौकस इंतजाम रहता है. काले झण्डे लिये सड़क किनारे खड़े युवा अगर काफिले के सामने आ गये तो सुरक्षाकर्मियों की चूक से उन्हें मौका मिला. वर्ना तो परिंदा भी पर नहीं मार सकता. शुरू में इसे सुरक्षा में असावधानी का ही मामला माना गया था और कुछ पुलिस वाले निलम्बित भी किए गये थे लेकिन बाद में छात्र-छात्राओं पर गम्भीर धाराएं लगा दी गयीं.  

विश्वविद्यालय जैसी जगहजो हमेशा से राजनैतिक-सामाजिक चेतना की उर्वरा भूमि रही हैंकिसी मुद्दे पर कुछ युवाओं का विरोध में आना इतना गम्भीर मामला क्यों बना दिया गयावामपंथी दलों से लेकर भाजपा तक की छात्र-इकाइयां कॉलेजों-विश्वविद्यालयों में खूब सक्रिय रहती हैंआंदोलन और विरोध-प्रदर्शन करती हैं. आज के बहुत से राजनैतिक नेता विश्वविद्यालयों के युवा संगठनों से पनपे हुए हैं. तोमुख्यमंत्री को काले झण्डे दिखाते उन युवाओं  पर इतनी गम्भीर धाराएं क्यों लगा दी गयीं कि जमानत ही न होविश्वविद्यालय प्रशासन ने उनको निलम्बित क्यों कर दियाक्या पहली बार विद्यार्थियों ने किसी को काले दिखाये हैंकुछ समय पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर विश्वविद्यालय आये थेतब वहां के कुछ छात्रों ने उनके विरोध में नारे लगाये थे. उन छात्रों के खिलाफ भी ऐसी कड़ी कार्रवाई नहीं की गयी थी.

किसी भी शांतिपूर्ण विरोध-प्रदर्शन कोविशेष रूप से छात्रों के प्रदर्शन को इस तरीके से कुचला जाना अलोकतांत्रिक ही कहा जाएगा. क्या सरकार और विश्वविद्यालय प्रशासन यह चाहते हैं कि प्रतिरोध में कहीं कोई आवाज ही न उठेविद्यार्थियों के साथ यह सलूक चिंता में डालने वाला है.   

(नभाटा, लखनऊ, 17 जून, 2017)