Monday, June 19, 2017

उत्तराखण्ड में राजनैतिक विकल्प के लिए विमर्श-तीन (अंतिम)/ सभी दलों के भीतर तलाशने होंगे उत्तराखण्ड के हितैषी


इस विमर्श की शुरुआत उत्तराखण्ड में कांग्रेस- भाजपा (और सपा-बसपा टाइप भी) से इतर एक पारदर्शी वैकल्पिक राजनैतिक दल की सम्भावना तलाशने की अपेक्षा से की गयी है.  यह मान कर चला गया कि कांग्रेस और भाजपा की सरकारें उत्तराखण्ड को एक हिमालयी राज्य के रूप में, उसके विशिष्ट भौगोलिक-प्राकृतिक लिहाज से जनता की आकांक्षाओं के अनुरूप विकसित करने के बारे में कुछ करना तो दूर सोच के स्तर पर भी असफल रही हैं. इन दोनों दलों की सरकारों ने उत्तराखण्ड को मिनी उत्तर प्रदेश के रूप में देखा, चलाया और उसके संसाधनों का दुरुपयोग किया, लूट की और होने दी. आज का उत्तराखण्ड इस मायने में कल के उत्तर प्रदेश के पहाड़ी हिस्से से कई मायनों में विपन्न और बरबाद है.
इसलिए, अब तक की चर्चा से अगर यह संदेश गया हो कि वैकल्पिक राजनीतिक दल/समूह के गठन में कांग्रेस, भाजपा, सपा, बसपा, उकांद, आदि में सक्रिय अथवा उससे सम्बद्ध पहाड़ के शुभेच्छु राजनैतिक अछूत की तरह दूर ही रखे जाएं, तो क्षमा कीजिएगा, मैं अब ऐसा नहीं सोच रहा. बल्कि, सुझाव इसके उलट है.
कई मित्रों को यह चौंकाने वाला विचार लग सकता है. सोचते हुए कुछ देर के लिए चौंका मैं भी था. फिर लगा कि कोई भी नया प्रयोग, नयी पहल पूर्वाग्रहों के साथ नहीं होनी चाहिए, खासकर जब कि हम एक व्यावहारिक, राज्यव्यापी, जनता तक पहुंच सकने और उसे प्रभावित कर पाने वाला दल या समूह बनाने का प्रयोग करने की वकालत कर रहे हों. इस राह में कोई राजनैतिक अछूत नहीं होना चाहिए. बाद में क्रमश: छंटनी-वंटनी, आना-जाना, वगैरह लगा रहेगा, लेकिन फिलहाल पहली शर्त सिर्फ पहाड़ को बचाने-बनाने बारे में न्यूनतम किंतु घनघोर सहमति होनी चाहिए.
यानी हमें कांग्रेस, भाजपा, बसपा, सपा, वाम दलों एवं उक्रांद के भीतर मौजूद उत्तराखण्ड के हितचिन्तकों की ओर भी अवश्य देखना चाहिए और उन्हें वैकल्पिक राजनैतिक पहल से जोड़ना चाहिए. यह नहीं मानना चाहिए कि इन दलों के भीतर उत्तराखण्ड के वासतविक हितैषी नहीं होंगे, कम से कम कुछ न्यूनतम मुद्दों पर. गम्भीर, जमीनी, सम्भावनाशील प्रयास होने पर ऐसे कुछ लोग साथ आ सकते हैं. उनके जनाधार का लाभ मिल सकता है. वैचारिक मतभिन्नता को फिलहाल के लिए अलग रखना होगा, यह बात पहले कही जा चुकी है.
उदाहरण के लिए, कांग्रेस के प्रदीप टम्टा का नाम लेने की इजाजत चाहता हूँ. कभी उत्तराखण्ड संघर्षवाहिनी के जुझारू कार्यकर्ता-नेता रहे प्रदीप के भीतर क्या उस उत्तराखण्ड का सपना जीवित नहीं है, जिसके हम सब साझीदार हैं? कांग्रेस की राजनीति ने उन्हें आज जहां भी, जैसा भी बना रखा हो, मैं समझता हूं कि उत्तराखण्ड के लिए वैकल्पिक राजनीति की तलाश में वे महत्त्वपूर्ण हो सकते हैं. उक्रांद के काशी सिंह ऐरी का भी नाम लूंगा. मेरी जानकारी अत्यंत सीमित है लेकिन भाजपा, सपा, बसपा और वाम दलों की उत्तराखण्ड इकाइयों में भी ऐसे कुछ नाम निश्चय ही होंगे. जो तड़प इन सबको अलग राज्य की मांग के लिए एक कर सकती थी, वैसी ही जरूरत और ललकार इस नये प्रयोग के लिए एकजुट क्यों नहीं कर सकती?
ऐसे लोगों के साथ आने से वैकल्पिक राजनैतिक सम्भावना का आधार व्यापक होगा, पहले से यत्र-तत्र सक्रिय परिवर्तनकामी ताकतों को अपने सीमित दायरे से निकल कर बड़े क्षेत्र में काम करने का, अपनी बात ले जाने का अवसर मिलेगा. इससे नयी राजनैतिक पहल को बेहतर परिचित चेहरा मिलेगा और जनता के बीच पहचान बनाने में आसानी होगी.  
इस सुझाव से कुछ मित्र बिदकेंगे, सवाल उठाएंगे, पुरानी निष्ठाओं-दगाओं की बात करेंगे, लेकिन अर्ज किया जा चुका है कि राजनैतिक मतभेद, पुराने त्याग, दगाबाजी, विवाद, निजी मनमुटाव, वगैरह दूर रखना प्रयोग के लिए आवश्यक शर्त है.
याद दिलाने की जरूरत नहीं होनी चाहिए कि भारतीय राजनीति की तात्कालिक जरूरतों ने ऐसे प्रयोग पहले भी किये हैं. 1963-67 के दौर में राम मनोहर लोहिया ने गैर-कांग्रेसवाद के लिए ऐसा प्रयोग किया था. इसी के बाद 1967 में नौ राज्यों में बनी संयुक्त विधायक दल की सरकारों में जनसंघ और वाम दल साथ थे. 1977 में आपातकालके बाद जय प्रकाश नारायण के आह्वान पर बनी जनता पार्टी में जनसंघ भी शामिल थी. आज की भारतीय जनता पार्टी उसी विलय से निकला जनसंघी अवतार है.
वे प्रयोग अल्पजीवी रहे लेकिन आप यह नहीं कह सकते कि वे सफल नहीं हुए. वे भारतीय राजनीति में नयी राह  बनाने वाले प्रयोग साबित हुए. आज के उत्तराखण्ड में हम भी किसी दीर्घजीवी राजनैतिक विकल्प की बात नहीं कर रहे. कोई जन-हितैषी दीर्घजीवी विकल्प बन जाए, इससे अच्ची बात क्या हो सकती है लेकिन अभी तो सिर्फ एक नयी राह की तलाश है. इसलिए प्रयोग करने की बात हो रही. विफल हो तो हो, प्रयोग होंगे तो उनसे सम्भावनाएं बनती हैं. बंद दीवार में एक झरोखा खुलता है. उत्तराखण्ड में हमें आज ऐसे ही एक झरोखे की जरूरत नहीं महसूस होती क्या?
योगेंद्र यादव की बात दोहराते हुए कि राजनीति में प्रयोग होते रहते हैं, वे विफल भी होते हैं लेकिन सपने टूटने नहीं चाहिए, इस अपील को बहस के लिए आप सब के बीच छोड़ता हूं. अगले चुनाव तक काफी समय है लेकिन शुरुआत अभी ही करनी होगी. छोटी-छोटी समूह-चर्चाओं, आम हो गये सोशल साइट-ग्रुप एवं फोन तथा दुर्लभ होते पत्रों से भी शुरुआत की जा सकती है.
तो मित्रो, सकारात्मक सोच के साथ एक पत्र लिख डालिए.  
शुभकामनाएं.
-नवीन जोशी




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