Friday, June 09, 2017

मीडिया की आजादी और खिंचे हुए पाले


अच्छा लगा कि कल दिल्ली प्रेस क्लब में विभिन्न राजनैतिक विचारों वाले सम्पादकों-पत्रकारों ने एनडीटीवी के मालिक के घर सीबीआई के छापे को मीडिया पर हमला माना और विरोध किया. इनमें हमारे समय के कुछ बहुत सम्मानित नाम भी हैं: लेकिन फेसबुक पर कुछ पत्रकार भी उन्हें भद्दे शब्दों में गरिया रहे हैं,. कारण यह कि वे मुद्दे को समग्रता में समझने की कोशिश करने की बजाय पहले से खींचे गये पाले में लट्ठ लेकर खड़े हैं. कोई भी मुद्दा हो, उन्हें वहीं से लट्ठ चलाना है. 
मैं फेसबुक के अपने मित्रोंमें अधिकसंख्य के बारे में बता सकता हूं कि मुद्दा कोई भी हो, वे किस पाले में खड़े होंगे. पाले पहले से तय हो चुके हैं. कुछ वर्ष पहले तक इतना विभाजन नहीं था. मुद्दे को समझने की चेष्टा की जाती थी. तब राय बनायी जाती थी.
इंदिरा गांधी ने इण्डियन एक्सप्रेस बिल्डिंग के कुछ हिस्से पर बुलडोजर चलावाया था. उसका कुछ हिस्सा अवैध भी बना होगा. मगर तब सभी ने उसे मीडिया पर हमला माना था. सन याद नहीं, लेकिन शायद 1989-90 में मुलायम सरकार ने दैनिक जागरण और अमर उजाला के खिलाफ हल्ला बोलाथा. विज्ञापन बंद किये थे. तब लखनऊ के सभी पत्रकारों ने प्रेस की आजादी बचाने के लिए सड़क पर जुलूस निकाला था. ऐसे और भी वाकये हैं.
मीडिया की स्वतंत्रता पत्रकार की कितनी और मालिक की कितनी है, यह चर्चा नयी नहीं है. अक्सर पत्रकारों की स्वतंत्रता धरी रह जाती है. वे उत्पीड़ित होते हैं, मालिक से भी और सरकार से भी. बहुत उदाहरण हैं. मीडिया मालिक अवैध काम भी करते हैं और मीडिया के नाम पर बचे रहते हैं. लेकिन ऐसे अवसर आते हैं जब यह दोनों की आजादी से बड़ा, पूरी मीडिया की स्वतंत्रता का बड़ा मामला होता है, जैसा ऊपर दो उदाहरणों में बताया है. तब सभी के लिए लड़ना जरूरी होना चाहिए. वर्ना, आज निशाने पर यह है, कल वह होगा.  
एनडीटीवी के मालिकों ने गड़बड़ की है तो बाकी मीडिया हाउस ने उससे ज्यादा की है, लेकिन निशाने पर एनडीटीवी ही इसलिए है कि वह इस समय प्रतिरोधी-स्वर है. उसने सत्ता-विरोधी कोई बड़ा झण्डा भी नहीं उठा रखा है, बल्कि छोटे-मोटे सवाल उठाता है. वह भी वर्तमान सरकार को पसंद नहीं. इस प्रवृत्ति का विरोध होना ही चाहिए. प्रतिरोधी स्वर का होना और उसकी रक्षा लोकतंत्र की रक्षा है, जिसा भी वह हमारे यहां है.
दुर्भाग्य यह कि पिछले डेढ-दो दशक में धीरे-धीरे और 2012 के आसपास से समाज में तीव्र वैचारिक ध्रुवीकरण हुआ है. आरएसएस, भाजपा और उसके संगठनों ने बहुत चालाकी से ब्रेन-वॉशिंग की है. उग्र हिंदू-राष्ट्रवाद के प्रसार और उसके सत्तारोहण ने उस बहुत बड़ी आबादी को भी अनावश्यक रूप से आक्रामक बना दिया है जो बहुत उदार एवं सहिष्णु था. फेसबुक में मार-काट इसका उदाहरण है. कोई भी विचारणीय पोस्ट पढ़ी नहीं जाती, मुद्दा समझा नहीं जाता, हमला पहले शुरू हो जाता है.
कांग्रेस, वाम दलों और क्षेत्रीय राजनैतिक दलों की सत्ता की राजनीति इसे पनपने देने के लिए कम दोषी नहीं.
अधिनायकवादी प्रवृत्ति बढ़ रही है. इस संकट को पहचानना चाहिए. मैंने पहले भी टिप्पणी की थी कि मदमत्त हाथी महावत को भी नहीं छोड़ता.


No comments: