Friday, July 28, 2017

शिक्षा के लिए कभी तो कोई आंदोलन करता


शिक्षा-मित्र’ (नाम कितना अच्छा है!) फिर हड़ताल पर हैं.  सर्वोच्च न्यायालय ने सहायक अध्यापक पद पर उनका समायोजन रद्द कर दिया. जब वे तैनात किये गये थे, तब तय था कि वे अध्यापक नहीं बनाये जाएंगे. इसलिए उनकी अर्हता अध्यापक लायक नहीं रखी गयी थी. बाद में सरकार ने उन्हें धीरे-धीरे सहायक अध्यापक बना दिया. यह शिक्षा के साथ खिलवाड़ था. इस देश में सरकारें शुरू से शिक्षा के साथ खिलवाड़ करती आयी हैं.
शिक्षा-मित्रों के साथ हमें सहानुभूति है. उन्हें नौकरी मिलनी चाहिए, वेतन मिलना चाहिए. वे नौकरी और वेतन के लिए ही सड़क पर उतरे हैं, शिक्षा के लिए नहीं. शिक्षा के लिए कोई सड़क पर नहीं उतरता. शिक्षक न सरकार,  स्कूल न अभिभावक. सब उसके साथ खिलवाड़ करते हैं.
सरकारी विद्यालय खिलवाड़ हैं. मुफ्त की कॉपी-किताबें-बस्ता-ड्रेस-मध्याह्न भोजन, आदि खिलवाड़ के अलावा और क्या हैं? इन सब से बच्चे कैसी शिक्षा पा रहे हैं? कक्षा पांच का बच्चा कक्षा दो का सवाल हल नहीं कर पाता. स्कूल में दिन में खाना मिलेगा, इसलिए स्कूल जाओ. शिक्षा मिलेगी, इसलिए नहीं. भोजन के बहाने बच्चों को स्कूल बुलाना एक तरीका हो सकता है लेकिन उसमें पेट की भूख बड़ी हो जाती है. शिक्षा की भूख गायब. मध्याह्न भोजन के कीड़े अक्सर खबरों में दिखते हैं, शिक्षा में पड़े कीड़े किसी को दिखते नहीं. कोई शायद ही उन्हें देखना चाहता हो.
महंगे, पंचतारा निजी स्कूल और भी बड़ा खिलवाड़ हैं. वे वंचित तबके के लिए सबसे बड़ी ईर्ष्या हैं. उनके मुंह पर तमाचा हैं.  सरकारी विद्यालयों और पंचतारा निजी स्कूलों के बीच स्कूलों की विविध श्रेणियां हैं. वहां अभिभावकों की सामाजिक-आर्थिक औकात का भौण्डा प्रदर्शन होता है. रिजल्ट में डिवीजन और नबरों के प्रतिशत की प्रतियोगिता होती है. ज्यादातर बच्चों के हिस्से कुण्ठा आती है. इन स्कूलों से निकले बच्चे कैसे पढ़े-लिखे नागरिक बनते हैं, हम सब उसके गवाह हैं.
इस देश की संसद ने सबको शिक्षा का अधिकार भी दे ही दिया है. शिक्षा पाना हर बच्चे का अधिकार बन गया है. यह अपने आप में कम बड़ा मजाक नहीं . संविधान ने बहुत सारी चीजें हमें बतौर नागरिक दे रखी हैं लेकिन किससे पूछें कि वे मिलती क्यों नहीं और मिलती हैं तो कितनी और किस रूप में.
शिक्षा के अधिकार के तहत हर निजी स्कूल को कुछ सीटों पर गरीब बच्चों को दाखिला देना जरूरी है. शिक्षा के लिए गरीब और अमीर बच्चे का भेद क्यों होना चाहिए, हमें तो यही समझ में नहीं आता. चलिए, होता है तो महंगे निजी स्कूल गरीब बच्चों को दाखिला देने से ही इनकार कर देते हैं. प्रशासन का डण्डा चलने पर दाखिला दे देते हैं लेकिन उनके साथ अछूतों जैसा व्यवहार करते हैं. उन्हें अमीरबच्चों के साथ नहीं बैठाते. उनके लिए अलग समय पर अलग कक्षा चलाते हैं. शिक्षक/शिक्षिका भी उनके लिए स्तरीय नहीं होते. उन्हें किसी तरह पढ़ते हुए दिखाना होता है. औपचारिकता पूरी करनी होती है. ये बच्चे कैसी शिक्षा पा रहे होंगे, कैसी कुण्ठा उनके मन में भर रही होगी. संवैधानिक अधिकार के नाम पर इन बच्चों के साथ कैसा खिलवाड़ हो रहा है.
शिक्षा-मित्रों को पक्की नौकरी चाहिए. पूरी नौकरी वाले शिक्षकों को बढ़ा हुआ वेतनमान चाहिए. अभिभावकों को स्कूल का बड़ा नाम चाहिए. बड़े स्कूल को बड़ा मुनाफा चाहिए. अच्छा इनसान बनाने वाली शिक्षा किसी को नहीं चाहिए. असली शिक्षा के लिए कोई सड़क पर नहीं उतरता.
 (सिटी तमाशा, नभाटा, 29 जुलाई, 2017)


Thursday, July 27, 2017

भाजपा की 2019 की राह के कांटे विपक्षी पैरों तले


बहुत दिन नहीं हुए जब नीतीश कुमार को 2019 के लोक सभा चुनाव में नरेंद्र मोदी के मुकाबिल भाजपा-विरोधी खेमे का नायक माना जा रहा था. बिहार विधान सभा चुनाव में भाजपा का विजय-रथ रोक कर महागठबंधन को निर्णायक जीत दिलाने के नाते नीतीश कुमार को यह महत्त्वपूर्ण राष्ट्रीय दर्जा मिला था.
अभी हाल तक राष्ट्रपति चुनाव में राजग प्रत्याशी के मुकाबले संयुक्त विपक्ष का उम्मीदवार उतारने के लिए नीतीश कुमार पहल कर रहे थे. इसके लिए 18 दलों का जो मोर्चा बन रहा था, नीतीश कुमार को उसका संयोजक बनाया गया था. भाजपा ने राष्ट्रपति प्रत्याशी का दांव कुछ ऐसा चला कि नीतीश कुमार को विपक्षी खेमा छोड़ कर भाजपा प्र्त्याशी के पक्ष में वोट डालना पड़ा. इसके बाद भी वे उप-राष्ट्रपति के चुनाव में विपक्ष के संयुक्त प्रत्याशी के पक्ष में खड़े थे.
अब यह परिदृश्य पूरा उलट गया है. बुधवार की शाम पटना में जो कुछ घटा उसने भाजपा-विरोधी राजनीति को सबसे बड़ा झटका दिया है. भाजपा-विरोधी खेमे के सबसे बड़े और विश्वसनीय नेता के रूप में नीतीश कुमार की हैसियत खत्म हो गयी. अब वे नरेंद्र मोदी के प्रबल प्रतिद्वंद्वी नहीं हैं. बल्कि, नरेंद्र मोदी और अमित शाह अब उनके नेता हैं.
लालू के कुनबे के भ्रष्टाचार के दाग से अपने को बचाने के लिए नीतीश कुमार ने जो दांव चला उसने ईमानदार नेता की उनकी छवि तो बनाये रखी लेकिन उनका नेता का दर्जा घटा दिया. इसी के साथ भाजपा को बड़ा लाभ भी हो गया. जिस बिहार को भाजपा चुनावी मैदान में हार गयी थी, वह उसकी झोली में आ गया. बिहार की जनता का स्पष्ट जनादेश महागठबंधन के पक्ष में था. नीतीश ने महागठबंधन ही नहीं तोड़ा, जनादेश को भी पलट दिया. चुनाव में पराजित भाजपा बिहार की सत्ता में भागीदार बन रही है.
यह भारतीय राजनीति का विद्रूप है. करीब दो साल पहलेसाम्प्रदायिक शत्रु भाजपा और हिटलर नरेंद्र मोदीको हराने के लिए नीतीश कुमार ने अपने धुर विरोधी और भ्रष्टाचार में गले-गले तक डूबे लालू यादव को गले लगाया था. वह गलबहियां अब सीबीआई के छापों और एफआईआर के बाद असह्य रूप से कलंकित हो गयीं. वह केर-बेर का संगसाबित हुआ. लालू-कुनबा मस्ती में डोल रहा था और नीतीश कुमार की साफ-सुथरी छवि के चीथड़े उड़ रहे थे. भई गति सांप-छछूंदर केरी’. न उगलते बने, न निगलते. इस स्थिति से बाहर निकलने के लिए कुछ तो करना था. और, करना इस तरह था कि बिहार अपने हाथ में रहे और छवि पर भ्रष्टाचार का दाग न लगे. तभी राजनीति में जगह बची रहेगी.
भाजपा ने पूरी तैयारी कर ही रखी थी.  नीतीश ने वही रास्ता चुना जिस पर पहले चल चुके थे. भाजपा के साथ 2008 से 2013 तक वे सरकार चला चुके हैं. सुशासन बाबूकी छवि तभी बनी थी. यह अवसर-देखी राजनीति ही है. लालू का साथ भी एक अवसर ही था.
सबसे बड़ा नुकसान लेकिन 2019 के लिए भाजपा-विरोधी संयुक्त मोर्चा बनाने की पहल का हुआ है. नीतीश ने जो रास्ता चुना, या उन्हें चुनना पड़ा, उससे भाजपा की एक बड़ी चुनौती खत्म हो गयी है. एक बड़ा विरोधी ढेर हुआ है, बल्कि शरणागत है. नरेंद्र मोदी और अमित शाह का कांग्रेस-मुक्त भारतअभियान विपक्ष-हीन भारतकी तरफ और आगे बढा है.
भाजपा के खिलाफ आज कौन ताकतवर नेता मैदान में बचा है? भाजपा की साम्प्रदायिक राजनीतिसे लोहा लेते-लेते मौलानाबन गये मुलायम सिंह आज भाजपा के प्रति परम नरम हैं. अपनी ही पार्टी में बेटे के हाथों हाशिये पर धकेल दिये गये मुलायम सिंह को आज भाजपा का डर सबसे ज्यादा सता रहा है. आय से अधिक सम्पत्ति के जिन मामलों में लालू-परिवार बुरी तरह फंस गया है, उनका भूत मुलायम को दिन-दहाड़े न दिखता होगा तो भाजपाई इशारे से जता देते होंगे.
उनके खिलाफ ऐसे ही जो मामले किसी तरह दफन हैं, वे कभी भी खोले जा सकते हैं. बेटे से सत्ता-संघर्ष के दिनों में मुलायम कबूल कर चुके हैं कि अमर सिंह ने मुझे जेल जाने से बचाया था. आज अमर सिंह भी साथ नहीं हैं. होते भी तो वह तेज अब अमर सिंह में कहां रहा! लिहाजा मुलायम कभी नरेंद्र मोदी के कान में कुछ फुसफुआते हैं, कभी राष्ट्रपति प्रत्याशी को वोट देने के बहाने नजदीकी बढ़ाते हैं.
भाजपा-विरोधी मोर्चे के अगुवा लालू यादव कम न थे मगर कभी आडवाणी का राम-रथ रोकने वाले लालू का खुद का पांव आज कीचड़ में इस तरह धंसा हुआ है (या धंसा दिया गया है) कि वे शत्रु की तनी प्रत्यंचा के सामने निहत्थे और आसान निशाना बने खड़े हैं. सत्ता-च्युत होने के बाद लालू-परिवार की मुसीबतें और बढ़ेंगी.
वाम दल लगातार पस्त होते आये हैं. उनका संख्या-बल ही नहीं छीजा, नेताओं का प्रभाव-बल भी पराभूत है. वाम नेता आज इतने सामर्थ्यवान भी नहीं कि बचे-खुचे क्षेत्रीय क्षत्रपों को भाजपा के खिलाफ एकजुट कर सकें.
ममता बनर्जी जरूर भाजपा-भगाओ का नारा बुलंद कर रही हैं. ऐसा करना उनकी मजबूरी है क्योंकि भाजपा ने पश्चिम बंगाल में भी दंगे-फसाद के बहाने ध्रुवीकरण की राजनीति को अच्छी-खासी हवा दे रखी है. बंगाल को बचाने के लिए ममता को आज वामपंथियों से लड़ने से कहीं ज्यादा ताकत भाजपा को दूर रखने के लिए करनी होगी. इसलिए ममता बनर्जी का भजपा-विरोध बंगाल तक सीमित रह जाएगा.
प्रमुख विपक्षी दल कहलाने वाली कांग्रेस अपना बचा-खुचा शिविर ही नहीं सम्भाल पा रही. गुजरात में शंकर सिंह वाघेला ने बड़े नाजुक मौके पर अपना तम्बू अलग कर लिया है. राहुल बाबा लाख कोशिश कर लें, चुटकुलों से आगे उनका योगदान बन नहीं पा रहा. सोनिया बीमार हैं और लाचार भी. परिवार से बाहर किसी सामर्थ्यवान को वे पार्टी की बागडोर थमा नहीं सकतीं. न ही कांग्रेसी ऐसा स्वीकार कर पाएंगे.
अपने दलित आधार के अपहरण से बेचैन मायावती ने इस बीच जरूर भाजपा-विरोधी तेवर तीखे किये हैं. उन्होंने कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के साथ मोर्चा बनाने के संकेत भी दिये हैं लेकिन इसे बिहार के महागठबंधन ही का विस्तार होना था. वह सम्भावना अब बहुत कमजोर हुई है.
मायावती का दामन भी भ्रष्टाचार के आरोपों से साफ नहीं. भाजपा-विरोधी ज्यादातर क्षेत्रीय नेता इस मामले में दागी हैं. भाजपा ने इसे उनके खिलाफ प्रमुख हथियार बना लिया है. इसीलिए नरेंद्र मोदी समेत सभी भाजपाइयों ने भ्रष्टाचार के मामले में समझौता न करने के लिए नीतीश की बढ़-चढ़ कर प्रशंसा की है.
भाजपा की 2019 की राह के कांटे क्रमश: साफ होकर विपक्ष के पांवों तले बिछ रहे हैं.
-नवीन जोशी, 27, जुलाई 2017
(http://hindi.firstpost.com/politics/nitish-kumar-form-nda-government-in-bihar-with-the-help-of-bjp-now-whats-happen-to-opposition-coalition-modi-opposition-is-tough-now-43553.html )



    

Wednesday, July 26, 2017

राष्ट्रपति का पहला भाषण और विवाद


देश के चौदहवें राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने मंगलवार को संसद के सेण्ट्रल हॉल में शपथ लेने के बाद जब अपना पहला भाषण पूरा किया उसी समय संकेत मिल गये थे कि इस पर विवाद अवश्य होगा. कांग्रेस नेताओं की नाराजगी भरी प्रतिक्रिया तुरंत मिलने लगी थी. सबसे पहली नाराजगी इस पर आयी कि नये राष्ट्रपति ने अपने सम्बोधन में देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का नामोल्लेख नहीं किया जबकि उनके मंत्रिमण्डल में रहे डॉ भीमराव अम्बेडकर और सरदार बल्लभ भाई पटेल का नाम आदर के साथ लिया.
कांग्रेसियों ही नहीं कई अन्य नेताओं एवं बुद्धिजीवियों की भी इससे बड़ी नाराजगी राष्ट्रपति के भाषण के अंतिम अंश से पैदा हुई, जिसमें उन्होंने एक ही वाक्य और एक ही संदर्भ में महात्मा गांधी और दीन दयाल उपाध्याय का जिक्र किया. कांग्रेसी नेता आनंद शर्मा कल सेण्ट्रल हॉल से ही बिफरे हुए थे. बुधवार को राज्य सभा में शून्य काल शुरू होते ही उन्होंने यह मुद्दा जोर-शोर से उठा दिया. उनकी घोर आपत्ति है कि महात्मा गांधी की तुलना दीन दयाल उपाध्याय से करके गांधी जी ही नही, पूरे देश का अपमान किया गया है. अरुण जेटली के नेतृत्त्व में भाजपा सदस्यों ने इसका तीखा प्रतिवाद किया. यहां तक कह दिया गया कि राष्ट्रपति के भाषण पर ऐसी कोई टिप्पणी करने का अधिकार ही किसी को नहीं है.
देश में पहली बार भारतीय जनता पार्टी पूर्ण बहमत के साथ केन्द्र की सत्ता में है. पहली बार भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से उभरा व्यक्ति राष्ट्रपति भवन पहुंचा है. सत्ता-प्रतिष्ठान की कई प्राथमिकताएं बदली हुई हैं. नव-निर्वाचित राष्ट्रपति के भाषण का स्वर भी बदलना था और पहले ही सम्बोधन से उसका प्रमाण भी मिल गया. राष्ट्रपति ने अपने सम्बोधन के शुरू में कहा कि हमारी स्वतंत्रता, महात्मा गांधी के नेतृत्व में हजारों स्वतंत्रता सेनानियों के प्रयासों का परिणाम थी. बाद में, सरदार पटेल ने हमारे देश का एकीकरण किया. हमारे संविधान के प्रमुख शिल्पी, बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर ने हम सभी में मानवीय गरिमा और गणतांत्रिक मूल्यों का संचार किया.इसमें प्रथम प्रधनमंत्री जवाहरलाल नेहरू का नाम नहीं लिया जाना कोई भी नोट करेगा. स्वाधीनता संग्राम और देश के लोकतांत्रिक इतिहास में नेहरू की भूमिका की अनदेखी नहीं की जा सकती. यह भी तय है कि भाजपा सरकार नेहरू-गांधी-वंश को इतिहास के कई श्रेय नहीं देना चाहती. यदि यहां नेहरू का भी जिक्र किया गया होता तो कांग्रेस मुक्त भारतका नारा देने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा-संघ की घोषित नीति को देखते हुए उसे आश्चर्यजनक किन्तु सदाशयता माना जाता.
राष्ट्रपति ने अपने भाषण का समापन करते हुए कहा- “हमें तेजी से विकसित होने वाली एक मजबूत अर्थव्यवस्था, एक शिक्षित, नैतिक और साझा समुदाय, समान मूल्यों वाले और समान अवसर देने वाले समाज का निर्माण करना होगा. एक ऐसा समाज जिसकी कल्पना महात्मा गांधी और दीन दयाल उपाध्याय जी ने की थी.कांग्रेसियों ही नहीं बहुत सारे और लोगों को भी यह नागवार गुजरा कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेता दीन दयाल उपाध्याय का नामोल्लेख इस तरह महात्मा गांधी के साथ लिया गया. यह अलग अध्ययन-विश्लेषण का विषय है कि दीन दयाल जी ने किस तरह के “साझा समुदाय, समान मूल्यों वाले और समान अवसर देने वालेसमाज की कल्पना की थी, जो महात्मा गांधी की ऐसी ही किसी कल्पना से मेल खाती थी, मगर यह तो साफ ही है कि भाजपा-संघ की नजरों में दीनदयाल जी का स्थान बहुत ऊंचा है. केंद्र से लेकर राज्यों तक की भाजपा सरकारों की कई योजनाएं, कार्यक्रम और स्थानों का नामकरण उनके नाम पर किया जा रहा है.
सर्वविदित है कि राष्ट्रपति के भाषण सरकार तैयार कराती है और वे वही लिखित भाषण पढ़ते हैं. यह एक परिपाटी है जो संविधान की इस व्यवस्था से बनी है कि राष्ट्रपति मंत्रिपरिषद की सलाह से काम करेगा. राष्ट्रपति की सभी शक्तियों पर संविधान के अनुच्छेद 74 का अंकुश है. अनुच्छेद 74 (1) राष्ट्रपति से अपेक्षा करता है कि वह अपने सभी कृत्यों का निर्वहन करते समय केवल मंत्रिपरिषद की सहायता तथा सलाह से काम करेगा.
संसद में राष्ट्रपति का सम्बोधन सरकार का नीति-वक्तव्य जैसा माना जाता है. वहां वह सरकार का लिखा ही पढ़ते हैं. इससे विचलन अपवाद स्वरूप ही होता है और बड़ी खबर बनता है. नये राष्ट्रपति का पहला सम्बोधन भी उसी से प्रेरित है. उन्होंने जो कहा वास्तव में वह नरेंद्र मोदी सरकार का कहा माना जाना चाहिए. मोदी सरकार नेहरू का नाम नहीं लेगी और दीन दयाल उपाध्याय का नाम जगह-जगह स्थापित करेगी, यह पूर्व-निश्चित है.  कांग्रेसी सिर्फ आपत्ति और गुस्सा व्यक्त कर सकते हैं. सिविल सोसायटी भी आश्चर्य और खेद ही प्रकट कर सकती है. भाजपाइयों को यह ऐतिहासिक न्याय नजर लगेगा. बेहतर होता अगर राष्ट्रपति के पहले सम्बोधन में ऐसे किसी विवाद से बचा जाता.
 (प्रभात खबर, 27 जुलाई, 2017)




Friday, July 21, 2017

आत्मघाती लापरवाहियों से घिरे हम


ट्रॉमा सेण्टर में आग लगना हादसा हो सकता है लेकिन जब यह पता चलता है कि मेडिकल कॉलेज प्रशासन ने गम्भीर रोगियों के बेहतर इलाज के वास्ते बने इस सेण्टर के लिए अग्नि-शमन विभाग से अनापत्ति प्रमाण पत्र ही नहीं लिया था तो कैसी प्रतिक्रिया होती है? और, जब यह पता चलता है कि राजधानी की कई नयी इमारतें इसी लापरहावी से बनी हैं, तब? अनेक बार निजी भवन निर्माताओं को इसके लिए कटघरे में खड़ा किया जाता है लेकिन बहुत-से सरकारी निर्माण ही इसकी अनदेखी किये चले जा रहे हैं. ताज्जुब होता है कि जिम्मेदार सरकारी विभाग और बड़े स्वायत्तशासी संस्थान ऐसा कैसे कर सकते हैं? आग की चेतावनी वाले देने वाले जो अलार्म सिगरेट के धुंए से भी चीख उठने चाहिए थे, वे आग लगने और पूरी इमारत में धुंआ भर जाने पर भी मुर्दा पड़े रहे. अगर उनकी देख-रेख नहीं करनी थी तो लगाने की औपचारिकता ही क्यों की गयी?    
भ्रष्टाचार ही की तरह क्या आत्मघाती लापरवाहियां भी हमारी पहचान बन गयी हैं? हमारे चरित्र में यह शामिल हो गया है कि बेहद जरूरी सावधानियां भी नहीं बरती जाएंगी? जान-माल की सुरक्षा के अति-आवश्यक उपाय नहीं किये जाएंगे? ट्रॉमा सेण्टर की आग बहुत भयावह नहीं थी मगर हो सकती थी. वार्डों में धुंआ भर गया तो खिड़कियों के शीशे तोड़ने पड़े. अग्नि-शमन मानकों का पालन किया गया होता तो ऐसी नौबत नहीं आती. हादसे बार-बार नहीं होते लेकिन जब होते हैं तभी पता चलता है कि उनसे बचने के पर्याप्त उपाय कितने महत्त्वपूर्ण होते हैं.
स्वास्थ्य विभाग राजधानी में मच्छर-जनित रोगों की रोकथाम के उपायों के तहत जब विभिन्न विभागों-संस्थानों के परिसरों की जांच कर रहा है तो उसे जगह-जगह डेंगू मच्छर के लार्वा मिल रहे हैं. जब हम सुनते हैं मेडिकल कॉलेज, लखनऊ विश्वविद्यालय, सचिवालय परिसर और राजभवन कॉलोनी में भी खतरनाक मच्छर के लार्वा पाये गये तो हैरत ही ,बहुत दुख भी होता है. क्या इन संस्थानों-विभागों में यह सब देखने वाला, इसके लिए जिम्मेदार कोई है ही नहीं? पद होंगे, उन पर तैनाती भी होगी, वेतन-भत्त्ते और सुविधाएं भी ली जा रही होंगी लेकिन उत्तरदायित्व निभाने के मामले में घोर उदासीनता. ऐसे में जानलेवा बीमारियों के साल-दर-साल बढ़ते जाने पर क्या स्यापा करना. विकास प्राधिकरणों, नगर निगमों और जनता की लापरवाहियों से सारे शहर में वैसे ही जल-भराव रहता है, गंदगी बीमारियों को न्योता देती रहती है, उसके लिए किसे और कितना कोसा जाए.
मनुष्य की जिंदगी की कोई कीमत हमारे यहां नहीं रही, जबकि उसे सर्वोपरि होना चाहिए. मनुष्य को जीने के लिए बेहतर जीवन-स्थितियां मिलें, उसकी जान की रक्षा में कोई कसर न रह जाए, ऐसे हालात हमारे यहां कैसे बनें, जबकि शासन-प्रशासन से लेकर सामान्य जन तक की चिंता में यह शामिल ही नहीं है. पंद्रह मंजिली रिहायशी इमारत बनाने वाला बिल्डर आपातकालीन स्थितियों के लिए आवश्यक दोतरफा सीढ़ियां नहीं बनाता. इससे बचने के लिए उसे विकास प्राधिकरण से लेकत अग्नि-शमन विभाग तक को रिश्वत देना मंजूर है. अब भूकम्प आये या आग लगे, उसमें रहने वाले कैसे बचें? सैकड़ों व्यक्तियों की जान कितनी सस्ती बना दी गयी है?
सरकारी विभागों और बड़े संस्थानों ने भी प्राइवेट बिल्डरों वाला रवैया अपना लिया है. ट्रॉमा सेण्टर के हादसे ने यह साबित कर दिया है. आखिर हालात कैसे बदलेंगे? सरकारें भी इस तरफ उदासीन हैं. (नभाटा, 22 जुलाई, 2017)  

Saturday, July 15, 2017

बैंक-ठगी के शिकार बुजुर्ग और मौन साइबर सेल


अट्ठासी साल के एक बुजुर्ग के बैंक खाते से साइबर ठगों ने डेढ़ लाख रु उड़ा लिये. सचिवालय से सेवानिवृत्त वे अपनी पेंशन से जीविका चलाते हैं. 13 जून, 2107 को स्टेट बैंक की सचिवालय शाखा के उनके खाते से एकाधिक बार यह रकम ऑनलाइन ट्रांसफर हुई. 14 जून को साइबर क्राइम सेल, हज़रतगंज में लिखित शिकायत (संख्या 886/17) दर्ज करायी गयी. 15 जून को हज़रतगंज थाने में एफआईआर (संख्या 0479) दर्ज हुई. नामित जांच अधिकारी ने दो-तीन दिन बाद शिकायतकर्ता को सुनवाई के लिए सुबह 10 बजे थाने बुलाया लेकिन काफी इन्तजार के बाद भी वे नहीं मिले. बताया गया कि योग दिवस पर प्रधानमंत्री के लखनऊ दौरे की सुरक्षा-तैयारियों में व्यस्त हैं. वह व्यस्तता शायद आज तक खत्म नहीं हुई. एक बुजुर्ग पेंशनधारी को उसकी डूबी रकम दिलाना तो दूर उसकी रिपोर्ट पर सुनवाई तक नहीं हुई.
स्टेट बैंक की सचिवालय शाखा के जिम्मेदार यह बताने को तैयार नहीं कि जब उन बुजुर्ग ने ऑनलाइन ट्रांजेक्शन की सुविधा ही नहीं ली थी तो कैसे उनके खाते से डेढ़ लाख रु किस्तों में ऑनलाइन ट्रांसफर कर दिये गये? वे मजबूरी में सिर्फ एटीएम कार्ड का इस्तेमाल करते हैं. बैंक ने उनसे पूछा क्यों नहीं कि आप ऑनलाइन ट्रांजेक्शन करना चाहते हों तो पहले रजिस्ट्रेशन कराइए? या एक-दो ट्रांजेक्शन होते ही बाकी रोक क्यों नहीं दिये गये? तुरंत ही फोन करके पूछा क्यों नहीं गया कि क्या आप ही ये ट्रांजेक्शन कर रहे हैं? कुछ निजी बैंक ऐसी ऐहतियात बरतते हैं. स्टेट बैंक ने उन बुजुर्ग की कोई मदद नहीं की, जबकि इस ठगी में उनकी लापरवाही भी साफ दिखती है.
ऐसे बहुत सारे व्यक्ति हैं- बुजुर्ग, सामान्य घरेलू महिलाएं, ग्रामीण, कम पढ़े या अनपढ़, एक बड़ीआबादी जो नेट-बैंकिंग से कतई वाकिफ नहीं. बस, एटीएम कार्ड का इस्तेमाल किसी तरह कर लेते हैं. साइबर ठगों के निशाने पर वे सबसे ज्यादा हैं. बैंक मददगार नहीं होंगे तो इस नेट-युग में उनके खाते की सुरक्षा कैसे होगी? ये वे लोग हैं जो एसएमएस करना नहीं जानते. बैंक या कहीं और से आया जरूरी एसएमएस नहीं देख पाते. इसके अभ्यस्त ही वे नहीं हैं. मोबाइल उनके लिए सिर्फ फोन है. फोन मिलाया या फोन उठा कर बात कर ली. राष्ट्रीयकृत बैंक पहले जमा या निकासी फॉर्म भरने जैसे कामों में भी उनकी मदद करते थे. तब उनका धन सुरक्षित था. आज उनका धन खतरे में है और बैंक सिर्फ विभिन्न सेवाओं का शुल्क लेने में मशगूल.
स्मार्ट फोन की घनघोर अभ्यस्त नयी पीढ़ी को साइबर ठगी की सूचना फौरन मिल जाती है. वे तत्काल  बैंक और साइबर अपराध सेल से सम्पर्क कर धोखाधड़ी रोकने में कामयाब हो जाते हैं. 88 साल के उन बुजुर्ग और उन जैसे बहुत सारे लोगों से बैंक या साइबर अपराध सेल के अधिकारी इस तेजी की उम्मीद नहीं कर सकते. उन्हें तो आपकी ही मदद की बहुत जरूरत है. वे अपना पासवर्ड या पिन तक सुरक्षित नहीं रख पाते. बैंक के नाम पर आया फर्जी फोन उन्हें आसानी से बरगला देता है, क्योंकि वे बैंक पर पहले की तरह भरोसा करते हैं.
बैंक और पुलिस को ऐसे नेट-असहाय लोगों की मदद निश्चित ही करनी चाहिए. क्या अब भी यह आशा की जाए कि साइबर अपराध सेल और स्टेट बैंक उन बुजुर्ग का ठगा हुआ धन वापस दिलवाने की कोशिश करेंगे? कम से काम जांच तो करेंगे? यह पता करना कतई मुश्किल नहीं कि उस खाते से रकम कहां ट्रांसफर हुई.

(नभाटा, 16 जुलाई, 2017)