Tuesday, August 08, 2017

धन एवं बाहु-बल का तमाशा


संसद के उच्च सदन राज्य सभा को, जैसा कि नाम ही से स्पष्ट है, भारतीय संघ के राज्यों का प्रतिनिधि सदन है. राज्य विधान सभाओं के निर्वाचित जन-प्रतिनिधि अपने राज्य का प्रतिनिधि चुनकर उच्च सदन में भेजते हैं. चूंकि यह प्रतिनिधि दलीय से ज्यादा राज्य का माना जाता है इसलिए विधायकों को पार्टी-व्हिप से बांधने की बजाय अपने विवेक या अंतरात्मा की आवाजसे वोट डालने की छूट दी गयी. यही छूट कालांतर में राज्य सभा चुनाव में विधायकों की खरीद-फरोख्त की आड़ बन गयी.

उच्च सदन की गरिमा और विधायक-मतदाताओं के कारण  राज्य सभा चुनाव को लोकतंत्र के लिए आदर्श एवं गरिमामय होना चाहिए था लेकिन होता इसके ठीक उलट है. आम मतदाता की तुलना में हमारे विधायक-मतदाता कहीं ज्यादा बिकाऊसाबित होते हैं. वर्ना भाजपा तीसरा प्रत्याशी जिताने के लिए कांग्रेसी विधायकों की ऊंची बोली क्यों लगाती और कांग्रेस को अपने विधायकों को रेवड़ की तरह हाँक कर कर्नाटक में क्यों कैद करना पड़ता. धन-बल के साथ बाहु-बल भी चल पड़ा.

पंचायत से लेकर संसद तक का हर चुनाव येन-केन-प्रकारेण जीतने में जुटे भाजपा के रणनीतिकारों ने गुजरात में जो किया वह राज्य सभा चुनाव में नैतिकता और गरिमा जैसे शब्दों को जोर का एक धक्का और दे गया लेकिन कतई नया नहीं था. जून 2016 में राज्य सभा की 57 सीटों के लिए जिन नौ राज्यों में चुनाव हुआ था, उसमें कम से कम छह राज्यों की 30 सीटों पर धन-बल का बोलबाला रहा था. कांग्रेस और भाजपा में खूब आरोप-प्रत्यारोप लगे थे. एक समाचार चैनल के स्टिंग ऑपरेशन में कर्नाटक में जनता दल के विधायक अपने वोट के लिए धन की मांग करते दिखाये गये थे. उत्तर प्रदेश में प्रीति महापात्र, राजस्थान में कमल मोरारका, और झारखण्ड में महेश पोद्दार पर विधायकों को खरीदने के आरोप लगे थे. क्रॉस वोटिंग भी खूब हुई थी.

सन 2000 के राज्य सभा चुनाव को इस संदर्भ में याद करना ज्यादा मौजूं होगा. तब विधायकों की खरीद-फरोख्त और क्रॉस वोटिंग का कीर्तिमान-जैसा बना था. भाजपा, कांग्रेस और क्षेत्रीय दलों के विधायकों ने बड़े पैमाने पर दूसरे प्रत्याशियों को वोट दिये. सबसे आश्चर्यजनक नतीजा उत्तर प्रदेश में आया. वहां लोकतांत्रिक कांग्रेस पार्टी के प्रत्याशी राजीव शुक्ला को प्रथम वरीयता के पचास वोट मिले. पार्टी के विधायकों की संख्या के हिसाब से यह बहुत ज्यादा था.वह काफी चर्चित और सनसनीखेज चुनाव था. एक हफ्ते तक यह अखबारी सुर्खियों में रहा कि देश के एक बड़े उद्योग घराने के एजेण्ट नकदी की अटैचियां लेकर लखनऊ के होटलों में ठहरे हैं. सभी दलों के विधायकों की ऊंची बोली लगी थी. भाजपा ही के 20 विधायकों के क्रॉस वोटिंग करने की खबर केंद्रीय नेतृत्व के पास पहुंची थी.

तत्कालीन प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी, गृह मंत्री लालकृष्ण आडवाणी और तब पार्टी प्रवक्ता वैंकैया नायडू ने राज्य सभा चुनाव में धन-बल के प्रभाव में क्रॉस वोटिंग को गम्भीर मामला बताते हुए इसकी निंदा की थी. आडवाणी जी ने चुनाव प्रक्रिया में बदलाव का सुझाव दिया था, जिसका कांग्रेस नेताओं ने भी स्वागत किया था. खुद कांग्रेस के विधायकों ने तृणमूल कांग्रेस के उम्मीदवारों को जिताने के लिए क्रॉस वोटिंग की थी. तब तक राज्य सभा चुनाव में भी मतदान गोपनीय होता था. उसी के बाद लोक प्रतिनिधित्व कानून, 1951 में संशोधन करके राज्य सभा चुनाव में खुले मतदान की व्यवस्था की गयी. अब विधायकों को अपनी पार्टी के एजेण्ट को दिखा कर वोट देना होता है. इसके बावजूद विधायक क्रॉस वोटिंग करते हैं.

खुले मतदान से इतना ही हुआ कि क्रॉस वोटिंग करने वाले विधायकों की पहचान आसान हो गयी. पहले यह तो पता चल जाता था कि क्रॉस वोटिंग हुई है लेकिन किस-किस ने की है, इस पर कयास ही लगाये जाते थे. इस संशोधन को जब सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी गयी तो अदालत ने खुले मतदान की व्यवस्था को बरकरार रखते हुए टिप्पणी की थी कि यदि गोपनीयता भ्रष्टाचार का स्रोत बन रही है तो रोशनी और पारदर्शिता में उसे दूर करने की क्षमता है.हमारे माननीय विधायकों ने पारदर्शिता की इस क्षमता को ध्वस्त करने में कोई कसर नहीं रखी.

खुले मतदान के बावजूद विधायकों की क्रॉस वोटिंग का मुख्य कारण यह है कि राज्य सभा चुनाव में विधायकों पर पार्टी-ह्विप लागू नहीं होता. क्रॉस वोटिंग करने वाले विधायक दल-बदल कानून से बचे रहते हैं यानी उनकी विधान सभा सदस्यता नहीं जा सकती. राजनैतिक दल अपने विधायकों को निर्देश ही दे सकते हैं, जिसके उल्लंघन को अनुशासनहीनता मानते हुए उन्हें पार्टी से निलंबित किया जा सकता है. उनकी विधान सभा सदस्यता बची रहती है.

एक और बड़ा कारण यह है कि राज्य सभा चुनाव में विधायकों के पास वरीयता–क्रम में एकाधिक मत होते हैं. प्रथम वरीयता मत अपनी पार्टी के अधिकृत उम्मीदवार को देने के बाद वे दूसरी-तीसरी वरीयता के मत दूसरे प्रत्याशी को बेच देते हैं. बोली ऊंची हो तो प्रथम वरीयता मतों का भी सौदा होता है. कुल मिला कर राज्य सभा चुनाव में धन-बल का खुल्लम-खुल्ला इस्तेमाल होता आ रहा है. जैसे-जैसे धंधेबाज एवं आपराधिक चरित्र के विधायक चुन कर आते गये, वैसे-वैसे  चुनाव में धन-बल का प्रभाव बढ़ता गया. समय-समय पर विभिन्न उद्योगपतियों ने भी थैलियों से विधायकों की अंतरात्मा खरीद कर राज्य सभा का रास्ता पकड़ा.   

राज्य सभा की उपयोगिता के बारे में भी अक्सर सवाल उठते रहते हैं. हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था में इस उच्च सदन ने अनेक बार अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है. 1919 के मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार (गवर्नमेण्ट ऑफ इण्डिया एक्ट)  में पहली बार ब्रिटेन की तरह भारत के लिए दो सदनों वाली संसदीय व्यवस्था की गयी थी. आजादी के बाद हमारी संविधान सभा ने इस पर विस्तार से चर्चा की और पाया कि भारत जैसे विशाल और विविधता वाले देश में राज्यों का सदन होना जरूरी है. हमारी संघीय और लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए जनता द्वारा सीधे निर्वाचित लोक सभा ही पर्याप्त नहीं मानी गयी.

कालांतर में कई अवसरों पर यह सत्य प्रमाणित हुआ. लोक सभा में सत्ता पक्ष के अपार बहुमत की स्थिति में राज्य सभा ने रचनात्मक प्रतिरोध की लोकतांत्रिकआवश्यकता पूरी की है. वर्तमान मोदी शासन तो इसका उदाहरण है ही. 1977-79 के दौरान जनता पार्टी के राज में, 1999-2004 में राजग-शासन और  2009-14 में यूपीए के दूसरे कार्यकाल में राज्य सभा ने कई मौकों पर प्रतिरोध के आवश्यक मंच की भूमिका अदा की. यह भी सच है कि कई बार सत्ता पक्ष राज्य सभा में बहुमत न होने के कारण कुछ जरूरी विधेयक आदि पारित नहीं करा पाता, जैसा कि वर्तमान सरकार के साथ हुआ है. भाजपा इसलिए भी राज्य सभा में जल्द से जल्द बहुमत पाने के लिए बेताब है. विपक्ष की धार कुंद करने की मंशा के अलावा इस बेताबी ने भी राज्य सभा चुनाव को बड़ा तमाशा बना दिया.  
 (प्रभात खबर, 08 अगस्त, 2017)
  

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