Friday, September 15, 2017

‘नाद रंग’ और आलोक पराड़कर


कल आलोक (पराड़कर) ने मुझे नाद रंगका पहला अंक दिया तो उनकी प्रतिभा और क्षमता के एक और प्रतिमान से साक्षात्कार हुआ. इस पत्रिका को आलोक ने कला, संगीत और रंगमंच की संगतकहा है. पिछले कोई ढाई साल से वे नियमित पत्रकारिता के अलावा कला स्रोत फाउण्डेशनके साथ कला स्रोतनाम से पत्रिका का सम्पादन कर रहे थे. नाद रंगउसी शृंखला की अगली कड़ी है लेकिन किसी फाउण्डेशन या संस्था से बिल्कुल स्वतंत्र, आलोक का अपना निजी प्रयास. प्रवेशांक में उत्तर प्रदेश के विभिन्न शहरों के हिंदी रंगमंच का जायजा लिया गया है.
हमारे यहां प्रदर्श कलाओं की पत्रिकाओं की कमी है. उप्र संगीत नाटक अकादमी की छायानटलम्बी बंदी के बाद शुरू तो हुई लेकिन उसमें कतई वह बात नहीं जो कभी नरेश सक्सेना जी के सम्पादन में सामने आती थी. कला पर केंद्रित अवधेश मिश्र के सम्पादन वाली कला दीर्घा जरूर स्तरीय बनी हुई है. राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की रंग प्रसंग’, केंद्रीय संगीत नाटक अकादमी की पत्रिका संगनाऔर नेमिचंद्र जैन वाली नट रंगका हाल मुझे बहुत दिनों से नहीं पता.
कला स्रोतदेखते रहने के बाद मुझे भरोसा है कि नाद रंगअपनी जगह बना लेगी. प्रयास व्यक्तिगत है और उसे संसाधनों की कमी रहेगी. इस वजह से उसकी बारंबारता में फर्क पड़ सकता है, स्तर पर नहीं.
प्रसंगवश, लखनऊ के अखबारों में प्रदर्श कलाओं पर जो लिखा जा रहा है, वह पत्रकारिता के दीवालियेपन ही का सबूत है. नाटकों की समीक्षाएंहास्यास्पद होती हैं, जो नाटक देखे या कुछ समझे बिना लिखी जाती हैं. अब तो नाटक करने वाले भी दूसरे आयोजनों की तरह प्रेस नोट पहले से बना कर रखते हैं, सुना. नाटक के नाम पर चलताऊ काम करने वालों को यह सुविधाजनक लगता है. अखबारों में उनके बारे में कुछ छप जाता है. कला प्रदर्शनियों के उद्घाटन की खबरें भर छपती हैं, अगर राज्यपाल या किसी वीवीआईपी मुख्य अतिथि हुए तो.
लखनऊ में आलोक पराड़कर की उपस्थिति कला और रंग जगत की रिपोर्टिंग और समीक्षा की इस गरीबी और दुर्दशा को भरसक दूर करने का प्रयास करती है. हिंदुस्तान’, लखनऊ के सम्पादन के वर्षों में मैंने आलोक की प्रतिभा का खूब इस्तेमाल किया. आलोक ने भी बहुत मन से सांस्कृतिक रिपोर्टिंग की. कई लेख और साक्षत्कार भी लिखे. पिछले कुछ वर्षों से वह अमर उजालामें बहुत अच्छा लिख रहे हैं. उनके आलेखों का एक संकलन पिछले दिनों प्रकाशित हुआ है.
पिछले कुछ समय से सुभाष राय के सम्पादन में ‘जन संदेश टाइम्स’ शहर की साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियों पर विभिन्न रचनाकारों से लिखवा कर सराहनीय काम कर रहा है, यद्यपि उसकी पहुंच सीमित है.
याद आता है कि स्वतंत्र भारतमें कभी-कभार गुरुदेव नारायण और बाद में अश्विनी कुमार द्विवेदी नियमित रूप से संगीत संध्याओं की बहुत अच्छी रिपोर्ट लिखा करते थे.  उसके बाद अमृत प्रभातमें कृष्ण मोहन मिश्र ने सांस्कृतिक रिपोर्टिंग के प्रतिमान बनाए. यह अखबार साहित्य-संगीत-कला-रंगमंच को काफी जगह देता था. नवभारत टाइम्समें अनिल सिन्हा गाहे-ब-गाहे अच्छी सांस्कृतिक रिपोर्ट लिखते थे. टाइम्स ऑफ इण्डियामें मंजरी सिन्हा की रिपोर्ट पढ़कर आनंद आता था. उसके बाद लखनऊ के अखबारों में साहित्य-संस्कृति की रिपोर्टिंग का स्तर ही नहीं गिरा, उसकी समझ रखने वाले रिपोर्टर भी नहीं हुए.
हिंदुस्तानमें मैंने कई युवा पत्रकारों को यह जिम्मेदारी दी लेकिन जब तक आलोक पराड़कर हमारी टीम में शामिल नहीं हुए, तब तक साहित्य-संस्कृति की रिपोर्टिंग दयनीय ही बनी रही थी. आलोक के आने से इस क्षेत्र में हिंदुस्तान की कद्र बढ़ी थी. आजकल वह स्थान अमर उजालाको हासिल है. आलोक की वजह से ही.
इसलिए विश्वास है कि नाद रंगइस शून्य को भरने का जरूरी काम कर पाएगी.

 - नवीन जोशी

3 comments:

कृष्णमोहन said...

आलोक जी को "नाद रंग" के प्रकाशन के लिए अशेष शुभेच्छा देता हूँ। नवीन जी ने अपनी टिप्पणी में मुझ अकिंचन का उल्लेख किया, आभार।

Unknown said...

कृष्णमोहन जी नमस्कार।

अपर्णा वाजपेयी said...

बहुत अच्छा आलेख लिखा है.बार बार आपके ब्लोग पर आना चाहूंगी.