Tuesday, October 31, 2017

राजनीति का वर्चुअल संग्राम


सोशल मीडिया अभियानों से उभरी मोदी और शाह की भारतीय जनता पार्टी अब सबसे ज्यादा चिंतित दिखाई देती है, खासकर गुजरात चुनावों के सिलसिले में, तो सोशल मीडिया ही से. ट्विट्वर पर राहुल गांधी के फॉलोवरों और रिट्वीट की संख्या तेजी से बढ़ने की जैसी प्रतिक्रिया भाजपा नेताओं में हुई वह इसी चिंता का द्योतक है.  जब राहुल ने जीएसटी को गब्बर सिंह टैक्सकहा तो उन्हें सोशल मीडिया से लेकर प्रिंट, डिजिटल और इलेक्ट्रानिक मीडिया में खूब चर्चा मिली. मोदी की एक गुजरात यात्रा की सुबह जब राहुल ने ट्वीट किया कि आज होगी आसमान से जुमलों की बारिशतो इसे रिट्वीट और लाइक करने वालों का आंकड़ा सोशल मीडिया पर मोदी की लोकप्रियता तक पहुंच गया.

जवाब में राहुल पर तरह-तरह के तंज कसे गये, कहा गया कि यह इसी मकसद से बनाई गयी टीम तथा बोट’ (स्वचालित ऐप ) का काम है.  इसके प्रत्युत्तर में राहुल ने अपने पालतू कुत्ते का वीडियो ट्वीट करते हुए व्यंग्य किया कि इसके पीछे पिडीहै. यह जवाबी ट्वीट भी खूब रिट्वीट हो रहा है.

सोशल मीडिया में भाजपा पर यह प्रत्याक्रमण अचानक नहीं हुआ. नरेंद्र मोदी और अमित शाह समेत तमाम भाजपा नेताओं ने पिछले तीन-चार सालों में बड़े नियोजित ढंग से राहुल गांधी की जो पप्पू-छविप्रचारित की, उन पर जो मजाकिया किस्से और चुटकुले सोशल मीडिया पर प्रचारित किये, उनसे राहुल की अगम्भीर एवं नासमझ राजनैतिक नेता और लल्लू-टाइपछवि बन गयी. इसके लिए कुछ हद तक खुद राहुल भी दोषी रहे. इधर कुछ समय से कांग्रेस और स्वयं राहुल गांधी की ओर से इस छवि को तोड़ने की पुरजोर कोशिश हुई. अमेरिका के विभिन्न शहरों में पिछले दिनों हुई उनकी सभाएं और टीवी-वार्ताएं, जिनकी काफी सराहना हुई, इसी अभियान का हिस्सा थीं. राहुल ने भी मोदी की तरह अपनी सोशल मीडिया टीम बनाई है, जो उनकी छवि सुधारने के अभियान में लगी है.

गुजरात में राहुल की हाल की सभाओं और नव सृजन यात्राओंमें जुटी भारी भीड़ और सोशल मीडिया में उसकी व्यापक चर्चा ने भी राहुल की छवि सुधारने का काम किया है. बहुत सी टिप्पणियों में कहा  रहा है कि लगता है राहुल का कायाकल्प हो रहा है. ट्विटर पर उनके फॉलोवर और रिट्वीट इसी दौरान बढ़े और बढ़ाये गये. जाहिर है भाजपा की नजर इस पर शुरू से रही होगी. अमित शाह ने अपनी एक सभा में युवकों से यूं ही अपील की नहीं की होगी कि वाट्स-ऐप की हर बात पर पूरा भरोसा मत करो, अपना दिमाग लगाओ. सोशल मीडिया को अपना बड़ा हथियार बनाने वाली पार्टी के अध्यक्ष की इस अपील ने उस समय चौंकाया था. अब लगता है कि ऐसा क्यों कहा गया था.

सोशल मीडिया ही नहीं, सार्वजनिक सभाओं तथा चुनाव प्रचार के तौर-तरीकों में भी लगता है कि राहुल ने भाजपा, विशेष रूप से मोदी को जैसे को तैसाकी तर्ज पर जवाब देने की रणनीति बना रखी है. जीएसटी के लिए गब्बर सिंह टैक्सजैसा जुमला गढ़ना ठीक मोदी के अंदाज में है. नये-नये नारे और जुमले गढ़ने में मोदी माहिर हैं जिन पर खूब तालियां बजती हैं और सोशल मीडिया पर भी वे ट्रेण्ड करते रहते हैं. जैसे, अभी हाल में अहमदाबाद आईआईटी के छात्रों से उन्होंने कहा कि मैं आईआईटीयन तो नहीं, लेकिन टीयन अवश्य हूं’. उन्होंने चायवालाके लिए टीयन शब्द गढ़ा.  तो, राहुल ने भी इधर उसी अंदाज में मोदी पर हमले शुरू किये हैं. दो दिन पहले ही उन्होंने कहा कि मोदी जी ने देश की अर्थव्यवस्था पर दो-दो टॉरपीडो चला दिये- नोटबंदी और जीएसटी.

राहुल ने द्वारिका और चोटिला के मंदिरों में दर्शन एवं पूजा-पाठ किये. आदिवासियों के नृत्य-गीतों में भी शामिल हुए. जातीय समूहों को कांग्रेस की तरफ खींचने के लिए वे खासी मेहनत कर रहे हैं. ओबीसी नेता अल्पेश ठाकोर को कांग्रेस में शामिल कराया. पाटीदार आंदोलन के प्रमुख नेता हार्दिक पटेल को साथ लाने के लिए सौदेबाजी काफी आगे बढ़ चुकी है. भाजपा को कमजोर करने का हर मौका वे गुजरात में भुना लेना चाहते हैं, जैसा भाजपा ने अन्य राज्यों में कांग्रेस के साथ किया.

गुजरात में भाजपा वैसे भी बचाव की मुद्रा में है. 2104 के बाद वह पहली बार किसी राज्य में वादाखिलाफी और सत्ताविरोधी रुझान का सामना कर रही है. राहुल की नयी रणनीति स्वाभाविक ही उसके लिए चिंता का कारण होगी. चिंता इस कारण ज्यादा होगी कि देश की आर्थिक स्थितियां और कुछ राज्य के जातीय हालात आज उसके विपरीत हैं. नोटबंदी के कारण और जीएसटी की दरों में तनिक राहत मिलने के बावजूद व्यापरियों का बड़ा तबका नाराज है. बेरोजगारी से युवा वर्ग परेशान है. पटेलों के व्यापक आंदोलन ने गुजरात में भाजपा सरकार को लम्बे समय से तंग कर रखा है. 1985 के बाद से पटेल भाजपा का बड़ा वोट बैंक रहे हैं लेकिन अब खिलाफ हैं. अमित शाह के बेटे की कम्पनी के रातों-रात फलने-फूलने की हाल की खबर भी भाजपा की छवि के विपरीत गई है. इन हालात में राहुल की तरफ खिंचती भीड़ और सोशल मीडिया में उनकी आक्रामक रणनीति भाजपा नेताओं के माथे पर बल डालने के लिए काफी है.

भाजपा की चिंता यह नहीं होगी कि वह गुजरात विधान सभा का चुनाव हार सकती है. राजनैतिक प्रेक्षक और स्वयं कांग्रेस भी, यह नहीं मानते कि भाजपा गुजरात में हार जाएगी. नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता कम होने के बावजूद चुनाव जीतने के लिए अभी पर्याप्त लगती है. फिर, राहुल के सोशल मीडिया में छा जाने मात्र से कांग्रेस चुनाव जीत जाएगी, यह मानना दिवास्वप्न ही होगा. मगर भाजपा यह कतई नहीं चाहेगी कि उसका वोट प्रतिशत और विधायकों की संख्या पहले से कम हो जाए. उधर कांग्रेस पूरा जोर लगा रही है कि भाजपा के किले में बड़ी से बड़ी सेंध लगे ताकि मोदी का तिलिस्म टूटे और कांग्रेस की वापसी का रास्ता खुले. भाजपा की सीटें जितनी कम होंगी,  2019 की लड़ाई उसके लिए उतनी कठिन होगी. गुजरात का यही प्रमुख चुनाव-संग्राम है.

नरेंद्र मोदी जिस तरह सघन चुनाव-प्रचार में जुटे हैं, गुजरात के लिए विकास योजनाओं की घोषणाओं की जैसी झड़ी उन्होंने और उनके मुख्यमंत्री ने लगाई है, वह इसी कारण है. कांग्रेस का चुनाव जीतना तो दूर, राहुल का सोशल मीडिया पर लोकप्रिय होना भी उन्हें मंजूर नहीं. निकट भविष्य में कभी भी कांग्रेस अध्यक्ष की कुर्सी सम्भालने जा रहे राहुल के लिए यह कड़ा इम्तहान है.
चुनावी मैदान से पहले एक वर्चुअल संग्राम सोशल मीडिया पर लड़ा जाना है. हम उसी का मुजाहिरा कर रहे हैं.     

 (प्रभात खबर, 01 नवम्बर, 2017)

Saturday, October 28, 2017

बुझे दीयों में बचे तेल का खजाना


छोटी दीपावली की शाम अयोध्या में पौने दो लाख दीये जलाकर भगवान राम की अयोध्या वापसीका उत्सव पहली बार खूब धूम-धाम से मनाने की खबर हमारे मीडिया में छाई रही. मगर यह खबर ज्यादा पढ़ने को नहीं मिली कि एक-दो रोज बाद सरयू के तट पर रखे गये इन दीयों में बच रहे या इधर-उधर फैल गये तेल को बटोरने वाले भी उसी अयोध्या में कम न थे.
कौन लोग हैं जो दीयों में बचा तेल बटोर रहे थे और क्यों? ‘टाइम्स ऑ फ इण्डियाकी एक खबर बताती है कि राम की पैड़ी की सीढ़ियों पर कुछ तेल फैला हुआ था. बुझ गये कई दीयों में भी तेल बच रहा था. कुछ भिखारियों, संपेरों और मजदूरों ने वह तेल खाली बोतलों में भरा और घर ले गये. एक संपेरे विजय कुमार ने उस सम्वाददाता को बताया कि छोटी दिवाली के दिन हमारा चूल्हा नहीं जला लेकिन दूसरे दिन खजानाहाथ लग गया.
वह कौन सा खजाना था? विजय कुमार ने रिपोर्टर को बताया कि बुझे दीयों का तेल हमने बोतलों में इकट्ठा किया. उसके जैसे कई परिवारों ने ऐसा किया. इससे उन्होंने खाना पकाया. कुछ ने एक-दो बोतल तेल अपने घर भी भेजा. एक टाइम का खाना पकाने के लिए उन्हें करीब पंद्रह रु का तेल खरीदना होता है. कमाई न हो तो नहीं खरीद पाते. इससे पहले कि प्रशासन घाट की सीढ़ियों पर बालू डाल कर तेल की सफाई करता, उसे कई परिवारों ने बटोर कर खाना पकाने के लिए रख लिया. यह उनकी खुशी थी, उनकी दीवाली थी.
इस बार अयोध्या की दीवाली सम्भवत: विश्व कीर्तिमान बना गयी लेकिन क्या बचा-खुचा तेल खजानेकी तरह बटोरने वालों की खुशीभी कहीं दर्ज होगी? उसका भी कोई कीर्तिमान होगा? उस भव्य उत्सव और इस लाचार खुशी के बीच कोई रिश्ता है?
अयोध्या के दीपोत्सव पर कोई टिप्पणी किये बिना यह प्रतीक है हमारे देश की उस भयावह खाई का जो अमीरी और गरीबी के बीच न केवल बनी हुई है बल्कि बहुत तेजी से गहरी और चौड़ी होती जा रही है. आजादी के बाद से आज तक गरीबी दूर करने के लिए सभी सरकारों ने, नेताओं ने तरह-तरह के नारे लगाये लेकिन गरीबी दूर नहीं हुई. नारों का जोश और शोर बढ़ता गया. गरीब और भी दूर होते चले गये.
ताजा आंकड़े बता रहे हैं कि भारत के शीर्ष एक फीसदी अमीरों के पास देश की 53 फीसदी सम्पत्ति मौजूद है. सन 2000 में यह प्रतिशत 36.8 था. यानी सोलह वर्ष में देश के एक फीसदी सबसे अमीर लोगों ने 16.2 फीसदी की छलांग लगा ली. अगर देश के सबसे अमीर 10 फीसदी लोगों की बात करें तो उनके पास 76.3 प्रतिशत सम्पत्ति है. अमीरों की सम्पति के हिसाब से हमारा देश अमेरिका से कहीं ज्यादा अमीर ठहरता है, जबकि अमीर-गरीब की खाई के मामम्ले में हम दुनिया के चंद शीर्ष देशों में शुमार होते हैं.
देश के पचास फीसदी गरीबों के पास कुल मिलाकर सिर्फ 4.1 फीसदी सम्पत्ति है. अमीरों की सम्पत्ति तेजी से बढ़ रही है. सबसे नीचे वाले किसी तरह रेंग रहे हैं.
अयोध्या में दीयों में बचे-खुचे तेल को खजानेकी तरह बटोरने वाले इस सूची के सबसे निचले पायदान पर हैं. या क्या पता वे आंकड़ा एकत्र करने वालों की किसी सूची में जगह ही न पाते हों.
यह कविता इस देश में सबकी जुबान पर रही है- जलाओ दीये पर रहे ध्यान इतना, अंधेरा धरा पर कहीं रह न जाएलेकिन अंधेरे का घेरा बढ़ता जा रहा है.

(सिटी तमाशा, नभाटा, लखनऊ, 28 अक्टूबर, 2017)

Sunday, October 15, 2017

सिर्फ जुर्माने के नियम से क्या होगा

क्या आपको पता है कि सरे आम कहीं भी थूकने और पेशाब करने पर 500 रु जुर्माना देना होगा? सार्वजनिक स्थलों यानी घर के बाहर कूड़ा फेंकने और नाली जाम करने पर भी इतना ही जुर्माना आपसे वसूला जाएगा? पता है? बहुत अच्छी बात है. क्या जनता को इस नियम का डर है? क्या वे अपनी आदत बदल रहे हैं?
क्या आप किसी ऐसे व्यक्ति को जानते हैं जिस पर सड़क पर थूकने, पेशाब करने, कचरा फेंकने के लिए कभी जुर्माना किया गया हो? आप ऐसे किसी व्यक्ति को तलाश करने पर भी नहीं ढूंढ पाएंगे. लखनऊ नगर निगम ने आज तक किसी व्यक्ति पर शहर को गंदा करने के लिए जुर्माना लगाया ही नहीं.
22 मार्च, 2016 को लखनऊ नगर निगम की कार्यकारिणी ने अपनी बैठक में शहर को गंदा करने वालों पर यह जुर्माना लगाना तय किया था. राजधानी को स्मार्ट बनाना है, स्वच्छ भारत अभियान में योगदान करना है, सफाई के मानकों पर आगे बढ़ना है, इसलिए. बैठक में मुम्बई नगर निगम के नियमों का हवाला दिया गया, जहां इन गंदी आदतों के लिए नागरिकों पर एक हजार रु का दण्ड लगाने की व्यवस्था है. जोश में कहा गया था कि लखनऊ में भी एक हजार रु के जुर्माने की व्यवस्था की जानी चाहिए. हमारे सभासदों को अपनी जनता पर दया आ गयी. उन्होंने दलील दी थी कि मुम्बई की तुलना लखनऊ से नहीं की जा सकती. यहां जुर्माने की राशि आधी कर दी जाए. तब प्रस्ताव पास हुआ कि अगर कोई सार्वजनिक स्थान पर थूकता, पेशाब करता, कचरा फेंकता पाया गया तो उससे तत्काल 500 रु का जुर्माना वसूला जाएगा.
नियम बनाना एक बात है और उस पर अमल करना दूसरी बात. आज तक किसी व्यक्ति पर जुर्माना नहीं लगाया गया. गन्दगी फैलाने के लिए कुछ दुकानों व प्रतिष्ठानों से जरूर जुर्माना वसूला गया लेकिन किसी व्यक्ति पर यह दण्ड नहीं लगा. क्यों? नगर निगम के अधिकारियों का जवाब होता है कि इतने कर्मचारी ही नहीं हैं जो सारे शहर में घूम-घूम कर गन्दगी करने वालों को पकड़ें और जुर्माना वसूलें. शहर की सफाई व्यवस्था देखने की जिम्मेदारी सफाई निरीक्षकों की है और उनकी संख्या इतनी भी नहीं है कि वे नगर निगम के ठीक पड़ोस में लालबाग की एक गली को पेशाब में डुबो देने वालों को टोक सकें.
नतीजा यह है कि आधे से ज्यादा शहर खुले में कचरा फेंक रहा है, दीवारों पर धार मार रहा है, नालियों में प्लास्टिक की प्लेटें-थैले और जूठन फेंक रहा है. 19 मार्च 2016 के अपनी इसी स्तम्भ में हमने हिसाब लगाकर लिखा था कि सिर्फ पत्रकारपुरम चौराहे पर ही रोजाना करीब तीन हजार लोग खुले में लघु शंका निपटान करते हैं. इतने लोगों से जुर्माना वसूलने के लिए तो माओ की जैसी फौज चाहिए. सुनते हैं उन्होंने चीन की सड़कों पर लाखों की संख्या में कार्यकर्ता तैनात कर दिये थे. कोई भी कचरा फेंकने लगता तो वे अपने हाथ का कूड़ेदान उसके सामने कर देते. धीरे-धीरे सबकी आदत सुधर गयी.

असल में यह शुद्ध दिमाग का मामला है. न नियम बनाने से होगा न फौज-फाटे से. हाल ही में छपी वह फोटो याद होगी जिसमें एक केंद्रीय मंत्री किसी स्कूल की दीवार पर निपट रहे हैं और स्टेनगन धारी जवान उस वक्त भी  उनकी सुरक्षा में तैनात हैं. उनसे कौन जुर्माना वसूल लेगा? तो, जतन ऐसा चाहिए कि सफाई का विचार लोगों के जेहन में सदा के लिए बैठ जाए. यह कैसे होगा?
(नभाटा, सिटी तमाशा, 14 अक्टूबर, 2017) 

Friday, October 06, 2017

टॉयलेट- एक विस्फोट कथा


डिस्कवरी चैनल वालों ने एक बार टॉयलेट में विस्फोट की सम्भावना को नकारते हुए कहा था कि ऐसा तभी हो सकता है जब वहां बारूद डाल कर तीली सुलगा दी जाए. डिस्कवरी वालों को लखनऊ आ कर जिला एवं सत्र न्यायालय का वह टॉयलेट देखना चाहिए जहां बुधवार को जोर का धमाका हुआ. पुलिस और फॉरेंसिक टीम को वहां किसी तरह का विस्फोटक पदार्थ नहीं मिला. जो कुछ वहां टूटा-फूटा और छितराया हुआ मिला  उसमें बीयर के कैन, नशे की शीशियां, नमकीन के पाउच, सिगरेट की डिब्बियां, वगैरह थे. विदेशी विशेषज्ञों को हैरानी होगी कि टॉयलेट में दारू की शीशियों  का क्या काम! क्या हिंदुस्तानी इतने सफाई-पसंद हो गये हैं कि नशा करने के बाद शीशियां यहां-वहां फेंकने की बजाय टॉयलेट में जमा कर आते हैं?

वे क्या जानें कि हिंदुस्तानी पियक्कड़ों की पसंदीदा जगह शौचालय है. बीड़ी-सिगरेट-खैनी के अलावा वह दारू पीने और नशे के इंजेक्शन लगाने की सबसे सुरक्षित जगह है. किसी को विश्वास न हो तो सुलभ शौचालय के रखवालों से पूछ लीजिए या हैरान-परेशान बीवियां तस्दीक कर देंगी कि बाथरूम जाने से पहले तो येअच्छे-भले होते हैं मगर वहां से निकलने पर जाने क्यों लखड़ाने लगते हैं. नशेड़ियों की बीवियां बाथरूम में सिस्टर्न का ढक्कन खोल कर देख पातीं तो रहस्य खुलता.

अदालत की टॉयलेट में नशे का सामान कैसे आया, यह रहस्य किसी से छुपा नहीं. कुछ कैदियों को नशा चाहिए और पुलिस आदत से लाचार. सो, अदालत परिसर का टॉयलेट सबसे सुरक्षित जगह. कैदी बार-बार टॉयलेट जाने की जिद करता है. पुलिस वाला इशारा समझ कर पहले खुद टॉयलेट जाता है या उसके इशारे पर कोई सूत्र. उसके बाहर आते ही कैदी की हाजत तेज हो जाती है. टॉयलेट की सिटकनी चढ़ाने के बाद वह सिस्टर्न का ढक्कन उठाता है. वहां रखा नशे का पसंदीदा सामान पा कर उसकी बांछें खिल जाती हैं. जब कैदी टॉयलेट से निकलता है तो पुलिस वाले को कोई हैरानी नहीं होती कि वह जेलर जैसी अकड़ क्यों दिखाने लगा.  कैदी ही क्यों, वहां से कई और लोग भी इसी तरह निकलते हों तो क्या आश्चर्य.

विशेषज्ञों का अंदाजा है कि सिस्टर्न के भीतर दारू और कफ सीरप की शीशियों में कोई गैस बनती रही. उसी से धमाका हो गया. अगर ऐसा है तो अपने घरों के टॉयलेट में निश्चिंत होकर दारू गटकने वालों को सावधान हो जाना चाहिए. उनकी त्वरित बुद्धि सामान छुपाने के लिए दूसरी सुरक्षित जगह ढूंढ ही लेगी.

उत्सुकतावश गूगुल की शरण जाने पर हमें टॉयलेट में विस्फोट होने की कई खबरें और मनोरंजक किस्से मिले. चीन से लेकर यूरोप और अमेरिका में  ऐसी कई वारदात हो चुकी हैं. उनमें मौत भी हुई और कई कमर से नीचे घायल मिले. कारण कहीं पानी की पाइपलाइन में हवा का भारी दवाब था तो कहीं चोक सीवर से उमड़ी गैस ने टॉयलेट की सीट ही उड़ा दी. लेकिन सिस्टर्न में विस्फोट कहीं नहीं हुआ, न ही कहीं दारू या कफ सीरप की शीशियों के टुकड़े बरामद हुए. यह निखालिस हिंदुस्तानी नवाचार है!

टॉयलेट आजकल तरह-तरह से चर्चा में है. मोदी जी ने टॉयलेट-अभियान क्या छेड़ा, उस पर फिल्म भी बन गयी. कम हो रहा कहने को लखनऊ के एक टॉयलेट में धमाका भी हो गया. खुले में शौच जाने वालों को नया बहाना मिल गया- कहीं कुण्डी बंद करते ही धमाका हो गया तो! महानायक अब उन्हें क्या गा कर समझाएंगे

(सिटी तमाशा, नभाटा, 07 अक्टूबर 2017) 

Tuesday, October 03, 2017

स्वच्छ भारत टेंसन


रांची नगर निगम के हल्ला बोल, लुंगी खोलअभियान को पिछले हफ्ते राष्ट्रीय मीडिया में जगह मिली. खुले में शौच जाने वालों की लुंगी उतरवाने के लिए सुबह-सुबह नगर निगम की टीमें तैनात हैं. हल्ला बोल, घर से दूर छोड़भी इसी का हिस्सा है. खुले में शौच के लिए जाने वालों को पकड़ो और दूर ले जा कर छोड़ दो. मकसद है कि लोग शर्मिंदा हों और खुले में शौच जाना बंद करें. अपने घर में शौचालय बनवाएं और उसका इस्तेमाल करें.

पहले उत्तर प्रदेश के बिजनौर जिले से खबर थी कि जिलाधिकारी के आदेश से वहां खुले में शौच कर रहे लोगों पर टॉर्च चमकाए गये और सीटियां बजायी गयीं. इसके लिए पुरुषों और महिलाओं की टीम सुबह-सुबह टॉर्च और सीटी लेकर तैनात रहती हैं. ताजा खबर मध्य प्रदेश के बैतूल जिले की है. वहां अमला विकास खंड के सात गांवों में बिना शौचालय वाले घरों पर 250 रु प्रति व्यक्ति, प्रतिदिन के हिसाब से महीने भर का अर्थ दण्ड लगाया गया है. एक परिवार पर तो 75 हजार रु का दण्ड लगा है. इन परिवारों के मुखिया तनाव और अवसाद में हैं. उनका कहना है कि भले ही जेल जाना पड़े, इतना जुर्माना कहां से दें. पैसे होते तो शौचालय नहीं बनवा लेते?

देश को स्वच्छ बनाने के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संकल्प की समय-सीमा ज्यों-ज्यों समीप आती जा रही है, राज्यों और उनके प्रशासन पर यह लक्ष्य हासिल करने का दबाव बढ़ता जा रहा है. 2014 में प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने के बाद नरेंद्र मोदी ने देश में जिन कार्यक्रमों पर सबसे ज्यादा जोर दिया उनमें देश को स्वच्छ बनाना भी शामिल है. उन्होंने आह्वान किया था कि 2019 तक पूरे देश को साफ-सुथरा बनाना है. खुद उन्होंने दिल्ली की एक सड़क पर झाड़ू लगा कर स्वच्छ भारत मिशन की शुरुआत की थी. उनके मंत्रिमण्डलीय सहयोगियों और भाजपाई राज्यों के मुख्यमंत्रियों एवं मंत्रियों ने विभिन्न शहरों में झाड़ू पकड़ कर स्वच्छता का संकल्प लिया था.

इसमें दो राय नहीं कि स्वच्छ भारत मिशन अत्यंत आवश्यक और पवित्र संकल्प है. गांवों से लेकर शहरों तक भीषण गन्दगी फैली है. पीने का साफ पानी मयस्सर होना तो बहुत दूर की बात है, कूड़े-कचरे, मलबे और मानव उच्छिष्ठ के कारण गांवों से लेकर शहरों-महानगरों तक की आबादी घातक रोगों की चपेट में आती रहती है. बिहार का कालाजार हो या पूर्वी उत्तर-प्रदेश का जापानी इंसेफ्लाइटिस, जिनसे हर साल सैकड़ों-हजारों बच्चों की मौत होती है, इन बीमारियों के होने और फैलने प्रमुख कारण गन्दगी है. पूर्व की कांग्रेस सरकारों और यूपीए शासन में निर्मल भारत योजना चलायी जरूर गयी, लेकिन किसी प्रधानमंत्री ने इस अभियान को ऐसी प्राथमिकता और इतना ध्यान नहीं दिया.

सरकारी आंकड़ों पर विश्वास करें तो देश का सफाई-प्रसार (सैनिटेशन कवरेज) जो 2012-13 में 38.64 फीसदी था वह 2016-17 में 60.53 फीसदी है. 2014 से अब तक करीब तीन करोड़ 88 लाख शौचालय बनवाए गये हैं. एक लाख 80 हजार गांव, 130 जिले और तीन राज्य- सिक्किम, हिमाचल और केरल- खुले में शौच मुक्त घोषित कर दिये गये हैं. दावा है कि इस वर्ष के अंत तक गुजरात हरियाणा, पंजाब, मिजोरम और उत्तराखण्ड भी इस श्रेणी में आ जाएंगे.

जमीनी हकीकत बहुत फर्क है. देश में शायद ही ऐसा कोई नगर निगम, नगर पालिका या पंचायत हो जिसके पास अपने क्षेत्र में रोजाना निकलने वाले कचरे को उठाने और कायदे से उसे निपटाने की क्षमता हो. जो कचरा उठाया जाता है, किसी बाहरी इलाके में उसका पहाड़ बनता जाता है. सिर पर मैला ढोने की कुप्रथा आज भी कायम है. खुले में शौच की मजबूरी का नारकीय उदाहरण तो रोज सुबह ट्रेन की पटरियों और खेतों-मैदानों में दिखाई ही देता है.

प्रधानमंत्री और सारे मंत्री चाहे जितना झाड़ू उठा लें, कचरा प्रबंधन और नगर निगमों-नगर पालिकाओं की क्षमता बढ़ाए बिना शहर और कस्बे साफ नहीं हो सकते. नागरिकों को सफाई अपने व्यवहार का हिस्सा बनानी होगी. इन मोर्चों पर क्या हो रहा है?

स्वच्छ भारत मिशन का सारा जोर खुले में शौच को बंद करना है. जिलाधिकारियों पर अपने जिले को इससे मुक्त घोषित करने का दवाब है. उसी दवाब के चलते कहीं लुंगी खुलवाई जा रही है, कहीं टोर्च चमकाया जा रहा है और कहीं भारी जुर्माना थोपा जा रहा है. क्या ऐसे अपमान और आतंक से लोगों को समझाया जा सकता है? स्वच्छ भारत मिशन की दिशा-निर्देशिका कहती है कि गांव-गांव स्वच्छता-दूत तैनात किए जाएं जो लोगों को समझाएं कि खुले में शौच के क्या-क्या नुकसान हैं. लोगों को मोटीवेट करना है, अपमानित नहीं. कहां हैं स्वच्छता दूत और वे क्या कर रहे हैं?

बहुत सारे लोग शौचालय बनवा लेने के बावजूद खुले में जाना पसंद करते हैं. पुरानी आदत के अलावा ऐसा शौचालयों की दोषपूर्ण बनावट के कारण भी है. सरकारी दबाव और मदद से जो शौचालय बनवाए गये हैं, अधिसंख्य में पानी की आपूर्ति नहीं है. सोकपिटवाले शौचालयों में पानी कम इस्तेमाल करने की बाध्यता भी है. नतीजतन दड़बेनुमा ये शौचालय गंधाते रहते हैं. कपार्टके सोशल ऑडिटर की हैसियत से इस लेखक ने देखा है कि लोग ऐसे शौचालयों का प्रयोग करना ही नहीं चाहते. बल्कि, उनमें उपले, चारा और दूसरे सामान रखने लगते हैं.

एक बड़ी आबादी है जो शौचालय बनवा ही नहीं सकती. उनके लिए दो जून की रोटी जुटाना ही मुश्किल है. उत्तराखण्ड से लेकर बंगाल तक गंगा के तटवर्ती गांवों को खुले में शौच- मुक्त कर लेने के सरकारी दावे की पड़ताल में इण्डियन एक्सप्रेसने हाल ही में पाया कि लगभग सभी गावों में ऐसे अत्यंत गरीब लोग, जिनमें दलितों की संख्या सबसे ज्यादा है, अब भी खुले में निपटने जा रहे हैं. वे शौचालय बनवा पाने की हैसियत ही में नहीं हैं. सरकारी सहायता तब मिलती है जब शौचालय बनवा कर उसके सामने फोटो खिंचवाई जाए.

एक बड़ी आबादी शहरों-महानगरों में झुग्गी-झोपड़ियों में रहती है. मेहनत-मजदूरी करने वाले एक बोरे में अपनी गृहस्थी पेड़ों-खम्भों में बांध कर फुटपाथ या खुले बरामदों में गुजारा करते हैं. ऐसे लोगों के लिए सामुदायिक शौचालय बनवाने के निर्देश हैं. अगर वे कहीं बने भी हों तो उनमें रख-रखाव और सफाई के लिए शुल्क लेने की व्यवस्था है, जो इस आबादी को बहुत महंगा और अनावश्यक लगता है.

खुले में शौच से मुक्ति का अभियान सचमुच बहुत बड़ी चुनौती है. इसका गहरा रिश्ता अशिक्षा और गरीबी से है. सार्थक शिक्षा दिये और गरीबी दूर किये बिना सजा की तरह इसे लागू करना सरकारी लक्ष्य तो पूरा कर देगा लेकिन सफलता की गारण्टी नहीं दे सकता.  (प्रभात खबर, 04 अक्टूबर 2017)
  

  

दो मस्जिदें- जवाहरलाल नेहरू

(फरवरी 1935 में लिखा गया जवाहरलाल नेहरू का यह लेख उस दौरान हुए लाहौर शीशगंज गुरुद्वारा बनाम मस्जिद के विवाद पर केंद्रित था. मूल लेख , जिसका शीर्षक "दो मस्जिदें" था, का यह सम्पादिन अंश आज के साम्प्रदायिक और तनावपूर्ण माहौल में बहुत प्रासंगिक है- नवीन जोशी)  

आजकल अखबारों में लाहौर की शहीदगंज मस्जिद की प्रतिदिन कुछ-न-कुछ चर्चा होती है। शहर में काफी खलबली मची हुई है। दोनों तरफ महजबी जोश दिखता है। एक-दूसरे पर हमले होते हैं, एक-दूसरे की बदनीयती की शिकायतें होती हैं और बीच में एक पंच की तरह अंग्रेज-हुकूमत अपनी ताकत दिखलाती है। मुझे न तो वाकयात ही ठीक-ठाक मालूम है कि किसने यह सिलसिला पहले छेड़ा था या किसकी गलती थी और न इसकी जांच करने की ही मेरी कोई इच्छा है। इस तरह के धार्मिक जोश में मुझे बहुत दिलचस्पी भी नहीं है, लेकिन दिलचस्पी हो या न हो, जब वह दुर्भाग्य से पैदा हो जाए, तो उसका सामना करना ही पड़ता है। मैं सोचता था कि हम लोग इस देश में कितने पिछड़े हुए हैं कि अदना-सी बातों पर जान देने को उतारू हो जाते हैं, पर अपनी गुलामी और फाकेमस्ती सहने को तैयार रहते हैं।

इस मस्जिद से मेरा ध्यान भटककर एक दूसरी मस्जिद की तरफ जा पहुंचा। वह बहुत प्रसिद्ध ऐतिहासिक मस्जिद है और करीब चौदह सौ वर्ष से उसकी तरफ लाखों-करोड़ों निगाहें देखती आई हैं। वह इस्लाम से भी पुरानी है और उसने अपनी इस लंबी जिंदगी में न जाने कितनी बातें देखीं। उसके सामने बड़े-बड़े साम्राज्य गिरे, पुरानी सल्तनतों का नाश हुआ, धार्मिक परिवर्तन हुए। खामोशी से उसने यह सब देखा। बुजुर्गी और शान उसके एक-एक पत्थर से टपकती है। क्या सोचते होंगे उसके पत्थर, जब वे आज भी अपनी ऊंचाई से मनुष्यों की भीड़ को देखते होंगे- बच्चों के खेल, बड़ों की लड़ाई, फरेब और बेवकूफी? हजारों वर्षो में इन्होंने कितना कम सीखा! कितने दिन और लगेंगे कि इनको अक्ल और समझ आए?
ईसा की चौथी सदी खत्म होने वाली थी, जब कांसटेंटिनोपल (उर्फ कुस्तुंतुनिया) का जन्म हुआ। कुस्तुंतुनिया में सम्राटों की आज्ञा से बड़ी-बड़ी इमारतें बनीं और बहुत जल्दी वह एक विशाल नगर हो गया। उस समय यूरोप में कोई दूसरा शहर उसका मुकाबला नहीं कर सकता था- रोम भी बिल्कुल पिछड़ गया था। वहां की इमारतें नई तर्ज की बनीं, भवन बनाने की नई कला का प्रादुर्भाव हुआ, जिसमें मेहराब, गुंबज, बुजिर्यां, खंभे इत्यादि अपनी तर्ज के थे और जिसके अंदर खंभों आदि का बारीक मोजाइक (पच्चीकारी) का काम होता था। यह इमारती कला बाइजेंटाइन कला के नाम से प्रसिद्ध है। छठी सदी में कुस्तुंतुनिया में एक आलीशान कैथीड्रल (बड़ा गिरजाघर) इस कला का बनाया गया, जो सांक्टा सोफिया या सेंट सोफिया के नाम से मशहूर हुआ। सेंट सोफिया का केथीड्रल ग्रीक चर्च-धर्म का केंद्र था और नौ सौ वर्ष तक ऐसा ही रहा।
15वीं सदी में उसमानवी तुर्को ने कुस्तुंतुनिया पर फतह पाई। नतीजा यह हुआ कि वहां का जो सबसे बड़ा ईसाई केथीड्रल था, वह अब सबसे बड़ी मस्जिद हो गई। सेंट सोफिया का नाम आया सुफीयाहो गया। उसकी यह नई जिंदगी भी लंबी निकली- सैकड़ों वर्षो की। वह आलीशान मस्जिद एक ऐसी निशानी बन गई, जिस पर दूर-दूर से निगाहें आकर टकरातीं थीं और बड़े मंसूबे गांठती थीं। उन्नीसवीं सदी में तुर्की साम्राज्य कमजोर हो रहा था। रूस कुस्तुंतुनिया की ओर लोभ भरी आंखों से देखता था। रूस के जार अपने को पूर्वी रोमन सम्राटों के वारिस समझते थे और उनकी पुरानी राजधानी को अपने कब्जे में लेना चाहते थे। रूस को यह असह्य था कि उसके धर्म का सबसे पुराना और प्रतिष्ठित गिरजा घर मस्जिद बनी रहे।
धीरे-धीरे 19वीं सदी में जारों का रूस कुस्तुंतुनिया की ओर बढ़ता गया, लेकिन उनके ये मंसूबे पूरे नहीं हुए। उसके पहले जारों का रूस ही खत्म हो गया। वहां क्रांति हुई और हुकूमत व समाज दोनों में उलट-फेर हो गया। बोलशेविकों नेघोषणा की कि वे (बोलशेविक) साम्राज्यवाद के विरुद्ध हैं और किसी दूसरे देश पर अपना अधिकार नहीं जमाना चाहते। हरेक जाति को स्वतंत्र रहने का अधिकार है। लेकिन अंग्रेजों ने कुस्तुंतुनिया पर कब्जा किया। 486 वर्ष बाद इस पुराने शहर की हुकूमत इस्लामी हाथों से निकलकर फिर ईसाई हाथों में आई। सुल्तान खलीफा जरूर मौजूद थे, लेकिन वह एक गुड्डे की भांति थे। जिधर मोड़ दिए जाएं, उधर ही घूम जाते थे। आया सुफीया भी हस्बमामूल खड़ी थी और मस्जिद भी, लेकिन उसकी वह शान कहां, जो आजाद वक्त में थी, जब स्वयं सुलतान उसमें जुमे की नमाज पढ़ने जाते थे। सुलतान ने सिर झुकाया, खलीफा ने गुलामी तसलीम की, लेकिन चंद तुर्क ऐसे थे, जिनको यह स्वीकार न था। उनमें से एक मुस्तफा कमाल थे, जिन्होंने गुलामी से बगावत को बेहतर समझा।
मुस्तफा कमाल पाशा ने अपने देश से ग्रीक फौजों को बुरी तरह हराकर निकाला। उन्होंने सुलतान खलीफा को, जिसने अपने मुल्क के दुश्मनों का साथ दिया था, गद्दार कहकर निकाल दिया। उन्होंने अपने गिरे और थके हुए मुल्क को हजार कठिनाइयों और दुश्मनों के होते हुए भी खड़ा किया और उसमें फिर से नई जान फूंक दी। पुरानी राजधानी कुस्तुंतुनिया का नाम भी बदल गया-वह इस्ताम्बूल हो गया।
और आया सुफीया? उसका क्या हाल हुआ? वह चौदह सौ वर्ष की इमारत इस्ताम्बूल में खड़ी है और जिंदगी की ऊंच-नीच को देखती जाती है। नौ सौ वर्ष तक उसने ग्रीक धार्मिक गाने सुने और अनेक सुगंधियों को, जो ग्रीक पूजा में रहती है, सूंघा। फिर चार सौ अस्सी वर्ष तक अरबी अजान की आवाज उसके कानों में आई। और अब?
एक दिन कुछ महीनों की बात है, इसी साल-1935 में-गाजी मुस्तफा कमाल पाशा के हुक्म से आया सुफीया मस्जिद नहीं रही। बगैर किसी धूमधाम के वहां के मुस्लिम-मुल्ला वगैरा हटा दिए गए और अन्य मस्जिदों में भेज दिए गए। अब यह तय हुआ कि आया सुफीया बजाय मस्जिद के संग्रहालय हो, खासकर बाइजेंटाइन कलाओं का। बाइजेंटाइन जमाना तुर्को के आने से पहले का ईसाई जमाना था। इसलिए अब आया सुफीया एक प्रकार से फिर ईसाई जमाने को वापस चली गई, मुस्तफा कमाल के हुक्म से।
आजकल जोरों से खुदाई हो रही है। जहां-जहां मिट्टी जम गई थी, हटाई जा रही है और पुराने पच्चीकारों के नमूने निकल रहे हैं। बाइजेंटाइन कला के जानने वाले अमेरिका और जर्मनी से बुलाए गए हैं और उन्हीं की निगरानी में काम हो रहा है। आप अंदर जाकर इस प्रसिद्ध पुरानी कला के नमूने देखिए और देखते-देखते इस संसार के विचित्र इतिहास पर विचार कीजिए, अपने दिमाग को हजारों वर्ष आगे-पीछे दौड़ाइए। क्या-क्या तस्वीरें, क्या-क्या तमाशे, क्या-क्या जुल्म आपके सामने आते हैं! उन दीवारों से कहिए कि वे आपको अपनी कहानी सुनावें, अपने तजुर्बे आपको दे दें। शायद कल और परसों जो गुजर गए, उन पर गौर करने से हम आज को समझों, शायद भविष्य के परदे को भी हटाकर हम झांक सकें।
लेकिन वे पत्थर और दीवारें खामोश हैं। उन्होंने इतवार की ईसाई-पूजा बहुत देखी और बहुत देखी जुमे की नमाजें। अब हर दिन की नुमाइश है उनके साये में! दुनिया बदलती रही, लेकिन वे कायम हैं। उनके घिसे हुए चेहरे पर कुछ हल्की मुस्कराहट-सी मालूम होती है और धीमी आवाज-सी कानों में आती है-इंसान भी कितना बेवकूफ और जाहिल है कि वह हजारों वर्ष के तजुर्बे से नहीं सीखता और बार-बार वही हिमाकतें करता है।
(राजनीति से दूर- जवाहरलाल नेहरू से साभार)