Wednesday, November 29, 2017

नरेंद्र मोदी का भीतरी विपक्ष


गुजरात में सत्ता विरोधी रुझान और कुछ जातीय समूहों के भाजपा-विरोध को अपनी लोकप्रियता से शांत करने के लिए गुजरात-पुत्रनरेंद्र मोदी जब चंद रोज पहले धुंआधार चुनाव प्रचार के लिए निकल रहे थे तब उनके मुखर विरोधी भाजपा नेता अरुण शौरी बोल रहे थे कि नरेंद्र मोदी सरकार की खासियत है झूठ. मोदी भी विश्वनाथ पताप सिंह की तरह अवसरानुकूल झूठ बोलते हैं. वे रोजगार सृजन जैसे कई वादे पूरा करने में विफल रहे हैं. एनडीए की अटल-सरकार में केंद्रीय मंत्री रहे और प्रखर पत्रकार के रूप में चर्चित अरूण शौरी ने दिल्ली में एक कार्यक्रम में यह भी कहा कि नरेंद्र मोदी और आज का प्रधानमंत्री कार्यालय डरा हुआ है’.
यह तथ्य कम रोचक नहीं कि जो नरेंद्र मोदी विपक्ष के सफाये की नीति पर चल रहे हैं, स्वयं उनकी पार्टी में उनका विपक्ष खड़ा हो रहा है. अरूण शौरी काफी समय से मोदी सरकार की नीतियों की तीखी आलोचना करते आये हैं. नोटबंदी और जीएसटी की जितनी तीखी आलोचना यशवंत सिन्हा ने की, उसने भाजपा ही नहीं विपक्ष को भी चौंकाया. सिन्हा भाजपा के वरिष्ठ नेता हैं और एनडीए सरकार में वित्त मंत्री रहे हैं. फिल्म अभिनेता से राजनेता बने शत्रुघ्न सिन्हा भी भाजपा में बढ़ते मोदी विरोध का हिस्सा हैं.
2014 के बाद भाजपा में सर्वशक्तिमान बन कर उभरे नरेंद्र मोदी का उनकी ही पार्टी के भीतर यह मुखर विरोध चौंकाता नहीं है. तमाम कमजोरियों के बावजूद लोकतंत्र की यह बड़ी खूबी है. आप विपक्ष को जितना दबाना चाहेंगे, वह मिट्टी के भीतर अंकुआते बीज की तरह पनपता जाएगा. आप अपनी पार्टी में कितने ही ताकतवर हो जाएं, विरोध के स्वर वहां भी फूटेंगे जरूर.
अपने समय के कई अत्यंत प्रभावशाली नेताओं के बावजूद तत्कालीन कांग्रेस और सरकार में पूरी तरह छाये जवाहरलाल नेहरू का विरोध कम न था. नेहरू बहुत लोकतांत्रिक नेता थे और कम से कम प्रकट में अपना विरोध सहते, सुनते और कई बार प्रोत्साहित भी करते थे. इंदिरा गांधी अपने पिता की राजनैतिक परम्परा से उभरी थीं. शुरू से ही उन्होंने विरोध झेला और उस पर विजय पाई, हालांकि पार्टी विभाजित हुई. कालांतर में उनमें अपने विरोध को सहने-समझने की सामर्थ्य कम होती गयी. यहां तक कि वे विरोधी नेताओं की घोर उपेक्षा करने लगीं. फिर तो अपने देशव्यापी विरोध को कुचलने के लिए उन्होंने आपात-काल लागू किया और संविधान तक को निलम्बित कर दिया. इसकी उन्हें और देश बड़ी कीमत चुकानी पड़ी, यद्यपि इससे हमारा लोकतंत्र मजबूत ही हुआ. आपातकाल में संगठित लोकतांत्रिक विरोध का प्रतिमान बना.
पहले जनसंघ और फिर भारतीय जनता पार्टी में अटल-आडवाणी-जोशी की तिकड़ी बरसों-बरस छायी रही. कई चुनावों में भारी विफलताओं के लिए वह भी निशाने पर रही ही. वंशवादीकांग्रेस में सोनिया और राहुल विरोधी स्वर यदा-कदा आज भी उठ जाया करते हैं, जिन्हें स्वस्थ दृष्टि से देखने-समझने की समझ उसके नेतृत्त्व में है, ऐसा नहीं कहा जा सकता. पिछले कुछ दशक से हमारे सभी राजनैतिक दलों में आंतरिक लोकतंत्र काफी कमजोर हुआ है. वाम दल अपवाद कहे जा सकते हैं.
अपने को वंशवाद-मुक्त और लोकतांत्रिककहने वाली भाजपा में इन दिनों नरेंद्र मोदी की जैसी सर्वशक्तिमानहैसियत है, उसे देखते हुए ही कई राजनैतिक टिप्पणीकारों ने उनकी तुलना इंदिरा गांधी से की है. उनका आशय यह कि नरेंद्र मोदी न केवल विपक्षी दलों को कमजोर करने पर तुले हैं, बल्कि इंदिरा गांधी ही की तरह अपनी पार्टी एवं सरकार के भीतर वैकल्पिक नेतृत्त्व और विरोधी विचार पनपने देना नहीं चाहते. वहां कोई नम्बर-दो की हैसियत में नहीं है. एक से दस नम्बर तक मोदी ही मोदी हैं.
भारतीय जनता पार्टी में नरेंद्र मोदी के उदय से ही ऐसी प्रवृत्ति दिखाई देती है. गुजरात की राजनीति में नरेंद्र मोदी के साथ-साथ संजय जोशी का भी ग्राफ तेजी से बढ़ रहा था. फिर कैसे संजय जोशी हाशिए पर डाल दिये गये, इसकी कई कथाएं अब तक कही-सुनी जाती हैं. 2002 के गुजरात-दंगों के समय राजधर्मनिभाने की अटल की सलाह उन्होंने अनसुनी कर दी थी. 2012 में तीसरी बार गुजरात फतह करने वाले नरेंद्र मोदी जब 2014 के आम चुनाव में प्रधानमंत्री प्रत्याशी बनना चाहते थे, तब वे मुख्यमंत्री होने के साथ-साथ चुनाव-अभियान समिति के प्रभारी भी थे. भाजपा के सयाने नेता लाल कृष्ण आडवाणी  ने उसी समय एक आदमी, एक पदके सिद्धांत की वकालत करते हुए नरेंद्र मोदी का विरोध किया था. उसके बाद आडवाणी किस तरह किनारे किये गये और कई अवसरों पर अपमानित भी, यह सब ताजा इतिहास है.
2014 में लोक सभा चुनाव के नतीजे भाजपा की बड़ी जीत से कहीं अधिक नरेंद्र मोदी की प्रचण्ड विजय साबित हुए. आडवाणी-शिविरके रूप में भाजपा के भीतर नरेंद्र मोदी का जो भी थोड़ा विरोध था, वह अपने-आप दब गया. आडवाणी के साथ दिखे नेता मोदी-रोष का शिकार बने या उन्हें घुटने टेकने पड़े. भाजपा-अध्यक्ष के रूप में अमित शाह की ताजपोशी के लिए मोदी का एक इशारा काफी हुआ. फिर एक के बाद एक राज्यों में भाजपा की जीत ने मोदी को भाजपा में सर्वशक्तिमान बना दिया.
दिल्ली और बिहार की पराजयों ने कुछ समय को चमक फीकी पड़ने का भ्रम पैदा किया मगर उत्तर-प्रदेश समेत कुछ अन्य राज्यों में भाजपा को प्रचण्ड बहुमत मिलने से अमित शाह और उनके साहेबमोदी की पार्टी पर पकड़ जकड़ में बदल गयी. आज मोदी पार्टी और सरकार में पूरी तरह काबिज हैं और अपनी कार्यशैली में बहुत आक्रामक हैं. वहां किसी दूसरे विचार या लोकतांत्रिक बहस की सम्भावना नहीं.
यह स्थिति आंतरिक विपक्ष के अंकुरित होने के लिए पर्याप्त और उपयुक्त होती है. वही हो रहा है. आडवाणी ने सम्भवत: अपनी नियति स्वीकार कर ली है लेकिन अरुण शौरी, यशवंत सिन्हा, शत्रुघ्न सिन्हा खूब मुखर हैं. पार्टी के भीतर मोदी के अन्य मौन-विरोधी नहीं होंगे, ऐसा नहीं कहा जा सकता. यह मोदी के नेतृत्त्व को चुनौती देने से कहीं अधिक उनकी कार्यशैली के प्रति असहमति जताने के लिए है. आश्चर्य ही है कि शौरी व सिन्हा के विरुद्ध अब तक अनुशासनहीनताकी कारवाई नहीं की गयी.
भाजपा का आंतरिक विपक्ष बहुत कुछ गुजरात के चुनाव परिणाम पर निर्भर करता है. भाजपा की पराजय, जिसकी सम्भावना नहीं बताई जा रही, मोदी की चमक फीकी कर देगी. जीत का अंतर कम होने से भी उनकी स्थिति कुछ कमजोर होगी और भीतरी विपक्ष मजबूत होगा. यही कारण है कि मोदी गुजरात में अपनी पूरी ताकत लगा रहे हैं. आक्रामक तो वे हैं ही, भावनात्मक तीर भी कम नहीं चला रहे. एक निशाने से दो शिकार करने हैं- बाहरी और भीतरी विपक्ष.   

 (प्रभात खबर, 29 सितम्बर, 2017)

Friday, November 24, 2017

निकाय चुनावों का स्याह-सफेद पक्ष


लखनऊ नगर निगम का चुनाव परिणाम चाहे जिस पार्टी के पक्ष में जाए, जीतेगी एक महिला ही. सौ साल में यह पहली बार होगा जब महापौर की कुर्सी पर एक महिला बैठेगी. महिला प्रत्याशियों ने चुनाव पहले भी लड़ा लेकिन लखनऊ के नागरिकों ने हमेशा पुरुष को ही अपने महापौर की कुर्सी सौंपी. इस बार महिला महापौर चुनी जाएगी तो उसका श्रेय नागरिकों के चयन को नहीं आरक्षण को मिलेगा. चक्रानुक्रम आरक्षण के कारण इस  बार लखनऊ महापौर का पद महिला के लिए आरक्षित हुआ. ऐसा नहीं होता तो ज्यादातर प्रत्याशी पुरुष ही होते.
नगर निकायों-ग्राम पंचायतों में 33 फीसदी महिला आरक्षण लागू होने के लाभ हुए हैं. कम से कम इसने महिला सशक्तीकरण खूब किया है. ऐसे किस्से तो अब भी बहुत हैं कि महिला प्रधान का सारा काम-काज उनका पति या कोई करीबी पुरुष सम्बंधी करता है, जबकि निर्वाचित महिला चूल्हे-चौके और परिवार की जिम्मेदारियों ही में उलझी रहती है. मगर यह किस्से खूब हैं कि महिलाओं में राजनीति और प्रशासन की समझ किस तरह बढ़ी है. वे जागरूक हुई हैं. कई महिलाओं ने स्वयं प्रधानी व सभासदी के काम बखूबी सम्भालने शुरू किये हैं. 
क्या महिला मेयर के आने से नगर निगम का माहौल बदलेगा? क्या नगर निगम सदन की कार्रवाही बेहतर चल पाएगी? पुरुष सभासदों की उद्दण्डता और अनुशासनहीनता में कुछ सुधार आएगा? इन सवालों का जवाब बाद में मिलेगा. आम महिलाओं की समस्याओं, उदाहरण के लिए बाजारों में शौचालय की बड़ी कमी, की तरफ महिला महापौर का कितना ध्यान जाएगा, यह अभी कहना मुश्किल है लेकिन इस संकट को उनसे बेहतर और कौन समझ सकता है.
मुख्यमंत्री योगी और उनके सभी मंत्री इन निकाय चुनाओं में जितना सघन प्रचार करने में लगे हैं, उससे साफ है कि भाजपा पंचायत से संसद तक सभी चुनावों को जीतने के लिए पूरा जोर लगाने की नई रणनीति पर काम कर रही है. बाकी दलों के बड़े नेता प्रचार में नहीं उतरे हैं. इतना जोर निकायों की हालत बदलने में भी लगती तो क्या बात थी. ज्यादातर नगर निगम पहले भी भाजपा के कब्जे में रहे हैं. निकायों की आर्थिक हालत ठीक नहीं है. भ्रष्टाचार का बोलबाला है. बड़े शहरों से लेकर छोटे नगर तक गन्दगी और अतिक्रमण से त्रस्त हैं. पॉलिथीन प्रतिबंध हो या तहबाजारी नियम, खुले आम उल्लंघन हो रहा है. चुनाव जीतने जैसा जोर इन समस्याओं के निराकरण में भी लगे तो शक्ल बदले.
एक त्रासदी यह है कि पंचायती राज कानून की भावना का कोई भी दल सम्मान नहीं करता. निकायों को ताकतवर और आर्थिक रूप से सम्पन्न होना चाहिए था. सरकारों ही ने उसे नहीं होने दिया. उदाहरण के लिए, लखनऊ विकास प्राधिकरण को पूरी तरह नगर निगम के अधीन होना चाहिए. पहले तो ऐसे विकास प्राधिकरण बनने ही नहीं चाहिए थे. जो काम प्राधिकरणों के हवाले कर दिया गया है, वह सारा नगर निगम के पास होना चाहिए था. प्राधिकरण बनाने से आला अधिकारी ताकतवर हो गये, लगभग सभी आर्थिक अधिकार उनके पास चले गये. पंचायती राज कानून की मंशा के अनुसार ये समस्त अधिकार  और पूरा बजट नगर निगम के निर्वाचित जन-प्रतिनिधियों के पास होने चाहिए थे.
इस महत्वपूर्ण तथ्य को अब पूरी तरह भुला दिया गया है. बदलाव का नारा देने वाली भाजपा भी इस पर चर्चा तक नहीं करती. खस्ता हाल नगर निकाय लाचार बने हुए हैं. भ्रष्टाचार और अकर्मण्यता ने उन्हें और भी निष्प्रभावी बना दिया. नगरों की हालत सुधरे भी तो कैसे?  (सिटी तमाशा, नभाटा, 25 नवम्बर, 2017)
     


Sunday, November 19, 2017

अवध के समाज/ राजनीति, प्रशासन, साहित्य-संस्कृति में उत्तराखण्डियों की बड़ी छाप


उत्तराखण्ड की आधी आबादी प्रवास पर रही है और राष्ट्रीय मुख्य धारा में पूरी तरह घुली-मिली है. समाज के विविध क्षेत्रों में उसका बड़ा योगदान रहा है. अनेक बार उत्तराखण्डियों के योगदानके रूप में उसकी पहचान न तो आवश्यक रही, न ही हमेशा सम्भव बनी. तो भी राजनीति और प्रशासन से लेकर विज्ञान, साहित्य एवं विविध प्रदर्श कलाओं के क्षेत्र में इस समाज के व्यक्तियों के योगदान की ख्याति रही.
प्रदेश के पहले प्रीमियर और बाद में मुख्यमंत्री गोविंद बल्लभ पंत के योगदान को पूरा देश-प्रदेश मानता आया है. अल्मोड़ा से उनके संगी रहे हरगोविंद पंत ने विधान सभा के प्रथम संसदीय सचिव के रूप में विधायी कार्यों की नींव रखी. कई मंत्रिमण्डलों में रहे गांधीवादी विचित्र नारायण शर्मा (उनियाल) ने आचार्य जे बी कृपलानी और मास्टर सुंदर लाल के साथ मिलकर गांधी आश्रम की स्थापना की थी. 1973 में मुख्यमंत्री बने हेमवती नंदन बहुगुणा को कई प्रशासनिक सुधारों के साथ विभिन्न निगमों एवं प्रतिष्ठानों की स्थापना का श्रेय है. राजधानी में पहला हेलीकॉप्टर और पहला एसी भी वे लाए थे. उनके बाद तीन बार मुख्यमंत्री बने नारायण दत्त तिवारी के अनेक योगदानों में हॉट-मिक्स प्लाण्ट लाकर राजधानी की सड़कें बनवाना भी शामिल है, जिसके निरीक्षण के लिए वे आधी रात को लखनऊ का चक्कर लगाया करते थे.
रेलवे बोर्ड के चेयरमैन के रूप में पद्मविभूषण घनानंद पाण्डे ने रेलवे के विख्यात अनुसंधान, अभिकल्प एवं मानक संगठन (आर्डीएसओ) की स्थापना की और उसके लिए लखनऊ को चुना. 1949 से 1952 तक लोक निर्माण विभाग के मुख्य अभियंता रहे एम एस बिष्ट ने लखनऊ में कई निर्माण कराए. गिरि विकास अध्ययन संस्थान के संस्थापक-निदेशक प्रख्यात अर्थशास्त्री डॉ टी एस पपोला थे तो एसजीपीजीआई की स्थापना का प्रारम्भिक कार्य निदेशक डॉ भुवन चंद्र जोशी ने किया.
मेडिकल कॉलेज में देश में अपनी तरह की अकेली मॉलीक्युलर बायोलॉजी प्रयोगशाला की स्थापना डॉ एस एस परमार ने की थी. विज्ञानी पिता-पुत्र दीवान सिंह भाकूनी और विनोद भाकूनी ने प्रतिष्ठित शांति स्वरूप भटनागर पुरस्कार पाया. सुदूर अंटार्कटिका (दक्षिणी ध्रुव) में शोध करने वाले विज्ञानी दलों में उत्तराखण्डी मूल के कई विज्ञानी रहे हैं.
लखनऊ को हाथी पार्क एवं बुद्ध पार्क की सौगात देने वाले द्वारिका नाथ साह का नगर निकाय और लोक प्रशासन पर महत्वपूर्ण काम कोलम्बो प्लानके तहत सम्मानित हुआ. सरकारी दफ्तरों में भ्रष्टाचार के खिलाफ और पारदर्शिता की पहली लड़ाई आईएएस धर्म सिंह रावत ने लड़ी. वायरलेस नेटवर्क के विकास और विस्तार में छत्रपति जोशी का उल्लेखनीय योगदान रहा. 1971 के युद्ध में बांग्ला मुक्ति वाहिनी की सहायता के लिए तुरत-फुरत वायरलेस नेटवर्क उपलब्ध कराने वाले वे ही थे. 
साहित्य, पत्रकारिता, कला, संगीत-नृत्य, रंगमंच, आदि सांस्कृतिक क्षेत्रों में उत्तराखण्डियों ने लखनऊ की विरासत को और समृद्ध किया. प्रसिद्ध कलाकार रणवीर सिंह बिष्ट और मूर्तिकार अवतार सिंह पंवार ने लखनऊ ही नहीं देश का नाम अंतरराष्ट्रीय स्तर पर रोशन किया. सन 1902 में अमीनाबाद में परसी साह ने साह स्टूडियो खोला जो कलात्मक फोटोग्राफी के लिए मशहूर हुए. अमीनाबाद की वह गली आज भी परसी साह लेन के नाम से जानी जाती है. बाद में कलाकर बुद्धि बल्लभ पंत ने लाटूश रोड में पंत स्टूडियो खोला. तत्कालीन शासन-प्रशासन की लगभग सारी फोटोग्राफी साह और पंत स्टूडियो से कराई जाती थी.
लोक-संस्कृति के क्षेत्र में उत्तराखण्डियों की उपस्थिति बहुत धमाकेदार है. जितनी सांस्कृतिक संस्थाएं उनकी हैं और वर्ष भर जितनी प्रस्तुतियां होती हैं , उतनी शायद और किसी समाज की नहीं. शास्त्रीय रागों पर आधारित गेय रामलीला का मंचन लखनऊ को उत्तराखण्डियों की देन है. 1948 से शुरू यह परम्परा यहां क्रमश: विकसित और व्यापक हुई.  
रंगमंच, साहित्य, शैक्षिक जगत और पत्रकारिता में यहां उत्तराखण्डियों की उपस्थिति काफी पहले से दमदार रही और आज भी कायम है. यही बात सैन्य परम्परा के लिए भी कही जा सकती है.
(अवध के समाज, नभाटा, 20 सितम्बर, 2017) 


Friday, November 17, 2017

दो गज जमीं न मिली कू-ए-यार में


हिंदी के बड़े और महत्वपूर्ण कवि कुंवर नारायण के निधन पर शोक और गहरा हो जाता है जब यह याद आता है कि उन्हें अपना प्रिय शहर लखनऊ किन हालात में छोड़ना पड़ा था. लखनऊ से उन्हें बहुत प्यार था. महानगर में सचिवालय कॉलोनी के सामने और फैजाबाद रोड के पीछे उनका खूबसूरत घर था. उनकी किताबों का संग्रह और मेहमाननवाजी उस घर को और भी खूबसूरत बनाती थी. बाद में हालात ऐसे हो गये थे कि वे चुपचाप यहां से दिल्ली चले गये. दिल्ली उन्हें पसंद नहीं थी. बीच में कभी आते तो मित्रों से कहते भी थे.
सम्भवत: 2005-6 की बात है. प्रदेश में मुलायम सिंह के नेतृत्त्व में समाजवादी पार्टी की सरकार थी. माफिया तत्त्व काफी सक्रिय थे. जमीनों पर कब्जे, भयादोहन और बात-बात पर धमकियां दी जाती थीं. तब हमने अपने अखबार में शहर में माफिया आतंक के खिलाफ सिलसिलेवार खबरें छापना शुरू किया तो एक दिन कुंवर नारायण जी का फोन आया. उन्होंने अखबार में अपराधी तत्त्वों के खिलाफ छ्प रही खबरों की तारीफ की और कहा कि मैं भी इनके निशाने पर हूं. बहुत पूछने पर भी इस बारे में और कुछ नहीं बताया. हम चाहते थे कि उनका प्रकरण भी खबरों की उसी कड़ी में छापा जाए लेकिन वे कई बार आग्रह के बावजूद विवरण देने को तैयार नहीं हुए थे.
काफी पूछताछ के बाद हम इतना ही जान पाये थे कि उन्हें कुछ लोग धमकियां दे रहे थे. रंगदारी वसूली का मामला था या उनकी जमीन पर कब्जे का, यह साफ नहीं हुआ. वे शायद इसे मुद्दा नहीं बनाना चाहते थे. इसी के बाद उन्होंने लखनऊ छोड़ने का फैसला किया. बाद में अपना प्रिय मकान भी बेच दिया. उनके अच्छे सम्पर्क थे. पता नहीं किसी से उन्होंने इस बारे में मदद मांगी या नहीं, या मदद नहीं मिली.
यह वही दौर था लखनऊ में भरी सड़क पर मेहर भार्गव की हत्या कर दी गयी थी. उन्होंने अपनी बहू को छेड़ रहे लफंगों का विरोध किया तो उन्हें वहीं गोली मार दी गयी. अपराधी ऊंची राजनैतिक पहुंच वाले थे. जनता के व्यापक आक्रोश के बावजूद उन्हें बचाने की कोशिशें हुईं. पुलिस सत्ताधारियों के इशारे पर नाच रही थी.
उससे काफी पहले जब अखिलेश दास लखनऊ के महापौर थे तब भी कई सड़कों के किनारे नालियों और फुटपाथ पर कब्जा करके दुकानें बनवाई गयीं. कुंवर नारायण के घर के पास, मंदिर के सामने कई दुकानें रातोंरात खड़ी कर दी गयीं तो वे व्यथित हुए थे. मंदिर का अवैध विस्तार भी उन्हें तंग करता था. उनके कुछ बताए बिना जब हमने इन पर खबरें छापीं तो उन्होंने पत्र लिख कर प्रशंसा की और शहर के बिगड़ते हालात पर चिंता व्यक्त की थी.
कुंवर नारायाण ने 90 वर्ष की आयु पायी और सार्थक लेखन किया. दिल्ली वे अनिच्छा से गये और वहीं अंतिम सांस ली. जिस शहर से उन्हें बड़ा प्यार था, जिस पर उन्होंने प्यारी-सी कविता भी लिखी है, अपने अंतिम दिनों में उससे दूर होना उन्हें कचोटता रहा होगा. अत्यंत धैर्य, नैतिकता और ईमान वाले कवि को यह संतोष न मिला कि अपनी जगह प्राण त्यागते. 
उनकी लखनऊकविता की ये पक्तियां उन्हीं की स्मृति को समर्पित-
“बिना बात बात-बात पर बहस करते हुए/ एक-दूसरे से ऊबे हुए मगर एक-दूसरे को सहते हुए/एक-दूसरे से बचते हुए मगर एक-दूसरे से टकराते हुए/गम पीते हुए और गम खाते हुए/ जिंदगी के लिए तरसते कुछ मरे नौजवानों वाला लखनऊ...”

 (सिटी तमाशा, नभाटा, 18 नवम्बर, 2017)

Wednesday, November 15, 2017

सीडी युद्ध का वास्तविक शिकार कौन?


भारत की चुनावी राजनीति की पतन गाथा को आगे बढ़ाने के वास्ते एक और सेक्स-सीडी एवं चार वीडियो-क्लिप जारी कर दिये गये हैं. इस बार गुजरात के पाटीदार अनामत आंदोलन समिति के तेज-तर्रार नेता हार्दिक पटेल को लपेटने की कोशिश हुई है जो आसन्न गुजरात विधान सभा चुनाव में भाजपा के प्रबल विरोधी और कांग्रेस-समर्थक के रूप में सामने आए हैं. सोशल मीडिया पर वायरल हुए अलग-अलग वीडियो में हार्दिक पटेल को महिलाओं  के साथ मस्ती करतेदिखाया गया. पटेल ने इसके लिए भाजपा को जिम्मेदार ठहराते हुए पलटवार किया है कि भाजपा गुजरात की महिलाओं का अपमान कर रही है. जनता 22 साल के लड़के का नहीं, 22 साल के विकास का वीडियो देखना चाहती है, अगर कुछ हुआ है तो. प्रमुख युवा दलित नेता जिग्मेश मेवानी ने हार्दिक के पक्ष में ट्वीट किया है कि यह किसी की निजता में दखल है. मैं हार्दिक के साथ हूं. वैसे, पटेल कुछ दिन पहले ही आशंका व्यक्त कर चुके थे कि उनके खिलाफ कोई फर्जी सीडी जारी की जा सकती है.
गुजरात में चुनाव प्रचार चरम पर है. भाजपा वहां कई तरफ से घिर गयी है. कांग्रेस से उसे खास भय नहीं था लेकिन पटेलों, पिछड़ों और दलितों के विरोध में डट जाने और कांग्रेस के पक्ष में दिखने से वह काफी परेशान है. पहले उसने पाटीदार आंदोलन में फूट डालने की कोशिश की. नेताओं को खरीदने के आरोप भी उस पर लगे. अब पटेलों के सबसे प्रभावशाली नेता के खिलाफ ये वीडियो सामने आये हैं.
सत्ता की राजनीति में यह घिनौनी प्रवृत्ति की तरह उभरा है. जब भी किसी पार्टी को जन-मुद्दों का जवाब नहीं सूझता या किसी ताकतवर विरोधी को पटकनी देनी होती है तो मीडिया की मार्फत जनता का ध्यान भटकाने के लिए कहीं से एक सनसनी सामने ला दी जाती है. सेक्स-सीडी से ज्यादा सनसनीखेज हमारे यहां और क्या हो सकता है? घोर अनैतिक हो चुकी राजनीति का यह बड़ा हथियार माना जाने लगा है. विकास के मुद्दे पर शुरू हुआ गुजरात का चुनाव प्रचार सेक्स सीडी के घटिया स्तर तक बेवजह नहीं आ गिरा है.
इस मामले में अधिकसंख्य पार्टियों का दामन साफ नहीं है. हाल ही में जब लालू यादव की पार्टी राजद ने नीतीश कुमार की नशाबंदी नीति को निशाना बनाते हुए एक शराब व्यवसायी-नेता के साथ मुख्यमंत्री की सेल्फी जारी की तो जवाब में बिहार के सत्तारूढ़ गठबंधन की ओर से लालू-पुत्र और हाल तक उप-मुख्य्मंत्री रहे तेजेश्वरी यादव का वह फोटो जारी कर दिया जिसमें वे एक लड़की के साथ बीयर की बोतल लिए खड़े हैं. निशाना तेजेश्वरी थे, उस अबोध लड़की का चरित्र-हनन भी किसी को दिखा क्या?
छत्तीसगढ़ के एक मंत्री की सेक्स सीडी प्रसारित करवाने की साजिश के आरोप में पत्रकार और कांग्रेसी विनोद वर्मा की रातोंरात गिरफ्तारी अब भी सुर्खियों में है. सन 2008 में तत्कालीन भाजपा महासचिव संजय जोशी की सेक्स सीडी ने कम हंगामा नहीं मचाया था. उस समय आरोपों के घेरे में नरेंद्र मोदी भी थे, राजनीति में तेजी से उभरते संजय जोशी से जिनकी कतई नहीं बनती थी. 2009 में आंध्र प्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल नारायण दत्त तिवारी की सेक्स सीडी जारी हुई तो उन्हें इस्तीफा देना पड़ा था. 2012 में कांग्रेस नेता अभिषेक मनु सिघवी की सेक्स सीडी ने हंगामा खड़ा किया था. 2016 में कर्नाटक के शिक्षा मंत्री को इसी कारण इस्तीफा देना पड़ा था.
कुछ और पीछे देखें तो 1978 का वह काण्ड याद आता है जब जनता पार्टी की सरकार के उप-प्रधानमंत्री एवं कद्दावर नेता जगजीवन राम के बेटे सुरेश राम की एक महिला के साथ अंतरंग क्षणों की तस्वीरों ने सनसनी फैलाई थी. तब इलेक्ट्रॉनिक मीडिया नहीं था, लेकिन मेनका गांधी के सम्पादन में सूर्यापत्रिका ने वे तस्वीरें छापी थीं. निशाना जगजीवन राम थे, मार किस पर पड़ी?
ये सभी ऐसे मामले हैं जिनमें किसी महिला ने सम्बंधित नेता पर यौन-उत्पीड़न जैसा कोई आरोप नहीं लगाया. न पहले न बाद में. राजनेताओं पर महिलाओं का शारीरिक शोषण करने के आरोप खूब लगते रहे हैं. मदद मांगने आयी महिला को फंसाने या किसी युवती को उठवा लेने के कई किस्से आज के नेताओं के चरित्र का कच्चा चिट्ठा खोलते आए हैं. यहां हम सिर्फ उन मामलों का जिक्र कर रहे हैं जिनमें सम्बंधित महिला ने नेता पर आरोप नहीं लगाया. अगर वे सच्ची सीडी या तस्वीरें हैं तो सिर्फ यही बताती हैं कि जो कुछ हुआ है वह दो वयस्क व्यक्तियों की रजामंदी से हुआ है, जिस पर किसी तीसरे को आपत्ति करने का अधिकार नहीं है. सीडी बनाई गयी है तो किसी ने साजिशन उनकी निजता का उल्लंघन किया है और उसका इरादा कतई नेक नहीं हो सकता.
नेताओं को बदनाम करने के लिए ऐसी फर्जी सीडी भी खूब बनायी जाती हैं. टेक्नॉलॉजी ने इसे बहुत आसान बना दिया है. मीडिया भी ऐसी चीजों को अति-उत्साह से उछालता है. नेहरू-युग में शायद ही कोई अखबार रहा हो जिसने सिगरेट पीते अपने प्रधानमंत्री की तस्वीरें छापी हों, जबकि नेहरू खूब सिगरेट पीते थे. आज सेक्स सीडी के मामले भी बिना असली-फर्जी जांचे प्रसारित किए जा रहे हैं.
राजनैतिक साजिशकर्ताओं से लेकर मीडिया तक यह नहीं देखते कि यह किसी की निजता में अनावश्यक दखल है, उससे ज्यादा महिलाओं का अपमान है और जनता का ध्यान जरूरी मुद्दों से भटकाने की बड़ी राजनैतिक साजिश है. विरोधी को नुकसान पहुंचाने के लिए महिलाओं का अनैतिक इस्तेमाल किया जा रहा है. मीडिया भी इस अपमान का बड़ा हिस्सेदार है. आश्चर्य और दुख तब और बढ़ जाता है जब साजिशकर्ता या आरोप लगाने वाले दल की महिला नेताओं को भी इसमें अपना अपमान नहीं दिखाई देता. उनकी तरफ से आपत्ति करना तो दूर, वे स्वयं आरोप लगाने वालों की पंक्ति में जोश-खरोश के साथ शामिल रहती हैं. 1978 में  सुरेश राम और एक लड़की के नग्न चित्र छापने में मेनका गांधी को कोई संकोच नहीं हुआ था.
गुजरात में जारी हार्दिक पटेल के वीडियो असली हैं या नकली, यह महत्वपूर्ण नहीं है. बड़ा सवाल यह है कि जब सत्तारूढ़ पार्टी मैं विकास हूंके नारे के साथ मैदान में है और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को सरदार पटेल के समकक्ष स्थापित करने की कोशिश की जा रही है तब विरोध में खड़े एक पटेल नेता की छवि को ध्वस्त करने के लिए ऐसी साजिश की जरूरत किसे और क्यों पड़ रही है? क्या विकास का मुद्दा अब चुनाव जिताने वाला नहीं रहा? यह भी कि महिलाओं को इस तरह कब तक अपमानित किया जाता रहेगा?
    

(प्रभात खबर, 16 नवम्बर, 2017)

सेकुलर-निंदक योगी 'विकास-पुरुष' मोदी का असली चेहरा हैं


उतर प्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी ने धर्मनिरपेक्षता को आजादी के बाद का सबसे बड़ा झूठकरार देकर अपने विवादास्पद बयानों की सूची में एक और बयान जोड़ लिया है. उन्होंने यह बयान उतर प्रदेश से दूर छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में दिया. यह सिर्फ संयोग नहीं है.
छत्तीसगढ़ में अगले साल चुनाव होने हैं. विकास के बड़े-बड़े नारों के बावजूद भारतीय जनता पार्टी को चुनाव जीतने के लिए उग्र हिंदुत्व का सहारा जरूर चाहिए, जिसके सबसे बड़े प्रतिनिधि अब आदित्यनाथ योगी बन गये हैं. अकारण नहीं कि भाजपा योगी को गुजरात और छत्तीसगढ़ में बार-बार भेज रही है. गुजरात में उनके कई दौरे, सभाएं और रोड-शो कराए जा चुके हैं. छत्तीसगढ़ के भी कुछ दौरे वे हाल में कर चुके हैं.
योगी ने सोमवार को रायपुर में कहा कि मेरा मानना है कि आजादी के बाद भारत में सबसे बड़ा झूठ धर्मनिरपेक्ष शब्द है. उन लोगों को माफी मांगनी चाहिए जिन्होंने इस शब्द को जन्म दिया और जो यह शब्द इस्तेमाल करते हैं.उनके निशाने पर कांग्रेस समेत सब सेकुलर पार्टियां और इस देश का सेकुलर समुदाय है.
यह राजनैतिक निशानेबाजे करते हुए योगी कतई चिंता नहीं करते कि मुख्यमंत्री के रूप में उन्होंने संविधान की शपथ ली है. उनका बयान हमारे संविधान की भावना की खिल्ली उड़ाने वाला है. धर्मनिरपेक्षता उन सर्वोच्च संवैधानिक मूल्यों में शामिल  है, भारत गणराज्य के जन-जन में जिनके प्रति आस्था एवं प्रतिबद्धता की अपेक्षा संविधान करता है.
दो बातें यहां साफ कर देना जरूरी है. पहली यह कि संविधान सभा ने मूल रूप में जिस उद्देशिका को स्वीकार किया था उसमें सेकुलर या धर्मनिरपेक्ष शब्द नहीं था. उसे 1976 में 42वें संविधान संशोधन के रूप में जोड़ा गया. लेकिन यह भी स्पष्ट है कि सेकुलर शब्द मूल उद्देशिका में न होने के बावजूद संविधान निर्माताओं की मंशा भारतीय गणराज्य को सेकुलर बनाए रखने की थी, ऐसा संविधान विशेषज्ञों ही नहीं, सर्वोच्च न्यायालय के कई फैसलों में भी माना गया है.
दूसरी बात यह कि संविधान के मूल हिंदी अनुवाद में सेकुलरशब्द के लिए पंथनिरपेक्षलिखा गया है, धर्मनिरपेक्ष नहीं. धर्मनिरपेक्षता बनाम पंथनिरपेक्षता पर अक्सर बहस भी होती रही है. दोनों शब्दों के आशय पर भी मतभेद रहे हैं. स्वयं हमारे संविधान में इन शब्दों के अर्थ स्पष्ट नहीं किये गये हैं. सुप्रीम कोर्ट भी एकाधिक बार यह व्यवस्था दे चुका है कि संविधान में प्रयुक्त शब्दों के अर्थ तलाशने की बजाय संविधान निर्माताओं के मूल आशय को समझा जाना चाहिए.
1976 में संविधान की उद्देशिका में सेकुलरशब्द जोड़े जाने से भी पहले 1974 में एक मामले में सुप्रीम कोर्ट ने साफ कहा था कि यद्यपि संविधान में पंथनिरपेक्ष (सेकुलर) राज्य की बात नहीं कही गयी है, फिर भी इस पर कोई संदेह नहीं है कि संविधान निर्माता इसी तरह का राज्य स्थापित करना चाहते थे. 1976 के संविधान संशोधन के बाद इसमें कोई संदेह रह भी नहीं गया.
आरएसएस को लेकिन इसमें संदेह ही नहीं, घोर आपत्ति है. नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता पर सवार संघ अब अपने एजेण्डे पर तेजी से काम कर रहा है. आज योगी उसे लिए मोहन भागवत की तुलना में ज्यादा असरदार लगते हैं. संघ प्रमुख की बजाय एक सम्माननीय पीठ के महंत जनता में, खासकर हिंदुओं में ज्यादा स्वीकार होंगे, ऐसा उसका मानना बिल्कुल गलत भी नहीं.   
योगी ने रायपुर में यह तर्क दिया कि हमारा राज्य पंथनिरपेक्ष तो हो सकता है, धर्मनिरपेक्ष बिल्कुल नहीं हो सकता. उनका तर्क है कि सेकुलरशब्द यूरोपीय अवधारणा है, जहां राज्य को चर्च से अलग करने की बात कही गयी. हमारे यहां धर्मतंत्रवादी (थियोक्रेटिक) राज्य नहीं रहा, इसलिए सेकुलर शब्द हमारे लिए बेमानी है
लेकिन दिक्कत योगी की सेकुलर शब्द की व्याख्या में नहीं, उस मंतव्य से है जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पुरानी सोच और मांग है. संघ न केवल सेकुलरभावना का विरोधी है बल्कि राष्ट्र-ध्वज के तीन रंगों को भी खारिज करता है. संघ की राय में राष्ट्र-ध्वज में सिर्फ एक ही रंग होना चाहिए- भगवा.  संघ तिरंगे की बजाय भगवा ध्वज ही फहराता रहा है. संविधान में  सेकुलर शब्द उसे मंजूर नहीं. उसे सेकुलर देश नहीं, हिंदू राष्ट्र बनाना है.  
सन 2014 के लोक सभा चुनाव में नरेंद्र मोदी के नेतृत्त्व में भाजपा की भारी जीत के बाद सेकुलर और सेकुलरवादीसंघ और भाजपा के मुख्य निशाने पर रहे हैं. सोशल साइटों पर हिंदूवादी खेमे की ओर से वामपंथियों एवं धर्मनिरपेक्षतावादियों के लिए सेकुलर सबसे बड़ी गाली पिछले तीन वर्षों में ही बना, जैसे कि भक्तजवाबी गाली बन कर उभरा.
सेकुलर या धर्मनिरपेक्ष होना चूंकि हिंदूवादियों के खास निशाने पर आना हो गया, इसलिए सेकुलर खेमे ने अपने लिए नया शब्द बहुलतावादीगढ़ लिया.
योगी ने सेकुलर शब्द पर हमला पहली बार नहीं बोला है. वे उत्तर प्रदेश में अनेक अवसरों पर यह कहते रहे हैं कि सेकुलर होने का अर्थ हिंदुओं की धार्मिक मान्यताओं की निंदा करना तथा अल्पसंख्यकों का तुष्टीकरण करना है. वे यह भी कहते रहे हैं कि राष्ट्रवादियों को साम्प्रदायिक कहना सेकुलरों का फैशन है. असल में अपने को सेकुलर कहने वाले साम्प्रदायिक हैं.
ठीक यही बात आरएसएस के बड़े नेता कहते रहे हैं कि भारत में सेकुलरिज्म की अवधारण इतनी भ्रष्ट बना दी गयी कि राष्ट्रवादियों को साम्प्रदायिक कहा जाने लगा, जबकि साम्प्रदायिक तो सेकुलर लोग हैं.
तथाकथित सेकुलर दलों ने वोट की राजनीति के लिए जिस तरह तुष्टीकरणका सहारा लिया, उससे भी सेकुलर शब्द बदनाम हुआ. इसी वजह से मूलत: सेकुलर रहती आई बहुसंख्यक जनता में सेकुलर शब्द के प्रति नाराजगी पैदा हुई. नरेंद्र मोदी के उभार के पीछे यह नाराजगी भी एक बड़ा कारण बनी, जिसे उग्र हिंदुत्व ने खाद-पानी दिया.
अब जबकि मोदी की लोकप्रियता ढल रही है, भाजपा को सेकुलर शब्द के प्रति जनता की नाराजगी और उग्र हिंदुत्त्व को भड़काने की और भी जरूरत पड़ रही है. योगी इसके लिए बहुत उपयुक्त लगते हैं.
योगी के चंद महीने पुराने बयानों को याद करें तो यह धारणा और पुष्ट हो जाती है. जन्माष्टमी पर उनका बयान था कि अगर मैं ईद पर लोगों को सड़क पर नमाज पढ़ने से नहीं रोक सकता तो पुलिस थानों में जन्माष्टमी मनाने से भी नहीं रोक सकता. बीते सावन में उनकी टिप्पणी थी कि अगर कांवर यात्रा में लाउडस्पीकर नहीं बजेंगे तो कहां बजेंगे?’ अल्पसंख्यकों में भय व्याप्त होने के सवाल पर एक चैनल के कार्यक्रम में वे बोले थे- अगर उस तरफ से दंगा नहीं होगा तो बहुसंख्यक भी हमला नहीं करेंगे
संकेत तो यही मिल रहे हैं कि भाजपा योगी को बहुत सोच-समझ कर इस्तेमाल कर रही है. वे नरेंद्र मोदी की विकास-पुरुष की छवि के पीछे का असली चेहरा हैं.
(http://hindi.firstpost.com/politics/up-cm-yogi-adityanath-statement-on-secularism-is-the-real-face-of-bjp-and-development-symbolic-narendra-modi-tk-66966.html  

  

  

Tuesday, November 14, 2017

यहां तो बस स्मॉग चल रहा है


पहाड़ में बिताए बचपन की याद सर्दियों में जरूर आ जाती है. घना सफेद कोहरा जब चेहरे को छूता था तो विविध वनस्पतियों की भीनी-भीनी सुगंध फेफड़ों में भर जाया करती थी. बालों और पलकों में जम गई कोहरे की बर्फीली बूंदें सिहरा देतीं थीं. पलकें बंद करते ही अद्भुत अनुभव होता था. तब मैदानों का कोहरा वैसी सुगन्ध और अतिशय शीतलता नहीं लाता था लेकिन भाता वह भी था. आज वह डराता है. उसे कोहरा कहना भी इस शब्द का अपमान है. इसीलिए शायद उसे स्मॉग कहा जाने लगा है. ओस कणों पर बैठा तरह-तरह का खतरनाक धुंआ. घातक प्रदूषण. सांस तथा दिल के रोगियों के लिए जानलेवा और सामान्य लोगों को सांस का रोगी बनाता हुआ.
विकास के जिस रास्ते पर हमें लगातार धकेला जा रहा है, उसका सबसे बड़ा उदाहरण दिल्ली है. सर्दियां शुरू होते ही वहां स्मॉगका ऐसा आतंक छा जाता है कि स्कूल बंद करने पड़ते हैं. सांस के रोगियों, बच्चों एवं गर्भवतियों से कहा जाता है कि वे घर के बाहर न निकलें. घर के भीतर की हवा क्या कहीं और से आ रही है? हां, एसी चलाकर बैठिए. अपेक्षाकृत बेहतर हवा मिल जाएगी लेकिन बाहर की हवा और भी जहरीली होती जाएगी, उसका क्या?
दिल्ली का डरावना स्मॉग एक संकेत भर है. लखनऊ समेत अन्य शहरों की हालत भी लगभग वैसी ही है. जल्दी ही बाकी शहर दिल्ली जैसे होते जाएंगे. इस बीच दिल्ली और भी घुटन भरी हो चुकी होगी. शायद सलाह दी जाने लगे कि अब दिल्ली रहने लायक नहीं रही. हमारे सभी बड़े शहर अभी से रहने लायक नहीं रह गये हैं. केंद्रीय प्रदूषण बोर्ड की ताजा रिपोर्ट लखनऊ, मुरादाबाद और नोएडा को देश का सर्वाधिक प्रदूषित क्षेत्र बता रही है. कोई नदी इस लायक नहीं रही कि उसका पानी पीना तो दूर, उसमें नहाया भी जा सके.
अच्छी तरह यह समझने के बावजूद कि विकास की वर्तमान धारा ही इस सबके लिए जिम्मेदार है, हमें अब भी इसी रास्ते पर दौड़ाया जा रहा है. दुनिया भर में व्यक्त की जा रही चिंताओं के बावजूद हमारे जैसे देश इस विनाश के प्रति और भी लालायित हैं. शहर बेशुमार गाड़ियों, एसी और प्रदूषण बढ़ाने वाले यंत्रों से पटे जा रहे हैं. आबादी की बाढ़ शहरों को लील रही है. गांव उजड़ रहे हैं. खेती रसायनों और कीटनाशकों के दम पर हो रही है. कितनी तेजी से विनाश के औजार बढ़ाए हैं हमने!
सन 1974 तक लखनऊ समेत प्रदेश के किसी भी सरकारी दफ्तर और मंत्री निवास में एसी नहीं लगा था (मात्र एक एसी देहरादून के उस सर्किट हाउस में था जहां कभी नेहरूजी ठहरा करते थे. वही एसी लाकर 1974 में मुख्यमंत्री कार्यालय में लगाया गया था) गर्मियों में सब जगह खस के पर्दे या टट्टियां लगती थीं. क्या ही सुगंधित शीतल हवा उनसे मिलती थी. बाकी समय पंखे काफी होते थे. सुराहियों-घड़ों का ठंडा जल प्यास ही नहीं बुझाता, मन को भी तृप्त करता था. आज छोटे-छोटे घरों व मामूली दुकानों में भी एकाधिक एसी और फ्रिज हैं, सरकारी व कॉर्पोरेट कार्यालयों और वीआईपी बंगलों की बात छोड़ दीजिए. गाड़ियां इतनी हो गयी हैं कि सड़कों पर ठौर नहीं. बेहिसाब निर्माण और अतिक्रमण ने हरियाली खत्म कर दी. हवा कैसे प्राणदाई बनी रह सकती है?
स्मॉग होने पर स्कूल बंद करना और सम-विषम नम्बर की गाड़ियां चलाने का जतन इससे बचने का कोई उपाय नहीं है. उपाय बड़ी उलट-फेर मांगता है. उसके लिए इच्छा शक्ति कहीं दिखाई नहीं देती.  दम घुटे से मर जाऊं, ये मर्जी मेरे जल्लाद की है’- किसी शायर का कथन दूसरे ही संदर्भ में सच साबित हो रहा.
(सिटी तमाशा, नभाटा, 11 नवम्बर, 2017)