Tuesday, November 14, 2017

लखनऊ को उत्तराखण्डियों की देन-1


बलरामपुर अस्पताल, महिला विद्यालय, महानगर कॉलोनी, म्युनिसिपल नर्सरी स्कूल....

शिक्षा और रोजगार के लिए संयुक्त प्रांत (बाद में उत्तर प्रदेश) के पर्वतीय भू-भाग (आज के उत्तराखण्ड) से मैदानों की ओर पलायन बहुत पहले से होता रहा है. हरद्वार-कोटद्वार दिल्ली के करीब होने से गढ़वाल की तरफ के ज्यादातर लोग दिल्ली की ओर गये. नैनीताल-अलमोड़ा-पिथौरागढ़ का सीधा ट्रेन-सम्पर्क लखनऊ से होने के कारण इस कुमाऊं अंचल के अधिकसंख्य लोग लखनऊ पहुंचे. लम्बे समय से लखनऊ में प्रवास करने और विभिन्न क्षेत्रों में शीर्ष पर पहुंचे उत्तराखण्डियों का लखनऊ के चौतरफा विकास में बड़ा योगदान रहा है.
अल्मोड़ा से आकर यहां बसे डॉ हरदत्त पंत महाराजा बलरामपुर के पारिवारिक चिकित्सक थे. उनकी अच्छी प्रसिद्धि थी. वे चाहते थे कि सामान्य जनता के लिए एक अस्पताल खोला जाए. यह बात उन्होंने महाराजा बलरामपुर से कही और अस्पताल के लिए उनसे उनका एक भवन मांगा. महाराजा राजी हो गये. इस तरह 1869 में बलरामपुर अस्पताल की स्थापना हुई जो शुरू में हिल रेजिडेंसी कहलाता था.
लखनऊ के रईस पुत्तू लाल एक बार बहुत बीमार पड़े. काफी इलाज के बाद भी रोग जाता न था. अंतत: डॉ हरदत्त पंत ने उनका इलाज किया और पुत्तू लाल बिल्कुल चंगे हो गये. खुश होकर पुत्तू लाल ने डॉ पंत को कुछ अशर्फियां दीं. डॉ पंत ने उनसे कहा कि देना ही चाहते हैं तो अपनी धर्मशाला के कुछ कमरे दान में दे दीजिए ताकि लड़कियों के लिए स्कूल खोला जा सके. यह सम्भवत: सन1885 की बात है. तब लखनऊ में लड़कियों के लिए स्कूल नहीं था. पुत्तू लाल जी ने उनकी बात मान ली. कालीबाड़ी के आस-पास किसी पेड़ के नीचे शुरू हुआ लड़कियों का एक स्कूल इस तरह पुत्तू लाल की धर्मशाला में आ गया. यही आज लखनऊ का प्रसिद्ध महिला महाविद्यालय है. इस स्कूल के पहले बैच की छह लड़कियों में एक डॉ पंत की बेटी भी थी, जो बाद में गौरा पंत यानी मशहूर लेखिका शिवानी की मां बनीं. यानी डॉ पंत शिवानी के नाना हुए.
आजादी के तुरंत बाद लखनऊ नगर की हालत काफी खराब थी. संकरी सड़कों में गड्ढे थे, पीने के पानी का संकट था और लखनऊ नगर पालिका का खजाना खाली था, वेतन के भी लाले पड़ते थे. तत्कालीन मुख्यमंत्री गोविंद बल्लभ पंत ने, जो स्वयं उत्तराखण्ड से निकल कर राष्ट्रीय राजनीति में शीर्ष पर पहुंचे थे, लखनऊ नगर पालिका को भंग करना उचित समझा और वहाँ एक प्रशासक बैठा दिया.  लखनऊ के प्रशासक पद के लिए जिस अधिकारी को उन्होंने चुना वह भी एक उत्तराखण्डी था और सन 1943 से लखनऊ के सिटी मजिस्ट्रेट पद पर तैनात था. उनका नाम है भैरव दत्त (बी डी) सनवाल, जो आईसीएस थे और बाद में प्रदेश के मुख्य सचिव बने.
श्री सनवाल ने लखनऊ के पहले प्रशासक के रूप में कुछ महत्वपूर्ण काम किए. उन्होंने चुंगी चौकियों को दुरुस्त किया और आधे से ज्यादा कर-मुक्त भवनों पर कर लगाकर पालिका की आमदनी बढ़ाई. सन 1900 में बना लखनऊ का जलकल 1948 में खस्ताहाल हो चुका था और इंजीनीयर उसे सुधारने में नाकामयाब थे. श्री सनवाल ने एक विशेषज्ञ की तलाश की जो सेवानिवृत्त अभियंता दस्तूर साहब के रूप में पूरी हुई. श्री सनवाल ने खुद लिखा है कि प्रशासक के रूप में मेरा वेतन 1200 रु था जबकि दस्तूर साहब की सेवा दो हजार रु मासिक  पर ली गयी. बहरहाल, दस्तूर साहब ने लखनऊ की पेयजल व्यवस्था चमत्कारिक रूप से सुधार दी थी.
सनवाल जी ने सड़कों के सुधार के लिए छह रोड रोलर मंगाए गये. गिट्टी की दिक्कत थी. सो, रेलवे से कहकर पूरी-पूरी मालगाड़ी बुक करके गिट्टी ढुलवाई गयी. इस तरह सड़कें बनाने की काम तेजी से शुरू हुआ.
श्री सनवाल का सबसे महत्वपूर्ण काम उस नयी आवासीय कॉलोनी का नियोजन और निर्माण है, जिसे हम आज प्रतिष्ठित महानगर कॉलोनी के रूप में जानते हैं. उन्होंने गोमती पार इस कॉलोनी का मानचित्र अमरीकी आर्कीटेक्ट ट्रजेट से बनवाया. पहली बार समानांतर सड़कों की बजाय गोलाई वाली सड़कें बनीं. आज यह जानकर आश्चर्य होता है कि उस समय महानगर के भूखण्ड छह और सात आने प्रति वर्गफुट की दर पर बेचे गये थे. श्री सनवाल की देखरेख ही में भोपाल हाउस का निर्माण भी हुआ जिसमें प्रयुक्त लोहे के गर्डरों के लिए रेलवे से एक पुराना पुल खरीदा गया था.
लखनऊ का नामी म्युनिसिपल नर्सरी स्कूल भी प्रशासक के रूप में श्री सनवाल की देन है. तेज बहादुर सप्रू के आईसीएस पुत्र एस एन सप्रू उस समय शिक्षा सचिव थे. उनकी इच्छा थी कि एक अच्छा नर्सरी स्कूल खोला जाए लेकिन सरकार के पास धन की तंगी थी, इसलिए वे इसका प्रस्ताव नहीं कर पा रहे थे. श्री सनवाल ने नगर पालिका की आय काफी बढ़ा दी थी. वे नर्सरी स्कूल की स्थापना के लिए तत्पर हो गये. महात्मा गांधी मार्ग पर माल एवन्यू में कांग्रेसी महिलाओं का एक क्लब था. कभी-कभार होने वाली मीटिंग के अलावा वह खाली पड़ा रहता था. लेडी वजीर हसन इस क्लब की अध्यक्ष थीं. उनकी स्वीकृति से वह भवन किराए में लेकर म्युनिसिपल नर्सरी स्कूल खोला गया, जिसका किराया तब 300 रु तय हुआ था. साथ ही महिला क्लब को महीने में एक दिन बैठक करने की अनुमति थी. बच्चों को कथक सिखाने के लिए दो सौ रु महीने पर लच्छू महाराज को भी रखा गया था. आज भी यह लखनऊ का प्रतिष्ठित स्कूल है.
बीडी सनवाल चार साल तक नगर पालिका के प्रशासक रहे. इस दौरान उन्होंने लखनऊ का काफी कायाकल्प कर दिया था. नगर पालिका भवन में एक पुस्तकालय और एक आर्ट गैलरी भी उन्होंने बनवाई थी. इसके लिए लखनऊ के नामी कलाकारों से उनके चित्र दो-दो सौ रु में खरीदे गये थे. चित्रकारों ने एक-एक चित्र उपहार में भी दिया था. श्री सनवाल ने अपने संस्मरणों में लिखा है- “कालांतर में पुस्तकालय की आधी पुस्तकें और आर्ट गैलरी के अनेक चित्र म्युनिसिपल अधिकारियों और सभासदों के घर पहुंच गये. नगर पालिका के पास धन इतना कम हो गया कि पुस्तकालय या आर्ट गैलरी के लिए दो-चार घंटे रोज के एक लिपिक की सेवाएं देना भी असम्भव हो गया.”  

 (अवध के समाज, नभाटा, लखनऊ, 12 नवम्बर, 2017)

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