Friday, November 24, 2017

निकाय चुनावों का स्याह-सफेद पक्ष


लखनऊ नगर निगम का चुनाव परिणाम चाहे जिस पार्टी के पक्ष में जाए, जीतेगी एक महिला ही. सौ साल में यह पहली बार होगा जब महापौर की कुर्सी पर एक महिला बैठेगी. महिला प्रत्याशियों ने चुनाव पहले भी लड़ा लेकिन लखनऊ के नागरिकों ने हमेशा पुरुष को ही अपने महापौर की कुर्सी सौंपी. इस बार महिला महापौर चुनी जाएगी तो उसका श्रेय नागरिकों के चयन को नहीं आरक्षण को मिलेगा. चक्रानुक्रम आरक्षण के कारण इस  बार लखनऊ महापौर का पद महिला के लिए आरक्षित हुआ. ऐसा नहीं होता तो ज्यादातर प्रत्याशी पुरुष ही होते.
नगर निकायों-ग्राम पंचायतों में 33 फीसदी महिला आरक्षण लागू होने के लाभ हुए हैं. कम से कम इसने महिला सशक्तीकरण खूब किया है. ऐसे किस्से तो अब भी बहुत हैं कि महिला प्रधान का सारा काम-काज उनका पति या कोई करीबी पुरुष सम्बंधी करता है, जबकि निर्वाचित महिला चूल्हे-चौके और परिवार की जिम्मेदारियों ही में उलझी रहती है. मगर यह किस्से खूब हैं कि महिलाओं में राजनीति और प्रशासन की समझ किस तरह बढ़ी है. वे जागरूक हुई हैं. कई महिलाओं ने स्वयं प्रधानी व सभासदी के काम बखूबी सम्भालने शुरू किये हैं. 
क्या महिला मेयर के आने से नगर निगम का माहौल बदलेगा? क्या नगर निगम सदन की कार्रवाही बेहतर चल पाएगी? पुरुष सभासदों की उद्दण्डता और अनुशासनहीनता में कुछ सुधार आएगा? इन सवालों का जवाब बाद में मिलेगा. आम महिलाओं की समस्याओं, उदाहरण के लिए बाजारों में शौचालय की बड़ी कमी, की तरफ महिला महापौर का कितना ध्यान जाएगा, यह अभी कहना मुश्किल है लेकिन इस संकट को उनसे बेहतर और कौन समझ सकता है.
मुख्यमंत्री योगी और उनके सभी मंत्री इन निकाय चुनाओं में जितना सघन प्रचार करने में लगे हैं, उससे साफ है कि भाजपा पंचायत से संसद तक सभी चुनावों को जीतने के लिए पूरा जोर लगाने की नई रणनीति पर काम कर रही है. बाकी दलों के बड़े नेता प्रचार में नहीं उतरे हैं. इतना जोर निकायों की हालत बदलने में भी लगती तो क्या बात थी. ज्यादातर नगर निगम पहले भी भाजपा के कब्जे में रहे हैं. निकायों की आर्थिक हालत ठीक नहीं है. भ्रष्टाचार का बोलबाला है. बड़े शहरों से लेकर छोटे नगर तक गन्दगी और अतिक्रमण से त्रस्त हैं. पॉलिथीन प्रतिबंध हो या तहबाजारी नियम, खुले आम उल्लंघन हो रहा है. चुनाव जीतने जैसा जोर इन समस्याओं के निराकरण में भी लगे तो शक्ल बदले.
एक त्रासदी यह है कि पंचायती राज कानून की भावना का कोई भी दल सम्मान नहीं करता. निकायों को ताकतवर और आर्थिक रूप से सम्पन्न होना चाहिए था. सरकारों ही ने उसे नहीं होने दिया. उदाहरण के लिए, लखनऊ विकास प्राधिकरण को पूरी तरह नगर निगम के अधीन होना चाहिए. पहले तो ऐसे विकास प्राधिकरण बनने ही नहीं चाहिए थे. जो काम प्राधिकरणों के हवाले कर दिया गया है, वह सारा नगर निगम के पास होना चाहिए था. प्राधिकरण बनाने से आला अधिकारी ताकतवर हो गये, लगभग सभी आर्थिक अधिकार उनके पास चले गये. पंचायती राज कानून की मंशा के अनुसार ये समस्त अधिकार  और पूरा बजट नगर निगम के निर्वाचित जन-प्रतिनिधियों के पास होने चाहिए थे.
इस महत्वपूर्ण तथ्य को अब पूरी तरह भुला दिया गया है. बदलाव का नारा देने वाली भाजपा भी इस पर चर्चा तक नहीं करती. खस्ता हाल नगर निकाय लाचार बने हुए हैं. भ्रष्टाचार और अकर्मण्यता ने उन्हें और भी निष्प्रभावी बना दिया. नगरों की हालत सुधरे भी तो कैसे?  (सिटी तमाशा, नभाटा, 25 नवम्बर, 2017)
     


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