Wednesday, November 29, 2017

नरेंद्र मोदी का भीतरी विपक्ष


गुजरात में सत्ता विरोधी रुझान और कुछ जातीय समूहों के भाजपा-विरोध को अपनी लोकप्रियता से शांत करने के लिए गुजरात-पुत्रनरेंद्र मोदी जब चंद रोज पहले धुंआधार चुनाव प्रचार के लिए निकल रहे थे तब उनके मुखर विरोधी भाजपा नेता अरुण शौरी बोल रहे थे कि नरेंद्र मोदी सरकार की खासियत है झूठ. मोदी भी विश्वनाथ पताप सिंह की तरह अवसरानुकूल झूठ बोलते हैं. वे रोजगार सृजन जैसे कई वादे पूरा करने में विफल रहे हैं. एनडीए की अटल-सरकार में केंद्रीय मंत्री रहे और प्रखर पत्रकार के रूप में चर्चित अरूण शौरी ने दिल्ली में एक कार्यक्रम में यह भी कहा कि नरेंद्र मोदी और आज का प्रधानमंत्री कार्यालय डरा हुआ है’.
यह तथ्य कम रोचक नहीं कि जो नरेंद्र मोदी विपक्ष के सफाये की नीति पर चल रहे हैं, स्वयं उनकी पार्टी में उनका विपक्ष खड़ा हो रहा है. अरूण शौरी काफी समय से मोदी सरकार की नीतियों की तीखी आलोचना करते आये हैं. नोटबंदी और जीएसटी की जितनी तीखी आलोचना यशवंत सिन्हा ने की, उसने भाजपा ही नहीं विपक्ष को भी चौंकाया. सिन्हा भाजपा के वरिष्ठ नेता हैं और एनडीए सरकार में वित्त मंत्री रहे हैं. फिल्म अभिनेता से राजनेता बने शत्रुघ्न सिन्हा भी भाजपा में बढ़ते मोदी विरोध का हिस्सा हैं.
2014 के बाद भाजपा में सर्वशक्तिमान बन कर उभरे नरेंद्र मोदी का उनकी ही पार्टी के भीतर यह मुखर विरोध चौंकाता नहीं है. तमाम कमजोरियों के बावजूद लोकतंत्र की यह बड़ी खूबी है. आप विपक्ष को जितना दबाना चाहेंगे, वह मिट्टी के भीतर अंकुआते बीज की तरह पनपता जाएगा. आप अपनी पार्टी में कितने ही ताकतवर हो जाएं, विरोध के स्वर वहां भी फूटेंगे जरूर.
अपने समय के कई अत्यंत प्रभावशाली नेताओं के बावजूद तत्कालीन कांग्रेस और सरकार में पूरी तरह छाये जवाहरलाल नेहरू का विरोध कम न था. नेहरू बहुत लोकतांत्रिक नेता थे और कम से कम प्रकट में अपना विरोध सहते, सुनते और कई बार प्रोत्साहित भी करते थे. इंदिरा गांधी अपने पिता की राजनैतिक परम्परा से उभरी थीं. शुरू से ही उन्होंने विरोध झेला और उस पर विजय पाई, हालांकि पार्टी विभाजित हुई. कालांतर में उनमें अपने विरोध को सहने-समझने की सामर्थ्य कम होती गयी. यहां तक कि वे विरोधी नेताओं की घोर उपेक्षा करने लगीं. फिर तो अपने देशव्यापी विरोध को कुचलने के लिए उन्होंने आपात-काल लागू किया और संविधान तक को निलम्बित कर दिया. इसकी उन्हें और देश बड़ी कीमत चुकानी पड़ी, यद्यपि इससे हमारा लोकतंत्र मजबूत ही हुआ. आपातकाल में संगठित लोकतांत्रिक विरोध का प्रतिमान बना.
पहले जनसंघ और फिर भारतीय जनता पार्टी में अटल-आडवाणी-जोशी की तिकड़ी बरसों-बरस छायी रही. कई चुनावों में भारी विफलताओं के लिए वह भी निशाने पर रही ही. वंशवादीकांग्रेस में सोनिया और राहुल विरोधी स्वर यदा-कदा आज भी उठ जाया करते हैं, जिन्हें स्वस्थ दृष्टि से देखने-समझने की समझ उसके नेतृत्त्व में है, ऐसा नहीं कहा जा सकता. पिछले कुछ दशक से हमारे सभी राजनैतिक दलों में आंतरिक लोकतंत्र काफी कमजोर हुआ है. वाम दल अपवाद कहे जा सकते हैं.
अपने को वंशवाद-मुक्त और लोकतांत्रिककहने वाली भाजपा में इन दिनों नरेंद्र मोदी की जैसी सर्वशक्तिमानहैसियत है, उसे देखते हुए ही कई राजनैतिक टिप्पणीकारों ने उनकी तुलना इंदिरा गांधी से की है. उनका आशय यह कि नरेंद्र मोदी न केवल विपक्षी दलों को कमजोर करने पर तुले हैं, बल्कि इंदिरा गांधी ही की तरह अपनी पार्टी एवं सरकार के भीतर वैकल्पिक नेतृत्त्व और विरोधी विचार पनपने देना नहीं चाहते. वहां कोई नम्बर-दो की हैसियत में नहीं है. एक से दस नम्बर तक मोदी ही मोदी हैं.
भारतीय जनता पार्टी में नरेंद्र मोदी के उदय से ही ऐसी प्रवृत्ति दिखाई देती है. गुजरात की राजनीति में नरेंद्र मोदी के साथ-साथ संजय जोशी का भी ग्राफ तेजी से बढ़ रहा था. फिर कैसे संजय जोशी हाशिए पर डाल दिये गये, इसकी कई कथाएं अब तक कही-सुनी जाती हैं. 2002 के गुजरात-दंगों के समय राजधर्मनिभाने की अटल की सलाह उन्होंने अनसुनी कर दी थी. 2012 में तीसरी बार गुजरात फतह करने वाले नरेंद्र मोदी जब 2014 के आम चुनाव में प्रधानमंत्री प्रत्याशी बनना चाहते थे, तब वे मुख्यमंत्री होने के साथ-साथ चुनाव-अभियान समिति के प्रभारी भी थे. भाजपा के सयाने नेता लाल कृष्ण आडवाणी  ने उसी समय एक आदमी, एक पदके सिद्धांत की वकालत करते हुए नरेंद्र मोदी का विरोध किया था. उसके बाद आडवाणी किस तरह किनारे किये गये और कई अवसरों पर अपमानित भी, यह सब ताजा इतिहास है.
2014 में लोक सभा चुनाव के नतीजे भाजपा की बड़ी जीत से कहीं अधिक नरेंद्र मोदी की प्रचण्ड विजय साबित हुए. आडवाणी-शिविरके रूप में भाजपा के भीतर नरेंद्र मोदी का जो भी थोड़ा विरोध था, वह अपने-आप दब गया. आडवाणी के साथ दिखे नेता मोदी-रोष का शिकार बने या उन्हें घुटने टेकने पड़े. भाजपा-अध्यक्ष के रूप में अमित शाह की ताजपोशी के लिए मोदी का एक इशारा काफी हुआ. फिर एक के बाद एक राज्यों में भाजपा की जीत ने मोदी को भाजपा में सर्वशक्तिमान बना दिया.
दिल्ली और बिहार की पराजयों ने कुछ समय को चमक फीकी पड़ने का भ्रम पैदा किया मगर उत्तर-प्रदेश समेत कुछ अन्य राज्यों में भाजपा को प्रचण्ड बहुमत मिलने से अमित शाह और उनके साहेबमोदी की पार्टी पर पकड़ जकड़ में बदल गयी. आज मोदी पार्टी और सरकार में पूरी तरह काबिज हैं और अपनी कार्यशैली में बहुत आक्रामक हैं. वहां किसी दूसरे विचार या लोकतांत्रिक बहस की सम्भावना नहीं.
यह स्थिति आंतरिक विपक्ष के अंकुरित होने के लिए पर्याप्त और उपयुक्त होती है. वही हो रहा है. आडवाणी ने सम्भवत: अपनी नियति स्वीकार कर ली है लेकिन अरुण शौरी, यशवंत सिन्हा, शत्रुघ्न सिन्हा खूब मुखर हैं. पार्टी के भीतर मोदी के अन्य मौन-विरोधी नहीं होंगे, ऐसा नहीं कहा जा सकता. यह मोदी के नेतृत्त्व को चुनौती देने से कहीं अधिक उनकी कार्यशैली के प्रति असहमति जताने के लिए है. आश्चर्य ही है कि शौरी व सिन्हा के विरुद्ध अब तक अनुशासनहीनताकी कारवाई नहीं की गयी.
भाजपा का आंतरिक विपक्ष बहुत कुछ गुजरात के चुनाव परिणाम पर निर्भर करता है. भाजपा की पराजय, जिसकी सम्भावना नहीं बताई जा रही, मोदी की चमक फीकी कर देगी. जीत का अंतर कम होने से भी उनकी स्थिति कुछ कमजोर होगी और भीतरी विपक्ष मजबूत होगा. यही कारण है कि मोदी गुजरात में अपनी पूरी ताकत लगा रहे हैं. आक्रामक तो वे हैं ही, भावनात्मक तीर भी कम नहीं चला रहे. एक निशाने से दो शिकार करने हैं- बाहरी और भीतरी विपक्ष.   

 (प्रभात खबर, 29 सितम्बर, 2017)

2 comments:

सुधीर चन्द्र जोशी 'पथिक' said...

बहुत अच्छा विश्लेषण। मैं इसमें इतना और जोड़ना चाहूँगा कि विरोध करने वाले कथित नेताओं का विरोध किसी सुधार का सुझाव देना नही है, अपितु दरकिनार किये जाने से उत्पन्न हताशा है। हाँ, मोदी और बीजेपी को इन आलोचनाओं को सकारात्मक रूप में लेना चाहिये।

सुधीर चन्द्र जोशी 'पथिक' said...

बहुत अच्छा विश्लेषण। मैं इसमें इतना और जोड़ना चाहूँगा कि विरोध करने वाले कथित नेताओं के विरोध का उद्देश्य सुधार का सुझाव देना नही है, अपितु दरकिनार किये जाने से उत्पन्न हताशा है। हाँ, मोदी और बीजेपी को इन आलोचनाओं को सकारात्मक रूप में लेना चाहिये।