Friday, November 17, 2017

दो गज जमीं न मिली कू-ए-यार में


हिंदी के बड़े और महत्वपूर्ण कवि कुंवर नारायण के निधन पर शोक और गहरा हो जाता है जब यह याद आता है कि उन्हें अपना प्रिय शहर लखनऊ किन हालात में छोड़ना पड़ा था. लखनऊ से उन्हें बहुत प्यार था. महानगर में सचिवालय कॉलोनी के सामने और फैजाबाद रोड के पीछे उनका खूबसूरत घर था. उनकी किताबों का संग्रह और मेहमाननवाजी उस घर को और भी खूबसूरत बनाती थी. बाद में हालात ऐसे हो गये थे कि वे चुपचाप यहां से दिल्ली चले गये. दिल्ली उन्हें पसंद नहीं थी. बीच में कभी आते तो मित्रों से कहते भी थे.
सम्भवत: 2005-6 की बात है. प्रदेश में मुलायम सिंह के नेतृत्त्व में समाजवादी पार्टी की सरकार थी. माफिया तत्त्व काफी सक्रिय थे. जमीनों पर कब्जे, भयादोहन और बात-बात पर धमकियां दी जाती थीं. तब हमने अपने अखबार में शहर में माफिया आतंक के खिलाफ सिलसिलेवार खबरें छापना शुरू किया तो एक दिन कुंवर नारायण जी का फोन आया. उन्होंने अखबार में अपराधी तत्त्वों के खिलाफ छ्प रही खबरों की तारीफ की और कहा कि मैं भी इनके निशाने पर हूं. बहुत पूछने पर भी इस बारे में और कुछ नहीं बताया. हम चाहते थे कि उनका प्रकरण भी खबरों की उसी कड़ी में छापा जाए लेकिन वे कई बार आग्रह के बावजूद विवरण देने को तैयार नहीं हुए थे.
काफी पूछताछ के बाद हम इतना ही जान पाये थे कि उन्हें कुछ लोग धमकियां दे रहे थे. रंगदारी वसूली का मामला था या उनकी जमीन पर कब्जे का, यह साफ नहीं हुआ. वे शायद इसे मुद्दा नहीं बनाना चाहते थे. इसी के बाद उन्होंने लखनऊ छोड़ने का फैसला किया. बाद में अपना प्रिय मकान भी बेच दिया. उनके अच्छे सम्पर्क थे. पता नहीं किसी से उन्होंने इस बारे में मदद मांगी या नहीं, या मदद नहीं मिली.
यह वही दौर था लखनऊ में भरी सड़क पर मेहर भार्गव की हत्या कर दी गयी थी. उन्होंने अपनी बहू को छेड़ रहे लफंगों का विरोध किया तो उन्हें वहीं गोली मार दी गयी. अपराधी ऊंची राजनैतिक पहुंच वाले थे. जनता के व्यापक आक्रोश के बावजूद उन्हें बचाने की कोशिशें हुईं. पुलिस सत्ताधारियों के इशारे पर नाच रही थी.
उससे काफी पहले जब अखिलेश दास लखनऊ के महापौर थे तब भी कई सड़कों के किनारे नालियों और फुटपाथ पर कब्जा करके दुकानें बनवाई गयीं. कुंवर नारायण के घर के पास, मंदिर के सामने कई दुकानें रातोंरात खड़ी कर दी गयीं तो वे व्यथित हुए थे. मंदिर का अवैध विस्तार भी उन्हें तंग करता था. उनके कुछ बताए बिना जब हमने इन पर खबरें छापीं तो उन्होंने पत्र लिख कर प्रशंसा की और शहर के बिगड़ते हालात पर चिंता व्यक्त की थी.
कुंवर नारायाण ने 90 वर्ष की आयु पायी और सार्थक लेखन किया. दिल्ली वे अनिच्छा से गये और वहीं अंतिम सांस ली. जिस शहर से उन्हें बड़ा प्यार था, जिस पर उन्होंने प्यारी-सी कविता भी लिखी है, अपने अंतिम दिनों में उससे दूर होना उन्हें कचोटता रहा होगा. अत्यंत धैर्य, नैतिकता और ईमान वाले कवि को यह संतोष न मिला कि अपनी जगह प्राण त्यागते. 
उनकी लखनऊकविता की ये पक्तियां उन्हीं की स्मृति को समर्पित-
“बिना बात बात-बात पर बहस करते हुए/ एक-दूसरे से ऊबे हुए मगर एक-दूसरे को सहते हुए/एक-दूसरे से बचते हुए मगर एक-दूसरे से टकराते हुए/गम पीते हुए और गम खाते हुए/ जिंदगी के लिए तरसते कुछ मरे नौजवानों वाला लखनऊ...”

 (सिटी तमाशा, नभाटा, 18 नवम्बर, 2017)

2 comments:

सुधीर चन्द्र जोशी 'पथिक' said...
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सुधीर चन्द्र जोशी 'पथिक' said...

कुंवर नारायण जी जैसी हस्ती को अत्यंत वेदना के साथ लखनऊ छोड़ कर जाना पड़ा, यह तो मालूम था, परन्तु कारण नही मालूम था। आज आपने जानकारी दी। सचमुच यह कारण, अपने प्रिय स्थान और आवास को छोड़कर जाने का होना विचलित करता है। सच्चाई यह है कि जिनके पास स्वतंत्र बंगले होते हैं या प्रमुख स्थान पर मकान होता है, उनके लिये यह खतरा बहुत अधिक होता है। उम्र के साथ खतरा बढ़ता जाता है क्योंकि प्रायः लोग अकेले रह जाते हैं।
क्या किया जाये, इस समाज में रहना भी है और ज़िन्दा भी रहना है।