Friday, December 01, 2017

अपराध की राजधानी


1980 के दशक तक बहुत सारे लोग राजधानी लखनऊ में इसलिए बसना चाहते थे कि यहां बेहतर सुविधाओं के अलावा अपराध भी कम होते थे. यहां सरकार बैठती है. बड़ा प्रशासनिक अमला रहता है. राजधानी में अपराध होता तो बड़ा हो-हल्ला मचता. विपक्षी विधायक विधान सभा में मुद्दा उठाते और सरकार पर तीखा हमाला करते. सरकार पुलिस प्रशासन के पेच कसती. जवाब में अपराधियों पर शिकंजा कसा जाता.
इसलिए छुटभैय्ये अपराधी ही नहीं गिरोह भी लखनऊ से दूर-दूर रहते थे. दो-चार माफिया टाइप गिरोह कभी-कभार जरूर टकरा जाया करते थे. वर्ना ज्यादातर अपराध राजधानी से दूर-दूर होते थे. प्रदेश के पूर्वी, पश्चिमी और बुंदेलखण्ड इलाकों से अपराध की काफी खबरें आतीं. डकैत गिरोह भी सक्रिय रहते थे.
अस्सी के दशक से यह परिदृश्य बदलने लगा. अपराधियों का राजनैतिक इस्तेमाल बढ़ा. सत्ता प्रतिष्ठान और विधायक निवासों से अपराधियों को संरक्षण मिलने लगा. दूर-दराज के इलाकों में वारदात करके अपराधी राजधानी आने लगे. पुलिस को पता होता कि अपराधी कहां छुपे हैं लेकिन नेताओं के ठिकानों पर वह छापा डाल नहीं पाती. नेताओं के साथ-साथ पुलिस को अपराधियों की भी रक्षा करनी पड़ती. कभी-कभार कोई पकड़ा भी जाता तो ऊपर के दबाव से छोड़ दिया जाने लगा. सरकार जनहित में मुकदमे भी  वापस लेने लगी. अपराधियों में राजधानी का खौफ जाता रहा.
फिर एक और दौर आया जब बड़े अपराधी खुद चुनाव लड़कर विधान सभा पहुंचने लगे. नेताओं को चुनाव जिताने वाले अपराधी खुद चुनाव जीतने लगे. मंत्री बनने लगे. मीडिया ने उन्हें माफियाजैसा सम्मानजनकनाम दे दिया. अब वे सरकारी सुरक्षा में रहने लगे. उनके गिरोह सक्रिय रहे. उनके अधीन अपराधी सत्ता के गलियारों में सीना चौड़ा कर घूमने लगे. पुलिस उनका बाल बांका न कर सकी. उलते, अपराधी उसका कॉलर पकड़ने लगे. जिन पर ढेरों संगीन मुकदमे चल रहे हैं, पुलिस अफसरों को उन्हें सलाम करना पड़ता है.
अब अगर राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के ताजा आंकड़े बता रहे हैं कि उत्तर प्रदेश में सबसे ज्यादा अपराध लखनऊ में हो रहे हैं तो क्या आश्चर्य? ब्यूरो ने सन 2016 के अपराध-आंकड़ों के आधार पर बताया है कि देश के 19 महानगरों में अपराध के मामलों में लखनऊ का नम्बर छठा है. गाजियाबाद और कानपुर का नम्बर क्रमश: 11वां और 16वां है. इसका निष्कर्ष क्या यही नहीं कि अपराधी राजधानी ही में सबसे ज्यादा बेखौफ हैं?
अबकी पहली बार जाति आधारित अपराधों के आंकड़े भी जारी किये हैं. इनके अनुसार दलित अत्याचार के मामलों में उतर प्रदेश देश में शीर्ष पर है. शहरों में यह दर्जा लखनऊ को मिला है. बिहार और पटना का नम्बर दूसरा है. 2016 में बिहार की तुलना में उत्तर प्रदेश में दोगुना दलित अत्याचार के मामले दर्ज हुए.
मायावती के नेतृत्त्व में बहुजन समाज पार्टी के एक बार पांच-साला शासन और तीन अन्य बार सत्तारोहण के बावजूद उत्तर प्रदेश में दलित-अत्याचार के मामले कम नहीं हुए. यह उस पार्टी के शासन पर एक टिप्पणी है. वैसे, सच यह भी हो सकता है कि दलितों में बढ़ी सामाजिक-राजनैतिक चेतना ने दमन के प्रतिकार में आवाज उठाई और जवाब में दमन तेज हुआ.
अपराध के ये आंकड़े हमेशा विवाद का विषय बनते हैं. विपक्ष विफलता का आरोप लगाता है और सरकार कहती है कि अपराध बढ़ते इसलिए दिख रहे हैं कि हम अपराध छुपाते नहीं, हर किसी रिपोर्ट दर्ज की जाती है. मगर सच कहीं और होता है जिसकी छाया आम जन-जीवन पर पड़ती है.

 (सिटी तमाशा, नभाटा, 2 दिसम्बर, 2017)

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