Tuesday, December 26, 2017

आदमियों के जंगल में बंदरों का कब्जा


बीते दिनों एक पड़ोसी एक ज्ञापन पर हस्ताक्षर कराने आये- “बंदरों ने जीना मुश्किल कर दिया है. नगर निगम से शिकायत करनी है.” हमने कहा- “नगर निगम बंदरों का क्या करेगा?” उन्हों
ने कहा- “वन विभाग से कह कर निगम बंदरों को पकड़ने की कुछ व्यवस्था कराता है, सुना.”
नगर निगम अपना काम तो ठीक से कर नहीं पाता, बंदरों का भला वह क्या करेगा. खैर, हमने ज्ञापन पर हस्ताक्षर कर दिये. हम सोचते थे कि बन्दरों से हम ही ज्यादा पीड़ित हैं. छत पर गमलों में सब्जियां उगाने का प्रयोग किया था. एक साल ठीक-ठाक फसल हुई. अगले वर्ष दायरा बढ़ाया ही था कि बंदरों का हमला हो गया. पौधे क्या, गमले भी तोड़ डाले. फिर वे लगातार आने लगे, पूरा दल-बल. पहले चुपचाप आकर नुकसान कर जाते थे, अब छत और बालकनी ही नहीं, पोर्च और गेट पर भी धमाचौकड़ी मचाते हैं. एक दिन सुबह दूध के पैकेट हाथ से छीन ले गये.
ज्ञापन के बहाने अब चर्चा चली तो सबके दर्द खुलने लगे. किसी को फूलों का शौक है, किसी ने थोड़ी सी जगह में आम,अमरूद, पपीते वगैरह के पेड़ लगाये हैं. बन्दर कुछ नहीं रहने देते. फलों के बहाने किसी को काट न लें, इसलिए पेड़ ही काट दिये. फूल उगाने के शौकीन पड़ोसी ने बताया कि गेंदे की कलियां तक तोड़ कर खाते-बिखराते हैं, गमले तोड़ जाते हैं. इसलिए गमले रखना छोड़ दिया.
किसी ने बताया कि एक बार दरवाजा खुला देख कर एक खूंखार-सा बंदर भीतर चला आया. हम  दूसरे कमरे में बंद हो गये और वह आराम से फ्रिज खोल कर फल-सब्जी कुछ खा गया, कुछ उठा ले गया. अब दरवाजे हर समय बंद रखना मजबूरी है. जब वे आपस में लड़ने पर उतारू होते हैं तो पूरी कॉलोनी घर भीतर दुबकने पर मजबूर हो जाती है.
बन्दरों के आतंक के किस्से नये नहीं. पहले हम पुराने लखनऊ के बारे में सुनते थे, अब सारे शहर से शिकायतें आती हैं. शहर में बंदरों की संख्या तेजी से बढ़ी है. उनके काटने की खबरें अक्सर आती हैं. उनके डर से छत से गिर कर जान गवाने के हादसे भी हुए हैं. विशेषज्ञ और पशु-प्रेमी कहते हैं कि मनुष्य ने जानवरों का घर यानी जंगल खत्म कर दिये तो जानवर कहां जाएं. इसलिए वे शहरों की तरफ आ रहे हैं. बाघ-तेंदुए तक.
उनकी बात सही है, लेकिन हमारा जीवन कैसा होता जा रहा है! जंगल से लगे गांव-देहातों में बंदरों, जंगली सुअरों और तेंदुओं ने खेती करना मुश्किल कर दिया है. नील गायों का आतंक पहले से ही था. अनुपयोगी हो चुके गाय-भैंसों की विक्री भी उन्मादियों के डर से अब बंद है. इसलिए उन्हें छुट्टा छोड़ दिया जा रहा है. वे खेती और जान के दुश्मन बन गये हैं. बंदरों की तो हर जगह भरमार हो गयी है.
छुट्टा जानवरों को कभी नगर निगम पकड़ा करता था. अब वह चारा खिलाने की हालत में भी नहीं. इसलिए गायें कचरा खाती रहती है और सांड़ भरे बाजार बुजुर्गों की जान लेते हैं. आवारा कुत्तों की रक्षा के लिए एनजीओ हैं. आदमियों को रैबीज से बचाने के वास्ते अस्पतालों में अक्सर टीके नहीं रहते. बाजार में वैक्सीन काफी महंगी पड़ती है.
पहले हम मदारी के हाथों बंदरों का नाच देख कर खुश होते थे. अब हमें नचाने की बारी बंदरों की है शायद. अगर इसे धर्म-विरुद्ध न माना जाए तो क्या यह निवेदन किया जा सकता है कि बंदरों को नियंत्रित करने के लिए कुछ उपाय जरूर किये जाएं.
  

(सिटी तमाशा, नभाटा, 23 दिसम्बर 2017)

1 comment:

सुधीर चन्द्र जोशी 'पथिक' said...

सही अर्थों में तो इलाज़ शायद मारना ही बचा होगा। कहीं भी होंगे और झुंड में होंगे तो उपद्रव ही करेंगे। पहले एक उपाय सोचा था शहरों के बन्दरों का और उन्हें पहाड़ के जंगलों में छोड़ आये। अब वहाँ मुसीबत शुरू कर दी बन्दरों ने। आखिर इन्सान तो वहाँ भी रहते हैं। विदेशों में प्रयोग के लिये बन्दरों की मांग है, वहाँ भी भेजे जा सकते हैं। हम चाहें कि बन्दर बने भी रहें और हमें कोई परेशानी भी न हो, यह सम्भव नहीं।

बढ़िया लेख।