Tuesday, December 05, 2017

निकाय चुनाव: यूपी सही में क्या बोली?


उतर प्रदेश के नगर निकाय चुनावों में “विपक्ष का सफाया करने वाली विजय” का सिंहनाद करने के लिए भारतीय जनता पार्टी एक विजेता टीम मुख्यमंत्री योगी के नेतृत्त्व में गुजरात पहुंच रही है. वहां यह संदेश देना है कि भाजपा सरकारों को जनता कितना पसंद कर रही है और जो कांग्रेस गुजरात-विजय का दिवास्वप्न देख रही है वह राहुल गांधी की अमेठी में नगर निकायों की एक सीट नहीं जीत सकी.
क्या वास्तव में भाजपा ने उत्तर प्रदेश के नगर निकायों में विपक्ष का सफाया कर दिया है, जैसा कि उसके नेताओं के अलावा मीडिया का बड़ा तबका भी बता रहा है? क्या खुद विपक्ष ने, विशेष रूप से बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी ने, इन चुनाव नतीजों को गौर से देखा और विश्लेषित किया है? आखिर वे क्यों ईवीएम में गड़बड़ी करने का आरोप लगाकर खिसियानी बिल्ली खम्भा नोचेकी कहावत चरितार्थ कर रहे हैं?
विपक्ष को खिसियाने की कतई जरूरत नहीं है. उसे तो भाजपा से सवाल पूछना चाहिए कि आखिर वह सिर्फ 16 नगर निगमों के चुनाव नतीजों का प्रचार कर क्यों फूली नहीं समा रही? नगर पालिका परिषदों और नगर पंचायतों के परिणामों की बात क्यों नहीं कर रही? बल्कि, विपक्ष चाहे तो इन चुनाव नतीजों से संदेश ग्रहण कर 2019 के लिए भाजपा के मुकाबले साझा मंच बनाने की पहल कर सकता है. हैरत है कि न मायावती और न ही अखिलेश यादव ने इस तरह देखा और सोचा है. लगता है वे भाजपाई प्रचार के सामने असहाय-से हो गये हैं.
क्या कहते हैं नतीजे
सोलह नगर निगमों में मेयर के 14 पद भाजपा ने जीते हैं. पार्षदों के करीब 46 फीसदी पद भी उसे हासिल हुए हैं. यह निश्चय ही बड़ी जीत है लेकिन यह कोई नई बात नहीं. नगर निगमों में भाजपा का पहले से ही कब्जा रहा है. 2012 में जब न मोदी राष्ट्रीय परिदृश्य नें थे, न योगी और यूपी में शासन समाजवादी पार्टी का था, तब के 12 नगर निगमों में मेयर के दस पद भाजपा ने जीते थे. पार्षदों में भी उसी का बहुमत था. इसलिए इस बार की विजय विशेष नहीं जबकि मुख्यमंत्री योगी समेत पूरा मंत्रिपरिषद चुनाव प्रचार में जुटा था. अकेले योगी ने ही 26 चुनाव सभाएं कीं. अखिलेश यादव और मायावती दोनों ही प्रचार करने नहीं निकले.
बड़े शहरी क्षेत्र से बाहर निकल कर नगर पालिका परिषदों और नगर पंचायतों के नतीजों पर निगाह डालते ही भाजपा की प्रचण्ड विजय का दावा फीका पड़ने लगता है. नगर पालिका परिषदों के 198 अध्यक्ष पदों में सिर्फ 70 भाजपा जीत सकी. बाकी 128 पद निर्दलीयों और विपक्षी दलों के हिस्से आये. परिषद सदस्यों के 5261 पदों में मात्र 922 (17.53%) भाजपा जीती. यहां निर्दलीयों ने 3380 (64.25%) पद जीते. सपा, बसपा ने बहुत खराब प्रदर्शन नहीं किया. नगर पंचायत अध्यक्ष के 438 पदों में भाजपा को सिर्फ 100 (22.53%) पर जीत मिली. सपा ने 83, बसपा ने 45 और निर्दलीयों ने 182 (41.55%) पद हासिल किये. पंचायत सदस्यों के 5434 पदों में केवल 664 (12.22%) भाजपा ने जीते. निर्दलीयों ने 3875 (71.31%), सपा ने 453 और बसपा ने 218 पद जीते.
निश्चित ही भाजपा ने पिछली बार की तुलना में बेहतर नतीजे हासिल किये. सभी राजनैतिक दलों में वह शीर्ष पर रही लेकिन निर्दलीयों ने उसे बहुत पीछे छोड़ा. मोदी और योगी राज में पूरा जोर लगाने के बाद मिली यह जीत “विपक्ष का सफाया करने वाली” तो नहीं ही है. बल्कि 2014 के लोक सभा और इसी वर्ष मार्च में हुए विधान सभा चुनावों के परिणामों की तुलना में भाजपा का यह प्रदर्शन फीका ही कहा जाएगा.
मुस्लिम मतदाताओं का रुझान
लोक सभा और विधान सभा चुनाव में भारी पराजय झेल चुकी बसपा की निकाय चुनावों से वापसी हुई है. दो नगर निगमों के मेयर पद उसने भाजपा से छीन कर जीते और दो में दूसरे नम्बर पर रही. इससे साबित हुआ कि शहरी इलाकों में भी उसका प्रभाव बढ़ा है. एक और महत्त्वपूर्ण संकेत यह है कि भाजपा को हराने के लिए कुछ जिलों में मुसलमानों ने एकजुट होकर बसपा को वोट दिये. दलित-मुस्लिम एका से ही बसपा को बढ़त मिली. विधान सभा चुनाव में मायावती ने इसके लिए पूरा जोर लगाया था. क्या अब उस प्रयोग का असर हो रहा है? समाजवादी पार्टी के लिए यह चिंता की बात होगी. मुलायम सिंह यादव ने कुछ दिन पहले आगाह भी किया था कि पार्टी नेतृत्त्व मुसलमानों को अपने साथ बानये रखने के प्रयास नहीं कर रहा. असदुद्दीन ओवैसी की ऑल इण्डिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन ने भी पहली बार यूपी में अपना खाता खोला है. निकाय चुनावों में कई स्थानीय कारक महत्त्वपूर्ण होने के बावजूद मुस्लिम मतदाताओं के रुझान में परिवर्तन के संकेत इससे मिलते हैं.
समाजवादी पार्टी का प्रदर्शन नगर निगमों में खराब रहा लेकिन नगर पालिका परिषद और नगर पंचायतों में उसने ठीक-ठाक प्रदर्शन किया. पार्टी नेतृत्त्व ने पता नहीं क्यों इन चुनावों को गम्म्भीरता से नहीं लिया. अखिलेश यादव और दूसरे प्रमुख नेता चुनाव प्रचार के लिए निकले ही नहीं, जबकि भाजपा ने मुख्यमंत्री समेत सभी मंत्रियों को प्रचार में झौंक रखा था. मायावती ने भी न तो प्रचार किया और न ही मतदान. नतीजों के आधार पर भाजपा के दावों की पोल खोलने से भी उन्हें परहेज-सा है.
विपक्षी एकता के सूत्र
भाजपा के खिलाफ विपक्षी एकता की वकालत करने वालों के लिए ये नतीजे उत्साहवर्धक संदेश देते हैं. निकाय चुनावों में मतदाता का रुझान सर्वथा स्थानीय मुद्दों और सम्बंधों से तय होता है. इसके बावजूद ये नतीजे संकेत देते हैं कि यदि भाजपा के मुकाबले विरोधी दलों का महागठबंधन बने तो वह 2019 में उसे कड़ी टक्कर दे सकता है. सप-बसपा भी मिलकर लड़ें तो भाजपा की राह मुश्किल हो सकती है लेकिन इन दलों के साथ आने में रोड़े ही रोड़े हैं.
राज्य में पहली बार निकाय चुनाव पार्टी और चुनाव चिह्न के आधार पर लड़े गये हैं. पहले राजनैतिक दल निर्दलीयों को अपना बताने के दावे किया करते थे. इस बार उनकी जमीनी ताकत की तस्वीर खुली है. नगर पालिकाओं और नगर पंचायतों में 65-70 प्रतिशत निर्दलीय उम्मीदवार जीते हैं. 
उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की हालत सुधरने के संकेत अब भी नहीं हैं. निकाय चुनावों में उसका प्रदर्शन बहुत दयनीय रहा. सोनिया की रायबरेली ने लाज रखी लेकिन राहुल की अमेठी में कहीं उसके प्रत्याशी ही नहीं थे और जहां थे, वहां हार गये. वाम दलों ने भी कई प्रत्याशी उतारे थे. साबित यही हुआ कि उत्तर प्रदेश में उनका जनाधार समाप्त प्राय है. आपको भी कोई खास सफलता नहीं मिली.
(प्रभात खबर, 06 दिसम्बर, 2017)





1 comment:

सुरेश पंत said...

स्पष्ट है शासी दल केंद्र, राज्य या निकायों में बहुमत से नहीं, प्रतिपक्ष की फूट से शासन कर रहा है किंतु इससे सबक अब भी नहीं ले पाया। आप सही कह रहे हैं कि विपक्षी एकता के मार्ग में रोड़े ही रोड़े हैं।