Wednesday, February 28, 2018

‘इस्पाती ढांचा’ ढहने के गवाह थे टीएसआर सुब्रमणियन




कैबिनेट सचिव (अगस्त 1996- मार्च 1998) और उत्तर प्रदेश के मुख्य सचिव (दिसम्बर 1992-अगस्त 1994)  जैसे महत्त्वपूर्ण और प्रतिष्ठित पदों पर रहे टी एस आर सुब्रमणियन का देहांत स्टील फ्रेमकही जाने वाली आई ए एस सेवा के जुझारू सेनानी और सबसे बड़े स्तम्भ का ढह जाना है. उनके साथी और सहयोगी रहे अधिकारी यदि आज उन्हें “टॉलेस्ट अमंग टॉल” (विशालतम) कह कर श्रद्धावनत हैं तो इसके पर्याप्त कारण हैं. आईएएस जैसी प्रतिष्ठित सेवा पर राजनैतिक दवाबों, सेवा में फैलते भ्रष्टाचार और नेताओं की जी-हुजूरी की प्रवृत्ति तथा इस सेवा के आम जनता से विमुख होने के खिलाफ वे अंतिम समय तक लड़ते रहे.

दो दशक पहले सेवानिवृत्त हो जाने के बावजूद विभिन्न सरकारों के लिए वे कभी संकटमोचक बने तो आंख की किरकिरी भी. प्रशासनिक सुधारों की बात हो या देश की बदहाल शिक्षा-व्यवस्था को पटरी पर लाने की कवायद, सरकारों को कड़क, अनुभवी, समाज और सरकारी तंत्र में गहरी पैठ रखने वाले तिरुमणिलैयुर सितापति रमण सुब्रमणियन ही आद आते रहे.

शिक्षा-व्यवस्था में सुधार के लिए उनकी अध्यक्षता में बनी सुब्रमणियन समितिने 2016 में जो रिपोर्ट पेश की वह आमूल-चूल बदलावों के वास्ते दिये गये सुझावों के लिए चर्चित रही है, हालांकि उस पर ईमानदारी से पहल की इच्छा-शक्ति आज तक दिखी नहीं है.

यह टीएसआर ही थे जिन्होंने कई अन्य आला अधिकारियों के साथ मिलकर सुप्रीम कोर्ट में पी आई एल दायर की थी कि आईएसएस अधिकारी राजनैतिक नेताओं के मौखिक आदेशों का पालन करने के लिए बाध्य नहीं हैं. 
सर्वोच्च न्यायालय ने यह याचिका स्वीकार करते हुए ऐसा ही आदेश पारित किया था. सर्वोच्च न्यायालय ने तब केंद्र सरकार को यह भी निर्देश दिया था कि अधिकारियों के लिए एक पद पर निश्चित अवधि का कार्यकाल सुनिश्चित किया जाना चाहिए, ताकि बार-बार तबादलों से जनहित के कार्य अटकें नहीं.

बाबूराज और नेतांचल

श्री सुब्रमणियन ने अपनी आईएएस बिरादरी, अन्य बड़े अधिकारियों और मंत्रियों-विधायकों की पोल खोलने का काम भी खूब किया. रिटायर होने के बाद उन्होंने एक किताब लिखी- “जर्नीज थ्रू बाबूडम एण्ड नेतालैण्ड” जो 2004 में प्रकाशित हुई थी. 2006 में हिंदी में उसका अनुवाद ‘’बाबूराज और नेतांचल’’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ.

यह किताब इस बात का महत्त्वपूर्ण दस्तावेज है कि शुरुआत में बड़े सेवा भाव एवं ईमानदारी से भरे अधिकारी कैसे धीरे-धीरे बे‌ईमान और जन-विरोधी होने लगते हैं, कैसे नेता उन्हें भ्रष्ट बनाते हैं, नेता और अधिकारी मिल कर किस जनता के धन की लूट मचाते हैं, बहुत अच्छी योजनाओं-कार्यक्रमों का लाभ भी जनता तक क्यों नहीं पहुंचता, नेताओं का कृपापात्र बनकर मलाईदार पद पाने के लिए अधिकारी कैसे नेताओं के तलुवे चाटते हैं और ईमानदार अधिकारी किस तरह किनारे कर दिये जाते हैं.

यह सब उन्होंने अपने अनुभवों और उदाहरणों के साथ लिखा है. हम यहां उस पुस्तक की कुछ टिप्पणियों के साथ अपने लोक-विरोधी होते जा रहे लोकतंत्र और सड़ती व्यवस्था की झलक दिखाने का प्रयास कर रहे हैं.

लाखों कुओं की जगह सिर्फ झण्डे

1965 में श्री सुब्रमणियन उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले में तैनात थे. वहां सूखे की स्थिति से निपटने के लिए सरकार ने  बड़ी रकम के साथ लाखों कच्चे कुएं खोदने की योजना मंजूर की. इसके निरीक्षण का दायित्व 1941 बैच के आईसीएस अधिकारी एम ए कुरैशी को दिया गया था.

सुब्रमणियन लिखते हैं- “एक दिन मैं कुरैशी के आने से पहले गाजीपुर के समीप बलिया की सड़क से जा रहा था. सड़क के दोनों ओर बड़ी संख्या में लाल झण्डे लगे देखे. परियोजना अधिकारी से पूछा तो उसने बताया कि कुरैशी साहब ने हर नये खोदे गये कच्चे कुएं पर लाल झण्डा लगाने का आदेश दिया है. मैंने डपट कर कहा, लेकिन वहां तो कुएं हैं ही नहीं. मुझे बताया गया कि इससे क्या फर्क पड़ता है. कुरैशी साहब तो वाराणसी से अपने घर बलिया जाते वक्त सड़क से ही लाल झण्डे देख कर लाखों कुओं का निरीक्षण कर लेते हैं.”

वे आगे लिखते हैं- “ भारत में प्राकृतिक आपदा, दुखी और पीड़ित लोगों को छोड़कर सबको बड़ी प्रिय है. स्थानीय राजनेता और कर्मचारी ऐसे दुखद समय पर फूले नहीं समाते क्योंकि इससे उनकी छप्परफाड़ आमदानी के दिन आ जाते हैं. आखिर यह व्यवस्था ही ऐसी बनाई हुई है कि आम आदमी को छोड़कर सबके हित साधन का पूर्ण प्रबंध है.”

फर्जी लघु उद्योगों से मालामाल

उत्तर प्रदेश लघु उद्योग निगम के प्रबंध निदेशक रहने के दौरान भ्रष्टाचार के अनेक किस्से श्री सुब्रमणियन ने लिखे हैं, जिनसे पता चलता है कि लघु उद्योगों के विकास की बजाय अधिकारी और इंजीनीयर मालामाल हो गये. 

वे लिखते हैं- “निगम का एक काम लघु उद्योगों को सरकारी नियंत्रण वाला सस्ता कच्चा माल, लोहा और स्टील, आदि उपलब्ध कराना था. अनेक लघु उद्योग कागजों पर स्थापित किये गये थे. विभिन्न नामों और पते में थोड़ा अंतर करके पंजीकरण करा लिया जाता था. उनकी तरफ से कच्चे माल का कोटा मांगा जाता था. यह माल खुले बाजार में बेच दिया जाता था.”

“एक योग्य, ईमानदार आईएएसअफसर की नियुक्ति उद्योग विभाग के संयुक्त निदेशक के रूप में हुई थी. उसने व्यक्तिगत रूप से जांच कर बहुत सारी फर्जी ईकाइयों का पंजीकरण निरस्त कर दिया. एक शाम उस युवक के घर कई हमलावर घुसे और उस पर चाकुओं से हमला कर दिया. कई दिन अस्पताल में रहकर वह बच तो गया लेकिन अपने पद की असली जिम्मेदारी वहन करने की क्षमता उसने खो दी.”

पदलोलुपता के दृष्टांत

इमरजेंसी (1975-77) के दौरान और उसके बाद भी कुछ समय तक श्री सुब्रमणियन उत्तर प्रदेश में नियुक्ति विभाग के सचिव थे.  इस दौरान अच्छी कुर्सी पाने और उस पर टिके रहने की आईएएस अधिकारियों की तिकड़मों के किस्से उन्होंने बयान किये हैं. एक प्रकरण मुख्य सचिव की कुर्सी का है. तत्कालीन मुख्य सचिव महमूद बट सरकारी काम से नैरोबी गये थे. उनके लौटने से पहले ही कृपा नारायण श्रीवास्तव को नया मुख्य सचिव बनवाने का आदेश जारी करने के लिए श्री सुब्रमणियम से कहा गया.

श्री सुब्रमणियम ने लिखा है- “मैंने मुख्यमंत्री के सचिव श्री धर से साफ कह दिया कि जब तक मुख्यमंत्री के लिखित हस्ताक्षरित आदेश नहीं मिलेंगे तब तक औपचारिक आदेश जारी नहीं किया जा सकता. (मुख्यमंत्री का लिखित आदेश आ जाने के बाद) मैंने श्री श्रीवास्तव को सुझाव दिया कि आपको कार्यभार सम्भालने से पहले एक रात रुक कर श्री बट से मिलना चाहिए. पर श्रीवास्तव तो आदेश मिलने के एक मिनट बाद ही मुख्य सचिव के कक्ष में जाकर कुर्सी पर जम गये. उन्होंने मेज की दराजें खाली करके कागजात रात में ही श्री बट के घर भिजवा दिये. यह अशिष्टता की पराकाष्ठा नहीं तो और क्या था?”

गिरगिट भी शरमा जाए.

इमरजेंसी हटने के बाद हुए चुनाव में राम नरेश यादव के नेतृत्त्व में जनता पार्टी की सरकार बनी. श्री सुब्रमणियन के अनुसार- “नयी सरकार के आते ही प्रशासन का पूरा चरित्र बदल गया. इमरजेंसी के अत्याचारों का जयकारा बोलने वाले अब दूसरा मुखौटा लगा कर आ गये. अपने स्वार्थ के लिए वे ऐसे रंग बदलते हैं कि गिरगिट भी शरमा जाये. यही कारण था कि श्रीवास्तव नयी सरकार में भी मुख्य सचिव बने रहे.”
यू पी के राज्यपाल रहे चेन्ना रेड्डी के देर शाम राजभवन में महिला-मिलन का उल्लेख करते हुए उन्होंने लिखा है कि “मुझे यह कहते हुए दु:ख हो रहा है कि उन आगंतुकों में कुछ अधिकारियों की स्त्रियां भी होती थीं.”    

आप मेरे जूते क्यों चाटते हो

लम्बे समय तक दिल्ली और जिनेवा में विभिन्न जिम्मेदारियां सम्भालने के बाद 1990 में श्री सुब्रमणियम उत्तर प्रदेश लौटे. उस वर्ष आयोजित आईएएस सेवा सप्ताहका जिक्र करते हुए उन्होंने लिखा है- “मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री की हैसियत से मुख्य अतिथि थे. लगभग दो सौ आईएएस अधिकारियों को सम्बोधित करते हुए उन्होंने जो कहा उसने मेरी नींद उड़ा दी.

“उन्होंने जो कहा वह इस प्रकार है- आपके पास श्रेष्ठ दिमाग और शिक्षा है. आपमें से कुछ बड़े विद्वान हैं. कुछ तो ऐसे विद्वान हैं जिनके पास नोबेल पुरस्कार जीत सकने लायक दिमाग है. आपके पास बढ़िया नौकरी है. आप बच्चों को अच्छी शिक्षा दिला सकते हैं.(फिर आवाज ऊंची करते हुए) फिर आप मेरे पास आकर मेरे पैर क्यों छूते हो? मेरे जूते क्यों चाटते हो? अपने व्यक्तिगत हित के लिए आप मेरे पास क्यों आते हो? यदि आप ऐसा करोगे तो मैं आपकी इच्छानुसार काम कर दूंगा और फिर आपसे अपनी कीमत वसूलूंगा.

“यह विस्मयकारी वक्तव्य था. इसने सारगर्भित ढंग से स्थिति का सारांश प्रस्तुत कर दिया और इस इस्पाती ढांचे के ढहने का सटीक कारण बता दिया.”

श्री सुब्रमणियन का यह भी निष्कर्ष है- “अधिकतर नौजवान अधिकारी मध्यम दर्जे के नहीं होते. वे योग्य, होनहार, उत्साही तथा कार्य के प्रति पूर्णत: समर्पित होते हैं. स्थानीय दवाबों से निपट सकने की क्षमता के साथ उनमें सच्चाई, समझ और ज्ञान की शक्ति होती है..... किंतु प्रशासनिक वातावरण शीघ्र ही उन्हें आदर्शवादी लोकसेवक से तुच्छ और स्वार्थी बाबुओं में बदल देता है.”
(http://thewirehindi.com/35497/demise-of-former-cabinet-secretary-tsr-subramanian/

Monday, February 26, 2018

जोहारदा से माफी, द.ग. दयाकृष्ण तेवाड़ी-2

(पिछली किस्त से आगे-)


लेकिन यह प्रसंग तो जोहारदा का है.

तो, वह रुक्का जब दूसरी बार पढ़ा तब जोहारदा सामने आ खड़ा हुआ. आहा! यह जौहर राम पुत्र झुस राम तो हमारा वही जोहारदा है. अच्छा, तो उसका नाम जौहर राम था, जैसा कि पं दया कृष्ण तेवाड़ी जी ने लिखा है! या हो सकता है उसका नाम जवाहर राम हो, जो बोलचाल में जौहर राम या जोहार राम हो गया हो. यह भी उसी दिन जाना कि अल्मोड़ा और पिथौरागढ़ जिले की सीमा हमारे गांव को विभाजित करती थी. नया जिला बनने पर हम पिथौरागढ़ जिले में आ गये और आधा किमी दूर जोहार दा का आमड़ अल्मोड़ा जिले में रह गया था. खैर.

सामान्यतया वह जोहारदा ही कहलाता था. ठेठ गंवई उच्चारण में उसके समवय लोग उसे ज्वेहरीकहते थे. कम उम्र वाले कभी उसे ज्वेहरी कह बैठते तो सयाने लोग डांट देते थे- “जोहारदा नहीं कह सकते, तुम्हारे बड़बाज्यू सानिक है वह.लेकिन उसे जोहार बड़बाज्यू नहीं कहा जाता था, जैसा कि हम अपने दादा की उम्र के लोगों से कहते थे. बहरहाल, बड़े लोग भी उसका नाम सम्मान से लेते थे.

अच्छा, तो जोहारदा उस रुक्के से बंधा हुआ हमारा हलवाहा था! उससे पहले कोई जीतराम हमारा हलवाहा था, किसी बाहर गांव का, जो सारे रुक्के छोड़कर कहीं भाभर की तरफ चला गया था. उसकी बहुत धुंधली याद है. उसके जाने के बाद ही बाबू ने जोहार दा को इस रुक्के से बांध कर अपना हलवाहा बनाया होगा. जोहारदा का परिवार हमारे गांव का एक मात्र शिल्पकार परिवार था. छोटे-बड़े चार लड़कों, दो लड़कियों और अपनी पत्नी के साथ वह ऐसे कितने ही रुक्कों से बंधा हुआ होगा. उसके सभी लड़के हल चलाते थे. सिर्फ तीसरे नम्बर के लड़के ने शायद इण्टर तक पढ़ाई की थी और बाद में शहर जाकर नौकरी भी. बाकी सब गांव में रह कर हल चलाते, मजदूरी करते या कभी जंगलात की कटान-चिरान में चले जाते. मुझसे उनकी मुलाकात हर साल गर्मी की छुट्टियों में गांव जाने पर ही होती.

जोहारदा का सबसे छोटा लड़का बहादुर कुछ परिवारों के जानवर चराने जंगल ले जाता था. जब कभी मैं ग्वालों के साथ जंगल जाता तो देखता कि दूसरे ग्वाले उसे दिन भर खूब सताते थे. वे सब कहीं बैठ कर ताश खेलते या हुक्का-बीड़ी पीते और बहादुर को दौड़ाते रहते. वह सबके जानवरों को देखता. कभी उससे कहते- ओ डूम, जा उस गांव से नाशपाती चुरा ला.’ कभी आड़ू  मंगवाते. दिन भर वह उनके आदेशों पर दौड़ता रहता और पकड़ा जाने पर मार या गालियां खाता. एक दिन उसने किसी काम से मना कर दिया तो सबने मिलकर उसकी पिटाई की और गला दबा कर उसके खुले मुंह में बारी-बारी से थूका. बहादुर को रोता छोड़ वे सब एक गधेरे के पानी से शुद्ध होने गये थे.

हर परिवार चाहता था कि उसके खेतों की बुवाई जोहारदा ही करे.

-जोहरा!स्त्रियां उससे निवेदन करतीं- एक-दो दिन बाद आना, लेकिन आना तू ही, हां! किसी लड़के को झन लगा देना.

उसका कोई बेटा जुताई करने आ जाता तो लोग सतर्क हो जाते. बैलों को ऐसे मत मार खिमुआ,’ उनको बार-बार कहना पड़ता- तेरा बौज्यू बैलों को एक सिकड़ा नहीं लगाता. तूने सुबह से चार सिकड़े तोड़ डाले.

जोहारदा की बात ही कुछ और थी. बैल उसके इशारे पर चलते थे और हल का फाल खेत को फर-फर ऐसे चीरता था कि मजाल है जो दो स्यूके बीच अनजुती जमीन रह जाए. बड़े-बड़े मरकहे बैल गांव में थे, जिनको उनके किल (खूंटे) पर सिर्फ उनकी गुस्याणी बांध सकती थी और  जिनके कंधे पर जुआ सिर्फ जोहारदा रख सकता था. कुछ बैल ऐसे पाजी थे कि जुते-जुते बीच खेत में बैठ जाते. जोहारदा जानता था कि किस बैल को सिर्फ पुचकार कर खड़ा किया जा सकता है और कौन भ्यरहाननाक में  मिर्च ठूंसे बिना उठता ही नहीं. 
जोहारदा जानता था कि किसके खेत कहां-कहां हैं. वह हर ओड़ापहचानता था और यह भी किस खेत में किस जगह मिट्टी के नीचे बड़ा पत्थर है जो सावधान न रहने पर नश्यूड़तोड़ डालता है.

दरअसल, जोहारदा सिर्फ हलवाहा नहीं, अनुभवी, निष्ठावान और समर्पित किसान था. खेत में बीज वह इस खूबसूरती से छिड़कता था कि पौधे बराबर दूरी पर सिलसिलेवार उगते. उसकी बोई फसल अलग से पहचान में आ जाती. वह मौसम का रुख और मिट्टी की तासीर पहचानता था.

-‘जोहारदा, मडुवा भाड़ने का समय नहीं हुआ अभी?’ स्त्रियां पूछतीं. प्रवासी पतियों की अनुपस्थिति में घर-गृहस्थी से लेकर खेती-बाड़ी तक सब उन्हीं की चिंता जो ठहरी. इसलिए वे जोहारदा से सलाह करती रहतीं. जोहारदा आसमान की तरफ देखने के बाद कहता- पहा.. अभी जल्दी मत मचाओ, ये बादल तो चल-बसंत हुआ..

-जोहारदा, धान पिछड़ रहे हैं, कब बोओगे?’ वह एक लकड़ी या अंगुली से खेत की मिट्टी खुरचता. नमी की गहराई जांचता, फिर सलाह देता. पहा...दो-चार घाम खाने दो अभी मिट्टी को.

पहाउसका तकिया कलाम था, जिसके बिना शायद ही एक वाक्य पूरा होता हो.

वर्षा पिछड़ जाती तो वह गांव भर के लिए परेशान होता. आसमान की ओर देख कर बुदबुदाता- क्या मंशा है, पहा... नहीं खाने देता अबकी?’ रास्ते चलते वह खेतों की जांच करता रहता. अंगुली से खोद कर उगते बीजों के अंकुर खोजता और खेत मालिक के दरवाजे पर हाजिर हो जाता- तुम्हारा बीज कुछ खराब लगता है... पहा... थोड़ा-सा अच्छा बीज मंगा कर भिगा देना. दन्याले के समय छिड़कना पड़ेगा.अच्छा बीज किसके यहां बचा है, यह सुराग भी वही देता- यो, पहा... सुबदार ज्यू की बौराणी के पास बचा है बिलाड़ (धान की एक किस्म) का अच्छा बीज.

उस उपराऊं और पथरीली जमीन पर फसल ससुरी अपनी ही जैसी होती थी मगर जोहारदा अपना सारा ज्ञान और अनुभव बांटता फिरता था. इसीलिए तो सब चाहते थे कि हल-दन्याला लगाने उनके यहां जोहारदा खुद आये. वह आता तो सारी चिंता मिट जाती.

परन्तु जोहारदा तो एक ही था न!

बस, एक चीज थी जहां जोहारदा बेईमानी कर बैठता था. वह खाने का बहुत शौकीन था और गुस्याणियों के हाथ का स्वाद पहचानता था. बुवाई के व्यस्त दिनों में जब हर घर से जोहारदा की मांग होती तो वह खुद किसके घर जाएगा, यह सम्बद्ध मालकिन की रसोई की प्रसिद्धि पर निर्भर होता. कुछ घरों के लिए वह नाक-भौं सिकोड़ कर खुश-पुश करता- उनके यहां तो , पहा... मुझसे खाया नहीं जाता. ऐसे लोगों के खेतों में वह बेटों को लगा देता. कभी खुद फंस गया तो वहां खाने के बदले बैकर (अनाज) ले आता. रोटियां उसे पसंद नहीं थीं. रोटियों की भी क्या खवाई’, वह कहा करता. स्त्रियां कहतीं- जोहारदा को खिलाना आसान नहीं.

हमारे घर में एक बड़ी थाली थी, परातनुमा. उसका नाम ही जोहारदा की थाली था. दोपहर में बैलों को चारा-पानी के लिए खोल कर, हाथ-मुंह धोकर, अंगोछे की लंगोटनुमा धोती बांध कर वह चाख का एक कोना लीपता और जीमने के लिए जम जाता. तब ईजा उसकी थाली में ढेर सारा भात और भटिया परोस कर रख देती. धिनाली होती तो थोड़ा-सा दही और घी भी, जिसका उसे बेसब्री से इंतज़ार रहता. भुटी खुश्याणी तो होती ही. कभी हम छुप कर उसका खाना देखते रहते. वह बहुत इतमीनान, चाव और श्रद्धा से खाता. रसोई में जब भात की तौली और भटिया का भदेला आधा हो जाता तो ईजा धीरे से कहती अब जोहारदा को एक डकार आएगा. ऐसा ही होता. फिर उसकी थाली में और खाना परोसा जाता.

-पहा-पहा... आनंद हो गयावह कहता. खा कर वह फिर उस कोने को लीपता, बाहर जाकर थाली मांजता और चाख के उसी कोने में औंधी करके रख देता. ईजा पानी के छीटे डाल कर उन्हें वहां से उठाती और चमचमाती थाली को फिर से मांजती.

पानी के छींटे डालना और उसके मांजे बर्तनों को फिर से मांजना हमें विचित्र लगता लेकिन हर बार ऐसा ही होता. खेत में चाय जाती तो जिस गिलास में जोहारदा चाय पीता, उसके साथ भी यही होता. पानी के छींटे डाले बगैर, उसके मांज देने के बावजूद उसे छुआ नहीं जाता था. रास्ते चलते सामने से कोई आ जाता तो जोहारदा काफी दूर से ही पगडण्डी छोड़ कर ऊपर-नीचे हो जाता, चाहे उसे सिंसौण के भूड़ या कांटों पर ही पैर क्यों न टिकाने पड़ते. मगर जब गांव में किसी को छल-छितर लग जाता, कोई झसकजाता तो इस अस्पृश्य जोहारदा ही को पुकारा जाता.

-‘ओ जोहारदा!...जोहारदा रे!.... ताल मोल परुली की इजा को छल-छितर ने झसका दिया, रे!... जल्दी आकर इसे झाड़ जा, रे’.  जोहारदा अपना काम छोड़ कर आ जाता. नब्ज देखता और जोर की टुकाव छोड़ कर छल-छितर भगा देता. उसकी दो-चार टुकाव से झसके मरीज कांपना बंद कर आंख खोल देते. जोहारदा चला जाता तो वहां मौजूद सब लोगों पर पानी के छींटे डाले जाते. कुछ औरतें गोठ जाकर गोमूत्र अपने सिर पर डालतीं.

जोहार दा एक और काम में उस्ताद था- बछड़ों को बैल बनाने में. जवान होते बछड़े के पैर बांध, उसे जमीन पर लिटाकर वह एक गंगलोड़े (नदी का गोल पत्थर) पर उसकी वृषण-थैली टिका कर दूसरे गंगलोड़े से उस पर सधी चोट मारता. बछड़ा तड़पता जिसे गांव के कई पुरुष जकड़े रहते. किसी नस-विशेष को वह पत्थर की चोट से काट देता और कटे वृषण-कोश में दाल व मसालों का लेप लगा देता. बछड़े की नसबंदी की यह बड़ी अमानवीय प्रक्रिया थी लेकिन गांवों में यही प्रचलन में था. उस दिन जोहारदा की दावत होती. उसके जाने के बाद सभी लोगों पर पानी व गोमूत्र के छींटे डालना नहीं भूला जाता.

वह सयाना था, सम्मानित था, गांव वालों का भूत-भय भी भगाता था, फिर भी उसका स्पर्श सवर्णों को पता नहीं कैसे गंदा या अपवित्र करता था कि पानी के छींटे हर बार जरूरी हो जाते थे.

मुझे जोहारदा की पत्नी की भी हलकी-सी याद है. शायद सरुली नाम था उसका. जोहारदा की तरह वह भी बहुत सीधी और विनम्र थी. बहुत मीठा था उसका बोलना. वह अक्सर बीमार रहती थी. ज्यादा बीमार होने की खबर मिलती तो गांव की औरतें घास-लकड़ी के लिए जंगल जाते हुए घर के आंगन से दूर रुक कर पूछतीं- सरुली कैसी हो?’

-ऐसी ही हूं, गुस्याणी! तुम ठीक हो? बच्चों की चिट्ठी आयी? कैसे हैं, घर कब तक आ रहे हैं?’ वह अपना हाल भूल कर सबका हाल-चाल लेती.

इतनी आत्मीयता के बावजूद सरुली अस्पृश्य थी. ब्राह्मणी उसके दरवाजे पर पड़े अपने ही घर के जैसे मैले-फटे बोरे पर बैठना तो दूर उसे छू भी नहीं सकती थी. दूर से खड़े-खड़े दु:ख-सुख पूछा जाता.
नौकरी पर जाते-आते लोगों का बोझा ढोने से लेकर पत्थर खोदने और लकड़ी चीरने के कामों में जोहारदा का परिवार सर्व-सुलभ था. उनके साथ गांव के गरीब सवर्ण स्त्री-पुरुष भी मजदूरी करते. सबको बराबर मजदूरी मिलती, परंतु जोहारदा के परिवार को पानी के छीटों का जो अतिरिक्त व्यवहार मिलता, वह निश्चय ही अपमानजनक था.

पता नहीं जोहारदा इस अपमान को महसूस करता था या नहीं, लेकिन मैं चाहता था कि उसे इस बात पर गुस्सा आये, जो कि उसे कभी आया नहीं.  उसे तब गुस्सा आता था जब कोई बैलों को ठीक से खिलाये-पिलाये बिना हल में जोतने के लिए भेज देता था  या जब कोई उसकी जुताई-बुवाई में बेवजह खोट निकालने लगता था. अपनी सामाजिक स्थिति पर उसे कभी गुस्सा नहीं आया.   

बाद में एक समय ऐसा आया जब पड़ोस के गांवों के युवा शिल्पकारों ने ज्यादा मजदूरी मांगनी शुरू की और कुछ ने हल चलाना ही छोड़ने का ऐलान कर दिया. तब हलवाहे के संकट से त्रस्त उस इलाके के ब्राह्मणों को स्वयं हल की मूंठ पकड़नी पड़ी थी. तब भी जोहारदा में कोई परिवर्तन नहीं आया. न उसने ज्यादा मजदूरी मांगी, न ही हल चलाने से इनकार किया. बल्कि, परदेसी पतियों वाली स्त्रियों का, जो खुद हल चलाने में कतई असमर्थ थीं, वह मददगार बना रहा. अनाड़ी हाथों से हल चलाते किसी ब्राह्मण को देख कर वह निर्मल हंसी हंसता- छोड़ो-छोड़ो... पहा... तुमसे नहीं होगा.’ कुछ पल देखते रहने के बाद वह किसी अनुभवी सुयोग्य प्रशिक्षक की तरह बिन मांगी सलाह देने लगता- ऐसे-ऐसे... पहा.. . जरा तिरछा करो नश्यूड़ को...ब्राह्मण देवता के अनाड़ीपन पर उसके काले झुर्रीदार मुंह में एक स्मित नाच उठती. उस मुस्कान में परपीड़क संतोष नहीं, जमाने की रफ्तार पर अफसोस और कौतुक ही होता.
जमाना गुजर गया.

कभी-कभी गांव जाने पर जोहारदा से भेंट होती. उसका बड़ा लड़का भाबर जाकर बस गया. लड़कियां शादी होकर चली गईं. सबसे छोटा लड़का पढ़-लिख कर शहर में नौकरी करने चला गया और फिर लौटा नहीं. जोहारदा में विशेष फर्क नहीं आया था. उम्र उसके चेहरे पर जितनी छप सकती थी, छप चुकी थी. वह किसी उम्रदार पेड़ की तरह दिखायी देता. बीमार पत्नी उसे जीवन-समर में काफी पहले अकेला कर गयी थी.

मैं नहीं जानता कि मरने के पहले जोहारदा कैसा हो गया था- जर्जर और लाचार, या कि बूढ़े पेड़ की तरह एक रोज वह अचानक ही ढहा होगा. उसकी मौत के बरसों बाद, 1990 में अपने छूटते हुए गांव-घर के उसी चाख में बैठा था मैं, जिसके एक कोने में जोहारदा की बैठी जगह पर और उसके मांजे बर्तनों में ईजा पानी के छींटे डालती थी. मेरे हाथ में वही रुक्का था, जिस पर जोहारदा के अंगूठे की निशानी थी, . क. दया कृष्ण तेवाड़ी.
इस रुक्के के लिए मैं बहुत शर्मिंदा हुआ था, उस दिन. आज भी उस रुक्के पर नजर पड़ जाती है तो अपराधग्रस्त होता हूँ. क्षमा मांगता हूँ.
माफ करना जोहारदा.

और, आदरणीय पं. दया कृष्ण तेवाड़ी जी, अपने बुजुर्गों की तरफ से लिखे गये मेरे इस माफीनामे पर द. ग. के लिए आप थोड़ी देर को भी उपलब्ध नहीं हो देंगे?

कहीं से कोई जवाब नहीं आता. अब गांव से कोई चिट्ठी भी नहीं आती. दो-चार परिवारों को छोड़ कर सारा गांव खाली हो गया. बंद पड़ी बाखलियां खन्यार हो रहीं, बल. जिन खेतों में जोहारदा जुताई करता था, वहां जंगल उग आया, बल. बन्दरों-सुअरों के आतंक के कारण वे चंद परिवार भी खेती नहीं कर पाते, बल. महीनों में कभी किसी से मोबाइल पर बात हो जाती है.

इस बातचीत में जोहारदा या उसके परिवार का कोई जिक्र नहीं आता. (समाप्त)

Saturday, February 24, 2018

जोहारदा से माफी, द.ग. दयाकृष्ण तेवाड़ी-1



-, शैपो! मेरी फोटू क्या उतारते हो, इन भिदड़ों की! सुंदर-सुंदर फूल-पत्ती की उतारो, वो वहां!

वर्षों पहले जब में कक्षा आठ या नौ में पढ़ता था, गुल्लक में बचाए रुपयों से अत्यंत साधारण क्लिक-3 कैमरा लेकर गर्मी की छुट्टियों में गांव गया था. गांव के बाहर ही, पगडण्डी के पास वाला हमारा खेत जोतते हुए वह मिला था. मैं दो-तीन खेत फलांग कर सीधे उसके सामने जा खड़ा हुआ. बाएं हाथ में पकड़ी सण्टी के इशारे से बैलों को हाँकते और दाहिने हाथ से हल की मूंठ पकड़े, हल के फाल को करीने से जमीन में दबाये हुए. अचानक मुझे सामने देख वह चौंक गया था. अचकचा कर उसके रुकते ही बैल भी थम गये थे.

-कैसे हो, जोहारदा?’ मैंने पूछा तो झुर्रियों-भरे उसके चहेहरे पर परिचय की मुस्कान थिरक उठी- ओहो, पहा... कब पहुंचे? अभ्भी? अच्छे हो आप?’

-ठीक हूँ, जोहार दा. तुम कैसे हो?’

- , ठीक ठैरे... यही करना ठैरा हमने.उसने हल की मूंठ फिर सम्भाली- हरदज्यू कैसे हैं? पहा...वह तो असौज में ही आने वाले ठहरे, ना.... हौ-हौ... .बैलों को हाँकते हुए वह बाबू के बारे में पूछ रहा था.

मैंने तत्काल टोका- रुक जा, जोहारदा, तुम्हारी फोटो खींचता हूँ. तुम ऐसे ही बैलों को हाँकते हुए खड़े रहो.
तब उसने कहा था- , शैपो... मेरी फोटो क्या उतारते हो, इन भिदड़ों की!

लेकिन उस दिन मैंने उसकी फोटो खींची थी, उन्ही भिदड़ों में. 120 एम एम की फिल्म का निगेटिव आकार का वह फोटो मेरे बचपन की अलबम में आज भी सुरक्षित है. श्वेत-श्याम, थोड़ा धुंधला लेकिन हल में जुते बैलों के पीछे खड़े, एक हाथ में सण्टी पकड़े जोहारदा की किंचित विस्मय और मंद स्मित वाली फोटो. वक्त के साथ तनिक पीताभ होता हुआ. बाद की गांव यात्राओं में मैंने बेहतर कैमरों से उसकी और भी फोटो खींची, उसके चेहरे की एक-एक झुर्रियों को उभारती हुई लेकिन उस हलकी धुंधली-पीली फोटो की तरह और कोई तस्वीर जीवंत नहीं है. उस फोटो को देखते ही हल की मूंठ पकड़े जोहारदा बोल उठता है.

बरसों हो गये जोहारदा को मरे हुए. यहीं लखनऊ में सुना था. उन दिनों भूले-भटके गांव से जो कोई चिट्ठी आ जाती थी, उसी में लिखी होती थीं गांव की सारी खबरें. किस-किस का ब्याह हुआ, किस-किस के बच्चे हुए, कौन-कौन गांव छोड़ गया, कौन रिटायर हो कर आ गया और कौन गुजर गया. मुझे नहीं, ईजा-बाबू को सम्बोधित होती थीं वे चिट्ठियां, जिनका हंस-पराण शहर में आ बसने की मजबूरी के बावजूद पहाड़ के उस दुर्गम गांव में ही अटका रहता था. उन चिट्ठियों में हरेक का जिक्र होता था जिससे इजा-बाबू की यादों की गठरी खुल जाती थी. वे नराई से भरे देर-तक गांव-घर के उन लोगों की बातें करते रहते थे.  ऐसी ही एक चिट्ठी में जोहारदा के नहीं रहने की खबर आयी थी.

-‘शिबौ, जोहार भी मर गया बलईजा ने अपने कमरे में चिट्ठी पढ़ते हुए बाबू से कहा था और मैं अपने कमरे में जाने क्या करते हुए स्टेच्यू बन गया था.

- आहा, बहुत ही सीधा आदमी था. कितनी सेवा की उसने गांव भर की...बाबू कह रहे थे.

- भौतै भल मैंसईजा ने जोड़ा था कि बहुत ही भला मानुष था.

फिर वे दोनों मौन हो गये थे. मैं जान रहा था कि वे जोहारदा की स्मृतियों में खो गये थे. इधर मैं अपनी अल्मारी खोल कर अपने स्कूली दिनों का अलबम तलाशने लगा था. जोहारदा की मौत की खबर ने मुझे उस फोटो की याद दिला दी थी.  अलबम के पन्ने पलटते ही उस छोटे-से, धुंधले-पीताभ फोटो से जोहार दा बोल उठा- , शैपो... मेरी फोटो क्या उतारते हो...उस दिन और उसके बाद भी कई दिन तक जोहारदा मुझे तरह-तरह से याद आता रहा था.
.......

कई बरस बाद, 1990 की वह गर्मियां. तब बाबू को गुजरे भी छह वर्ष हो गये थे. गांव में छूट गये पुश्तैनी मकान को और भी छोड़ देने के लिए लखनऊ से  हम सपरिवार पहाड़ गये थे. पारिवारिक देवों, ग्वल्ल-गुसैं को नांय (ढोक, पूजा) देने के बाद हम मकान के ओने-कोने में ठुंसे सामान की तलाशी-सी ले रहे थे. उन पुराने बक्सों के भीतर से निकले कुछ कागज-पत्तरों से अचानक जोहारदा निकल कर सामने खड़ा हो जाएगा, इसकी दूर-दूर तक कल्पना नहीं थी. उस समय वह हमारी यादों की ऊपरी परतों में कहीं था भी नहीं.
लोहे के एक पुराने बक्से में भरी जाने कब की कॉपियों, चिट्ठियों और कागजों के ढेर की उखेला-पुखेली में एकाएक ही यह रुक्का मेरे हाथ लग गया था-

“ मैं कि जौहर राम पुत्र झुस राम ग्राम आमड़ पट्टी कमस्यार जिला अल्मोड़ा वाले ने तुम श्री हरीदत्त पुत्र गोपालदत्त ग्राम रैंतोली पट्टी वल्ला अठिगांव जिला पिथौरागढ़ जी से काम जरूरी के वास्ते एक सौ रुपये (100) कर्ज लिये. इन रुपयों के सूद के बजाय हल दन्याले का काम कर दूंगा काम नहीं कर सका तो रुपये अदा कर दूंगा सनद के लिये टिकटसुदा रुक्का तुमको लिख दिया
नि. जौहरराम पुत्र झुसराम
ब.क. दया कृष्ण तेवाड़ी रैंतोली
दि 26-12-71”

दस पैसे का रसीदी टिकट, साथ में दस पैसे का रिफ्यूजी रिलीफ टिकट और दोनों पर बड़ा-सा स्याही छाप वाला अंगूठे का निशान.

, रुक्का पढ़कर तुरंत जोहारदा याद नहीं आया. पहले याद आया रिफ्यूजी रिलीफ टिकट” जो बांग्लादेश युद्ध के बाद भारत आए लाखों शरणार्थियों के कारण देश पर पड़े आर्थिक बोझ को नागरिकों पर डालने के लिए तत्कालीन इंदिरा सरकार ने लगाया था.

फिर याद आये ब.क. यानी बकलम दया कृष्ण तेवाड़ी. निगाल की कलम वाली वह हस्तलिपि पहचानने में देर नहीं लगी. रिश्ते से मेरे भिनज्यू (फूफा जी) और मेरे पहले शिक्षक. मैं जब तक गांव में रहा, तीन-चार किमी दूर प्राइमरी स्कूल में नहीं भेजा गया, जहां गांव के ज्यादातर लड़के जाते थे. यही भिनज्यू, दया कृष्ण तेवाड़ी मुझे घर आकर पढ़ाते थे. वे हमारी करीबी नदुली बूबू (बुआ) के पति, अवकाशप्राप्त अध्यापक, घर जंवाई के रूप में हमारे पड़ोस में रहते थे.

नदुली बूबू के नाम से चार और बूबुओं की याद आ गयी. सबसे पहले मुसै बूबू जो ठीक हमारे पड़ोस में रहती थी. ऊखल वाली छोटी-सी कोठरी थी उसका ठिकाना. वह बहुत चतुर और इधर की उधर करने वाली मानी जाती थी. महिलाएं उसके सामने बात करने से घबराती थीं. किसी भी घर की गोपनीयता उघाड़ देने में उसे महारत हासिल थी. पता नहीं उसका असली नाम क्या था. कद में बहुत छोटी लेकिन कतर-ब्योंत में माहिर होने के कारण ही उसको मुसै’ (चुहिया) कहते होंगे. अनुली और देबुली बूबू हमारे घर से दूर गांव के पार वाले हिस्से में रहती थीं. वे बहुत मीठा बोलती और सबसे प्यार करती थीं. परदेसी बच्चों को गले लगा कर लाड़ करतीं. गांव की अकेली महिलाओं का रात-बेरात साथ देना, हारी-बीमारी में साथ रह जाना जैसे उनकी ड्यूटी हो. चौथी, नदुली बूबू थी जो अपने कमरे या मकान की सीढ़ियों में ही बैठी रहती. वे बहुत चिढ़-चिढ़ी थीं और जाने किस-किस को क्यों गाली बकती रहतीं. उनकी एक बहू साथ में रहती, जिसका पति परदेश में नौकरी में था. बहू नदुली बूबू की सेवा करती मगर सास से हर समय गालियां खाती. गुस्सा आ जाने पर बहू भी खूब सुनाती. दूसरा बेटा-बहू गांव नहीं आते थे. इन्हीं नदुली बूबू के पति थे मेरे पहले मास्टर साहब दया कृष्ण तेवाड़ी. बाकी चारों बूबू बाल विधवा या परित्यक्ता थीं, इसलिए भाइयों ने उन्हें मायके में शरण दे रखी थी. लेकिन नदुली बूबू क्यों सपरिवार अपने मायके में बसीं, इस पर हमने कभी ध्यान नहीं दिया.

जिस साल गर्मियों में हैजे से मुसै बूबू की मृत्यु हुई, तब मैं गांव में था. किसी तरह उसकी ससुराल खबर भिजवाई गई. कुछ दिन बाद उसका एक भतीजा आया और उसकी गठरी-वठरी समेट ले गया. उस ससुराल में, जहां मुसै बूबू कभी नहीं रही या शादी के बाद कुछ दिन रही होगी, उसकी गति-क्रिया की गई, उसका श्राद्ध करके छूत बहाई गई. उसके नाम पर दान-दक्षिणा और भोज दिया गया. जीते जी उसकी कभी कोई खबर नहीं लेने वाले ससुरालियों ने यह सब इसलिए किया कि उन्हें उसका भूत परेशान न करे. मायके में जहां उसने पूरा जीवन बिताया, सुख-दुख में परिवारों का साथ दिया, वहां किसी को न छूत लगनी थी, न भूत ने तंग करना था. अनुली-देबुली बूबुओं के साथ भी ऐसा ही हुआ होगा. नदुली बूबू भाग्यशाली थी कि वह मायके में भी अपने परिवार के साथ थी.  

तेवाड़ीजी बहुत बूढ़े किंतु सख्त मास्टर थे और जरा-सी गलती पर दोनों कान एक साथ बहुत जोर से मरोड़ देते थे. मेरे दोनों कानों की लवें शायद उन्हीं के कारण आज तक टेढ़ी हैं. पढ़ाते बहुत अच्छा थे. गांव में उनकी बहुत इज्जत थी. मास्टर होने के कारण और उससे ज्यादा दामाद होने के कारण. चिट्ठी लिखवाने, पढ़वाने, हर लिखत-पढ़त में सलाह लेने, गवाह बनने, आदि के लिए उन्हें याद किया जाता. झुकी कमर लिए खंखारते हुए वे हर जगह पहुंच जाते. बाद में जब हम शहर पढ़ने आ गये तो हर साल आते-जाते उन्हें प्रणाम करने जाते थे. हर बार वे कहते कि अब अगली बार शायद ही भेंट हो. मगर कई तक बरस वे वैसे ही मिलते रहे थे.

तेवाड़ी जी की मृत्यु की खबर हमें चिट्ठी से लखनऊ में मिली. मास्टरी से रिटायर होने के कई साल बाद भी उनकी पेंशन शुरू नहीं हुई थी. वे बराबर लिखा-पढ़ी करते थे. उस साल उन्हें खबर दी गयी कि पेन्शन शुरू होने वाली है. कुछ कागजी औपचारिकता के लिए उन्हें नैनीताल हाजिर होना पड़ेगा, जहां वे अध्यापक रहे थे. तेवाड़ी जी खुशी-खुशी नैनीताल गये थे. वहीं प्राण छूट गये.   

तो, वह रुक्का पढ़ कर यही तेवाड़ी जी सामने आ खड़े हुए और मैंने फौरन उनसे अपने खूब मरोड़े गए कानों का बदला लेना शुरू किया- ओहो, दया कृष्ण तेवाड़ी जी, आप तो जरा-सी गलती पर हम बच्चों के कान बेदर्दी से ऐंठ दिया करते थे; लेकिन यह रुक्का लिखने में खुद आपने क्या किया? न कहीं अर्द्ध विराम, न पूर्ण विराम! आप तो बहुत सख्त मास्टर थे.’ फिर ध्यान आया कि सन 1971 में हमारे तेवाड़ी जी इतने वृद्ध हो चुके थे कि मुझे उनकी गलती पर ताने मारना उनके साथ बड़ा अन्याय लगा. वे गांव में सबके लिए सुलभ एकमात्र पढ़े-लिखे व्यक्ति थे और हर रुक्के, हर चिट्ठी तथा प्रत्येक मनी-ऑर्डर पर ब. क. (बकलम) और द.ग. (दस्तखत गवाह) के लिए हमेशा उपलब्ध रहे. उन ही का अनुशासन था कि मैं घोटा लगी पाटी पर निंगाल की खत कटी कलम से सुलेख लिखा करता था. आज तक मेरे सुंदर हस्तलेख की तारीफ होती रही है तो उसका श्रेय आदरणीय पं. दया कृष्ण तेवाड़ी जी ही को जाता है. और फिर, उन्हें दिवंगत हुए भी तो जमाना बीत गया.

क्षमा कीजिए, तेवाड़ी जी और मेरे श्रद्धा-सुमन स्वीकार कीजिए.  (जारी)

जनता को लगे तो कि वह भी शामिल है



कौन नहीं चाहेगा कि अपने राज्य में अरबों-खरबों रु का निवेश हो, उद्योग-धंधे लगें, फलें-फूलें और युवाओं को यहीं बेहतर रोजगार मिले. आशा करनी चाहिए कि यूपी इनवेस्टर्स समिट में लाखों करोड़ रु के जिन निवेश-आशय-पत्रों पर हस्ताक्षर हुए हैं, उनमें से अधिकसंख्य पर वास्तव में अमल होगा. ऐसे निवेशक सम्मेलनों और हस्ताक्षरित इच्छा-पत्रों का अब तक का हमारा अनुभव अच्छा नहीं रहा है. पिछली कुछ सरकारों ने मुम्बई से लखनऊ तक, यहां तक कि विदेशों में भी प्रदेश में निवेश के लिए जो सम्मेलन किये, वे अमल में आये ही नहीं. दावा किया जा रहा है कि इस बार ऐसा नहीं होगा, यह सरकार औरों से अलग है. कामना है कि ऐसा ही हो.

निवेशकों का जोरदार स्वागत करना आवश्यक था लेकिन आम गरीब जनता को सड़कों-फुटपाथों से भी दूर कर देना, सम्मेलन स्थल के इर्द-गिर्द बड़े इलाके में स्कूल-कॉलेजों-दफ्तरों को बंद करना क्यों जरूरी हुआ? आखिर निवेश की यह सारी कवायद जनता के हित में नहीं है क्या? अरबों-खरबों के निवेश से विकास के जो सपने दिखाये जा रहे हैं, वह अंतत: जनता के हिस्से ही आनी चाहिए. इसलिए समिट के दायरे में उसकी सामान्य उपस्थिति अस्वीकार्य नहीं होनी चाहिए थी.

इतने बड़े समिट में जहां राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, तमाम केंद्रीय मंत्री और देश-विदेश के उद्यमी आ-जा रहे हों, सुरक्षा-व्यवस्था महत्त्वपूर्ण हो जाती है. निर्बाध यातायात आवश्यक हो जाता है. बाकी समय शहर की जिंदगी का जरूरी हिस्सा बना रहने वाला अतिक्रमण हटाना भी तब जरूरी लगता है. लेकिन ऐसा क्यों जरूरी हुआ कि खास सड़कों पर बसें, टेम्पो-टैक्सियां नहीं चलने दिये गये, ठेला-खोंचा लेकर रोजाना की रोटी कमाने वाले निकल ही नहीं पाये? लोग किसी प्रकार की निर्माण सामग्री नहीं ढो पाये और इलाके के अस्पताल तक जाना भी मुश्किल हो गया.

साफ-सुथरा, सजा-धजा शहर सचमुच कितना अच्छा लगता है. वैसी सजावट छोड़ दीजिए, सामान्य साफ-सफाई और सहज यातायात रोजाना क्यों नहीं हो सकते? जो जितना गरीब इलाका वह उतना ज्यादा गंदा रहता है. सफाई और सजावट वीआईपी इलाकों में ही की जाती है. बेहतरी का कोई अहसास सामान्य जन को क्यों नहीं कराया जाता? समिट के दौरान ही शहर सुंदर क्यों हो? वैसी मुस्तैदी बाकी दिन भी क्यों नहीं हो सकती? जनता के मन में यह सवाल उठ रहे हैं तो गलत है?

जिस उत्साह तथा  गौरव-बोध से सरकारी विभागों ने शहर को सजाया, वैसा आनन्द और गर्व जनता क्यों महसूस नहीं करती? ताजा रंगे डिवाइडरों, पोस्टरों पर पान की पीक के धब्बे गवाह हैं कि जनता को उनसे कोई मोह नहीं. यदि उसे लगता कि उस आयोजन में उसकी भी भागीदारी है, वह भी इस समिट के केंद्र में है तो उसका लगाव होता. वह उन प्रतीकों की रक्षा करती.

हम अपने घर की दीवारों पर नहीं थूकते. मेट्रो से लेकर समिट के पोस्टरों को बिना संकोच गंदा कर डालते हैं. सड़क के पौधे और सजावटी बल्ब चुरा ले जाते हैं. सिर्फ इसलिए क्योंकि शहर से हमारा लगाव नहीं बना. उसे हमने अपने घर जैसा नहीं समझा. यह लगाव पैदा करने में हमारा तंत्र हमेशा चूक जाता है. कोई भी सरकार हो, जनता को ऐसे आयोजनों से जोड़ा नहीं जाता. उलटे, सरकारी रवैये से वह अलगाव ही महसूस करती है.  यह अलगाव समाप्त करना प्राथमिकता में होना चाहिए.

 (सिटी तमाशा, 24 फरवरी, 2018)



Thursday, February 22, 2018

हमने पकड़ी पत्रकारिता की वह अंगुली-4


(पिछली किस्त से आगे-)

आजादी की बाद के वर्षों में कभी अखबार का स्वामित्व कानपुर के मशहूर स्वदेशी कॉटन मिल्स के मालिक सेठ मंगतू राम जयपुरिया के हाथ में चला गया था. 1977 में भी स्वतंत्र भारत में अशोक जी ने काबिल लोगों की टीम जुटा रखी थी. धीर-गम्भीर सत्यनारायण जायसवाल को अमृत प्रभातजाने से पहले चंद रोज ही देख पाया. जायसवाल जी के साथ अमृत प्रभातजाने वालों में के बी माथुर, रमेश जोशी, श्रीधर द्विवेद्वी, आर डी खरे, सुरेश सिंह, वगैरह थे. अमृत प्रभातपहले इलाहाबाद से और बाद में लखनऊ से भी प्रकाशित हुआ. हिंदी पत्रकारिता में वह भी कुछ नयापन लेकर आया.

मुझे याद है कि अमृत प्रभातजाने वाले कुछ वरिष्ठ पत्रकार स्वतंत्र भारतकी तत्कालीन स्थितियों से खिन्न दिखायी देते थे जबकि हमें वे दिन अपनी पत्रकारिता के स्वर्ण-काल के रूप में याद हैं. जाहिर है कि हालात बदल रहे थे. उन्होंने और भी बेहतर स्थितियां देखी होंगी. हम सुनते थे उन दिनों के बारे में जब पत्रकारों के लिए हाजिरी-रजिस्टर नहीं होता था, जब प्रबन्धन के किसी अधिकारी का सम्पादकीय विभाग का रुख करना बड़ी घटना माना जाता था और सम्पादकीय साथियों को वेतन लेने के लिए भी मैनेजमेण्ट साइडजाने की जरूरत नहीं पड़ती थी. हर पत्रकार के वेतन का लिफाफा पहली तारीख को समाचार-डेस्क पर आ जाता था.

हमारे समय में भी कुछ साल तक पहली तारीख को खजांची और उनका सहायक कैश-बॉक्स लेकर वेतन बांटने सम्पादकीय विभाग में आया करते थे. सम्पादक और उनकी टीम किसी मंदिर के गर्भ-गृह की तरह पवित्र मानी जाती थी. लेखकों का बड़ा सम्म्मान होता था. स्वतंत्र भारतके रचनाकारों का पारिश्रमिक कम होता था लेकिन हर मास मनी-ऑर्डर से भेजा जाता या फिर प्रूफ रीडर अग्निहोत्री जी सूची और रकम कुर्ते की लम्बी जेब में लेकर घूमते थे. लेखक के कहीं भी दिख जाने पर वे उसे पारिश्रमिक थमाते और हस्ताक्षर लेकर नमस्कार करते थे. उन्हें यह अतिरिक्त दायित्व अशोक जी ने दे रखा था, जिसे निभाने में अग्निहोत्री जी ने कभी कोताही नहीं की.   

स्वतंत्र भारत में सीखने-पढ़ने-लिखने का हमें अच्छा माहौल मिला. हमारी टीम के समाचार सम्पादक वयोवृद्ध चंद्रोदय दीक्षित जी थे, स्वतंत्रता सेनानी और एम एन रॉय के अनुगामी. वह गाम्भीर्य, धैर्य, अनुशासन के प्रतीक और स्नेह-पुंज थे. वैचारिक चर्चा उनकी अशोक जी से ही होती थी और उन्हीं की तरह हमें सिखाने को हमेशा तैयार. उप समाचार सम्पादक शम्भूनाथ कपूर को हमने अपने वरिष्ठ पत्रकार के रूप में नहीं, संरक्षक ही के रूप में पाया. डांटना, पुचकारना, समय पर घर भेजना, किसी बीमार सहयोगी की मदद को दौड़ाना. खेल उनका प्रिय विषय था और जमन लाल शर्मा से पक्की यारी थी. दीक्षित जी और कपूर साहब शाम को नियमित रूप से कॉफी हाउस जाकर बैठते.

अपने दो मुख्य उप-सम्पादकों से अलग-अलग कारणों से हमारा विशेष लगाव था. सियारामशरण त्रिपाठी देश-दुनिया के अच्छे जानकार, खबर बनाने को देने से पहले उसका सार समझा देने वाले, नयी पीढ़ी से मुहब्बत करने वाले थे. कभी खैनी की चुटकी, यदा-कदा जिन का घूंट और चाय पीने के लिए दस का नोट भी वही देते. आईएफडब्ल्यूजे में विक्रम राव के मुकाबिल वही खड़े होते और पराजित होते. नशे की बढ़ती लत ने बाद में उन्हें कमजोर और बरबाद किया.

युवा और तेज-तर्रार वीरेंद्र सिंह यद्यपि वाम-विरोधी थे लेकिन बहुत पढ़ाकू होने के कारण हमारे हीरो भी थे. वे सोवियत खेमे के विरुद्ध अमेरिकी किस्से सुनाते हुए दफ्तर के बाहर घुमाने भी ले जाते लेकिन उनके साथ अपनी चाय के पैसे खुद देने पड़ते थे. अमेरिकी काउ-बॉयअंदाज में रहने वाले वीरेंद्र सिंह अशोक जी समेत पुरानी पीढ़ी की खिल्ली उड़ाते. बाद में वे स्वतंत्र भारत के सम्पादक बने, अमेरिकी सरकार के अतिथि बन कर वहां दौरे पर गये और उसकी प्रशस्ति में अमेरिका-अमेरिकानाम से किताब लिखी. फिर नवभारत टाइम्स ने उन्हें लखनऊ संस्करण निकालने के लिए नियुक्त किया लेकिन वह योजना अमल में ही नहीं आयी. तब दिल्ली में फ्री-लांसिंग करते हुए एक दिन हृदयाघात से उनका निधन हो गया. वाम-समर्थक गुरुदेव नारायण हमें शायरी और संगीत के अपने शौक से प्रभावित करते. अश्विनी कुमार द्विवेद्वी संगीत कार्यक्रमों एवं आकाशवाणी की साप्ताहिक समीक्षा लिखने के लिए आते थे. वे हमसे खूब बातें करते. सांस्कृतिक रिपोर्टिंग का कुछ सलीका हमने उनसे सीखा.

राजनीति, साहित्य-संस्कृति, सामाजिक एवं अन्य विविध क्षेत्रों में सक्रिय नामी लोग स्वतंत्र भारतके कार्यालय आते रहते. कमलापति त्रिपाठी, चंद्रभानु गुप्त, हेमवती नंदन बहुगुणा, क्रांतिकारी मन्मथनाथ गुप्त, पी डी टण्डन, कॉमरेड रुतम सैटिन, रमेश सिंहा, प्रताप भैया, अमृत लाल नागर, भगवती चरण वर्मा, ठाकुर प्रसाद सिंह, शिवानी, कृष्ण नारायण कक्कड़, प्रबोध मजूमदार, गिरिधर गोपल, मुद्राराक्षस, गोपाल उपाध्याय, बीर राजा, रमई काका, अर्जुनदास केसरी, यमुनादत्त वैष्णव अशोक’, परिपूर्णानंद पैन्यूली, सुंदरलाल बहुगुणा, और भी बहुत सारे लोग, शहर के और बाहर से लखनऊ आने वाले. के पी सक्सेना, उर्मिल थपलियाल, योगेश प्रवीन तब युवा लेखक थे. रचनाकारों की एक बड़ी पीढ़ी स्वतंत्र भारतके बाल संघऔर तरुण संघसे निकल कर पली-बढ़ी.

हमारी युवा टीम के अघोषित लीडर प्रमोद जोशी थे, जो हमसे करीब तीन साल पहले से स्वतंत्र भारतमें काम कर रहे थे. हजरतगंज के जॉन हिंगमें प्रवेश करना हो, मद्रास मेस का दोसा खाना हो या आर्ट्स कॉलेज में आर एस बिष्ट, अवतार सिंह पंवार, जयकृष्ण, पी सी लिटिल या योगी जी की संगत करनी हो या  चेतना बुक डिपो में दिलीप विश्वास से किताबों के बारे में पूछना हो, अगुवाई प्रमोद जी की होती. सीपीआई के कॉमरेड दुर्गा मिश्र प्रमोद जी के नाम न्यू एजलेकर आते तो सीपीएम के कॉमरेड जाहिद अली पीपल्स डेमोक्रेसीतथा सोशल सांइटिस्टदे जाते. यह हमारी साझा सम्पति बन जाता. बहुत सारी चीजें समझ में नहीं आतीं थी लेकिन पन्ने उलटते-पुलटते और अधकचरी बहस करते. देर रात अखबार का नगर संस्करण छोड़ने के बाद पायनियरके गेट पर सुबह तक चाय पीते रहते या कभी सम्पादकीय विभाग की लम्बी मेज पर अखबारों का तकिया बनाकर सो जाते. यह सब हमारी पत्रकारिता का परिवेश था, हमारा स्कूल था.
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अशोकजी हम नये लड़कों को कुछ न कुछ लिखने या अनुवाद करने को देते रहते. कभी रिपोर्टिंग के लिए भी भेज देते. फरवरी 1978 में एक दिन उन्होंने मुझसे अखबार के लिए लखनऊ शहर पर केंन्द्रित साप्ताहिक कॉलम शुरू करने को कह दिया. कॉलम का नाम परिक्रमारखा और मेरा नामकरण नारदकर दिया. कुछ समय पहले तक स्वतंत्र भारतमें शहर का अंदेशानामक कॉलम प्रकाशित होता था, जिसके लेखक काजीथे. किसी करण उसे बंद करना पड़ा था. परिक्रमाउसी की जगह शुरू हुआ. मेरे लिए यह बहुत अच्छा अवसर था मगर आसान नहीं था. ऊपर से अशोक जी का आदेश था कि इस कॉलम को वे खुद सम्पादित करेंगे. हर हफ्ते कॉलम लिख कर उनके सामने हाजिर होना पड़ता था. वे बाहर होते तो समाचार सम्पादक चंद्रोदय जी जांचते.

अक्टूबर 1978 में दिल का दौरा पड़ने के बाद जब अशोक जी दो महीने बिस्तर पर थे तब भी मुझे हर सप्ताह परिक्रमालिख कर राजभवन कॉलोनी के घर में उनके सामने मौजूद रहना पड़ता था. यह रगड़ाई खूब काम हिंदी संस्थान, स्वतंत्र भारतआयी. इस कॉलम में चुटकियां भी खूब ली आती थीं. एक बार मैंने मुद्राराक्षस पर कटाक्ष कर दिया था जब उन्होंने सूचना विभाग के सौजन्य से जनता पार्टी की उपल्ब्धियों पर एक नाटक का मंचन किया था. नाराज मुद्रा जी ने मेरे खिलाफ अशोक जी को चिट्ठी लिखी और खुद उसे देने आये थे. अशोक जी ने मुझसे सारी बात पूछी और समझाया कि चुटकी लो तो व्यक्तिगत आक्षेप न हो. परिक्रमा स्तम्भ लोकप्रिय हुआ और 1983 में स्वतंत्र भारतछोड़ने तक करीब पांच साल मैं इसे लिखता रहा. मुद्रा जी बाद में मुझसे बहुत स्नेह करने लगे थे.

1977 में प्रदेश सरकार ने हिंदी समितिऔर हिंदी ग्रंथ अकादमीको मिला कर हिंदी संस्थान की स्थापना की थी. हजारी प्रसाद द्विवेदी जी उसके कार्यकारी अध्यक्ष और ठाकुर प्रसाद सिंह निदेशक थे. संस्थान में पत्रकारिता प्रकोष्ठबनवाने में अशोक जी की बड़ी भूमिका थी. उन्होंने ही इस प्रकोष्ठ से पराड़कर जी के अग्रलेखों का संकलन प्रकाशित करवाया, जिसके दो शब्दमें अशोकजी ने लिखा है- “अंग्रेजी के मुहावरों के समतुल्य हिंदी मुहावरों का प्रयोग उनकी दूसरी विशेषता थी. मुझे याद है कि सन 1944 में महात्मा गांधी के जेल से छूटने के बाद उनसे बात करने के प्रस्ताव पर वाइसराय ने अपमानजनक शर्तें लगायीं थीं. तब माननीय श्री श्रीनिवास शास्त्री ने इसकी आलोचना करते हुए लिखा कि क्या वाइसराय चाहते हैं कि गांधी जी उनके सामने सैक क्लाथ ऐण्ड ऐसेजमें जाएं. इस मुहावरे का अनुवाद अनेक अखबारों ने टाट लपेट कर और राख पोत कर जाएं किया. किंतु पराड़कर जी ने लिखा क्या गांधी जी दांतों में तृण दबा करवाइसराय के सामने जाएं.” भाषा के मामले में अशोक जी स्वयं भी इसी परम्परा के अनुगामी थे. शब्दानुवाद की बजाय हिंदी में रूपान्तरण या भावानुवाद के पक्षधर थे.

हजारी प्रसाद जी जब हिंदी संस्थान का कार्यकारी अध्यक्ष पद छोड़ कर चले गये तो अशोक जी को कार्यवाहक उपाध्यक्ष बनाया गया. तब वे रोजाना कुछ समय हिंदी संस्थान में बैठते थे और अपने कक्ष में ही छोटी गोष्ठियां कराया करते थे. इनमें बोलने के लिए उन्होंने मुझे भी प्रेरित किया. मैं बहुत संकोची था और कुछ कहने की इच्छा के बावजूद कतराता था. उन्होंने झिझक तोड़ने में मेरी मदद की.

उन्हीं दिनों अमृतलाल नागर का उपन्यास “नाच्यौ बहुत गोपालप्रकाशित हुआ था. स्वतंत्र भारतके लिए आई समीक्षार्थ प्रति अशोकजी ने मुझे पकड़ा दी थी. नागर जी के उपन्यास की समीक्षा करने की मेरी क्या औकात थी, मगर मैंने बहुत ध्यान से उसे पढ़ा. उपन्यास की ब्राह्मणी नायिका एक मेहतर से ब्याह करके उसकी झोपड़-पट्टी में रहने लगती है, लेकिन वहां भी अपने ठाकुर जी के विग्रह की स्थापना कर पूजा-पाठ करती है. मुझे लगा कि ब्राह्मणी के संस्कार तो वैसे के वैसे रह गये, उसने दलित के जीवन को अपनाया ही कहां. फिर इसे दलित-चेतना का उपन्यास कैसे कहें. मैंने ससंकोच अशोकजी से चर्चा की. उन्होंने सुझाया कि नागर जी से ही मिल कर यह सवाल पूछो. दूसरी सुबह मैं जा पहुंचा चौक. यूं, नागर जी बहुत सरल और उदार हृदय थे लेकिन पता नहीं क्यों मेरे इस सवाल पर नाराज हो गये- अभी तुम बच्चे हो.मैं घबराया-सा लौट आया. अशोक जी को बताया तो उन्होंने कहा था, कोई बात नहीं, तुम लिखो. अब याद नहीं कि मैंने समीक्षा में अपना वह निष्कर्ष लिखा था या नहीं. वैसे, मेरी राय आज भी बदली नहीं है. नाच्यौ बहुत गोपालकी तुलना में तब गोपाल उपाध्याय का उपन्यास एक टुकड़ा इतिहासदलित चेतना के दृष्टिकोण से बहुत सशक्त उपन्यास था. हिंदी में तब इस नारे के तहत लेखन शुरू नहीं हुआ था.    

अशोकजी ही नहीं, नये पत्रकारों-रचनाकारों को प्रोत्साहित करने में उस दौर के वरिष्ठ लेखक पर्याप्त रुचि लेते थे. काफी हाउस के एक कोने से, दीवार पर लगी इस चेतावनी के बावजूद कि लाउडेस्ट व्हिस्पर इस बेटर दैन अ लो शाउट’, बहसों का शोर और ठहाके बाहर बरामदे में भी हमें कुछ पाठ पढ़ा देते थे. ठाकुर प्रसाद सिंह के नेतृत्त्व में सूचना विभाग, सूचना केन्द्र, हिंदी संस्थान और शहर के कई मुहल्लों में कवि-गोष्ठियां हुआ करती थीं जिनमें नये रचनाकारों को सुना और प्रोत्साहित किया जाता था.

एक बार मैंने अपनी एक कविता में घड़े के तलवे सेलिख दिया था. कविता सुना चुकने के बाद नरेश सक्सेना जी ने पास आकर कहा था कि घड़े के तले सेहोना चाहिए, तलवा तो जूते-चप्पल का होगा. इस तरह सिखाने-समझाने का माहौल था. एक बार नरेश जी स्वतंत्र भारतमें तुगलक नाटककी रिपोर्ट पढ़कर लेखक न. जो. को ढूंढते हुए भी दफ्तर आये थे. मैं तब इसी संक्षिप्त नाम से समीक्षा लिखता था. वह उनसे पहली मुलाकात थी. मुझे याद है, उन्होंने कहा था कि तुम जरूर विज्ञान के विद्यार्थी होगे. कुछ लिखे की तारीफ करना और लिखते रहने को प्रेरित करने का उनका सिलसिला आज तक जारी है. बीर राजा, प्रबोध मजूमदार, राजेश शर्मा, गोपाल उपाध्याय, श्रीलाल शुक्ल, जैसे रचनाकार नये लेखकों-पत्रकारों को पढ़ते और खूब प्रोत्साहित करते थे. कभी यशपाल जी से मिलने जाते तो वे कहते थे कि चाहे कागज पर गोले बनाते रहो लेकिन रोजाना कम से कम दो घंटे बैठ कर नियमित लिखने का अभ्यास करो.
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कानपुर के, और देश के भी श्रमिक-आंदोलन के लिए छह दिसम्बर 1977 काला दिन साबित हुआ. जयपुरिया परिवार में वर्चस्व की लड़ाई ने स्वदेशी कॉटन मिल्स की हड़ताल को भयानक हिंसा में बदल दिया. एक हजार से ज्यादा हड़ताली मजदूरों पर गोलियां चलीं, कई मारे गये, आगजनी और तोड़-फोड़ के बाद मिलें बंद हो गईं. स्वामित्व की इस जंग का असर लखनऊ के द पायनियर लिमिटेडपर भी पड़ा. सम्पादकीय स्वतंत्रता पर प्रबंधकीय अंकुश की शुरुआत हो गयी. कॉटन मिल्स के एक मैनेजर लखनऊ बैठने लगे. इमारत के प्रबंधकीय हिस्से से मैनेजिंग एडिटर सम्पादकीय हिस्से में आ गये. पायनियर के पहले भारतीय सम्पादक और समूह के सम्माननीय संरक्षक व सलाहकार, बुजुर्ग एस एन घोष को एक छोटे कक्ष में स्थानान्तरित करके उनके विशाल कक्ष में मैंनेजिंग एडिटर की दमदार आवाज गूंजने लगी. थोड़ी-थोड़ी देर में चपरासीssss’ की उनकी कर्कश चीख हमारे कानों को चीरती थी.

अशोकजी और मैनेजिंग एडीटर डॉ के पी अग्रवाल के अगल-बगल के कक्ष एक नन्ही खिड़की से जोड़ दिये गये थे. सलाह-मशविरे होते रहते होंगे. एक सुबह डॉ अग्रवाल सीधे सम्पादकीय विभाग में आ पहुंचे. जिला डेस्क के प्रभारी वीरविक्रम बहादुर मिश्र से उन्होंने कहा- गोण्डा से शिकायत आ रही है कि वहां की खबरें कम छप रही हैं, क्या बात है? ध्यान दीजिए.

जोर से बोलने वाले डॉ अग्रवाल की आवाज अपने कक्ष में बैठे अशोक जी ने सुन ली. उस दिन दोनों कक्षों के बीच की खिड़की शायद नहीं खुली. अशोक जी के कमरे से एक कागज सेवक के हाथों बगल के कक्ष में पहुंचा. थोड़ी देर में वही कागज सेवक के ही हाथों डॉ अग्रवाल के कमरे से अशोक जी के कमरे में वापस आया. कुछ समय बाद अशोक जी के निर्देश से वह कागज सम्पादकीय निर्देशों के रजिस्टर में नत्थी हो गया.

अशोक जी ने लिखा था- प्रिय डॉ अग्रवाल, आपको सम्पादकीय विभाग के किसी सदस्य से कोई भी बात मेरे ही माध्यम से कहनी चाहिए.

डॉ अग्रवाल ने विनम्र शब्दों में अपने हाथ से लिखा था- “प्रिय अशोकजी, आपका मान रहे, आगे ऐसा ही होगा.
हमने अशोकजी पर गर्व किया और मान लिया कि अब कोई हस्तक्षेप नहीं होगा. वह हमारी भूल थी. वक्त करवट ले चुका था.

अक्टूबर, 1978 में इण्डियन फेडरेशन ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट्स का राष्ट्रीय सम्मेलन चित्रकूट में हुआ था. अशोक जी अतिथि के रूप में उसमें शामिल होने गये थे. वहां उन्हें दिल का दौरा पड़ा. तत्कालीन पेट्रोलियम एवं रसायन मंत्री हेमवती नन्दन बहुगुणा भी सम्मेलन में मौजूद थे. उनके हेलीकॉप्टर से अशोक जी को लखनऊ लाया गया. जब वे हृदयाघात से उबरते हुए घर पर आराम कर रहे थे तभी उन्हें बताया गया कि वे अब स्वतंत्र भारतके सम्पादक का दायित्व उठाने की स्थिति में नहीं हैं. उन्हें हटाने का रास्ता शायद कब से ढूंढा जा रहा था. फिर ऊपर जो भी घटित हुआ होगा, अशोकजी को परामर्शदाताबना दिया गया और उनके सम्पादन में स्वतंत्र भारत सुमनसाप्ताहिक निकालने का भी फैसला किया गया. अशोक जी ने सुमननिकालने में भी अपने सम्पादकीय कौशल, अनुभव और सम्पर्कों का बढ़िया इस्तेमाल किया.

रवींद्रालय में सुमनका लोकार्पण कार्यक्रम था. अंत में अशोकजी ने मंच से घोषणा की कि सुमनका प्रवेशांक हॉल के बाहर श्री इंदु अग्रवाल से प्राप्त किया जा सकता है. इंदु अग्रवाल कार्यालय सहायक थीं. सुनने वाले सभी चौंके थे और हमने सोचा था इंदु के लिए अशोक जी के मुंह से श्रीगलती से निकल गया होगा. बाद में हमने पूछा तो उन्होंने बताया कि कुमारीऔर श्रीमतीअंग्रेजी के मिसऔर मिसेजके लिए प्रचलित हो गया है लेकिन हिंदी में महिला-पुरुष दोनों के लिए श्रीउपयुक्त है. कुमारीया श्रीमतीन लिखना हो तो श्रीऔर भी उपयुक्त है. तब तक सुश्रीका चलन शायद नहीं हुआ था.  

साप्ताहिक पत्रिका स्वतंत्र भारत सुमनअप्रैल, 1979 में शुरू हुई और पसंद की जाने लगी थी लेकिन अशोक जी का दोतरफा घायल दिल ज्यादा बर्दास्त नहीं कर सका. 18 अगस्त, 1979 को 63 साल की अवस्था में उनका देहांत हो गया.
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अशोकजी का स्नेह-सानिध्य हमें दो साल ही मिल पाया. ये दो साल बहुत महत्वपूर्ण और मजबूत नींव डालने वाले साबित हुए. उनका शिष्य होना कितना मानी रखता है, यह हमें मई 1978 में दैनिक हिंदी ट्रिब्यून के इण्टरव्यू में पता चला. चण्डीगढ़ से हिंदी ट्रिब्यून के प्रकाशन का विज्ञापन देख कर मैंने और मनोज तिवारी ने आवेदन भेज दिया. वहां से इण्टरव्यू का बुलावा आ गया. हमने जाने से पहले अशोक जी को बताना ठीक समझा. उन्होंने कहा कि खर्चा दे रहे हैं तो चण्डीगढ़ घूम आओ. इंटरव्यू बोर्ड में प्रेम भाटिया, मदन गोपाल जैसे वरिष्ठ सम्पादक थे. उन्होंने हमारे बारे में कम, अशोकजी के बारे में ज्यादा बातचीत की और हमें पूरे वेतनमान पर (जो करीब साढ़े छह सौ रु था) उप-सम्पादक बनाने को राजी हो गये. स्वतंत्र भारतमें हमें तब चार-सौ रु मिलते थे. अशोक जी की बात मान कर हम एक दिन चण्डीगढ़ घूम कर वापस लौट आये.

अशोकजी के बारे में बहुत सी बातें हमने उनके निधन के बाद जानीं. जैसे, यह कि वे अच्छे लेखक और अनुवादक, बल्कि श्रेष्ठ रूपान्तरकारथे,  कि हास्य-व्यंग्य उनका प्रिय विषय था और हजामत का मैचनाम से उनका व्यंग्य-संग्रह प्रकाशित हुआ था, कि बच्चों के लिए उन्होंने कुछ कहानियां लिखी थीं, कि संस्कृत महाकवि बाणभट की कादम्बरीसमेत संस्कृत से भी कुछ अनुवाद किये (बच्चों के लिए कादम्बरी का अत्यन्त सरल अनुवाद केंद्र सरकार के सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के प्रकाशन विभाग से 1974 में इसी शीर्षक से प्रकाशित हुआ था), कि रणभेरीनाम से उनकी कविताओं का कविता संग्रह छपा था, कि उन्होंनेहू इज कैलीडासासमेत कई व्यंग्य एकांकी लिखे, कि सत्रह साल भारत सरकार की सेवा में रहते उन्होंने दूसरे नामों से जनसत्तासमेत कई पत्रों में बहुत कुछ लिखा (1953-55 के दौरान वेंकटेश नारायण तिवारी के सम्पादन में जनसत्ताप्रकाशित हुआ था. प्रभाष जोशी के सम्पादन में जनसत्ता 1984 में दोबारा निकला), कि उन्होंने रजनी कोठारी की चर्चित पुस्तक पॉलिटिक्स इन इण्डियाका हिंदी रूपांतरण (भारत में राजनीति) किया था (कोठारी की भारत में राजनीतिपढ़ते हुए कहीं भी यह नहीं लगता कि यह हिन्दी की मौलिक पुस्तक नहीं है), कि हिंदी टेलीप्रिण्टर का की-बोर्ड बनाने में उनकी सहायता ली गयी थी, कि आकाशवाणी से हिंदी में क्रिकेट का आंखों का हाल सुनाने वाले सबसे पहले कमेण्टेटर वे ही थे, कि चौकाऔर छक्काउनके दिये हुए नाम हैं, कि केंद्र सरकार के सूचना विभाग में रहते हुए उन्होंने हिंदी अखबारों की अंग्रेजी विज्ञप्तियों पर निर्भरता खत्म की थी, कि प्रकाशन विभाग में उप-निदेशक बनने के बाद उन्होंने आजकलएवं बाल-भारतीपत्रिकाओं को स्तरीय बनाया था, आदि-आदि.

उनका ज्यादातर काम आज तक बिखरा पड़ा है. कुछ चीजों के दस्तावेज ही उपलब्ध नहीं हैं. मसलन, यही ठीक-ठीक पता नहीं कि उन्होंने हिंदी में पहली बार किस क्रिकेट मैच का आंखों देखा हाल आकाशवाणी से सुनाया था. अंग्रेजी कमेण्टेटर विजी (महाराज विजयनगरम)  के साथ हिंदी में सुनाया अवश्य था, यह उन्होंने स्वतंत्र भारतकी रजत जयंती के अवसर पर लिखे लेख में खुद भी बताया है –“आकाशवाणी से क्रिकेट का आंखों देखा हाल सुनाने का सुझाव सबसे पहले स्वतंत्र भारतने दिया और इन पंक्तियों के लेखक ने रेडियो पर पहली बार हिंदी में क्रिकेट के खेल का हाल सुना कर नई परम्परा की शुरुआत की.” एक अनुमान  है कि वह 23 से 26 अक्टूबर, 1952 में भारत-पाकिस्तान के बीच लखनऊ में खेला गया टेस्ट मैच रहा होगा. उधर, अशोकजी के पुत्र अरविंद को ऐसा स्मरण है कि पिताजी एमसीसी (मेलबोर्न क्रिकेट क्लब, इंग्लैण्ड की क्रिकेट टीम पहले इसी नाम से जानी जाती थी) के साथ हुए मैच का हिंदी में आंखों देखा हाल सुनाने का जिक्र करते थे. उनके द्वारा हिंदी में रूपांतरित कुछ अन्य पुस्तकों की पुष्टि होना भी बाकी है. माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय की शोध वृत्ति के तहत अशोक जी पर हुआ अध्ययन भी सुनी-सुनाई बातों और अपुष्ट जानकारियों तक सीमित रह गया.   

हास्य-व्यंग्य के प्रति अशोक जी की सुरुचि स्वतंत्र भारतके अत्यंत लोकप्रिय दैनिक स्तम्भ कांव-कांवसे भी पता चलती थी. शुरू में इसका नाम काकभुशुण्डि उवाच” था और अशोक जी स्वयं इसे लिखते थे. बाद में इसका नाम कांव-कांवरखा गया और सम्पादकीय टीम के बलदेव प्रसाद मिश्र, योगींद्रपति त्रिपाठी, अखिलेश मिश्र समेत बेधड़क बनारसी जैसे हास्य लेखक भी इसमें योगदान करने लगे. खबरों के शीर्षकों, नेताओं के बयानों और दैनिक घटनाओं पर छोटी किंतु चुटीली गद्य-पद्य टिप्पणियों वाला यह स्तम्भ अखबार की पहचान बना, नई पीढ़ियां इससे जुड़ती गईं और शायद ही यह स्तम्भ कभी बंद हुआ हो. 2002 में जब मैं हिंदुस्तान का स्थानीय सम्पादक बनकर पटना गया तो जनरल मैनेजर के पी अग्रवाल के आग्रह पर, जो 1975 में लखनऊ के पायनियर प्रेस में रह चुके थे, ‘कांव-कांववहां भी शुरू किया, जिसे बिहार में बहुत पसंद किया गया. बाद में इसी तरह का दैनिक स्तम्भ लखनऊ के हिंदुस्तानमें  लखनलाल के तीरनाम से चलाया.

अशोकजी पत्रकारों की आर्थिक और कार्य स्थितियों के लिए भी चिंतित रहने वाले सम्पादकों में थे. 1948 में यूपी वर्किंग जर्नलिस्ट्स यूनियन की स्थापना में उनका भी योगदान था. उन्होंने इसके पहले सम्मेलन में सक्रियता से भाग लिया और उसका संविधान बनाने में मदद की थी. श्रमजीवी पत्रकारों के संगठनों के सम्मेलनों मे वे अंत तक शिरकत करते रहे थे. एक सम्मेलन में विश्वमित्रके सम्पादक फूलचंद्र अग्रवाल ने पत्रकारों को श्रमजीवी कहने पर आपत्ति की तो अशोक जी ने उस पर व्यंगात्मक टिप्पणी तक लिखी थी.
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हमारे दौर के अशोकजी का स्वतंत्र भारतयानी 1977-79 का अखबार अपनी राजनैतिक रिपोर्टिंग में शासन-प्रशासन का निर्मम आलोचक नहीं लगता था. स्वतंत्र भारत के शुरु-शुरु के अंक पलटते हुए उसकी खबरें तीखी लगती थीं. सन 1947 के किसी अंक का पहले पेज का एक शीर्षक अभी तक याद है- त्यागी नेताओं को नवाबी ठाठ का शौक. खबर यह थी कि देश की नयी सरकार के मंत्री अपने बंगलों के लिए विदेशी कालीन और फर्नीचर मंगा रहे हैं. खबर आक्रामक अंदाज़ में लिखी गयी थी. अखबार के यह तेवर अशोक जी के दूसरे कार्यकाल में नहीं रह गये थे. 1977 में हम युवा स्वतंत्र भारतकी राजनैतिक रिपोर्टिंग से बहुधा असंतुष्ट रहते थे, जो हमें अक्सर सत्ता-मुखी लगती थी. एकमात्र विशेष सम्वाददाता शिवसिंह सरोजकी खबरें अति सामान्य और कभी मुख्यमंत्री की प्रशंसा में होतीं थी. हलकी-फुलकी आलोचना यदा-कदा ही छपती थी. दूसरे सम्वाददाता भी उन्हीं की लकीर पर चलते थे. तब भी, स्थितियां आज की तरह समर्पण या सौदे वाली कतई नहीं थी. सम्पादकों-पत्रकारों की ठसक कायम थी. हां, अपने सम्पादकीयों में अशोकजी बहुत निर्मम, कटु आलोचक हो जाते थे.  

अशोकजी स्वतंत्रता पूर्व की उस पीढ़ी के सम्पादक थे जिनका अपने समय के राजनैतिक नेताओं से घनिष्ठ सम्पर्क, बल्कि दोस्ताना रहा था. यह दोस्तियां अखबार में लगभग नहीं निभाई जाती थीं, यह भी कहा जाता था. लेकिन सन 1947 से 1977 आते-आते बहुत कुछ बदल गया था. सम्पादक-नेताओं के रिश्ते ही नहीं, अखबार मालिकों के अपने स्वार्थ भी हावी हो रहे थे. यह संतुलन अशोकजी ने निश्चय ही साध रखा होगा यद्यपि सता-प्रतिष्ठान से अपने लिए सीधे कोई लाभ उन्होंने नहीं लिया. तब भी प्रबंधन उनका विकल्प तलाशने लगा था, यह बाद की स्थितियों ने साबित किया.

1947 से 1979 का समय हिंदी पत्रकारिता के मिशन से व्यावसायिक बनने का दौर था. पत्रकारिता, अखबार घराने और उनके मूल्य सब क्रमश: बदल रहे थे. पत्रकारिता कुछ नये औजार और कौशल पा रही थी तो कुछ मूल्य छूट रहे थे. पत्रकारिता की भाषा के रूप में हिंदी विकसित हो रही थी तो विकृत भी बन रही थी. इस क्रम में नयी-पुरानी पीढ़ी के टकराव भी हो रहे थे.

समाज भी इस दौरान बहुत बदला. मध्य-वर्ग और बाजार क्रमश: बढ़ा. शिक्षा ने अन्तरराष्ट्रीय दरवाजे ज्यादा खोले तो भारतीय शहरों में यूरोप और पश्चिमी दुनिया का प्रभाव बढ़ा. गांवों से शहरों की ओर पलायन बढ़ा. अखबारों का आकार और प्रसार भी. बदलते भारत के इस दौर की पत्रकारिता में अखबार शहरी मध्य-वर्ग के ज्यादा करीब होते गये. अखबारों ने उद्योग  का रूप लेकर मुनाफे की राह पकड़ी. इस प्रयास में समाज के पिछड़े वर्गों, दलितों, आदिवासियों, महिलाओं, किसानों और गांवों को हिंदी के अखबार भी भूलते गये या हाशिये पर रखे रहे. (स्वतंत्र भारत में 1979 तक प्रति सप्ताह छपने वाली गांव की चिट्ठीधीरे-धीरे गायब हो गयी). उन दिनों रघुवीर सहाय के सम्पादन में टाइम्स ऑफ इण्डिया समूह का दिनमानजरूर हमें महिलाओं एवं दलित-वंचित वर्गों को देखने की नयी दृष्टि दे रहा था. ज्यादातर हिंदी अखबारों का इनके प्रति नजरिया दकियानूसी बना रहा.

उस दौर के लगभग सभी अखबारों एवं सम्पादकों ही की तरह अशोकजी के पास भी उच्च जातीय हिंदू पत्रकारों की टीम थी. मगर किसी हिंदी अखबार में महिला पत्रकार को भर्ती करने का श्रेय भी अशोकजी को जाता है. जब 1975 में द पायनियर की पहली (और सम्भवत: प्रदेश की भी) महिला रिपोर्टर बनी मेहरू जाफर एक साल की छुट्टी में यूरोप गयीं और 1977 में वापस लौटने पर द पायनियर ने उन्हें वापस लेने से इनकार कर दिया तो अशोक जी ने मेहरू को स्वतंत्र भारतका सम्वाददाता बना लिया. बकौल मेहरू जाफर- अशोकजी एक मुसलमान युवती को अपनी रिपोर्टर बनाकर बहुत खुश हुए थे और सीधे विधान सभा की रिपोर्टिंग करने की बड़ी जिम्मेदारी मुझे सौंप दी थी. अपनी टाइपिस्ट इंदु अग्रवाल को भी वे लिखने-पढ़ने और अंग्रेजी से अनुवाद करने के लिए प्रोत्साहित करते रहते थे. 1977 में उन्होंने ताहिर अब्बास को भी नये पत्रकारों की अपनी टीम में शामिल किया था और उनसे उर्दू प्रेस समेत मुस्लिम मामलों पर लिखवाया करते थे. यह तथ्य भी नोट किया जाना है कि तब हिंदी में दलित एवं महिला पत्रकार ढूंढने से भी नहीं मिलते थे.

आपातकाल के बाद, 1977 से हिंदी पत्रकारिता का पूरा परिदृश्य बहुत तेजी से बदला. इमरजेंसी ने मध्य वर्ग की राजनैतिक चेतना को झकझोरा था जिससे पत्र-पत्रिकाओं की पाठक संख्या में भारी वृद्धि होने लगी. कई नये अखबार और पत्रिकाएं प्रकाशित हुए. लखनऊ में जहां, 1977 तक सिर्फ स्वतंत्र भारतऔर नवजीवन दैनिक प्रकाशित होते थे (आरआरएस से सम्बद्ध एक तरुण भारतभी था) वहीं 1980 आते-आते दैनिक जागरणऔर अमृत प्रभातने भी अपने प्रेस जमा लिये. उसके दो-तीन वर्ष बाद नव भारत टाइम्स और राष्ट्रीय सहाराभी आ गये. पत्रकार और पत्रकारिता, दोनों की स्थितियों में बड़े बदलाव दिखने लगे थे.

अशोक जी के साथ पराड़कर युगीन पत्रकारिता के अवशेष भी खत्म हुए थे. नया दौर हर स्तर पर बड़े उलट-फेर करने की मुकम्मल तैयारी के साथ आ रहा था.  (समाप्त)


-नवीन जोशी