Sunday, February 04, 2018

कल का भारत कितना महान होगा?



शाम को नियमित दो पैग पीने वाले हमारे एक मित्र बीते बुधवार को चंद्र ग्रहण के कारण रात पौने नौ बजे तक बोतल का ढक्कन भी नहीं खोल रहे थे.  पंचतारा होटल के एक परिचित मैनेजर से हमने पूछा कि उनके बार और डाइनिंग हॉल में ग्रहण के दौरान कितनी भीड़ थी. उन्होंने हंसते हुए बताया कि लगभग सन्नाटा था लेकिन ग्रहण का सूतकहटते ही एकाएक भीड़ उमड़ आयी. किसी जमाने में चंद्रमा को राहु ग्रस लेता था तो सूतक  (छूत) माना जाता था. आज सभी जानते-मानते हैं कि सूर्य और चंद्रमा के बीच पृथ्वी के आ जाने से चंद्रमा पर पड़ने वाली छाया के अलावा ग्रहण कुछ नहीं है. मगर लोग हैं कि सूतक माने चले जा रहे हैं. विज्ञान ने हमारी जानकारी तो बढ़ा दी लेकिन समझ?

वर्तमान सरकार विज्ञान को ही सूतक लगाने की कोशिश में है. डारविन के सिद्धांत को झूठा साबित करने से लेकर दुनिया को सब कुछ हमारे महान भारत ने दिया थातक का राग अलापा जा रहा है.  गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत न्यूटन से बहुत पहले ऋषि कणाद ने दिया था. शून्य के आविष्कारक अपने आर्यभट को भी अब पीछे धकेला जा रहा है. कहते हैं वेदों में सब पहले ही बता रखा है.

ठीक है, मान लेते हैं कि भारतीय संस्कृति ने सारा विज्ञान पहले ही बता दिया था. मान लिया कि हमारे ऋषि-मुनि ज्ञान-परम्परा में अद्वितीय थे, हम भारतीय हर क्षेत्र में दुनिया का नेतृत्त्व करते थे. बहुत अच्छी बात है लेकिन महाशय यह देखिए कि आज हम कहां हैं और क्यों हैं? आज तो सरकारी स्कूल में पांचवीं में पढ़ने वाला हमारा बच्चा कक्षा दो का गणित का सवाल हल नहीं कर सकता, अंग्रेजी के सरल अक्षर नहीं पढ़ सकता. असरकी रिपॉर्ट हाल में जारी हुई है. हर साल उनका सर्वेक्षण आंखें खोलता है और भारी चिंता में डालता है.

नेशनल अचीवमेण्ट सर्वेकी रिपोर्ट केंद्रीय मानव संसाधन मंत्रालय ने पिछले मास जारी की है. उसके नतीजे भी बहुत निराशाजनक हैं. रिपोर्ट बता रही है कि जैसे-जैसे बच्चे ऊपरी कक्षाओं में जाते हैं, वैसे-वैसे उनका सीखने का स्तर गिरता जा रहा है.  गणित और भाषा का ज्ञान सबसे ज्यादा कमजोर हो रहा है. यह रिपोर्ट भी सरकारी स्कूलों के बारे में है.

बैंक कर्मचारी बताते हैं कि विभिन्न परीक्षाओं के लिए फीस का ड्राफ्ट बनवाने आने वाले स्नातक युवा हिंदी या अंग्रेजी में फॉर्म तक नहीं भर पाते. इस कॉलम में यह लिखो बताने के बावजूद गलत लिखते हैं. न शब्द सही लिख पाते हैं, न मात्राएं. मैनेजर के नाम अर्जी लिखने को कहने पर मुंह ताकते हैं.

यह हम कैसी युवा पीढ़ी तैयार कर रहे हैं? सरकारी स्कूलों का हमने क्या हाल बना रखा है? शिक्षा का बजट कितना है और मूर्तियों व मंदिरों के लिए कितना आवंटन है? हमारी प्राथमिकताएं क्या हैं? अतीत का ही सच्चा-झूठा गुणगान करते रहेंगे या वर्तमान को भी देखेंगे? गोमूत्र से कैंसर ठीक करने के दावे करते रहेंगे कि अस्पतालों में सामान्य इलाज की व्यवस्था भी ठीक करेंगे? ‘मानव-धड़ में हाथी का सिर जोड़ कर हमने शल्य चिकित्सा का अद्भुत कारनामा कर दिखाया था’- यह लफ्फाजी जरूरी है या प्राथमिक व सामुदायिक स्वास्थ्य केंन्द्रों में हर वक्त सुरक्षित प्रसव की व्यवस्था करना, ताकि कोई गर्भवती केंद्र के बंद दरवाजे के बाहर सड़क पर बच्चा जनने को मजबूर न हो?

कोई सोचेगा कि इस सब से कल कैसा भारत बनने वाला है?  


 (सिटी तमाशा, 4 फरवरी, 2018)

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