कैबिनेट सचिव (अगस्त 1996- मार्च
1998) और उत्तर प्रदेश के मुख्य सचिव (दिसम्बर 1992-अगस्त 1994) जैसे महत्त्वपूर्ण और प्रतिष्ठित
पदों पर रहे टी एस आर सुब्रमणियन का देहांत ‘स्टील फ्रेम’ कही जाने वाली आई ए एस सेवा के
जुझारू सेनानी और सबसे बड़े स्तम्भ का ढह जाना है. उनके साथी और सहयोगी रहे अधिकारी
यदि आज उन्हें “टॉलेस्ट अमंग टॉल” (विशालतम) कह कर श्रद्धावनत हैं तो इसके पर्याप्त
कारण हैं. आईएएस जैसी प्रतिष्ठित सेवा पर राजनैतिक दवाबों, सेवा में फैलते भ्रष्टाचार और
नेताओं की जी-हुजूरी की प्रवृत्ति तथा इस सेवा के आम जनता से विमुख होने के खिलाफ
वे अंतिम समय तक लड़ते रहे.
दो दशक पहले सेवानिवृत्त हो जाने
के बावजूद विभिन्न सरकारों के लिए वे कभी संकटमोचक बने तो आंख की किरकिरी भी.
प्रशासनिक सुधारों की बात हो या देश की बदहाल शिक्षा-व्यवस्था को पटरी पर लाने की
कवायद, सरकारों को कड़क, अनुभवी, समाज और सरकारी तंत्र में गहरी पैठ रखने वाले तिरुमणिलैयुर
सितापति रमण सुब्रमणियन ही आद आते रहे.
शिक्षा-व्यवस्था में सुधार के लिए
उनकी अध्यक्षता में बनी ‘सुब्रमणियन समिति’ ने 2016 में जो रिपोर्ट पेश की वह आमूल-चूल बदलावों के
वास्ते दिये गये सुझावों के लिए चर्चित रही है, हालांकि उस पर ईमानदारी से पहल की
इच्छा-शक्ति आज तक दिखी नहीं है.
यह टीएसआर ही थे जिन्होंने कई अन्य
आला अधिकारियों के साथ मिलकर सुप्रीम कोर्ट में पी आई एल दायर की थी कि आईएसएस
अधिकारी राजनैतिक नेताओं के मौखिक आदेशों का पालन करने के लिए बाध्य नहीं हैं.
सर्वोच्च न्यायालय ने यह याचिका स्वीकार करते हुए ऐसा ही आदेश पारित किया था.
सर्वोच्च न्यायालय ने तब केंद्र सरकार को यह भी निर्देश दिया था कि अधिकारियों के
लिए एक पद पर निश्चित अवधि का कार्यकाल सुनिश्चित किया जाना चाहिए, ताकि बार-बार तबादलों से जनहित के
कार्य अटकें नहीं.
‘बाबूराज और नेतांचल’
श्री सुब्रमणियन ने अपनी आईएएस
बिरादरी, अन्य बड़े अधिकारियों और मंत्रियों-विधायकों की पोल खोलने का
काम भी खूब किया. रिटायर होने के बाद उन्होंने एक किताब लिखी- “जर्नीज थ्रू बाबूडम
एण्ड नेतालैण्ड” जो 2004 में प्रकाशित हुई थी. 2006 में हिंदी में उसका अनुवाद ‘’बाबूराज और नेतांचल’’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ.
यह किताब इस बात का महत्त्वपूर्ण
दस्तावेज है कि शुरुआत में बड़े सेवा भाव एवं ईमानदारी से भरे अधिकारी कैसे
धीरे-धीरे बेईमान और जन-विरोधी होने लगते हैं, कैसे नेता उन्हें भ्रष्ट बनाते हैं, नेता और अधिकारी मिल कर किस जनता
के धन की लूट मचाते हैं, बहुत अच्छी योजनाओं-कार्यक्रमों का लाभ भी जनता तक क्यों
नहीं पहुंचता, नेताओं का कृपापात्र बनकर मलाईदार पद पाने के लिए अधिकारी
कैसे नेताओं के तलुवे चाटते हैं और ईमानदार अधिकारी किस तरह किनारे कर दिये जाते
हैं.
यह सब उन्होंने अपने अनुभवों और उदाहरणों के साथ लिखा है.
हम यहां उस पुस्तक की कुछ टिप्पणियों के साथ अपने लोक-विरोधी होते जा रहे लोकतंत्र
और सड़ती व्यवस्था की झलक दिखाने का प्रयास कर रहे हैं.
लाखों कुओं की जगह सिर्फ झण्डे
1965 में श्री सुब्रमणियन उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले में
तैनात थे. वहां सूखे की स्थिति से निपटने के लिए सरकार ने बड़ी रकम के साथ लाखों कच्चे कुएं खोदने की योजना
मंजूर की. इसके निरीक्षण का दायित्व 1941 बैच के आईसीएस अधिकारी एम ए कुरैशी को
दिया गया था.
सुब्रमणियन लिखते हैं- “एक दिन मैं कुरैशी के आने से पहले
गाजीपुर के समीप बलिया की सड़क से जा रहा था. सड़क के दोनों ओर बड़ी संख्या में लाल
झण्डे लगे देखे. परियोजना अधिकारी से पूछा तो उसने बताया कि कुरैशी साहब ने हर नये
खोदे गये कच्चे कुएं पर लाल झण्डा लगाने का आदेश दिया है. मैंने डपट कर कहा, लेकिन वहां तो कुएं हैं ही नहीं. मुझे बताया गया कि इससे क्या फर्क पड़ता
है. कुरैशी साहब तो वाराणसी से अपने घर बलिया जाते वक्त सड़क से ही लाल झण्डे देख
कर लाखों कुओं का निरीक्षण कर लेते हैं.”
वे आगे लिखते हैं- “ भारत में प्राकृतिक आपदा, दुखी और पीड़ित लोगों को छोड़कर सबको बड़ी प्रिय है. स्थानीय राजनेता और
कर्मचारी ऐसे दुखद समय पर फूले नहीं समाते क्योंकि इससे उनकी छप्परफाड़ आमदानी के
दिन आ जाते हैं. आखिर यह व्यवस्था ही ऐसी बनाई हुई है कि आम आदमी को छोड़कर सबके
हित साधन का पूर्ण प्रबंध है.”
फर्जी लघु उद्योगों से मालामाल
उत्तर प्रदेश लघु उद्योग निगम के प्रबंध निदेशक रहने के
दौरान भ्रष्टाचार के अनेक किस्से श्री सुब्रमणियन ने लिखे हैं, जिनसे पता चलता है कि लघु उद्योगों के विकास की बजाय अधिकारी और इंजीनीयर
मालामाल हो गये.
वे लिखते हैं- “निगम का एक काम लघु उद्योगों को सरकारी नियंत्रण
वाला सस्ता कच्चा माल, लोहा और स्टील, आदि
उपलब्ध कराना था. अनेक लघु उद्योग कागजों पर स्थापित किये गये थे. विभिन्न नामों
और पते में थोड़ा अंतर करके पंजीकरण करा लिया जाता था. उनकी तरफ से कच्चे माल का
कोटा मांगा जाता था. यह माल खुले बाजार में बेच दिया जाता था.”
“एक योग्य, ईमानदार आईएएसअफसर की नियुक्ति उद्योग
विभाग के संयुक्त निदेशक के रूप में हुई थी. उसने व्यक्तिगत रूप से जांच कर बहुत
सारी फर्जी ईकाइयों का पंजीकरण निरस्त कर दिया. एक शाम उस युवक के घर कई हमलावर
घुसे और उस पर चाकुओं से हमला कर दिया. कई दिन अस्पताल में रहकर वह बच तो गया
लेकिन अपने पद की असली जिम्मेदारी वहन करने की क्षमता उसने खो दी.”
पदलोलुपता के दृष्टांत
इमरजेंसी (1975-77) के दौरान और उसके बाद भी कुछ समय तक
श्री सुब्रमणियन उत्तर प्रदेश में नियुक्ति विभाग के सचिव थे. इस दौरान अच्छी कुर्सी पाने और उस पर टिके रहने
की आईएएस अधिकारियों की तिकड़मों के किस्से उन्होंने बयान किये हैं. एक प्रकरण मुख्य
सचिव की कुर्सी का है. तत्कालीन मुख्य सचिव महमूद बट सरकारी काम से नैरोबी गये थे. उनके लौटने से पहले ही कृपा नारायण श्रीवास्तव को नया मुख्य सचिव बनवाने
का आदेश जारी करने के लिए श्री सुब्रमणियम से कहा गया.
श्री सुब्रमणियम ने लिखा है- “मैंने मुख्यमंत्री के सचिव
श्री धर से साफ कह दिया कि जब तक मुख्यमंत्री के लिखित हस्ताक्षरित आदेश नहीं
मिलेंगे तब तक औपचारिक आदेश जारी नहीं किया जा सकता. (मुख्यमंत्री का लिखित आदेश आ जाने के बाद) मैंने श्री श्रीवास्तव को सुझाव
दिया कि आपको कार्यभार सम्भालने से पहले एक रात रुक कर श्री बट से मिलना चाहिए. पर
श्रीवास्तव तो आदेश मिलने के एक मिनट बाद ही मुख्य सचिव के कक्ष में जाकर कुर्सी
पर जम गये. उन्होंने मेज की दराजें खाली करके कागजात रात में ही श्री बट के घर
भिजवा दिये. यह अशिष्टता की पराकाष्ठा नहीं तो और क्या था?”
गिरगिट भी शरमा जाए.
इमरजेंसी हटने के बाद हुए चुनाव में राम नरेश यादव के
नेतृत्त्व में जनता पार्टी की सरकार बनी. श्री सुब्रमणियन के अनुसार- “नयी सरकार
के आते ही प्रशासन का पूरा चरित्र बदल गया. इमरजेंसी के अत्याचारों का जयकारा
बोलने वाले अब दूसरा मुखौटा लगा कर आ गये. अपने स्वार्थ के लिए वे ऐसे रंग बदलते
हैं कि गिरगिट भी शरमा जाये. यही कारण था कि श्रीवास्तव नयी सरकार में भी मुख्य
सचिव बने रहे.”
यू पी के राज्यपाल रहे चेन्ना रेड्डी के देर शाम राजभवन में
महिला-मिलन का उल्लेख करते हुए उन्होंने लिखा है कि “मुझे यह कहते हुए दु:ख हो रहा
है कि उन आगंतुकों में कुछ अधिकारियों की स्त्रियां भी होती थीं.”
‘आप मेरे जूते क्यों चाटते हो’
लम्बे समय तक दिल्ली और जिनेवा में विभिन्न जिम्मेदारियां सम्भालने
के बाद 1990 में श्री सुब्रमणियम उत्तर प्रदेश लौटे. उस वर्ष आयोजित ‘आईएएस सेवा सप्ताह’ का जिक्र करते हुए उन्होंने लिखा
है- “मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री की हैसियत से मुख्य अतिथि थे. लगभग दो सौ आईएएस
अधिकारियों को सम्बोधित करते हुए उन्होंने जो कहा उसने मेरी नींद उड़ा दी.
“उन्होंने जो कहा वह इस प्रकार है- ‘आपके पास श्रेष्ठ दिमाग और शिक्षा है. आपमें से कुछ बड़े विद्वान हैं. कुछ
तो ऐसे विद्वान हैं जिनके पास नोबेल पुरस्कार जीत सकने लायक दिमाग है. आपके पास
बढ़िया नौकरी है. आप बच्चों को अच्छी शिक्षा दिला सकते हैं.(फिर आवाज ऊंची करते
हुए) फिर आप मेरे पास आकर मेरे पैर क्यों छूते हो? मेरे जूते
क्यों चाटते हो? अपने व्यक्तिगत हित के लिए आप मेरे पास
क्यों आते हो? यदि आप ऐसा करोगे तो मैं आपकी इच्छानुसार काम
कर दूंगा और फिर आपसे अपनी कीमत वसूलूंगा.
“यह विस्मयकारी वक्तव्य था. इसने सारगर्भित ढंग से स्थिति
का सारांश प्रस्तुत कर दिया और इस इस्पाती ढांचे के ढहने का सटीक कारण बता दिया.”
श्री सुब्रमणियन का यह भी निष्कर्ष है- “अधिकतर नौजवान
अधिकारी मध्यम दर्जे के नहीं होते. वे योग्य, होनहार, उत्साही तथा
कार्य के प्रति पूर्णत: समर्पित होते हैं. स्थानीय दवाबों से निपट सकने की क्षमता
के साथ उनमें सच्चाई, समझ और ज्ञान की शक्ति होती है.....
किंतु प्रशासनिक वातावरण शीघ्र ही उन्हें आदर्शवादी लोकसेवक से तुच्छ और स्वार्थी
बाबुओं में बदल देता है.”
(http://thewirehindi.com/35497/demise-of-former-cabinet-secretary-tsr-subramanian/
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