Thursday, February 08, 2018

ये चराग जल रहे हैं/ माता महेश गिरि


मोहिनीदी से फिर मुलाकात की उम्मीद कम होती जा रही है. अब कहां भेंट होगी! हमसे गांव कबके छूट गया. वह भी क्या करने जाएगी गांव. उसकी ईजा, हमारी जेड़जा, जिंदा थी तो वर्षों में कभी एक चक्कर लगा लेती थी. कभी चिट्ठी भेजती थी. अब न वह जेड़जा रहीं, न परिवार का कोई और गांव में बचा है. क्या करने जाएगी वहां. वैसे भी, अब क्या माया-मोह बचा होगा उसमें.  मुश्किल ही है मुलाकात.

फिर भी, एक क्षीण-सी आशा सिर उठा लेती है. कभी किसी शहर में अचानक भेंट हो जाए या उसकी कोई खबर मिल जाए.

मोहिनी दी के बारे में लिखना कहां से शुरू करूं! कितना कम जानता हूँ उसके बारे में. कितना कम रहा हूँ मैं अपने गांव में और मोहिनीदी के साथ तो बहुत ही कम. जो कुछ चित्र हैं स्मृति में वे बहुत पुराने, बचपन के दिनों के हैं. तब की कुछ यादें चलचित्र की तरह अक्सर सामने आ जाती हैं. ऐसा लगता है जैसे मैं अपनी उम्र की खिड़की से कूद कर बचपन के उन दिनों में चला आया हूँ.

ऐसा ही एक स्मृति-चित्र है. हमारी बाखली के ठीक पीछे थोड़ी सी ऊंचाई पर ग्राम देवता छुरमल का मंदिर है. विशाल बांज-वृक्ष के नीचे छोटा-सा मंदिर भवन और उसकी बाईं तरफ एक मण्या. मण्या माने शरणस्थली, यात्रियों, खासकर जोगियों के वास्ते. जोगी तो शायद ही कभी वहां आते. वह मण्या हम बच्चों का अड्डा था.

तो, इस चित्र में उसी मण्या के पास मंदिर परिसर की दीवार पर हम कुछ बच्चे खड़े हैं और दम साधे नीचे देख रहे हैं. थोड़ा-सा नीचे, दो घरों की बाखली के एक तरफ अखरोट के पेड़ के नीचे महिलाओं का मजमा लगा है. वे सब बड़ी ममता से, शिबौ-भाव से एक छोटी लड़की को घेरे खड़ी हैं जिसके सिर के बाल जड़ से साफ किये जा रहे हैं. लड़की रो रही है. विरोध कर रही है. बाल नहीं काटने दे रही. मगर दो-चार लोगों ने उसे पकड़ रखा है. एक आदमी ब्लेड से उसका सिर मूंड़ रहा है.

वह लड़की हमारी मोहिनीदी है. दूसरी पीढ़ी की हमारी बहन. मुहन्दीकहते थे हम उसे. बड़े लोग कहते- , मुहनि’.

मोहिनीदी के साथ वह बाल काटने वाली अजूबी घटना नहीं हुई होती तो शायद उसका होना-न होना मेरे लिए कोई खास मायने नहीं रखता, जैसे उसके साथ की और लड़कियों से हमारा कोई वास्ता नहीं था. उस उम्र के लगभग सारे लड़के याद आते हैं लेकिन लड़कियों में सिर्फ मोहिनीदी. अगर यह घटना नहीं हुई होती तो मोहिनीदी भी मेरे लिए याद रखने लायक नाम न होता.

गांव में उस अखरोट के पेड़ के नीचे जब मोहिनीदी का जबरन मुण्डन हो रहा था तब शायद वह दसेक  साल की और हम पांच-छह वर्ष के आस-पास रहे होंगे. तो, मंदिर की दीवार से नीचे यह तमाशा देखते हुए हम सब हंस रहे हैं, मोहिनीदी को चिढ़ा रहे हैं और उसका रोना तेज होता जा रहा है. आठ-दस साल की लड़की के बाल जड़ से साफ किये जा रहे हों तो उसे कैसा लगेगा! वह दहाड़ मार कर रोएगी नहीं क्या! उस समाज में, जहां उपनयन संस्कार होने तक लड़कों के भी बाल नहीं काटे जाते, एक लड़की का सिर जबरन साफ किया जा रहा था. घोर अपशकुन! इसलिए हमें डांटा जा रहा है.

बात यह थी कि मोहिनीदी के सिर में इतनी ज्यादा जूं हो गई थीं कि दूर से नजर आ जाती थीं और बालों से होकर उसके पूरे शरीर में और जमीन पर टपका करती थीं. वह जहां बैठ जाती, वहीं जूं रेंगती दिखाई देतीं. उसके दोनों हाथ हर वक्त सिर खुजलाने में लगे रहते थे. कोई उसकी जूं नहीं बीन देता था. वे इतनी ज्यादा थीं कि बीनी ही नहीं जा सकती थीं. लोग उसके पास बैठने से कतराते थे. वह रोनी सूरत बनाए इधर-उधर घूमा करती और दुरदुराई जाती थी.

हमारी जेड़जा, मोहिनीदी की ईजा लगभग अंधी थी. कोई रोग था उसकी आंखों में जिसने उसकी रोशनी छीन ली थी. सफेद पर्दा-सा पड़ गया था उसकी आंखों में. उसे चीजें झिलमिल-झिलमिल यानी छाया जैसी दिखती थीं. आंखों में हर वक्त कीचड़ लगा रहता था. कोई टोकता तो धोती के पल्लू से पोछ लेती. उस सुदूर पहाड़ी गांव में इलाज की कोई व्यवस्था न थी. मोटर सड़क ही करीब दस मील दूर काण्डा में थी. आंख का अस्पताल जाने कितनी दूर रहा होगा. उसके पति यानी हमारे जेठबाज्यू जीवित नहीं थे. कौन इलाज कराता.

इलाज के नाम से बचपन की दो कटु स्मृतियां कौंध जाती हैं. हमारे एक जेठबाज्यू (ताऊजी) बीमार पड़े. बहुत जोर का पेट दर्द हुआ उन्हें. तड़पते-चीखते थे. कभी सिसौंण (बिच्छू घास) थपोड़ा जाता, कभी डाम (लोहा गरम कर पेट दागना) डालते. उनके दोनों बेटे फौज में थे. किसी ने सलाह दी कि रम रखी होगी घर में, थोड़ी पिला दो. जेड़जा ने बक्सा खोल कर रम की बोतल निकाली. किसी ने गिलास में ढाल कर पिला दी. जेठबाज्यू थोड़ी देर में शांत हो गये. प्राण शेष रहते होते तो दर्द होता!

दूसरी याद और भी डरावनी और कारुणिक है. हमारे विस्तारित परिवार में चंद दिन का एक नन्हा शिशु बीमार पड़ा. उलटी-दस्त से पस्त. मां का दूध पीना भी उसने छोड़ दिया था. जिसने जो बताया, वैसा किया गया. बच्चे की उखड़ती सांसें देख किसी ने नायाब दवा बतायी. हम बच्चों को बाड़े की मिट्टी खोद कर कुर्मू (मिट्टी के भीतर रहने वाला काला-सफेद मोटा कीड़ा) ढूंढने को कहा गया. हम फौरन चार-पांच कुर्मू खोद लाये. कुर्मू को मारकर उसकी लुगदी बच्चे के होंठ पर लगायी गयी. कुछ ही देर में स्त्रियों का विलाप गांव की चोटियों से टकरा कर गूंजने लगा. वह चीत्कार आज भी दिमाग में गूंजती है तो कंपकंपी होने लगती है.  

आज सन 2018 में भी इलाज की कोई व्यवस्था नहीं ठहरी उन बीहड़ गांवों में. मैं तो आपको सन 1960  का किस्सा बता रहा हूँ.

तो, मामूली ही रोग रहा होगा और बिना इलाज हमारी वह जेड़जा आंखों की रोशनी खो बैठी. अंदाजे से घर-बाहर आती-जाती, सारे काम करती. थोड़ी खेती-बारी भी कर लेती. सार पड़ गयी थी उसे. धान गोड़ने बैठती तो मजाल है कि घास की बजाय धान का एक भी पौधा उखड़ जाए! महिलाएं मजाक करतीं- परुली की ईजा, तुमने तो सब धान उखाड़ कर फेंक दिये!वह जवाब देतीं- तो ले जाकर अपने खेत में रोप लो. बढ़िया नानि-धानि का बीज है! 

तीन लड़कियां थीं जेड़जा की. बड़ी परुली का तब ब्याह हो चुका होगा और छोटी भागुली को हमने अपने बड़े होने पर देखा-जाना. मैंने कहा न कि अपने हम उम्र लड़कों के अलावा मुझे औरों की खास याद नहीं. उन्हें बड़े होने पर ही जाना-पहचाना.

तो,  बेहिसाब जूं से निजात पाने के सारे सम्भव घरेलू नुस्खे बेकार हो गये होंगे. तभी कुछ लोगों ने मंत्रणा कर मोहिनीदी का मुण्डन कर देने का फैसला किया होगा. इस फैसले का विरोध भी जरूर हुआ होगा. बड़ी अपशकुनी बात ठहरी लड़की के बाल काटना. मगर कोई चारा न देख अंतत: उसका मुण्डन कर दिया गया.
मुण्डन होने के बाद मोहिनीदी कैसी लग रही थी, यह बिल्कुल याद नहीं. क्या गंजी मोहिनीदी को हमने चिढ़ाया था? आज दिमाग पर बहुत जोर डालने के बाद भी कुछ याद नहीं पड़ता. उस स्मृति-चित्र में और कुछ दर्ज नहीं. वह चित्र बाल मूंड़े जाने के क्लोज-अप तक सीमित है. उसी पल में ठहरा हुआ. स्वाभाविक ही है कि मोहिनीदी को जूं से निजात मिल गयी होगी. बाल ही नहीं रहे तो जूं कहां रहतीं. धीरे-धीरे नये बाल निकल आये होंगे. शायद लम्बे-घने या क्या पता!

उसी के एक-डेढ़ साल में गांव मुझसे छूट गया. गांव से बहुत दूर था स्कूल जहां कई बच्चे जाते थे लेकिन अति-सतर्क ईजा ने मुझे वहां नहीं भेजा. बाबू के साथ लखनऊ पठा दिया. गांव छूटा तो बहुत कुछ पीछे रह गया. गांव की, ईजा की, दोस्तों की नराई लगती थी लेकिन लखनऊ का नया, पहाड़ से बहुत भिन्न संसार आकर्षित भी करता था. उस उम्र में मन बहुत तेजी से आगे भागता है. पीछे देखना ही नहीं चाहता. लखनऊ में मेरी नयी दुनिया बन गयी. नये लोग, नये दोस्त, नये खेल और स्कूल. जैसे पंख उग आये हों. गांव बहुत पीछे रह गया. अब गांव से उतना ही रिश्ता रह गया जितना स्कूल का गर्मी की छुट्टियों से होता है.

गर्मियों का डेढ़-दो महीना गांव में बीतता. हम आजाद पंछी की तरह उड़ते रहते. दिन भर धमाचौकड़ी और जंगल में भटकना. हिसालू-काफल-किल्मोड़ा-बेड़ू और जाने क्या-क्या. गांव की जीवन धारा से जैसे हमारा कोई वास्ता ही न था. खाना खाने की अनेकानेक पुकार भी हम अनसुना कर देते. ऐसे में मोहिनीदी क्या, कोई भी हमारे राडार में नहीं था. किसी की शादी हो तो जरूर हम बच्चे अपना कौशल दिखाते. रंगीन कागज की पताकाएं बनाकर आंगन सजाते और दूल्हे के बाप को चूतियाघोषित करने वाले गीत की कुछ लाइनें दिन भर गाते रहते और डांट खाते. हाँ, पोस्टमैन के गांव आने पर हमारी पूछ बढ़ जाती. हमें चिट्ठियां पढ़ कर सुनानी होतीं और कहे मुताबिक लिख देनी होतीं.

पता नहीं कितनी गर्मियां बीती होंगी, लेकिन बहुत ज्यादा नहीं क्योंकि हमारे कैशोर्य ने बचपन को पूरी तरह विदा नहीं किया था. वह जेठ की एक दोपहर थी जब लोग खेतों और जंगल का काम जल्दी निपटाने के बाद भात खाकर कुछ घड़ी आराम कर रहे होते हैं. कोई घर के भीतर और कोई मक्खियों से बचने के लिए छुरमल के मंदिर में शिलंग और बांज के पेड़ की छाया तले. हम उस वक्त भी काफल के पेड़ों की डालियों में बंदरों की मानिंद उछल-कूद करते. ऐसे में गांव में चिट्ठीरसेन आया. वह महीने-बीस दिन में एक चक्कर लगाया करता था. बारी-बारी कई गांवों में जाना होता था उसे. लोग मनी-ऑर्डर एवं चिट्ठियों का इंतजार करते. आतुर महिलाओं की निगाह गांव के रास्ते पर लगी रहती. चिट्ठीरसेन आता दिखता तो गांव में हाँका-सा पड़ जाता.

उस दोपहर भी चिट्ठीरसेन आता दिखाई दिया तो हल्ला मच गया. प्रत्याशा में हमारी पुकार शुरू हो गयी- झट्ट से आओ रे नानतिनो, चिट्ठीसेन आ गया. हम दौड़ते हुए पहुंचे. छुरमल के मंदिर-प्रांगण में सब जुट गये. मनी-ऑर्डर पर गवाह के रूप में दस्तखत कर सकने वाले, चिट्ठी पढ़ और लिख देने वाले, लिखवाई हुई चिट्ठी लेकर कबसे इंतजार करने वाले, सब. पोस्टमैन ठीक से बैठ भी नहीं पाया था कि चारों तरफ से उस पर सवालों की बौछार होने लगी- हमारी चिट्ठी आयी?’ ‘हमारे इनकी तो आयी होगी, ना?’, ‘मनीआडर आया है?’, ‘हमारे तो बच्चों ने कबसे कुशल नहीं दी. आज तो आयी होगी?’

सबकी आतुरता और बेचैनी समझता था पोस्टमैन. सबसे पहले वह मनी-ऑर्डर की सूचना देता- तुम्हारा, तुम्हारा, तुम्हारा आया है. तुम्हारा तो नहीं पहुंचा अभी. आता होगा.’ उनका उदास मंह देख सात्वना भी देता- उस तरफ की सड़क टूटी है बल, डाक नहीं आ पा रही. धैर्य रखो.फिर  वह चिट्ठियां निकालता. सबको अच्छी तरह जानता था वह. चिट्ठी पाने वाले को और भेजने वाले को भी. पाने वाले के नाम कभी-कभार एक ही होते तो भेजने वाले के नाम से पता चल जाता कि किसकी है वह चिट्ठी.

उस दिन सबसे अंत में पोस्टमैन ने थैले से एक अंतर्देशीय पत्र और निकाला था. खुद अचम्भित-से उसने पूछा - मगर ये अन्तर्देशीय किसका होगा? मिले बसंती देवी, भेजने वाले महेश गिरि?’

-‘हैं? महेश गिरि? यहां तो कोई नहीं हुआ महेश गिरि किसी को चिट्ठी भेजने वाला! बसंती देवी तो हुईं तीन-चार.सब आश्चर्य में पड़ गये.

एक-कर बसंती देवी की पहचान की गयी. एक हुई पार रम्मू की ईजा. दया की घरवाली का नाम भी बसंती हुआ. और, हां, गोविंदी की ईजा भी हुई बसंती.


आज ख्याल आता है कि ऐसे ही मौकों पर गांव की उन स्त्रियों के नाम याद किये जाते थे. वर्ना पूरा पहाड़ अपनी पीठ पर ढोने वाली वे महिलाएं सदा दुरुली की ईजा’, ‘भुवन की ईजा’, ‘कांतिबल्लभ की घरवालीवगैरह-वगैरह ही ठहरीं. कोई-कोई चिट्ठी और मनी-ऑर्डर मिले भवानी दत्त की घरवाली कोया मिले धार में वाले रमेश की माता जी कोके नाम भी आने वाले ठहरे. शकुनाखर हों या चिट्ठी-मनी-ऑर्डर, उन महिलाओं की पहचान ऐसे ही होने वाली हुई. नाम गुम हो जाने वाला ठहरा उनका.

खैर, उस दिन हर बसंती देवी से खोद-खोद कर पूछा गया कि है कोई महेश गिरि, तुम्हें चिट्ठी भेजने वाला? याद करो तो!

न-न जी, कोई नहीं है हमारा इस नाम का. किसी ने अक्ल लगाई- भेजने वाले महेश गिरि हैं कहां के? यह तो देखो. लिखा होगा.

मैं माना जाता था होशियार लड़का. सो, वह अंतर्देशीय मुझे पकड़ाया गया. मैंने जोर से पढ़ा था- भेजने वाले महेश गिरि. महंत .... का आश्रम.आश्रम का नाम अब याद नहीं रहा.

आश्रम के नाम ने भ्रम और बढ़ा दिया था. नहीं जी, यहां किसी की नहीं है यह चिट्ठी. गलत आ पड़ी होगी. लेकिन मिले बसंती देवी के आगे सही-सही और पूरा पता हमारे ही गांव का था.

-‘खोल कर पढ़ लो, पता चल जाएगा. इस पर सहमति बन गयी थी.

मुझे ही आदेश हुआ अंतर्देशीय खोल कर पढ़ने का. याद है कि अंतर्देशीय खोलते हुए अजीब घबराहट-सी महसूस हुई थी. सब के सब दम साधे चिट्ठी पढ़े जाने का इंतजार कर रहे थे. (क्रमश:)

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