Monday, March 05, 2018

कितनी दूर तक चलेगी सपा-बसपा जुगलबंदी ?


उत्तर प्रदेश के दो लोक सभा उप-चुनावों- गोरखपुर और फूलपुर- में समाजवादी पार्टी के प्रत्याशियों को बहुजन समाज पार्टी के समर्थन और फिर राज्य सभा चुनावों में सपा के समर्थन से बसपा प्रत्याशी को जिताने के समझौते की घोषणा चौंकाने वाली ही नहीं, ऐतिहासिक भी है.

मायावती या उनका प्रत्याशी सपा के समर्थन से राज्य सभा जाएंगे, यह इतिहास का खुद को दोहराना रहा है या कोई नयी इबारत लिखी जाने वाली है?

पचीस वर्ष पहले सन 1993  में उग्र हिंदुत्त्व की लहर पर सवार भारतीय जनता पार्टी को उत्तर प्रदेश की सत्ता में आने से रोकने के लिए समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी में चुनावी करार हुआ था. यह समझौता ऐतिहासिक इस मायने में था कि पिछड़ों और दलितों के आक्रामक समाजिक रिश्ते चुनावी गठबंधन में बदल गये थे. बसपा के संस्थापक अध्यक्ष कांशीराम और तब सपा के सर्वेसर्वा मुलायम सिंह यादव की यह रणनीति सफल हुई थी. बाबरी मस्जिद ध्वंस का श्रेयऔर अयोध्या में राम मंदिर बनाने के संकल्प के साथ चुनाव लड़ने वाली भाजपा तब सत्ता से वंचित रह गयी थी, हालांकि सबसे ज्यादा विधायक उसी के जीते थे.

जून 1995 में सपा-बसपा नेताओं की हिंसक झड़पों और राज्य अतिथि गृह में मायावती पर हमले के बाद यह समझौता टूट गया था. भाजपा ने इस लड़ाई का खूब फायदा उठाया. अपने समर्थन से एकाधिक बार मायावती की सरकार बनवाकर उसने सपा-बसपा की दरार चौड़ी कर दी. पिछले 23 वर्षों में चुनावी दोस्ती की बात कौन कहे, मुलायम और मायावती ने एक दूसरे को फूटी आंख नहीं देखा.

अखिलेश के नेतृत्त्व में आई नरमी 

सन 2016 में समाजवादी पार्टी के आंतरिक कलह के बाद मुलायम सिंह के नेपथ्य में जाने और पार्टी की कमान अखिलेश यादव के हाथ आने के बाद इन तल्ख रिश्तों में कुछ मुलायमियत के संकेत मिले थे. 2017 में उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव के समय बिहार की तर्ज पर महागठबंधन बनाने के प्रस्ताव पर अखिलेश ने बसपा के साथ मेल-मिलाप की सम्भावना पर हामी भरी थी, हालांकि तब मायावती ने प्रस्ताव सिरे से खारिज कर दिया था. फिर सपा और कांग्रेस ने मिल कर चुनाव लड़ा था.

मायावती के रुख में बदलाव तब दिखा जब बिहार में नीतीश कुमार के भाजपा के साथ चले जाने के बाद लालू यादव ने भाजपा-विरोधी दलों की बड़ी रैली पटना में बुलाई और अखिलेश के साथ मायावती को भी आमंत्रित किया. मायावती रैली में तो नहीं गईं लेकिन भाजपा के खिलाफ मोर्चा बनाने के प्रस्ताव पर सहमत दिखीं. तब उन्हंने कहा था कि बसपा भाजपा-विरोधी मोर्चे में शामिल हो सकती है बशर्ते सीटों का बंटवारा पहले कर लिया जाए. उसके बाद बात आयी-गयी हो गयी थी.

दिसम्बर 2017 में गुजरात में भाजपा की पुन: विजय के बाद  उत्तर प्रदेश में होने वाले दो लोक सभा उप-चुनावों में विपक्ष का संयुक्त उम्मीदवार खड़ा करने की चर्चा चली थी. गोरखपुर और फूलपुर लोक सभा सीटें क्रमश:  मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी और उप-मुख्यमंत्री केशव प्रसाद वर्मा के इस्तीफे से खाली हुई हैं. यह भी चर्चा थी कि फूलपुर से मायावती को संयुक्त विपक्ष का प्रत्याशी बनाया जाए तो भाजपा को हराया जा सकता है. मायावती ने कुछ मास पूर्व राज्य सभा में अपनी बात ठीक से रखने का मौका नहीं दिये जाने का आरोप लगा कर सदन से इस्तीफा दे दिया था.

वोटों का गणित

इसी दौरान राज्य सभा चुनाव का गणित भी चर्चा में रहा. बसपा अपने मात्र 19 विधायकों के बल पर एक भी राज्य सभा सीट नहीं जीत सकती. उधर 47 विधायकों वाली सपा के पास अपना एक प्रत्याशी जिताने के बाद 10 वोट बचते हैं. अगर ये दस वोट बसपा को मिल जाएं तो चंद और वोट (कांग्रेस से) जुटाकर बसपा राज्य सभा की एक सीट जीत जाएगी. अन्यथा आसार हैं कि भाजपा जोड़-तोड़ से राज सभा की नौवीं सीट भी जीत लेगी. आठ सीटें जीतने की स्थिति में वह आराम से है.   

उप-चुनावों का मत-गणित भी रोचक है. 2014 के लोक सभा चुनाव में गोरखपुर में भाजपा को मिले मत (51.80%) सपा ( 21.75%) और बसपा (16.95%) को मिले कुल मतों से काफी ज्यादा थे. मगर 2017 के विधान सभा चुनाव में सपा+कांग्रेस और बसपा  के कुल वोट पांच में से चार विधान सभा क्षेत्रों में भाजपा से अधिक थे.

यही हाल फूलपुर लोक सभा सीट का भी था. आसन्न उप-चुनाव में कांग्रेस ने भी अपने प्रत्याशी खड़े किये हैं. राज्य में कांग्रेस की पतली हालत को देखते हुए कहा जा सकता है कि सपा-बसपा के वोटर एकजुट रहे तो भाजपा के लिए चुनाव कतई आसान न होगा.

इस सम्भावना पर दोनों तरफ से कोई बोल नहीं रहा था, भीतर-भीतर बातचीत अवश्य चल रही थी. मायावती दोनों लोक सभा सीटों के बसपा कोआर्डिनेटरों से लगातार सम्पर्क में थीं.
तीन मार्च को त्रिपुरा, नगालैण्ड और मेघालय के चुनाव नतीजे भाजपा के पक्ष में आते ही लगता है कि सपा-बसपा को साथ आने की जरूरत शिद्दत से महसूस होने लगी. अखिलेश यादव पहले से ही एकता के पक्ष में थे. मायावती को भी वक्त की नजाकत समझ में आ गयी और समझौते का ऐलान हो गया.

मगर दोनों तरफ सतर्कता भी

इस समझौते की घोषणा अखिलेश ने की न मायावती ने. स्थानीय नेताओं ने इस सहमति का ऐलान किया. दोनों फिलहाल इसे घोषित रूप से बहुत महत्त्व नहीं दे रहे. इसकी कुछ खास वजह हैं. एक तो यही कि दोनों के रिश्तों की खटास अभी पूरी मिटी नहीं है. दोनों के जनाधार वाली पिछड़ी और दलित जातियां परम्परागत टकराव वाली हैं. दोनों मिलकर भाजपा को कड़ी टक्कर दे सकते हैं, इस आशंका से समझौता तोड़ने की साजिशें बाहर-भीतर से हो सकती हैं. सतर्कता स्वाभाविक है.

मायावती ज्यादा सावधान हैं. जब मीडिया में यह कयास लगाये जाने लगे कि सपा-बसपा का यह चुनावी समझौता 2019 के लोक सभा चुनाव तक जा सकता है तो उन्होंने तुरन्त सफाई दी कि बसपा ने किसी पार्टी से चुनावी समझौता नहीं किया है. हम सिर्फ भाजपा को हरा सकने वाले मजबूत उम्मीदवारों का समर्थन कर रहे हैं.
मायावती इस चुनावी रणनीति को परखना चाहती हैं. वे जानती हैं कि उनके कहने पर दलित वोट सपा की तरफ चला जाएगा. उनकी चिंता यह होगी कि सपा का वोटर बसपा का साथ देता है या नहीं. फिर, दलित वोटों में भाजपा की सेंध भी उनकी चिंता का बड़ा कारण होगा. कहीं ऐसा तो नहीं कि पिछड़ों (यानी सपा) का साथ देने की बजाय दलित वोटर भाजपा के साथ जाना चाहें? भाजपा इस जोड़-तोड़ में कोई कसर नहीं छोड़ने वाली.

2019 की सम्भावनाएं

बड़ा सवाल स्वाभाविक ही यह उठ रहा है कि क्या सपा-बसपा की यह जुगलबंदी 2019 के लोक सभा चुनाव में किसी बड़े भाजपा विरोधी मोर्चे का आधार बनेगी? त्रिपुरा के नतीजों से चिंतित ममता बनर्जी से लेकर तेलंगाना के टी चंद्रशेखर राव और भाजपा से खिन्न चल रहे तेलुगु देशम के नेता ऐसी सम्भावना पर चर्चा कर ही रहे हैं. सपा-बसपा का साथ आना इस मुहिम को और हवा दे सकता है.

बिहार में एक-दूसरे के धुर विरोधी लालू और नीतीश भाजपा को हराने के लिए एक मंच पर आये और सफल हुए थे. उत्तर प्रदेश में कट्टर शतुत्रा पालने वाले सपा-बसपा को साथ लेना विपक्षी एकता के सूत्रधारों को सबसे कठिन लगता रहा है. आज जब वे स्वयं परस्पर सहमति तक पहुंचे हैं तो आगे की राह आसान बन सकती है.
उत्तर प्रदेश की 80 लोक सभा सीटें दिल्ली की सत्ता तक पहुंचने की राह आसान करती हैं. अगर यहां भाजपा के मुकाबले तगड़ा मोर्चा बने तो 2019 की लड़ाई कांटे की हो जाएगी. इसकेलिए सपा-बसपा की दोस्ती अनिवार्य होगी.

विपक्षी एकता के लिए मायावती के रुख में आते सकारात्मक परिवर्तन का संकेत यह भी है कि उन्होंने मध्य प्रदेश में कांग्रेस को समर्थन देने की पेशकश की है. उन्होंने कहा है कि अगर यूपी में कांग्रेस के साथ विधायक बसपा को समर्थन दें तो  बसपा मध्य प्रदेश से राज्य सभा के चुनाव में कांग्रेस को समर्थन दे सकती है. दरअसल, बसपा को यूपी से अपने प्रत्याशी की जीत सुनिश्चित करने के लिए सपा के समर्थन के अलावा कांग्रेस की मदद भी चाहिए होगी. मध्य प्रदेश में बसपा के चार विधायक हैं. हाल के उप-चुनावों में जहां कांग्रेस जीती, वहां बसपा ने अपने प्रत्याशी खड़े नहीं किये थे.

मायावती जाएंगी राज्य सभा या कोई और?       

यह प्रश्न भी स्वाभाविक है कि सपा के सहयोग से बसपा किसे राज्य सभा भेजना चाहती है? क्या मायावती उम्मीदवार होंगी? कुछ महीने पहले ही उन्होंने राज्य सभा से त्याग पत्र दिया है. ऐसे में यही सम्भावना ज्यादा लगती है कि वे अपने भाई आनंद कुमार को राज्य सभा भेजेंगी, जिसे उन्होंने हाल में पार्टी का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाया है.

मायावती के अगले कदम का आकलन करना हमेशा कठिन रहा है. पार्टी को मजबूत करने में ज्यादा समय देने के लिए वे खुद अलग रह कर आनन्द को चुनाव लड़ा सकती हैं. या क्या पता, इस आशंका से कि भाजपा विरोधी मुहिम का हिस्सा बनने पर मोदी सरकार आय से अधिक सम्पति के मामलों में सीबीआई को उनके पीछे लगा सकती है, वे पुन: राज्य सभा पहुंच कर विशेषाधिकार का एक कवच ओढ़ने की सोच रही हों.    


 (https://hindi.firstpost.com/politics/support-akhilesh-yadav-samajwadi-party-in-byelection-may-be-a-long-term-strategy-of-mayawati-93954.html)

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