Saturday, March 17, 2018

हमारे बदहाल शहरों की लाचार सरकारें



कुल 10 नम्बर के इम्तहान में एक बच्चे को 3.8 नम्बर मिलें तो आप उसे क्या कहेंगे? बच्चा आपका हुआ तो शायद गुस्से और अपमान से आग-बबूला ही हो जाएं. बहुत नाराज होंगे, डाटेंगे, जाने-जाने क्या कह देंगे. हैं न! मगर ये नम्बर किसी बच्चे को परीक्षा में नहीं मिले हैं. नगर नियोजन और प्रबंधन के सर्वेक्षण में 10 में से 3.8 नम्बर पाने वाला आपका शहर लखनऊ है. अब आप लखनऊ को क्या कहेंगे?

बंगलूरु का एक एनजीओ पिछले पांच साल से देश के 23 प्रमुख शहरों का सर्वेक्षण करता है. सर्वेक्षण के मुद्दे हैं कि नगर नियोजन कानून का कितना पालन होता है, इस कानून का उल्लंघन रोकने के लिए कितने व कैसे उपाय हैं, स्थानीय शासन यानी नगर निगम कितना शक्ति-सम्पन्न है, मेयर को कितने अधिकार प्राप्त हैं, नगर की विविध क्षमताएं कैसी हैं, उसके आर्थिक संसाधन क्या हैं, नगर के नियोजन और प्रबंध में नागरिकों की भागीदारी कितनी है, आदि.

लखनऊ को 23 शहरों में 13वां स्थान मिला है. वैसे, इस हालात के लिए बहुत अफसोस करने की जरूरत नहीं है. सर्वेक्षण में पहला स्थान पाने वाले पुणे को 5.1 अंक मिले हैं. कॉलकाता को 4.6 और दिल्ली को 4.4 और जिस सूरत शहर की तारीफ कई कारणों से की जाती है उसे 4.5 अंक हासिल हुए हैं. 23 में से 12 शहरों को चार से कम ही अंक मिले. यानी हमारे शहरों की हालत सामान्यत: काफी खराब है.

सर्वेक्षण से इसके कारणों का संकेत भी मिलता है. शहरों का शासन-प्रशासन चलाने वाले नगर निगमों की हालत बहुत खराब पायी गयी है, आर्थिक और प्रशासनिक दोनों तरह से. सभी नगर निगमों के पास आय के संसाधन बहुत कम हैं. सबसे अच्छा नगर निगम भी कुल खर्च का मात्र 39% प्रतिशत अपने संसाधनों से कमा पाता है. सभी जगह कर-वसूली का हाल बहुत बुरा है. उन्हें आर्थिक सहायता के लिए राज्य या केंद्र सरकार का मुंह देखना पड़ता है. आधे से ज्यादा नगर निगम अपने कर्मचारियों का वेतन भी कमा नहीं पाते.

निकायों को सशक्त और अधिकार सम्पन्न बनाने के लिए 74वां संविधान संशोधन किया गया था मगर दु:ख की बात है कि संविधान ने नगर निगमों को जिन 18 प्रमुख दायित्वों का जिम्मा सौंपा था, वे उन्हें दिये ही नहीं गये. सरकारी विभागों ने उन्हें अपने कब्जे में ले लिया. लखनऊ नगर निगम के पास 18 में से मात्र सात दायित्व हैं. बड़े बजट वाले ज्यादातर कामों पर विकास प्राधिकरण जैसे विभागों का कब्जा है. इसलिए नगर निगम वित्तविहीन और शक्तिहीन हैं. मेयर भी लाचार ही हैं

ज्यादातर शहर बाढ़-जल भराव, कूड़े-कचरे, आग लगने के हादसों, जर्जर भवनों के ढहने, प्रदूषित हवा-पानी, डेंग्यू जैसे रोगों के प्रकोप, आदि से ग्रस्त-त्रस्त हैं. पुणे को छोड़ कर कोई भी नगर निगम अपने नागरिकों को नगर की बेहतरी के प्रयासों में शामिल नहीं करता. स्पष्ट है कि नागरिकों का अपने शहर के प्रति लगाव नहीं है. कोई भी नगर निगम यह जांचने-मापने का प्रयास नहीं करता कि नागरिक उसके-काम-काज से कितने संतुष्ट हैं.

निष्कर्ष निकलता है कि हमारे नगरों की दयनीय हालत के लिए सरकार जिम्मेदार है, जिसने 73वें-74वें संविधान संशोधन की भावना के साथ खिलवाड़ किया है. निकायों को इतना अधिकार सम्पन्न बनाया ही नहीं, जितना संविधान कहता है. मेयर के हाथ बांध दिये गये हैं, जिसे कि शहर के मुख्यमंत्री-जैसा अधिकार सम्पन्न होना चाहिए था.

इसके बावजूद हमारा नगर निगम 10 में से 3.8 नम्बर पाया है. अब आप क्या कहना चाहेंगे?  

(सिटी तमाशा, 17 मार्च 2018) 


No comments: