Tuesday, March 06, 2018

किंतु राजनीति का चरित्र न बदला



त्रिपुरा, नगालैण्ड और मेघालय के चुनाव नतीजों से भारतीय जनता पार्टी का सही अर्थों में अखिल भारतीय स्वरूप प्राप्त करना, बंगाल-तेलंगाना-आंध्र-महाराष्ट्र से भाजपा-विरोधी राष्ट्रीय मोर्चा बनाने की सुगबुगाहट और उत्तर प्रदेश के उप-चुनावों में भाजपा को हराने के लिए धुर-विरोधी सपा-बसपा का साथ आना, तीनों बातें एक साथ हुई हैं. यह सिर्फ संयोग है या राष्ट्रीय राजनीति की प्रवृत्तियों की पुनरावृत्ति का प्रतीक?

भारतीय जनता पार्टी राष्ट्रीय स्तर पर आज वहां विराजमान है, जहां लम्बे समय तक कांग्रेस का कब्जा रहा. कभी उत्तर भारत के कुछ राज्यों तक सीमित भाजपा, दक्षिण भारत से लेकर पूर्वोत्तर के राज्यों तक अपना झण्डा गाड़  चुकी है, जहां कभी मतदाता उसका नाम भी नहीं जानते थे. अभी हाल तक माना जाता था कि कांग्रेस की अखिल भारतीयता का मुकाबला भाजपा  नहीं कर सकती. आज परिदृश्य हमारे सामने है. पहचान के रूप में कांग्रेस की राष्ट्रीय व्याप्ति भले हो, राजनैतिक सत्ता के तौर पर वह देश के  कुछेक कोनों में सिमट कर रह गयी है. 

अब चंद राज्यों को छोड़ कर पूरे देश में भाजपा अपने सहयोगी दलों के साथ सत्ता में है. लेकिन इसी के साथ  भाजपा के विरोध में आवाज भी उठने लगी हैं. रोचक यह कि विरोध में उठ रहे ये स्वर ठीक वैसे ही हैं जैसे कभी केंद्र की कांग्रेस सरकारों के खिलाफ उठा करते थे.

विरोध का झण्डा उठाने वालों में कुछ तो एनडीए गठबंधन में भाजपा के साथ हैं और केंद्र सरकार में उनकी भागीदारी भी है. तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव ने चंद रोज पहले राष्ट्रीय स्तर पर गैर-भाजपाई-गैर-कांग्रेसी तीसरे मोर्चे की वकालत की तो ममता बनर्जी ने ही नहीं, तेलुगु देशम और शिव सेना के नेताओं ने भी उनसे सहमति जताई. तेलुगु देशम और शिव सेना एनडीए में शामिल हैं.

वाईएसआर कांग्रेस के नेता और तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव  ने जनता का तीसरा मोर्चाबनाने की पहल इसलिए की है कि वे संघीय सहकार और आजादी चाहते हैं. उनका कहना है कि केंद्र सरकार को विदेशी मामले, रक्षा, आदि राष्ट्रीय मामले देखने चाहिए. अन्य मुद्दे राज्यों पर छोड़ देने चाहिए. इस मामले में वे कांग्रेस के विरोधी भी हैं. इसीलिए भाजपा और कांग्रेस दोनों को छोड़ कर क्षेत्रीय दलों का राष्ट्रीय विकल्प बनाने की बात कर रहे हैं.

ममता बनर्जी ने तत्काल चंद्रशेखर राव को फोन करके समर्थन जताया. राज्यों को ज्यादा आर्थिक और प्रशासनिक आजादी की समर्थक तो वे हैं ही, उनकी चिंता बंगाल में अपना राजनैतिक अस्तित्त्व बचाना फिलहाल ज्यादा बड़ा मुद्दा है. त्रिपुरा में वाम-दुर्ग ढहाने वाली भाजपा अब बंगाल में तृणमूल कांग्रेस की मुख्य प्रतिद्वंद्वी है. वाम दल लगातार हाशिए पर जा रहे हैं. बंगाल के हाल के उप-चुनावों में तृणमूल कांग्रेस के बाद दूसरे नम्बर पर भाजपा ही थी. इसलिए भाजपा विरोधी मोर्चे को हवा देना ममता बनर्जी की राजनैतिक जरूरत है. यूपीए सरकार के विरुद्ध भी उनके तीखे तेवर रहते थे.

तेलुगु देशम पिछले कुछ समय से केंद्र सरकार से नाराज है. उसकी शिकायत है कि आंध्र प्रदेश के साथ सौतेला व्यवहार किया जा रहा है. केंद्रीय बजट में आंध्र को विशेष कुछ नहीं मिला. यह ठीक वैसी ही शिकायत है जैसी तेलुगु देशम समेत कई क्षेत्रीय दल केंद्र की  कांग्रेस सरकारों से किया करते थे. तब कांग्रेस उन्हें मनाने में लगी रहती थी. आज भाजपा मन-मनैव्वल कर रही है.

शिव सेना की भाजपा से नाराजगियां पुरानी और कुछ भिन्न किस्म की हैं. मूल मुद्दा महाराष्ट्र की राजनीति में वर्चस्व का है. पहले शिव सेना गठबंधन पर भारी पड़ती थी. भाजपा के राष्ट्रीय उभार के बाद शिव सेना पर वह भारी पड़ गयी. समान हिंदुत्व-एजेण्डा होने के बावजूद उनके रिश्ते टूट की कगार तक पहुंच जाते हैं. भाजपा उसे मनाती आयी है.

उत्तर प्रदेश में दो लोक सभा उप-चुनावों और राज्य सभा चुनाव के लिए सपा और बसपा का साथ आना चौंकाने वाली घटना है. 25 वर्ष पहले, 1993 में दोनों के चुनावी गठबंधन ने राम मंदिर लहरपर सवार भाजपा को सत्ता पाने से वंचित कर दिया था. लेकिन 1995 में ये रिश्ते मार-पीट तक पहुंच गये थे. तबसे आज तक राजनैतिक दुश्मनी बनी रही. आज दोनों में फिलहाल अल्पकालिक समझौता हुआ है तो इसका कारण भी भाजपा को रोकना है ताकि अपना अस्तित्त्व बना रहे. 2014 के लोक सभा और 2017 के विधान सभा चुनावों  में भाजपा ने सपा-बसपा दोनों का सफाया कर डाला. कांग्रेस पहले से ही हाशिये पर थी. सपा-बसपा दोनों को आज मिल कर भाजपा को रोकने की जरूरत महसूस हो रही है. अजित सिंह के रालोद समेत अन्य छोटे दल भी उनके पीछे खड़े हुए हैं. भाजपा से सबको खतरा दिखा है.

तो, क्या विभिन्न राज्यों से उठ रही भाजपा-विरोधी इन आवाजों के राष्ट्रीय स्तर पर बड़ा मोर्चा बनने की सम्भावना है? फिलहाल ऐसा नहीं लगता. चंद्रशेखर राव कहते जरूर हैं कि वे  क्षेत्रीय दलों का तीसरा मोर्चा बनाएंगे लेकिन राष्ट्रीय राजनैतिक मंच पर स्वयं उनकी कोई पहचान या जगह नहीं है. बंगाल में ममता बनर्जी से लेकर उत्तर प्रदेश में मायावती तक को एक मंच पर जुटा पाने वाली कोई राजनैतिक सख्शियत आज उपलब्ध नहीं है. सभी क्षेत्रीय दल अपने-अपने राज्यों में अपने राजनैतिक हितों की चिंता कर रहे हैं. तेलुगु देशम और शिव सेना का भाजपा-विरोध दवाब की राजनीति से ज्यादा कुछ नहीं है.

जैसे कभी राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस-विरोधी राजनीति की सम्भावना बनी रहती थी, वैसे ही आज भाजपा-विरोधी राजनीति की जगह बन गयी है. इस जगह को अखिल भारतीय पहचान वाली कांग्रेस भर सकती थी लेकिन वह अपने ही को बटोर नहीं पा रही. पूर्वोत्तर की पराजयों से वह और सिकुड़ी है. निकट भविष्य में वह कर्नाटक में अपनी सत्ता बचा ले और राजस्थान, मध्य प्रदेश तथा छतीसगढ़ में कहीं भाजपा से सत्ता छीन ले तो कांग्रेस फिर भाजपा विरोधी दलों को एक करने की दावेदार बन सकती है.

मजेदार बात यह है कि राष्ट्रीय राजनीति में कांग्रेस की जगह भाजपा के ले लेने पर भी राजनीति का चरित्र बिल्कुल नहीं बदला है. दक्षिण और पूर्वोतर भारत के हाल के उदाहरण बताते हैं कि भाजपा ठीक वैसे ही जोड़-तोड़ कर रही है जैसे कांग्रेस किया करती थी. उसके प्रति क्षेत्रीय असंतोष के स्वर भी वैसे ही हैं. राजनैतिक प्रेक्षक इस पर एक मत हैं कि भाजपा का कांग्रेसीकरण हो चुका है.    

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाल में कहा था कि देश को कांग्रेस-मुक्त करने से उन का आशय कांग्रेस-संस्कृति से मुक्त होना है. इसके उलट हम पाते हैं कि भाजपा पूरी तरह कांग्रेस-युक्त हो गयी है.

(प्रभात खबर, 07 मार्च 2018)

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